यतीश कुमार के संग्रह पर शिव पाल दुस्तावा द्वारा लिखा गया आलेख संवेदना और समाज का नया रंग : अंतस की खुरचन’

 




अनुभवों में रची बसी कविता किसी भी पाठक के अन्तर्मन को गहरे तौर पर प्रभावित करती है। कवि यतीश कुमार के पास अनुभव के अलग अलग बहुतेरे रंग हैं और इन रंगों से उन्होंने अपनी कविताओं को करीने से रंगा है। ‘अंतस की खुरचन’ कवि यतीश कुमार का पहला कविता संग्रह है। हाल ही में ‘अंतस की खुरचन’ का चौथा संस्करण प्रकाशित हुआ है जिस पर शिव पाल दुस्तावा ने एक लम्बा आलेख लिखा है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं यतीश कुमार के संग्रह पर शिव पाल दुस्तावा द्वारा की गई समीक्षा 'संवेदना और समाज का नया रंग : अंतस की खुरचन'।



संवेदना और समाज का नया रंग : अंतस की खुरचन’  


शिव पाल दुस्तावा 


यतीश कुमार का कविता संग्रह ‘अंतस की खुरचन’ समकालीन हिंदी साहित्य में एक अनूठा पड़ाव है। इस संग्रह की कविताएँ न केवल व्यक्तिगत संवेदनाओं को उकेरती हैं, बल्कि सामाजिक यथार्थ, प्रगतिशीलता, यथार्थवाद, प्रकृति, प्रेम, और विसंगति के गहन दर्शन को भी सामने लाती हैं। प्रस्तुत समीक्षा तीन भागों में विभक्त है, जो यतीश की कविताओं के विविध आयामों—मौन और स्वर के ताने-बाने से ले कर सामाजिक चेतना और प्रेम की सूक्ष्म अभिव्यक्ति तक को समेटने का प्रयास है।


कवि अष्टभुजा शुक्ल कवि यतीश कुमार के कविता संकलन ‘अंतस की खुरचन’ की प्रस्तावना में लिखते हैं, “यतीश के भाव संसार में जितनी निजता है, वैसी ही संकुलता भी। कौटुम्बिक कारकों के साथ सामाजिक कारक भी उतनी ही शिद्दत से मौजूद हैं। इनका वैविध्य उनकी संवेदना की परिधि को कहीं व्यापक बनाता है तो कहीं भरमाता है।” इस कथन की अँगुली पकड़े जब मैंने अंतस की खुरचन की यात्रा शुरू की तो यतीश की ‘संवादहीन-मनुष्य’, ‘भूख’ और ‘अनिसुर रहमान’ जैसी कविता में मौन और स्वर का पारस्परिक सम्बंध उपलब्ध हुआ।


“अलौकिक चेहरे का प्रतिबिंब 

टूटे आईने में देखते-देखते 

वह आदमी 

सिमटा हुआ इंद्रधनुष बन गया 

संवादहीन मनुष्य 

सबसे ज्यादा चुप्पी ओढ़े बैठा है” 


(संवादहीन मनुष्य)


इस मौन और स्वर के सम्बंध की व्याख्या में शून्यवाद/बुद्धिज्म का प्रभाव और यतीश के सृजनात्मक रहस्यवाद का तत्त्व भी नजर आता हैं। जिस बिंदु पर यतीश खड़े हैं, उस पर मौन और स्वर दो विपरीत स्थितियाँ हैं, लेकिन अनिसुर रहमान कविता पढ़ कर महसूस होता हैं कि हर स्वर अंततः परम् मौन की ही अभिव्यक्ति हैं।


“अनिसुर, तुम्हें कितनी बार 

इस कलयुग में ईसा बनना पड़ेगा 

कि लोग पत्थर मारेंगे 

और तुम उन्हें माफ करते रहोगे”


मौन का सीधा अर्थ स्वरों के अभाव से नहीं, बल्कि स्वरों की ऐसी महासमष्टि की आंतरिक अव्यक्त अभिव्यक्ति से है, जो अक्सर अव्यक्त रहती हैं। धरती के सारे स्वर परम् तत्त्व के मौन में ही शामिल हैं। परम तत्त्व में ही अंतर्भूत हैं। एक अन्य स्तर पर यतीश की कविता पश्चिमी साहित्य चिंतन के अनुरूप कला को साधन के रूप में प्रतिष्ठित नहीं करती, बल्कि भारतीय दर्शन की अनुरूपता में उसे ब्रह्मा के समान महत्व देती हैं।


