विमल कुमार से बातचीत

 

विमल कुमार 



हर रचनाकार यह चाहता है कि उसको सम्मान और प्रतिष्ठा मिले। इस क्रम में रचनाकार के अवदान को रेखांकित करने के लिए पुरस्कार देने की परम्परा शुरू की गई। लेकिन पुरस्कारों का तो अपना अलग ही गुणा गणित होता है। अब तो रचनाकार स्वयं ही पुरस्कार पाने के लिए तमाम तरह के कवायदों में जुट जाते हैं। वे भूल जाते हैं कि रचनाकार जब आम जनता के दुःख दर्द और समय के विडंबनाओं की बात करता है तो वस्तुत वह खुद ही विपक्ष की भूमिका में खड़ा हो जाता है। हमारा हिन्दी समाज भी प्रायः उन्हीं लेखकों के लेखन पर गौर करता है जो किसी न किसी पुरस्कार से सम्मानित होते हैं। यह अलग बात है कि बात तो रचना केंद्रित ही होनी चाहिए। कुछ रचनाकार अपवाद भी हैं।लेकिन ऐसे बहुत कम हैं। शायद ही कोई पुरस्कार हो जो अब निर्विवाद हो। रचनाकार भी पुरस्कारों का लोभ छोड़ने का साहस दिखा नहीं पाते। हाल ही में बिहार सरकार के राजभाषा विभाग द्वारा कवि विमल कुमार को चार लाख रुपए का दिनकर सम्मान देने की घोषणा की। लेकिन विमल कुमार ने विनम्रतापूर्वक यह सम्मान लेने से मना कर दिया। हमारे यहां ऐसा साहस बिरले रचनाकार ही दिखा पाते हैं। अपने इस कदम से खुद विमल कुमार कुछ रचनाकारों के निशाने पर आ गए। बहरहाल हमने इसी मुद्दे पर विमल कुमार से एक बातचीत की है। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं वरिष्ठ कवि और पत्रकार विमल कुमार से यह बातचीत।



वरिष्ठ कवि और पत्रकार विमल कुमार से बातचीत


पुरस्कार की जगह रचना पर बात होनी चाहिए।



प्रश्न — विमल जी, आपसे बहुत दिनों से साहित्य और आपके लेखन पर यह बातचीत प्रस्तावित थी लेकिन आप व्यस्त रहने के कारण जवाब नहीं दे पाए। इस बीच आपने बिहार सरकार का 4 लाख रुपए का  राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर पुरस्कार लौटा दिया। यह देखते हुए बातचीत इसी मुद्दे से शुरू करते हैं। यह हिंदी सहित्य की संभवतः पहली घटना है जब किसी ने 4 लाख रुपए का पुरस्कार लौटाया है पर कुछ लोगों ने आपकी आलोचना भी की है। आपके खिलाफ भी लिखा है, आपको ट्रोल भी किया है और आप पर आरोप भी लगे हैं। इस पर आपको क्या कहना है?


उत्तर – आपने सही कहा कि हिंदी साहित्य की दुनिया में अब तक किसी ने  इतनी बड़ी राशि का पुरस्कार का नहीं लौटाया था। पुरस्कार लेना या न लेना एक सामान्य घटना होनी चाहिए लेकिन दुर्भाग्य से हमारे समाज में विशेषकर साहित्य समाज में पुरस्कारों को ले कर एक तरह की अतिरिक्त सजगता और लोलुपता दिखाई देती है। लेखक समाज पुरस्कार को लेकर सचेत और आत्ममुग्ध अधिक है। वह इसे अपने जीवन की उपलब्धि मान बैठता है।

वैसे, यह कोई पहली घटना नहीं है जब मैंने  कोई पुरस्कार लौटाया हो। इससे पहले भी दो-तीन ऐसी घटनाएं हो चुकी हैं। दरअसल हमारे समाज में पुरस्कार को ले कर एक अजीब तरह की लोलुपता काम करती है। खासकर हिंदी के लेखक किसी सरकार या संस्था द्वारा मिले पुरस्कारों को  ज्यादा तरजीह  देते हैं लेकिन मेरा मानना है कि अगर आपको आपके पाठक  आपके मित्रगण आपको प्रेम और सम्मान देते हैं, आपकी रचना को पढ़ते हैं, तो यही सबसे बड़ा सम्मान है। हिंदी में इसका रिवाज नहीं है। बल्कि अगर कोई बड़ा पुरस्कार किसी लेखक को मिल जाए तो हम यह मान लेते हैं कि उसकी रचना बहुत महत्वपूर्ण है लेकिन अगर किसी अच्छे  लेखक को  कोई महत्वपूर्ण पुरस्कार नहीं मिलता है तो हम उसे महत्वपूर्ण लेखक नहीं मानते। हिंदी में लेखक का कद उसके लिखे से नहीं बल्कि उसे प्राप्त पुरस्कार से तय होता है। फलां को ज्ञानपीठ मिला, फलां को साहित्य अकादमी मिला और जिसे मिला उसे हम बड़ा लेखक सहज रूप से मान लेते हैं। लेकिन हमारे समाज में पुरस्कार की चयन प्रक्रिया पूरी तरह पारदर्शी नहीं है। अधिकतर पुरस्कार संदिग्ध हो चुके हैं। पुरस्कारों का सत्ता विमर्श भी है। उनको ले कर भ्रांतियां और मुगालते भी अधिक हैं। अब पुरस्कार हिंदी साहित्य के सत्ता  विमर्श का  खेल बन चुके हैं। यही कारण है कि मुझे पहले भी पुरस्कार लौटाने पड़े  हैं।

