यादवेन्द्र का आलेख 'दुनिया से ख़त्म (न) हो गया इंसान का वजूद'


दूध नाथ सिंह 



दूधनाथ सिंह की कहानियों में लोकरंग अपने ठेठ रूप में दिखाई पड़ता है। इन कहानियों में वह भारतीय समाज और उसकी स्थितियां हैं जो आज के संदर्भों में पूरी तरह अमानवीय है लेकिन उन स्थितियों से जुड़े हुए लोग अपनी गतिविधियों को उचित ठहराने का अपना एक तर्क गढ़ लेते हैं। बात को कहने का कहानीकार का ढंग बिल्कुल बतरस जैसा है जो कहानीकार और पाठक को एकमेक कर देता है। इस क्रम में यह कथाकार कहानी की दुनिया में व्याप्त फन और फैशन से अलग कहानी को किसी भी संक्रमक 'रीति', 'नीति' से मुक्त करता हुआ भारतीय जनता के यथार्थ को उदघाटित करने का एक दुस्साहसिक प्रयत्न करता है। 'धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे' इसी जनोन्मुख यथार्थ का एक दस्तावेज है।कहानीकार के तौर पर दूधनाथ सिंह के पास अपनी अद्भुत भाषा है जिसे मूल में उनकी अपनी निजी स्मृति है। स्मृति जो अपनी जड़ और जमीन से जुड़ी हुई है। यह स्मृति और कहन का लोकरंगी तरीका ही उन्हें और कहानीकारों से अलग खड़ा कर देता है। इस कहानी में उन्होंने उन चोरों, सेंधकटों और दलालों की भाषा और अभिव्यक्तियों का जिक्र किया है जो रचनाकारों की दृष्टि से अनदेखे रह जाते हैं। छोटे छोटे कोड्स, वाक्यांश, संबोधन, विशेषण सार्थ क्रियाओं की कथा में आवाजाही लेखक के अद्भुत शब्द विवेक को रेखांकित करती है। जरायम की दुनिया पर रची अदभुत कहानी है , ‘धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे’। आज अपराध की जो दुनिया है, उसकी कोई पूर्ण विकसित निजी भाषा नहीं है, कोई कला प्रविधि नहीं है, यहाँ उस्ताद और शागिर्द की कोई परंपरा नहीं है। अपराध ,अपने देश में , कला, विद्या और इष्टसिद्धि से जुड़ा रहा आया है। हमारे देश में ही ‘ ठग ‘ हुआ करते थे जो खुद को देवी भवानी की संतान मानते थे। और शिकार बनाए लोगों की निर्ममता से हत्या कर देते थे। यहाँ अपराध और अभिचार एक दूसरे से जुड़ कर विकसित हुये। अपने यहां आज भी धर्म के साथ इन दोनों का जुड़ाव सहज ही देखा जा सकता है। अपराध और अभिचार के इसी रहस्यमई संसार की झलक इस कहानी में दिखाई पड़ती है। एक बातचीत में दूधनाथ सिंह ने खुद "धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे" को अपनी श्रेष्ठ कहानी बताया था।

आजकल पहली बार पर हम प्रत्येक महीने के पहले रविवार को यादवेन्द्र का कॉलम 'जिन्दगी एक कहानी है' प्रस्तुत कर रहे हैं जिसके अन्तर्गत वे किसी महत्त्वपूर्ण कहानी को आधार बना कर अपनी बेलाग बातें करते हैं। कॉलम के अंतर्गत यह ग्यारहवीं प्रस्तुति है। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं यादवेन्द्र का आलेख ''दुनिया से ख़त्म (न) हो गया इंसान का वजूद'।


'दुनिया से ख़त्म (न) हो गया इंसान का वजूद'


यादवेन्द्र 


मुझे अक्सर दशकों पहले पढ़ी कुछ कहानियाँ फिर फिर आवाज़ दे कर अपने पास बुलाती हैं - उनमें से कुछ ढूंढने पर मेरी अपनी लाइब्रेरी या कहीं और से मिल जाती हैं लेकिन कई ऐसी कहानियाँ हैं जिन्हें सालों साल से फिर से पढ़ने के लिए ढूंढ रहा हूँ लेकिन मिल नहीं पा रही हैं। इंटरनेट ने ढूंढने का काम कुछ हद तक आसान कर दिया है।