पाश्चात्य कवि वर्ड्सवर्थ और हिंदी कवि पंत की तरह यतीश की कुछ कविताएँ भी प्रकृति के अप्रतिम बिम्बों की सृजना करने में अद्वितीय कविताएँ हैं। यतीश के यहाँ जीवन के विविध रंगों, क्षेत्रों को प्रकृति के धागे में पिरो कर एक सार्थक मखमली आकार देने की कला अद्भुत हैं।


“घास और नमक शाश्वत हैं 

पर सबसे प्रिय हैं फूल 

प्रेम लबालब हैं 

और लोग रोज तोड़ते हैं”



प्रेम, समय, अस्तित्वबोध और सामाजिक यथार्थ


यतीश की कविताओं का यह दूसरा आयाम उनके शब्दों की सादगी और गहनता को उजागर करता है। ये कविताएँ समय की गंध, अनुभव का ताप, और सामाजिक यथार्थ की विडंबनाओं को एक साथ समेटती हैं। यतीश की इन कविताओं में शब्द केवल विचार नहीं कहते, वे अपने भीतर समय की गंध और अनुभव का ताप ले कर चलते हैं।


पहली नज़र में यह कविताएँ सरल लग सकती हैं, पर भीतर उतरते ही मालूम पड़ता है कि ये सरलता दरअसल गहनता की ठोस परत से ढकी हुई है। यहाँ विद्रोह, विरोध और विडम्बना, तीनों साथ हैं, पर इनका स्वर चिल्लाता नहीं, बल्कि धीमे-धीमे भीतर तक रिसता है।


कविताओं की पंक्तियों में एक अदृश्य संवाद है कवि और पाठक के बीच, जो हमें मजबूर करता है ठहरने, सोचने और अपनी ही चाल पर सवाल उठाने के लिए। यह वह लेखन है, जो न तो हमें पूरी तरह सुकून देता है, न पूरी तरह बेचैन छोड़ता है बल्कि दोनों के बीच किसी ईमानदार जगह पर खड़ा कर देता है।



1. प्रतीक्षा की उभारती व्याकुलता: इन्तज़ार-1


यह कविता समय और प्रतीक्षा की अचरज-भरी खामोशी को भीतर तक हिला देती है। ‘बेआवाज़ वक्त’, ‘नमक का अक्ष’ ये चित्र हमें बताते हैं कि कवि सिर्फ प्रतीक्षा नहीं कर रहा, बल्कि समय का बोझ अपने गालों पर महसूस कर रहा है। ‘झुके आधे कटे चाँद को पलकों से बाँधे’ ही इस कविता का वह संकेतक बिंदु है जो प्रतीक्षा की तड़प को मानवाकृत कर देता है। यह प्रतीक्षा अब गहरी पीड़ा बन चुकी है, और कवि चाहता है कि सुबह लौट आए, सच कहें, यह प्रतीक्षा ही सब कुछ है।

 


2. अस्तित्व और बदलाव की दुविधा: चुनौती


यह कविता एक कुंठित चेतना का दस्तावेज़ है। ‘शीशे की खिड़की पर हाथ की छाप’ जैसी पंक्तियाँ हमें बताती हैं कि आत्मा उस खिड़की के पास अटकी हुई है, जहाँ से बाहर का दृश्य कभी पहचान में नहीं आता। कवि ‘गौरेया-सा धीरज लिए अब बौराना चाहता हूँ- यह शान्त रूपांतर की चाह नहीं, बल्कि अस्तित्व की बग़ावत है। यह चुनौती, आत्मनिर्णय की सहजता में नहीं, बल्कि भीतर की विभाजन और खरोंचों में से जन्म लेती है।



3 . उत्तेजित समय की विसंगति: संक्रमित समय


यह कविता उस भय का सजीव चित्रण है जहाँ सुख ‘शहद जैसा’ अवशोषित हो कर डूब रहा है, और दहशत अपने संदेशों के माध्यम से हम तक पहुँच रही है। यह समय की विकृति और मानव चेतना का संघर्ष उजागर करते हैं। यह न केवल मौजूदा संकट का कविता रूप है, बल्कि तीव्र चेतना की आवाज़ भी है जो मानवीय संवेदना को पुनः जगाने का द्वार खोलती है।