ताजा घटना के पीछे मामला यह है कि मुझे 11 अगस्त 2025 को पटना में राजभाषा विभाग से फोन आया कि 23 अगस्त 2025 को मुख्यमंत्री नीतीश कुमार राजभाषा विभाग पुरस्कार प्रदान करेंगे और आपका चयन दिनकर पुरस्कार के लिए  हुआ है। आप इस समारोह में भाग लेने के लिए कब और कैसे आएंगे? अपनी स्वीकृति भेजने के साथ-साथ अपना फोटो और बायोडाटा भी भेज दें।

मैंने राजभाषा विभाग के अधिकारी को बताया मुझे अभी तो आपके विभाग से कोई लिखित सूचना मिली ही नहीं है तो मैं अपनी स्वीकृति कैसे भेज दूं। तो उन्होंने कहा कि 8 अगस्त 2025 को एक पत्र आपके घर के पते पर भेजा गया है। तब मैंने कहा कि 8 अगस्त को तो मै आरा में था, पहले पत्नी से पूछता हूँ कि बिहार सरकार से कोई ऐसा पत्र आज तक घर आया या नहीं। फिर मैंने पटना से अपनी पत्नी को फोन कर  पूछा क्या कोई ऐसा पत्र आया है तो उन्होंने कहा - नहीं ऐसा कोई पत्र उन्हें नहीं मिला है।

इसके बाद मैंने  राजभाषा विभाग के अधिकारी से कहा कि आप पहले वह पत्र मुझे व्हाट्सएप कर दें क्योंकि मेरे घर पर ऐसा कोई पत्र मिला ही नहीं। उक्त अधिकारी ने वह पत्र व्हाट्सएप कर दिया जिसमें पुरस्कार की सूचना थी। इसके आधे घंटे के भीतर मैंने एक चिट्ठी बिहार के मुख्यमंत्री को लिखी जिसमे पुरस्कार न ले पाने के तीन कारण बताए। पहले तो यह कि हम लेखकों और पत्रकारों को सत्ता से दूर रहना चाहिए और सरकारी पुरस्कार नहीं लेना चाहिए क्योंकि हमारा काम शाश्वत रूप से विपक्ष में रहना है। उसे सत्ता के साथ नहीं जाना है क्योंकि लेखक और पत्रकार जनता का प्रवक्ता होते हैं।

मेरा दूसरा कारण यह भी था कि मैं एक पत्रकार के रूप में नीतीश कुमार की पार्टी जनता दल यू  को दिल्ली में वर्षों से कवर करता रहा और बिहार सरकार को भी कवर करता रहा। ऐसे में यह नैतिक रूप से उचित नहीं होगा कि मैं बिहार के मुख्यमंत्री के हाथों से यह पुरस्कार लूं।

तीसरा कारण यह था कि इस समय देश के हालात बहुत खराब हैं खासकर बिहार के भी क्योंकि आपको पता ही होगा कि बिहार में चुनाव को लेकर लाखों लोगों के नाम मतदाता सूची से गायब कर दिए गए हैं। इस मुद्दे पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने आज तक एक भी शब्द नहीं बोला है। इन दिनों नीतीश कुमार की राजनीति भी काफी बदल गई है। उन्होंने सांप्रदायिक फासिस्ट ताकतों के सामने घुटने टेक दिए हैं। उनकी अंतरात्मा की आवाज़ अब कहाँ चली गयी। ऐसे में मेरे जैसे व्यक्ति के लिए यह पुरस्कार लेना उचित नहीं होगा।