इनके बारे में सोचते हुए अनायास ही मुझे दूधनाथ सिंह की लगभग विस्मृत कर दी गई "हंस" में शुरुआती दौर में छपी कहानी "धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे" का स्मरण हो आया।


सिऊ महतो ने धंधे की शुरुआत तो की गाय बैल की चोरी से लेकिन धीरे-धीरे औरतों को खरीदने बेचने में महारत हासिल कर ली और पूरे इलाके में उसका सिक्का चलने लगा। धंधे में उसकी पत्नी और बेटा मरकटवा दोनों भरपूर साथ देते थे। बेटा थोड़ा मंदबुद्धि था इसलिए वह उठाई गई औरतों को घर के आसपास के जंगल के बीच में बनी माँद में छिपा कर रखने के दौरान देखभाल हिफाजत का काम ही कर पाता था। दरअसल उसके लिए सिऊ महतो जो औरत लाया था वह बंस बढ़ाने में सहयोगी साबित नहीं हुई तो सोचा परिवार पर बोझ क्यों बढ़ाना।


घर में चार ही परानी हैं। बलिक 'हैं' नहीं- 'थे'। सिऊ महतो, सिऊ बो, उनका इकलौता लड़का मरकटवा और मरकटवा बो। मरकटवा बो अब नहीं है। हुआ यह कि जब सिऊ बो ने पति को ताना मारा - पाँच बरस हो गए , बांज बंजर लाए हो - तो कथित बहू से छुटकारा पाने का उपक्रम शुरू हुआ। उसको बहला फुसला कर धोखे से फिर से किसी को बेच आया।


सिऊ महतो ने कितने घर बसाए कितने घर उजाड़े, उसको भी पता नहीं। वैसे जब पत्नी ने बताया कि बहू बच्चा नहीं जन सकती, इसको बेच डालो तो उसकी पहली प्रतिक्रिया बहुत नकारात्मक रही, बोला : औरतों का धंधा करना अलग बात है पर अपनी ही बहू बेटी को बेच डालें, यह तो पाप है। 


लेकिन धंधे और पैसे का ख्याल आते ही खूब सुंदर बहू को बेचते देर न लगी - बेटा गिड़गिड़ाता रहा पर सिऊ महतो न पसीजा तो न ही पसीजा।
"बाबू के आपन पइसा वापिस चाहीं, बस।", बेटे ने हताश हो कर खुद को समझा लिया।


अपने धंधे के बारे में सिऊ महतो के विचार एकदम साफ़ थे:


इस धंधे  में दोनों ओर से नफ़ा है। जिसे मेहरारू चाहिए वह तो पुजावन चढ़ाएगा ही, जो बेचेगा उसे भी तो लालच है। यह चोरी नहीं है माल लगाओ ज्यादा माल पैदा करो। यह कारोबार है। खरीद फरोख कारोबार भी है, चोरी चमारी भी है। इसीलिए इसके लिए हुनर चाहिए। आदमी का दिमाग पढ़ना पड़ता है।


पाँच बरिस की कन्या से ले कर चालीस पैंतालीस की अधेड़ औरतें तक होतीं - शर्त सिर्फ एक ही थी कि औरत कुड़क न हो - बच्चा जन सके।सिऊ महतो का कहना है कि वह पुन्न का काम करता है। वह औरतों का उद्धार करता है। तरन तारन करता है। उनकी मदद करता है।


पहली को ठिकाने लगाने के बाद मरकटवा के लिए नई बहू की तलाश शुरू हुई। शर्तें थीं:


"हथगड़ गोड़गर हो। खूब गोरी हो। मुँहखरिया तनी ठीक ठाक हो। नाक नक्स आंखि कान अपनी जगह पर हो। लाज सरम माने। सभका सोझा मुँह न खोले। हर घरी चपर चपर जनि करे। सास ससुर के आदर करे।"






यह तलाश सिऊ महतो को अपने जवार के परम सुरक्षित उदासी जी की मठिया पर ले आई। वहाँ उसे अंधे नगीन दास के कमरे में छुपा कर रखी औरत मिलती है - खूब गोरी चिट्टी युवा सुंदर स्त्री। देख कर सिऊ महतो खुश, पर घर पहुंचते ही विपदा आन पड़ती है, जिसे अपनी बहू बना कर लाए थे वह लगभग पूरे गर्भ से थी। 