4. “दिन शहद जैसा… छिप-छिप कर भेजता हूँ संदेश भय से भरे”


यह कविता समय की विकृति का अनुभव कराती है। जैसे भय खुद को संदेश बना कर भेज रहा हो, और कवि उसे कणों में समेट कर सामने ले आता है। यह सक्रिय कविता है जहाँ हम भावनाओं के बारे में नहीं, बल्कि उनकी हड़बड़ी और गठित रूपरेखा के मूर्त अस्तित्व के साथ संवाद करते हैं।



5 . प्रेम, संबंध और मानवीय पुनर्निर्माण


संग्रह के दूसरे खंड में वे कविताएँ हैं जो प्रेम और मानवीय संवेदना को पुनर्जीवित करती हैं- जैसे ‘जब तुम हँसती हो… पिता का सीना समंदर हो जाता है’, या ‘हम-तुम’ की पंक्तियाँ। यहाँ प्रेम सिर्फ़ भाव नहीं, संवाद का पुल है- टूटे हुए रिश्तों को जोड़ने का प्रयास। ये कविताएँ पाठक के भीतर एक नरम एहसास जगाती हैं, जिससे प्रेम की सार-सत्ता सामने आती है।



6. कविता: विडम्बना-1


आधुनिक हिंदी कविता की उस परंपरा में आती है, जहाँ निजी संवेदना और सामाजिक यथार्थ का ताना-बाना एक साथ बुना जाता है। कविता का आरंभ ‘विद्रोह का सफ़र तय करना है और विरोध की कलम लिये बैठा हूँ’, कवि के आत्म-संवेदनशील और प्रतिरोधी स्वभाव को उद्घाटित करता है। यहाँ ‘विद्रोह’ केवल राजनीतिक अर्थ में नहीं, बल्कि समय की जड़ता और व्यवस्था के खोखलेपन के विरुद्ध भी है।


 

7. कविता : दर्पणी आँखें


आत्म और परिवेश के बीच का वह अदृश्य संवाद है, जिसमें देखना केवल दृश्य को पकड़ना नहीं, बल्कि उसे भीतर के गहरे अर्थों में उतारना है। कविता की शुरुआत एक तीखे बिंब से होती है- “आखेटक के तीर की तरह लटें छूटती निकल गई”- जो क्षणभंगुरता और अचानकपन को एक ही चित्र में बाँध देता है। कविता के मध्य भाग में बिंब और संवेदना का गहरा मेल दिखाई देता है। यह दृष्टि को अनुभव में, और अनुभव को आत्मबोध में बदलने की एक सूक्ष्म यात्रा है।



8. कविता: कायांतरण में कविता


यह कविता समय, कला और मानवीय प्रतिक्रिया के जटिल संबंधों को बिंबों और प्रतीकों के माध्यम से खोलती है। ‘समय की प्रतीति डुकड़ों में बँटी है’- यह पंक्ति जीवन के अनुभव को खंडित और अस्थायी रूप में देखने का नया काव्य-बोध देती है। अदाकार और प्रॉम्पटर के बीच की ‘चुप्पी’ केवल मंचीय तकनीक नहीं, बल्कि अनिश्चित भविष्य की मानवीय प्रतीक्षा है। यह रचना समकालीन कविता में नाटकीयता और दार्शनिक गहराई के अद्वितीय संगम के रूप में देखी जा सकती है।


 

9. कविता: शेल्फ़ में शब्द-2


यतीश कुमार की यह कविता आधुनिक समय में संबंधों के बदलते रूप की एक संवेदनशील गवाही है। सुबह की चाय से ले कर रात के थकान-भरे क्षण तक, यहाँ प्रेम केवल हृदय में नहीं, बल्कि मोबाइल स्क्रीन के उजाले में साँस लेता है। कवि ने ‘डिजिटल बाँह’ और ‘कमीज़ की बाँहें उँगलियों में दबाए रखना’ जैसे बिंबों से तकनीक को आत्मीय स्पर्श में रूपांतरित कर दिया है। यह रचना बताती है कि दूरी के बावजूद संवाद जीवित है, बस उसकी भाषा, माध्यम और लय बदल गए हैं। 


 