मैंने उनके नाम लिखा पत्र सोशल मीडिया पर भी लगा दिया क्योंकि मुझे मालूम था कि यह खबर मीडिया में नहीं आएगी या बहुत कम आएगी। कम से कम सोशल मीडिया के जरिए लोगों को यह पता चल जाना चाहिए।  मैंने कोई प्रचार पाने के लिए पुरस्कार नहीं लौटाया था और न ही इस पुरस्कार को पाने के लिए आवेदन किया था या किसी से अनुशंसा करवाया था। लेकिन सोशल मीडिया पर कुछ भाजपाई और सांप्रदायिक लोगों ने मेरे खिलाफ दुष्प्रचार करना शुरू कर दिया। गलत बयानबाजी की और एक तरह मेरे खिलाफ अभियान ही छोड़ दिया कि मैंने इस पुरस्कार के लिए कोई आवेदन किया था। नाम अनुशंसित करवाया था। यह भी कहा गया कि ये पुरस्कार आवेदन से ही मिलते हैं। मैनें उनसे पूछा कि क्या आपको लगता है कि 94 वर्ष के विश्वनाथ त्रिपाठी या 75 वर्ष के डॉक्टर आनंद कुमार ने भी पुरस्कार पाने के लिए कोई आवेदन किया था लेकिन मेरा विरोध करने वाले लोग केवल मेरा ही जिक्र कर रहे थे कि मैंने आवेदन किया एक युवा लेखक ने तो मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को पत्र लिख कर इस बात की जांच कराने की मांग की कि विमल कुमार को यह पुरस्कार कैसे मिला जब उन्होंने आवेदन नहीं किया था।

जब मैं लौट कर दिल्ली आया तो पटना से एक सज्जन का फोन भी आया और उन्होंने मुझे बधाई देते हुए कहा कि उन्हें अफसोस है कि उन्हें दिनकर पुरस्कार नहीं मिला जबकि पुरस्कार के लिए उन्होंने आवेदन किया था और दो लोगों से अपने नाम की अनुशंसा भी करवाई थी लेकिन  उन्हें वह पुरस्कार नहीं मिला। 

फिर मैंने उनसे पूछा कि क्या पुरस्कार के लिए आवेदन भी किया जाता है।

उन्होंने बताया कि दो वर्ष पूर्व सरकार ने अखबारों में विज्ञापन भी निकाला था कि अगर कोई व्यक्ति खुद पुरस्कार चाहता है तो वह आवेदन भी कर सकता है लेकिन दो लोगों से उसे अपने नाम की  अनुशंसा भी करवानी होगी।

मुझे यह जानकर बड़ा  आश्चर्य भी हुआ कि लोग पुरस्कार पाने के लिए आवेदन भी करते हैं। दरअसल सरकार ने पद्म अवार्ड के लिए ऑनलाइन आवेदन करने का वर्षों पहले प्रावधान कर दिया है। लेकिन बिना आवेदन किये भी सरकार पद्म अवार्ड देती है। इस साल से साहित्य अकादमी ने भी यह नियम कर दिया है और उसका विज्ञापन भी आ चुका है कि अगर कोई व्यक्ति चाहे तो अपनी किताब खुद भेज सकता है और आवेदन कर सकता है। लेकिन सबके लिए  आवेदन अनिवार्य नहीं है। सोशल मीडिया पर लोगों  को यह सारे नियम नहीं पता इसलिए लोगों ने गलत बयानबाजी की। मेरे मित्र संजय कुंदन ने राजभाषा विभाग की नियमावली को भी लगा दिया जिसमें लिखा गया था कि यह पुरस्कार अनुशंसा के आधार पर मिलते हैं।बहरहाल, इस मामले में ज्यादा कुछ नहीं कहना चाहता हूं। 

बस पुरस्कार लौटाने के पीछे मेरा यह मकसद यह था है कि कम से कम सरकार को और समाज को यह संदेश दिया जाना जरूरी है कि हिंदी के सभी लेखक और पत्रकार बिके हुए नहीं हैं, वे पुरस्कार लोलुप नहीं हैं। उनकी रीढ़ की हड्डी झुकी नहीं है। मैं जानता हूं कि साहित्य में अभी भी कई लोग हैं जो पुरस्कारों से दूर रहते हैं और सरकार के हाथों उसे लेना पसंद नहीं करते हैं। मैंने एक बार हिंदी के दिवंगत कवि नीलाभ अश्क से कहा था कि जब अरुंधति राय ने साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटा दिया है तो आप उनकी किताब के अनुवाद के लिए साहित्य अकादमी के अनुवाद पुरस्करा क्यों ले रहे हैं। तब उन्होंने  मेरे इस सुझाव को माना और फौरन उस पुरस्कार को लौटा दिया। मैंने तत्काल UNI से खबर जारी की और आउटलुक में उनका एक इंटरव्यू कर छपवा भी दिया।

असल में 32 वर्ष पहले भी मैंने अपने जीवन  पहली बार एक पुरस्कार ठुकराया था। उसके आयोजक उड़िया के कवि और आई ए एस अधिकारी राजेन्द्र पांडा थे। दरअसल उनकी संस्था यह पुरस्कार देती थी जो संस्कृति मंत्रालय द्वारा प्रायोजित था। वह 21 भारतीय भाषाओं के युवा कवियों को मिलने वाला पहला “उदय भारती“ पुरस्कार था। हिंदी में उसके निर्णायक विश्वनाथ प्रसाद तिवारी थे।