नगीना चमार से नगीन दास बने सेवक के कमरे में उदासी जी ने उस स्त्री को सबकी नज़रों से बचा छुपा कर रखा हुआ था पर नगीन दास को असल खेला नहीं मालूम था। वह समझते रहे किसी दुखियारी की मदद कर रहे हैं उदासी जी।धन्न भाग, मेरे धन्न भाग जपते हुए उसे कोसिल्ला माता और अवतरित होने वाले राम जी मान कर सम्मान और प्यार दिया: 


ई कोठरी सोहावनि हो गई।


राम जी क्या कर रहे हैं?, नगीन दास पूछा करते।
खेल रहे हैं, औरत करवट बदलते हुए कहती है। वह पेट पर इधर-उधर हाथ फिराती है।


पैजनियाँ बजायें?, एकाएक नगीन दास कहते हैं।
नगीन दास अँधेरे में टटोल कर खूँटी पर से पुराने घुंघरू उतारते हैं और जमीन पर पटक-पटक कर सुर में बजाने लगते हैं- छम्म् छम्, छम्म्-छम्, छम्छम्छम्, छम्-छम्-छम्।


राम जी के खेल में सुर मिलाते हैं माता, नगीन दास कहते हैं। 


आछा, एक ठो सोहर गाते हैं, नगीन दास अँधेरे में बोलते हैं।


जब उसे बहू बना साथ ले कर घर आए तो वही स्त्री सिऊ महतो के लिए गले की हड्डी बन गई। सच्चाई यह थी कि उस कोसिल्ला के पेट में चचिया ससुर का गर्भ पल रहा था इसलिए घर से निकाल दिया गया था। 


जब उदासी जी की शह पर सिऊ महतो उस स्त्री के खरीदार बन कर आया तो निर्बल और उपकृत नगीन दास नाग की तरह फुंफकार उठे - धर्म की जगह पर कैसा अधर्म। पर उस सुनसान में कौन देखने वाला था, विरोध में आवाज़ उठाते ही मारे गए। 

 
सिऊ महतो जिस बेटे मरकटवा को बेवकूफ़ और किसी काम का नहीं समझता वह औरत को ले कर अपने पिता से उलझ जाता है - हरामजादे औरत को गाई गोरू बनाए हुए हैं। मार डालेंगे साले, चाहे फांसिए चढ़ जाएं....वह पूरी दृढ़ता के साथ तेज आवाज़ में धमकाता है।


तय होता है कि पहले गर्भ गिरा दें उसके बाद औरत अपना लें। स्त्री को जंगल के बीच में बाप बेटा दोनों मिल कर प्रसव कराते हैं। खूब सुंदर बच्चा पैदा होता है पर सिऊ महतो के दिमाग में कुछ और षडयंत्र चल रहा था। 


वह जब बच्चे को गड्ढा खन के उसमें दफनाने की तैयारी कर रहा था तो मरकटवा पूरी तरह से बेकाबू हो जाता है। बाप जिसे समझता था कि उसकी अपनी कोई बुद्धि नहीं है आवाज़ नहीं है वह बोल पड़ता है: 


"अब यह तो बर्दास से बाहर है बाबू.... 
ई तो हम नहीं होने देंगे।"

और सचमुच वैसा नहीं होने देता। बाप जो चाहता था, वह षडयंत्र उसने बिल्कुल सफल नहीं होने दिया - पर उसके लिए उसको अपने जान की कीमत चुकानी पड़ी।


बड़े रोमांचक ढंग से बच्चे के लिए आपस में भिड़ते हुए बारी बारी से बाप बेटे दोनों मारे जाते हैं। इस बेगैरत दुनिया के षडयंत्रों का पर्दाफाश करते हुए बच्चा और माँ दोनों नई सुबह के उजाले में अपनी नई यात्रा पर निकल पड़ते हैं। 


कहानी जिस तरह से विस्तार लेती है कोई पाठक मरकटवा की इस तरह की भूमिका की कल्पना नहीं करता पर मनुष्य अंततः सारे दुनियावी पूर्वानुमानों को ध्वस्त करते हुए नई इबारत लिखता आया है, आगे भी ऐसा ही करता रहेगा।


दूधनाथ सिंह की यह कहानी पढ़ते हुए असग़र वेलोरी के इस शेर को सही मान लेने को मेरा मन बिल्कुल नहीं मानता :


दुनिया से ख़त्म हो गया इंसान का वजूद
रहना पड़ा है हम को दरिंदों के दरमियाँ। 



यादवेन्द्र 




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