10. कविता: पिता-2


यह कविता पिता की स्मृति और उनके जीवन-संघर्ष की छाया में पुत्र के भाव-जगत को उकेरती है। इसमें वृक्ष और शाखाओं का बिंब पिता–पुत्र के रिश्ते के रूपक के रूप में आया है, जहाँ पिता का जाना जीवन के एक हिस्से का टूटना है। कवि ने ‘टहनी’ और ‘धज’ जैसे प्रतीकों के माध्यम से स्थिरता, आश्रय और स्वतंत्रता के महत्व को रेखांकित किया है। यहां पिता के जाने के बाद जीवन में आई स्थायी छाया झलकती है, जहाँ पिता केवल परिवार का स्तंभ नहीं, बल्कि मूल्यों का स्रोत भी हैं।


 

10. कविता : माँ की सहेलियाँ


कविता ‘माँ की सहेलियाँ’ केवल शब्दों का चित्रण नहीं, बल्कि समय, स्मृतियों और बदलते सामाजिक ढाँचे का संवेदनशील दस्तावेज़ है।कंक्रीट के जंगल में, कवि माँ की पुरानी सहेलियों को खोजता है। यहाँ ‘झुटपुटा एकान्त’ और ‘झुर्रियों का दायरा’ जैसे बिंब एक ओर समय के बीतने का अहसास कराते हैं, तो दूसरी ओर एक स्त्री की सामाजिक दुनिया के सिकुड़ने की पीड़ा को भी उजागर करते हैं। इसमें स्मृति और वर्तमान के बीच का पुल बेहद नर्म और मार्मिक है, जो कविता को दिल में उतरने लायक बनाता है।


11. कविता : मुझे फिर वहीं लौटना है


यतीश कुमार की यह कविता स्मृति और आत्मीयता के धागों से बुनी गई है। इसमें कवि अपने बचपन और गृहस्थ जीवन के उन सहज, घरेलू दृश्यों में लौटने की ललक व्यक्त करता है, जो अब सिर्फ यादों में रह गए हैं। कविता का प्रारंभ ‘सूप फटकते हुए’ माँ के चेहरे और उनके बालों में फँसी फाँस निकालने के दृश्य से होता है। यह छवि मात्र घरेलू कार्य का वर्णन नहीं, बल्कि माँ की मेहनत और स्नेह का प्रतीक है। आगे ‘आटा गूँथते हुए’ की बारीक तस्वीर और ‘नाक की नोक पर लटके नमकीन मोती’ को पोंछने का उल्लेख, जीवन की सादगी और आत्मीय गंध को उभारता है।


यहाँ ‘किताब ने मेरा मुँह ढक रखा था’- यह पंक्ति बचपन की पढ़ाई में डूबे रहने और उस दौरान घर के कामकाज में दूर-दूर तक न शामिल होने की स्मृति को दर्शाती है। यह कविता जीवन-यात्रा के चक्र और जड़ों की ओर लौटने की अनिवार्यता का मार्मिक बिंब है। कवि ने यहाँ ‘लौटना’ को पलायन नहीं, बल्कि पुनः अपने मूल से जुड़ने की आत्मिक प्रक्रिया के रूप में रखा है।


कवि यतीश कुमार 



12 . कविता: दुख-सुख


यह कविता बेहद सादगी में गहरे जीवन-सत्य कहती है और रिश्तों में भावनाओं के सूक्ष्म और गहरे रंगों को पकड़ने का अद्भुत प्रयास है। कवि ने माँ को दुख से और पिता को सुख से जोड़ा है, केवल प्रतीक के रूप में नहीं, बल्कि अनुभव के रूप में। माँ का दुख स्थायी है, जैसे उसकी गोद हमेशा खुली रहती है; पिता का सुख क्षणिक है, जैसे उनका आलिंगन थोड़ी देर का। यहाँ ‘माँ अब भी वहीं बैठी है’ एक स्थिर, अडिग करुणा और सहानुभूति का चित्र है, जबकि ‘सुख क्षणिक है’, जीवन की अस्थिरता का बोध कराता है। अंतिम पंक्तियाँ “दुख को दुख की तरह प्रेम करने की यात्रा पर हूँ”, यह स्वीकार्यता का दर्शन है, जिसमें कवि दुख को नकारता नहीं, बल्कि उसे जीवन का हिस्सा मान कर उसके साथ जीता है।