आयोजक की ओर से जब मेरे पास पत्र आया उसमें यह जिक्र नहीं था कि पुरस्कार वहां के राज्यपाल देंगे। लेकिन जब मैं भुवनेश्वर गया तो पता चला कि राजपाल बी सत्य नारायण रेड्डी  यह पुरस्कार देंगे। वे समाजवादी नेता रह चुके हैं लेकिन जब आयोजकों ने पुरस्कार राशि में से खाने की राशि और ट्रेन के सुपरफास्ट का चार्ज भी काट लिया। तब हम कवियों ने इसका विरोध किया और कहा कि यह सरासर अनुचित है कि पुरस्कार राशि में से खाने की राशि काट ली जाए। आयोजकों का कहना था कि संस्कृति मंत्रालय से केवल पुरस्कार की  राशि मिलती है भोजन आदि के लिए कोई राशि नहीं मिलती है, इसलिए वे लोग भोजन की राशि पुरस्कार में से काट लेते हैं क्योंकि उनकी संस्था के पास संसाधन नहीं हैं। तब हम 21 कवियों ने इस घटना के विरोध में राज्यपाल के नाम एक पत्र लिखा और उसमें साइन कर आयोजकों को सौंप दिया। मैंने कहा कि मुझे ऐसा पुरस्कर नहीं लेना है। अन्य कवियाँ में भी आक्रोश था पर मेरे सिवाय किसी ने पुरस्कार नहीं लौटाया। उन्होंने जा कर राज्यपाल के हाथ से पुरस्कार लिया लेकिन मैंने वह पुरस्कार नहीं लिया। मैं समारोह में गया ही नहीं। अपने कमरे में पड़ा रहा। लौटते समय मैं पीटीआई को इसकी जानकारी दी तो उसने एक खबर चलाई जो दिल्ली के अंग्रेजी अखबारों में भी छपी। लौट कर जब दिल्ली आया तो एक दिन मैंने प्रख्यात समाजवादी नेता  सुरेंद्र  मोहन जी को मेरी तरफ आते देखा जो मेरे अपार्टमेंट में रहते थे। उनके साथ बी सत्यनारायण रेड्डी थे। सुरेंद्र जी ने मेरा उनसे परिचय भी कराया। लेकिन मैंने सुरेंद्र मोहन जी का ख्याल रख कर रेड्डी साहब से उदय भारती पुरस्कार विवाद के बारे कुछ नहीं बोला लेकिन सुरेंद्र मोहन जी को अखबारों के माध्यम से मेरे पुरस्कार लौटाने का पता चल चुका था।

कुछ साल के बाद एक दिन बी सत्य नारायण रेड्डी संसद के गलियारे में मिल गए वहां तो कोई उनका सुरक्षा गार्ड नहीं था और तब तक वह राजपाल पद से हट चुके थे।

मैंने उनको उस पुरस्कार विवाद  घटना की  सारी जानकारी दी कि कैसे-कैसे पुरस्कार सरकार द्वारा दिए जाते हैं। वे चुपचाप सुनते रहे। कुछ नहीं बोले। इससे पहले सीताकांत महापात्र एक बार Russian centre में नजर आए तो सारी बातें उंनसे कहीं क्योंकि वे तब संस्कृति सचिव थे। वे भी कुछ नहीं बोले। विश्वनाथ प्रसाद तिवारी मुझसे नाराज हो गए। उन्होंने कहा कि मैंने आपका नाम प्रस्तावित किया और आपने विवाद खड़ा कर अपमानित कर दिया जबकि उन्हें खुद इस मुद्दे को उठाना चाहिए था क्योंकि वे निर्णायक थे। उन्हें मेरा साथ देना चाहिए था पर उन्होंने आयोजकों का समर्थन किया। दिल्ली आने पर इब्बार रब्बी को जब पता चला तो उन्होंने इस पूरे प्रकरण की रिपोर्ट लिखी और कहा कि वह नवभारत टाइम्स में प्रकाशित करेंगे। तब फीचर पेज प्रयाग शुक्ल देखते थे उन्होंने उसे रिपोर्ट को नहीं प्रकाशित किया। पता चला कि वे अगले वर्ष के लिए उसे पुरस्कार के निर्णायक थे। शायद यह कारण रहा हो कि उन्होंने वह  रिपोर्ट नहीं प्रकाशित की। अंत में वह रिपोर्ट सब्यसाची की पत्रिका उत्तरार्ध में छपी। यह घटना करीब 30-32 वर्ष पुरानी है।

