आशीष चौहान की कविताएं
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आशीष चौहान |
फ्रांसीसी क्रान्ति ने 1789 ई में 'स्वतन्त्रता समानता, बंधुत्व' का क्रांतिकारी नारा दिया था। शीघ्र ही इस नारे की व्याप्ति वैश्विक स्तर पर हो गई। कौन ऐसा व्यक्ति होगा जो अपने लिए स्वतन्त्रता और समानता न चाहता हो? दुनिया के सारे विवाद और दुनिया की सारी समस्याएं इस समानता को प्राप्त करने के क्रम में ही तो हैं। जिस दिन यह असमानता समाप्त हो जाएगी, दुनिया विवादरहित हो जाएगी। लेकिन यह सोच यूटोपिया ही है जिसे कभी साकार नहीं होना है। युवा कवि आशीष चौहान वास्तविकताओं से बखूबी परिचित हैं और लिखते हैं : 'दर्जनों मज़दूरों की मौत ढक जाती है धन्ना सेठ की बरसी पर/ बदल जाती है तीव्रता उनकी—जो डटे हुए हैं कुर्सी पर/ इस गणित की राजनीति में, समता बस एक ख़्वाब है/ कुछ मज़दूरों की मौत, एक सरकारी सूची का भाग है!' आशीष की दृष्टि स्पष्ट है और इनकी कविताओं में वह प्रतिबद्धता है, जो अब बीते जमाने की बात बनती जा रही है। आशीष विधि के छात्र हैं और उनकी रुचि संस्कृति और पूंजीवाद को समझने में है। उन्हें मुक्तिबोध और गोरख पांडेय की कविताएँ पढ़ना पसंद है।आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं आशीष चौहान की कविताएं।
आशीष चौहान की कविताएं
इस तरह सब कुछ घेरा है
अख़बार आज का,
खबरें कल की,
किस्से और पुराने बल्कि,
ज़्यादा नए प्रचार यहाँ पर,
समाचार व्यापार यहाँ पर,
हर शब्द पर पैसे लगे हुए, जो हैं तारीफ़ों से भरे पड़े,
लफ़ीफ़ों ने तारीफ़ों से इस तरह सब कुछ घेरा है,
चकाचौंध सा दिखा दिया जहाँ घनघोर अंधेरा है।
गणित की राजनीति में
कुछ मज़दूरों की मौत हुई,
नेताओं ने खेद जताया,
कंपनी ने दुर्भाग्य बताया,
पुलिस ने 'एक्सीडेंट' समझाया,
और ज़िम्मेदारी ली भगवान ने।
गणित की राजनीति संख्या पर चलती है,
जो बाहुल्य हैं, उन्हीं की बोली है,
उन्हीं की लाठी है, उन्हीं की गोली है!
उनके मतों पर सरकारें बनती हैं,
वो सर्वोच्च हैं—उन्हीं की गिनती है!
भारत के भाग्यविधाता ने इन्हीं का जयजयकार किया,
"जय जवान, जय किसान" के नारों पर ख़ूब प्रचार किया!
मगर जो ये चंद लाशें दबी हैं मलबों में,
जिनकी गिनती बहुत है, कुछ नहीं तो अरबों में
—
इनकी बोली है कहाँ?
अख़बारों में किराए पर शोक समाचार निकलता है,
पैसों के आधार पर अपनी जगह बदलता है।
धनी सेठ की मौत की ख़बर पहले पन्ने पर आती है,
और इन मजदूरों की अंतिम पृष्ठ पर चंद लाइनें पाती हैं।
दर्जनों मज़दूरों की मौत ढक जाती है धन्ना सेठ की बरसी पर,
बदल जाती है तीव्रता उनकी—जो डटे हुए हैं कुर्सी पर।
इस गणित की राजनीति में, समता बस एक ख़्वाब है,
कुछ मज़दूरों की मौत, एक सरकारी सूची का भाग है!
पूँजीवादी गणित में फ़र्क इतना है बस—
एक तरफ़ हैं नब्बे जनता, उनके ऊपर दस।
पर अब
अब गोलियों से श्रृंगार है,
व्यापार है डरो का,
ज़ुबान है ज़बरन दबी हुई,
पलकें आंसुओं से भरी पड़ी,
करती गुमशुदा की तलाश है,
इस आस में,
कि अब फ़रेबों से राहत होगी,
ना आहत होगी, ना ज़ुल्म होंगे
ना शक्लें धुलेंगी आंसुओं से,
गलियों में दुकानें होंगी,
दुकानों में पकवान होंगे,
होंगे अब्दुल, हमीद और अली भी,
खिलते चेहरे तब तमाम होंगे।
पर अब गोलियों की गड़गड़ाहट, लोरियों सी हो चुकी,
और सो चुकी है आरज़ू, आज़ादी मांगते लब भी।
जब हो सामने सब सर कलम!
आज सिर पर मेरे इल्ज़ाम है,
कि जुस्तजू करने के वक़्त,
मैं गुफ्तगू करता रहा।
हुकूमतों के खौफ से,
बन बेजुबां डरता रहा,
मैं खुद से गुफ्तगू करता रहा,
मैं खुद से गुफ्तगू करता रहा।
मेरी बस्तियां सब ढेर हैं,
जल कर आग में, सब राख अब,
मेरे हमसफ़र, सब ढेर हैं,
जो ज़िंदा थे, सब खाक़ अब।
चीख सुनते ही तुरंत, मैं कान बंद करता रहा,
पहले चीख से मैं डर गया,
फिर डर से मैं डरता रहा।
आज सिर पर मेरे इल्ज़ाम है,
कि मैं जुस्तजू करने के वक़्त,
गुफ्तगू करता रहा।
कलमों के ताकत पे कई,
क्या खूब कसीदे थे पढ़े,
जलसों में वाहवाही क्या लूटी,
तो ले कलम हम चल पड़े।
पर क्या खाक है मेरी ये कलम,
जब हो सामने सब सर कलम!
तलवारों के सामने, कलम है मेरी बेजुबान,
कलमों के नोक से तेज़, अब हो चुकी धार है,
अब स्याहियों के देश में, हुकूमत-ए-तलवार है।
जरूरी है
आज़ादी समझने के लिए,
पराधीन हुए लोगों का होना जरूरी है
जरूरी है सूखे का एहसास, आद्रता भांपने के लिए।
वरना तैरती मछलियों को मालूम नहीं,
अपने देश की हक़ीक़त,
मालूम नहीं जीवित पतंगों को,
अग्नि का भयावह सच,
ऐसे कई राज़,
नहीं मालूम,
जो ह्यूगो को होएदरर का हत्यारा बना देते हैं,
और सजा देते हैं दमन का ताज,
एक खूनी साम्राज्य,
नर कंकाल के ऊपर।
जरूरी है पराधीन हुए लोगों का बचना,
क्योंकि बेड़ियों की पहचान जरूरी है,
वरना जलती चिता में औरतों के कूद जाने पर जश्न होगा,
वरना सामान्य समझ में क्रूरता बस जाएगी,
और उस पर ना कोई प्रश्न होगा
बहुत जरूरी है ये समझना,
कि आज़ादी की समझ,
किताबों में कैद नहीं की जा सकती,
ना कक्षाओं में रटवाई जा सकती है,
उसे विकसित होना पड़ता है,
पराधीन हुए लोगों के तजुर्बों के कसौटी पर।
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग कवि विजेन्द्र जी की है।)
सम्पर्क
मोबाइल : 78003 19511
सामाजिक मनोदशा को व्यक्त करती सुंदर कृतियाँ... आशीष चौहान जी को बधाई...
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