13. कविता: तुम्हारे पास आऊँगा


यह कविता गहरे भावनात्मक जुड़ाव और जीवन की कठिन परिस्थितियों में प्रिय के पास लौटने की आकांक्षा का संवेदनशील चित्रण है। कवि ने कई रूपक और बिंबों के माध्यम से यह व्यक्त किया है कि टूटन, असफलता, संघर्ष और पीड़ा के क्षणों में मनुष्य किस तरह अपने आत्मीय की ओर खिंचता है।


कविता में प्रेम, अपनापन और आश्रय की गहरी अनुभूति है। ‘टूट कर बिखरूँगा’, ‘सीमाओं के परे बहूँगा’ और ‘खिड़की के टूटे शीशे’ जैसे बिंब जीवन के विघटन और उससे उबरने की चाह का प्रतीक हैं। यह रचना मानवीय संबंधों में सुरक्षा और प्रेम के महत्व को स्थापित करती है।



14. कविता : भाषा की सचबयानी 


यह कविता समकालीन हिंदी कविता के उस प्रवाह में आती है, जहाँ भाषा केवल संवेदनाओं की वाहक नहीं, बल्कि विचार और प्रतिरोध का औज़ार बनती है। यह कविता श्रम, सत्य, सत्ता और जन-सामान्य के बीच के जटिल संवाद को रूपकों और प्रतीकों के माध्यम से उद्घाटित करती है। कवि यहाँ यथार्थ को न तो एकरेखीय दृष्टि से देखता है और न ही उसे केवल आदर्श के तराजू पर तोलता है, बल्कि उसके अंतर्विरोधों को भी सहर्ष स्वीकार करता है।


कविता का प्रारम्भ मजदूर की साँस को ‘धौंकनी’ कहकर होता है, एक ऐसा रूपक जो श्रम की ऊष्मा और परिवर्तनकारी शक्ति को मूर्त करता है। लोहे का गलना यहाँ न केवल भौतिक प्रक्रिया है, बल्कि जड़ सत्ता-संरचनाओं के टूटने का भी संकेत है। ‘अकाल मेघ’ और ‘काली घटा’ की उपमा सत्य की क्षणभंगुरता को उद्घाटित करती है- सत्य, यदि जनजीवन से न जुड़ा हो, तो वह टिकाऊ नहीं होता।


कविता हमारी लोकतांत्रिक संरचना की विडंबनाओं को रेखांकित करती है- जहाँ श्रम का मूल्य है, लेकिन श्रमिक का नहीं; जहाँ सत्य का आदर्श है, परंतु सत्य की भाषा सत्ता के लिए ‘अबूझ’ है। यतीश कुमार का यह काव्य-शिल्प न केवल भाव के स्तर पर, बल्कि विचार के स्तर पर भी पाठक को झकझोरता है।


 

15. कविता: संवादहीन मनुष्य


यह कविता उस संवेदनशील धारा का हिस्सा है, जहाँ कवि भीतरी एकांत, टूटन और सामाजिक चुप्पी को गहन प्रतीकों के माध्यम से रचता है। यह कविता न केवल व्यक्ति के भीतर पलते खालीपन को उजागर करती है, बल्कि आज के समय की सामूहिक संवादहीनता पर भी प्रश्न उठाती है। यह वर्तमान समाज में संचार के संकट, भावनात्मक दूरी और रिश्तों की विडंबना का सटीक दस्तावेज़ है। इसमें व्यक्ति के भीतर पलता एकांत, भीड़ के शोर में भी संवाद का अभाव और आधुनिक जीवन का भावनात्मक सूखापन स्पष्ट रूप से उभरता है।



16. कविता: क़यामत के दिन


यह कविता प्रेम, वासना, प्रतीक्षा और शून्यता के बीच झूलते मानव मन की जटिल मनःस्थितियों का सूक्ष्म चित्रण है। कविता की शुरुआत ‘बादल के फाहे-सा प्रेम’ जैसे बिंबों से होती है, जो प्रेम की कोमलता और उसके अनजाने जाल को एक साथ उभारते हैं। कवि ने प्रेम और वासना के मध्य एक ढूंढ की तलाश को प्रतीक बनाकर पवित्रता की खोज को प्रभावी ढंग से रखा है। अंत में, ‘प्रतीक्षा की व्यथा’ और ‘एक शून्य का बुलबुला मुसलसल टहल रहा है’- ये पंक्तियाँ जीवन में अधूरी इच्छाओं और निरंतर खालीपन के बेचैन सच को रेखांकित करती हैं।