इसके बाद जब साहब सिंह वर्मा दिल्ली के मुख्यमंत्री थे तब कृष्णा सोबती ने एक लाख रुपए का शलाका सम्मान लौटाया था। इससे पहले रामविलास जी ने शलाका सम्मान की राशि लौटा दी थी जबकि सम्मान लिया था। लेकिन कृष्णा जी ने कुछ भी लिया ही नहीं। इन दोनों लेखकों के लिए लोगों के मन में आज भी आदर है। हिंदी अकादमी ने कृष्ण बलदेव वैद्य को 'शलाका सम्मान' देने की घोषणा की तो उस समय शीला दीक्षित की सरकार थी और कांग्रेस के विधायक पुरुषोत्तम कौशिक ने शीला जी  को पत्र लिख कर शिकायत की कि वैद के लेखन में अश्लीलता है इसलिए उन्हें यह पुरस्कार नहीं दिया जाना चाहिए। क्योंकि 60 के दशक में उनके लिखे गए एक उपन्यास में अश्लील प्रसंग हैं। कहा जाता है कि इस घटना के पीछे हिंदी की एक आलोचक का हाथ था। वह खुद शलाका सम्मान चाहती थी। उनके इस पत्र को देखते हुए शीला दीक्षित सरकार ने वैद साहब को पुरस्कार देने का निर्णय स्थगित कर दिया जबकि वह पहले घोषित हो चुका था। शीला जी अकादमी की पदेन अध्यक्ष थीं। हिंदी के लेखकों का कहना था कि वैद साहब को पुरस्कार मिलने की घोषणा हो चुकी है तो पुरस्कार को क्यों नहीं दिया जा रहा है। इस घटना के विरोध में पुरुषोत्तम अग्रवाल, प्रियदर्शन तथा मैंने हिंदी अकादमी को अपने-अपने सम्मान लौटा दिए। अगले शलाका  सम्मान के लिए केदार नाथ सिंह की घोषणा हो चुकी थी तो हम लोगों ने उनसे भी अनुरोध किया कि वह भी अपना यह सम्मान लौटा दे। काफी मान मनौव्वल के बाद केदार जी ने सम्मान को लौटाने की घोषणा की। इस तरह देखा जाए तो हिंदी में पुरस्कार को ले कर स्थिति बहुत ही गड़बड़ रही है और चूंकि हमारे लेखक पुरस्कारो को लेकर दुविधाग्रस्त रहते हैं, कमजोर हैं, वे विरोध में कोई निर्णय नहीं लेते। इसलिए समाज में संदेश यह जाता है कि हिंदी के लेखक पत्रकार पुरस्कारों के लिए दौड़ जाते हैं। इनमें वामपंथी लोग भी शामिल हैं। आखिर ज्ञानरंजन जी को मुलायम सिंह यादव और वीरेंद्र यादव को अखिलेश यादव तथा राजेंद्र यादव को लालू यादव के हाथों पुरस्कार  लेने की क्या जरूरत थी? हालांकि मैँ यह भी कहता हूं किसी के पुरस्कार लेने या न लेने से उसके लेखक के मूल्यांकन पर फर्क नहीं पड़ना चाहिये। आखिर निर्मल जी, भारती जी का लेखन इससे कम महत्वपूर्ण नहीं हो जाता कि उन्होंने केडिया सम्मान लिया। पर लेखक के व्यक्तित्व के मूल्यांकन पर फर्क पड़ता है। लोग उम्मीद करते हैं कि लेखक को आचरण सही करना चाहिए।उसमें पाखंड कम हो।

जब बथानी टोला कांड के विरोध में जन संस्कृति मंच के लोगों ने राजेन्द्र जी से काफी अनुरोध किया कि वह लालू के हाथों बिहार सरकार का लखटकिया “शिवपूजन सहाय पुरस्कार” न लें तो भी राजेन्द्र जी ने लिया। राजकिशोर और मणिमाला को भी पुरस्कार मिला। ऐसे में हमारे वामपन्थी लेखक किस मुंह से कहेंगे कि निर्मल वर्मा और धर्मवीर भारती को केडिया पुरस्कर  नहीं लेना चाहिए था। जब केडिया सम्मान की घोषणा की गई थी तो यह  सम्मान  मजदूर नेता शंकर विवाह योगी की हत्या के आरोप में फंसे व्यक्ति के नाम पर थी। लेकिन उन दोनों ने उसे नहीं लौटाया।

बिहार सरकार के राजभाषा विभाग के पुरस्कार  भी सभी लेखक लेते रहे हैं। लालू और नीतीश के काल में भी। किसी ने कभी इस पुरस्कार को ठुकराया नहीं। इस साल भी विश्वनाथ त्रिपाठी और आनंद कुमार से मुझे उम्मीद थी कि वे नहीं लेंगे पर उन्होंने लिया।

महेंद्र मधुकर, शिवनारायण, हृषिकेश सुलभ ने लिया तो आश्चर्य नहीं हुआ पर त्रिपाठी जी की छवि एक नैतिक, सरल, धर्मनिरपेक्ष और ईमानदार लेखक की रही है। वह नहीं लेते तो मुझे अधिक खुशी होती पर हिंदी में कम लोग कृष्णा सोबती  और रोमिला थापर जैसे लोग हैं जो पद्म पुरस्कार भी नहीं लेते।