17. कविता : बस, अपना जवाब चाहिए


यह कविता सवालों के तेज़ धार वाले तीरों से बनी है, जो सीधे सत्ता, समाज और उस मौन को भेदते हैं जो अन्याय के सामने चुप्पी साध लेता है। कवि शुरुआत में ही एक चुनौतीपूर्ण स्वर रचते हैं- 


‘तुम लड़ते दिखते हो

पर तुम मरते तो कभी नहीं’


यह पंक्तियाँ दिखावे के संघर्ष और असली त्याग के बीच का फर्क उजागर करती हैं। भीड़ में ऊँची गर्दन रखने वाले पर ज़मीन पर संघर्ष न करने वाले, कवि की दृष्टि में, खोखले प्रतीक हैं। यह कविता एक सशक्त प्रतिरोध-पत्र है- सीधा, निडर, और बिना किसी घुमावदार भाषा के सच को सामने रखती हुई। इसमें भावनात्मक ताप भी है और वैचारिक तीखापन भी, जो पाठक को सवालों के घेरे में खड़ा कर देता है।


 

18. कविता: देह, बाज़ार और रोशनी – 1 एवं 2


यतीश कुमार की “देह, बाज़ार और रोशनी” शृंखला समकालीन हिंदी कविता में देह-व्यापार के प्रश्न को कलात्मक संवेदनशीलता और यथार्थवादी दृष्टि से प्रस्तुत करती है। पहली कविता में ‘धुँधली रोशनी’और ‘बत्ती बुझने’ के बिंब देह-व्यापार के उस चक्र को उजागर करते हैं जहाँ प्रकाश और अंधकार, दोनों ही व्यवसाय की ज़रूरत के अनुसार नियंत्रित होते हैं।


दूसरी कविता में यह यथार्थ और भी गहन हो जाता है। ‘वक़्त से पहले अँधेरा दस्तक देता है’- यह पंक्ति न केवल दिन के समय के बारे में कहती है, बल्कि उन स्त्रियों के जीवन में समय से पहले बूढ़ा हो जाने की पीड़ा को भी उद्घाटित करती है। ‘नमकीन मुस्कुराहट’ और ‘सर्प की तरह फ़न फैलाना’ जैसे रूपक इस व्यवसाय की दोहरी प्रकृति- सतही आकर्षण और अंतर्निहित खतरे- को तीखेपन के साथ उभारते हैं। भाषा सरल है, किंतु उसमें गहरी मारकता है। 


सामाजिक परिप्रेक्ष्य में, यह शृंखला सिर्फ एक पेशे का चित्रण नहीं, बल्कि एक ऐसे सामाजिक तंत्र का विश्लेषण है जहाँ आर्थिक विवशता, पितृसत्तात्मक दृष्टिकोण और मानवीय संवेदनाओं का क्षरण एक साथ काम करते हैं। इन कविताओं में बाज़ार केवल वस्तुओं का नहीं, बल्कि शरीर और आत्मा का भी है- जहाँ हर शाम ‘ज़िन्दगी अपनी परिभाषा भूल जाती है।’



19. कविता : आज


कविता ‘आज’ में कवि ने समय, प्रकृति और मानवीय परिवेश के गहरे संकटों को मार्मिक रूप से चित्रित किया है। आरंभ में ‘वक़्त ने अपनी शक्ल छुपा दी’ और ‘घड़ी ने अपने हाथ’ जैसी पंक्तियाँ समय के ठहराव और बदलाव के खो जाने का बिंब प्रस्तुत करती हैं। पर्यावरणीय असंतुलन को कवि ने बर्फ के पिघलने, नदियों के जमने और केंचुओं के मिट्टी का साथ छोड़ने जैसी मार्मिक छवियों से उकेरा है। बारिश का ‘मिट्टी का सौंधापन चुरा लेना’ केवल प्राकृतिक हानि ही नहीं, बल्कि किसानों के जीवन से जुड़ी पीड़ा को भी दर्शाता है। यह कविता पर्यावरणीय संकट, संवेदनहीनता और सामाजिक बदलाव की एक मार्मिक, चेतावनीपूर्ण अभिव्यक्ति है।