प्रश्न - आपने कभी मंगला प्रसाद पारितोषिक पुरस्कार के बारे में लिखा था कि प्रेमचन्द को नहीं मिला था। जबकि अन्य लोगों को मिला यानी पुरस्कार शुरू से ही संदिग्ध थे।


उत्तर  - आपने अच्छा याद दिलाया। आजादी से पहले हिंदी की दुनिया में मंगला प्रसाद पारितोषिक सम्मान सबसे अधिक चर्चित और प्रतिष्ठित पुरस्कार था। वह उस ज़माने का ज्ञानपीठ पुरस्कार था लेकिन यह पुरस्कार मुंशी प्रेमचंद, निराला, पंत और राहुल सांकृत्यायन को भी नहीं मिला था। पहला पुरस्कार पद्म सिंह शर्मा को 'बिहारी सतसई' पर मिला था। कुछ साल पहले फेसबुक पर किसी ने मुझको यह चुनौती दी कि पुरस्कार प्रेमचंद को मिला था तब  मैंने पूरी सूची लगा दी थी जो 44 लेखको को मिली थी। इसमें हरिऔध को 'प्रिय प्रवास' पर, मैथिलीशरण गुप्त को 'साकेत' पर, जयशंकर प्रसाद को 'कामायनी' पर, रामचंद्र शुक्ल को 'चिंतामणि' पर, महादेवी वर्मा को 'नीरजा' पर हजारी प्रसाद द्विवेदी को 'कबीर' पर यह पुरस्कार मिला था।

आजादी के बाद जैनेंद्र कुमार और यशपाल तथा नरेश मेहता को भी यह सम्मान मिला लेकिन 44 लोगों में केवल 3 महिलाओं को ही पुरस्कार मिला। महादेवी को छोड़ दें तो दो अन्य महिला चंद्रावती लखन पाल और चंद्रावती राधारमण को यह सम्मान मिला जबकि उस जमाने में कई महिलाएं बेहतर लिख रहीं थी जिनमें बंग महिला, रामेश्वरी नेहरू, उमा नेहरू, ओमवती देवी, उषा देवी मित्रा, कमला देवी चौधरी, विद्यावती कोकिल आदि शामिल हैं। यह पुरस्कार कमलापति त्रिपाठी को भी मिला था। वासुदेव शरण  अग्रवाल और परशुराम चतुर्वेदी को भी मिला।

संपूर्णांनन्द और वासुदेव शरण अग्रवाल को दो दो बार मिला। यह साहित्य अकेडमी की तरह किताबों पर मिलता था। सेकसरिया सम्मान भी दूसरा महत्वपूर्ण सम्मान था। महादेवी और सुभद्रा कुमारी चौहान को मिला था। गांधी जी ने महादेवी को इंदौर में दिया था। उसकी पूरी सूची लगानी चाहिए।





प्रश्न - आपने शुक्रवार पत्रिका में पद्म पुरस्कारों पर लिखा था। उसमें भी हिंदी लेखकों के साथ भेदभाव हुआ।


उत्तर - आपको पता है पद्मभूषण निराला को नहीं मिला। राहुल जी और शिवपूजन सहाय से पहले हजारी प्रसाद द्विवेदी, महादेवी और दिनकर को मिला था।

माखन लाल चतुर्वेदी को भी बाद में मिला जबकि हजारी प्रसाद द्विवेदी को पहले।

राजा राधिकरामण प्रसाद सिंह को भी बाद में मिला जबकि बेनीपुरी को पद्म श्री भी नहीं मिला। 

पंत ने तो हिंदी के सवाल पर पद्म भूषण लौटा दिया था। रेणु जी ने आपातकाल के विरोध में पद्म श्री को पाप श्री कह कर लौटा दिया था।रामविलास शर्मा, नामवर सिंह को नहीं मिला जबकि कमलेश्वर को मिला। निर्मल जी को भाजपा सरकार में मिला। मनमोहन सिंह के समय भीष्म साहनी को मिला।

साहित्य अकादमी निराला, महादेवी, रेणु, राजेन्द्र यादव, दूधनाथ सिंह को नहीं मिला। द्विवेदी जी को नामवर जी के बाद मिला। यशपाल को 'झूठा सच' पर नहीं मिला क्योंकि उसमें नेहरू जी का विरोध था। संयोजक हजारी प्रसाद द्विवेदी थे। विरोध दिनकर ने किया था।

मंन्नू भंडारी को फेलो नहीं बनाया गया जबकि विश्वनाथ प्रसाद तिवारी अध्यक्ष पद से हटते ही फेलो बन गए। विनोद कुमार शुक्ल से पहले।

मोदी के कार्यकाल में असिहष्णुता के विरोध में 46 लोगों ने अकादमी अवार्ड लौटाए। दुनिया के किसी देश के इतिहास में ऐसी घटना नहीं हुई। नंद भारद्वाज और काशी नाथ सिंह ने लौटाने का एलान कर नहीं लौटाया। केदार जी, अरुण कमल ने भी नहीं लौटाया। नामवर जी ने तो मुझसे  कहा कि सुर्खियों में रहने के लिए लोगों ने अवार्ड लौटाए। मैंने खबर भी चलाई थी जो अखबारों में छपी। PMO ने भी उसे मंगवाया था।

अरुण जेटली ने मेरे सामने प्रेस कांफ्रेंस में पुरस्कार वापसी गैंग कहा था।





प्रश्न - हमने सुना है कि आपको कभी एक और पुरस्कार देने की घोषणा हुई थी पर वह आपको कभी मिला ही नहीं।

उत्तर - आपने अच्छा याद दिलाया। इस वर्ष 28 अगस्त से लहर पत्रिका के संपादक प्रकाश जैन की जन्मशती शुरू हुई। वे और उनकी पत्नी मनमोहिनी ने लहर पत्रिका अजमेर से 60 के दशक में निकाली थी। वह चर्चित लघु पत्रिका थी। उसका एक कविता अंक 1984 के आस पास आया था। मेरी एक कविता अनिल जनविजय के सौजन्य से छपी थी। उनके निधन के बाद प्रकाश जैन स्मृति पुरस्कार शुरू हुआ।निर्णायक असद ज़ैदी विष्णु नागर और विनोद भारद्वाज थे जहाँ तक मुझे याद है।

पहला अवार्ड आलोक धन्वा को मिला दूसरा मुझे मिला। बाद में किसी को नहीं। न पुरस्कर राशि मिली न प्रतीक चिन्ह और न ही प्रशस्ति पत्र। उसके संयोजक अनिल जनविजय थे।निर्णायक भी चुप रहे।

मैंने उनसे कई बार कहा कि कुछ तो दे दो स्मृति के रूप में। वे वादा करते रहे पर कुछ आज तक नहीं दिया। फिर मैंने भी कहना बन्द कर दिया।क्या लौटाता जब कुछ मिला ही नहीं।





प्रश्न - भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार भी लौटाने की आपने बात कही थी?


उत्तर - हाँ, कही थी। जनसत्ता में छपा भी था।हुआ यह कि जब विष्णु खरे ने एक धमाकेदार लेख भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार से सम्मानित 30 कवियों की कविताओं के संचयन की पुस्तक में लिखा। उसमें कई कवियाँ को खारिज किया।जिसकी तीखी प्रतिक्रिया हुई। जितेंद्र श्रीवास्तव बद्री नारायन और बोधिसत्व ने मुझसे कहा कि हमें इसके विरोध में यह अवार्ड लौटाना चाहिए।मैँ भी सहमत था। जनसत्ता ने मुझसे पूछा तो बता दिया। छप भी गया। लेकिन बद्री, जितेंद्र और बोधिसत्व ने अवार्ड नहीं लौटाया। मैंने अन्विता अब्बी को पत्र लिख कर 500 रुपए का चेक भी जेनयू के पते पर भेज दिया। उन्होंने पत्र लिया ही नहीं। उसे लौटती डाक से भेज दिया। डाक विभाग से फोन आया तो मैंने उसे लेने से मना कर दिया। तब डाक विभाग ने डेड लेटर विभाग को भेज दिया जहां Unclaimed लेटर पड़े रहते हैं।

मैंने अब्बी जी से पूरी बात बता दी। पता नहीं अब क्या स्टेटस माना जाए। पर मैँ अपनी ओर से नहीं लिखता कि ये अवार्ड मिला।

विष्णु खरे भी मुझसे नाराज हो गए। बातचीत बन्द हो गयी 6 माह तक के लिए।





प्रश्न : अपने कभी जनसत्ता में लिखा था कि हिंदी में गली गली में पुरस्कार खुल गए हैं।

उत्तरहाँ, लिखा था तब 50 से अधिक प्रकार थे छोटे बड़े। आज 70 से कम नहीं होंगे। अब हिंदवी और नई धारा ने भी पुरस्कार शुरू किए हैं। कारपोरेट लिट् फेस्ट में लखटकिया अवार्ड दे रहे हैं। युवा पीढ़ी उसकी तरफ़ दौड़ रही है।

हंस अब 11 अवार्ड देने लगा। स्पंदन पुरस्कार थोक भाव से दिया जा रहा।

कुल एक लाख का पुरस्कार हिंदवी दे रहा इतना ही नई धारा।

हमारे आठवें दशक के कवियों ने भी उपराष्ट्रपति के हाथों पुरस्कार लिया। जिस गोपीचंद नारंग का विरोध करते रहे उसके हाथों पुरस्कार लिया।

वामपंथियों ने भाजपा के त्रिलोकी नाथ चतुर्वेदी के हाथ से लिया। योगी आदित्य नाथ से कई लोगों ने लिया।

महाराष्ट्र हिंदी अकादमी बिना पैसे के दसियों अवार्ड देती है। लोग लेते हैं।

कुछ लेखक और लेखिकाएँ कई कई पुरस्कार समिति में निर्णायक हैं।

जो लोग कायदे से लेखक बने नहीं, वे भी निर्णायक बने हैं। कुछ लेखकों को 50 से 70 अवार्ड मिल चुके।

कुछ अपने मित्र मंडली को अवार्ड देते दिलवाते रहते हैं। पर्दे के पीछे से। ये हमारे प्रगतिशील लोग हैं।

आप पूरा परिदृश्य देखिये। हाल में शमशेर सम्मान 8 लोगों को मिला पर एक भी महिला नहीं। रोज कोई न कोई पुरस्करा घोषित हो रहा है।

बेहतर होता रचना पर बात की जाती। लेखक का मूल्यांकन किया जाता। उसके साथ संवाद किया जाता। 



प्रश्न - क्या लैंगिक और क्षेत्रीय भेदभाव है।

उत्तर-  साहित्य अकादमी पुरस्कार  भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार, शमशेर सम्मान, पहल सम्मान, श्रीकांत वर्मा पुरस्कार आदि की लिस्ट देखिये। लैंगिक भेदभाव मिलेगा।

महादेवी जी को साहित्य अकादमी नहीं मिला।

80 में कृष्णा सोबती। उसके बीसेक साल बाद अलका सरावगी। फिर लंबा गैप। जब नारंग का जमाना आया तब मृदुला जी, चित्रा मुद्गल, नासिरा जी को मिला। नामवर जी, अशोक जी का जब प्रभाव था तब इन महिलाओं को नहीं मिला।

सुधा अरोड़ा, मैत्रेयी जी को मिलना चाहिए।कात्यायनी, सविता सिंह, नीलेश, मनीषा कुलश्रेष्ठ, मधु कांकरिया को मिलना चाहिए।

पुरस्कारों की हरि अन्त कथा है। हमें लेखकों के रचना कर्म पर बात करनी चाहिए उससे संवाद करना चाहिए। पुरस्कार केंद्रित चर्चा नहीं होना चाहिए।





माननीय नीतीश कुमार जी,

मुख्यमंत्री, बिहार


द्वारा 

परवेज आलम

निदेशक

राजभाषा विभाग

पटना


विषय : राजभाषा विभाग द्वारा दिनकर पुरस्कार के सम्बंध में।



महोदय,


मुझे बेहद प्रसन्नता है कि आपके राजभाषा विभाग ने दिनकर पुरस्कार के  लिए मेरे नाम का चयन किया है और इससे भी अधिक प्रसन्नता की बात है कि हिंदी के स्वनामधन्य आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी को शिखर सम्मान के लिए चुना गया है।


1. मैँ वर्षों तक एक पत्रकार के रूप में एक समाचार एजेंसी की ओर से  दिल्ली से  बिहार सरकार  और पार्टी को कवर करता रहा हूँ, इस नाते नैतिक रूप से  यह उचित नहीं  होगा कि मैं यह पुरस्कार ग्रहण करूँ।

2. दिनकर जी ने  अपनी साहित्य सेवा से हिंदी साहित्य एवम भाषा को बड़ा अवदान दिया है और बिहार को राष्ट्रीय स्तर पर  पहचान दिलाई है। उनके प्रति मेरे मन मे  गहरा सम्मान  है लेकिन यह पुरस्कार लेने में असमर्थ हूँ।

3.  मेरा मानना है कि लेखक औऱ पत्रकार को हमेशा विपक्ष में रहना चाहिए और किसी भी तरह की सत्ता से दूर रहना चाहिए चाहे कोई सरकार हो। इस नाते भी मुझे यह पुरस्कार लेना  साहित्य और पत्रकारिता की नैतिकता के खिलाफ है।

4.  मैँ पूरी विनम्रता के साथ इस पुरस्कार को ग्रहण करने के लिए खुद को उपयुक्त नहीं मानता और आज देश में  जिस तरह के हालात पैदा हो गए हैं विशेषकर बिहार में  भी हालात खराब हो रहे हैं उसे देखते हुए एक निष्पक्ष पत्रकार और लेखक के लिए उचित नहीं कि वह कोई सरकारी पुरस्कार ग्रहण करें।

5. आपका और आपके विभाग का एक बार फिर आभार कि आपने मेरा चयन इस पुरस्कार के लिए किया।


सादर


आपका

विमल कुमार

संपादक

स्त्रीलेखा

9968400416

11 अगस्त 2025


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