20. कविता: भूख


कविता ‘भूख’ में भूख एक जैविक क्रिया से आगे बढ़कर जीवन के संघर्ष, असमानता और अस्तित्व के प्रतीक के रूप में सामने आती है। कविता की शुरुआत में धरती और मनुष्यों के निरंतर घूमते रहने का चित्र है, मानो अशेष गंध की तलाश एक अंतहीन यात्रा हो। 


‘भूख करवट यूँ बदलती है 

मानो जलती लकड़ी आँच ठीक करने के लिए सरकाई जा रही हो"- 


ये पंक्ति भूख की बेचैनी और उसकी स्थायी उपस्थिति का सशक्त रूपक हैं।


कविता आगे उस पीड़ा को उजागर करती है जहाँ रोटी पकाने की सोच से नींद नहीं आती, आँच तो आती है, पर रोटी नहीं। यह दृश्य गरीब जीवन के कटु यथार्थ को सीधी और मार्मिक भाषा में सामने रखता है। 


‘आँखें बुझ जाती हैं 

नींद डुबडुबाती है 

देह सो जाती है पर भूख अपलक जागती है’- 


भूख को एक अनिद्रा-सी जाग्रत शक्ति में बदल देता है, जो शरीर के थकने पर भी समाप्त नहीं होती।


यह कविता उन लाखों लोगों की सामूहिक स्थिति का बयान है, जिनके लिए भूख एक स्थायी साथी है। यह हमारे समाज की असमानता और संवेदनहीनता पर प्रहार है जो हमें याद दिलाती है कि भूख सिर्फ एक क्षणिक पीड़ा नहीं, बल्कि एक ऐसी शक्ति है जो नींद, सुख और सपनों को भी निगल जाती है।



21. कविता: इन दिनों


‘इन दिनों’ समकालीन हिंदी कविता में स्मृति, संवेदना और मानवीय रिश्तों के क्षरण का सटीक चित्रण है। इसमें अतीत की आत्मीयता और वर्तमान के भावनात्मक शुष्कपन के बीच का तीखा विरोधाभास उभर कर सामने आता है। कविता की शुरुआत ‘माँ की दी हुई मरहम की डिब्बी’ से होती है- यह मात्र उपचार का साधन नहीं, बल्कि माँ के स्नेह, सुरक्षा और देखभाल का प्रतीक है। समय के साथ इस डिब्बी का खाली हो जाना, जीवन से संवेदना के लुप्त होने का मार्मिक रूपक है।


‘ज़ख्म की सूखी, खुरदरी परतें’, वर्तमान के उस भावनात्मक बंजरपन को दर्शाती हैं, जहाँ दर्द अब केवल आदतन खुरचने की वस्तु रह गया है, उसमें वह आत्मीय गरमी और गहराई नहीं जो पहले थी। कविता में रूपकों और प्रतीकों का सहज प्रयोग हुआ है- ‘मरहम की डिब्बी’, ‘सूखी परतें’, ‘सिल्क का काँधा’- ये सभी जीवन के अलग-अलग समय और भावनात्मक अवस्थाओं का जीवंत बिंब रचते हैं।


यह कविता बदलते समय में मानवीय रिश्तों की सतही होती संवेदनाओं पर टिप्पणी है। इसमें यह संकेत है कि आधुनिकीकरण और भौतिकता की दौड़ में सच्चा अपनापन, सहजता और आपसी सहारा खोते जा रहे हैं


यतीश की कविताओं में एक दर्शन ये भी उपलब्ध होता है- ‘विसंगतिबोध’। नई कविता और अकविता में ऐसी कविता प्रायः लिखी गई। कामू का कथन है कि ‘विसंगति न व्यक्ति में है, न समाज में, वह तो इन दोनों के साथ-साथ होने में है।’जीवन की परिधि में विसंगति ने निराशा ही पैदा की हो, ऐसा नहीं है, आगे चलकर विसंगति जीवन का एक सत्य बन जाती हैं, मानव इन सबके वावजूद अपना दायित्व निभाना चाहता है।


अशोक वाजपेयी के शब्दों में- 


‘हम छोटे लोग 

चाहे अनदेखे बीत जाए 

कोई तो देखेगा 

हमारी मुट्ठी में गुलमोहर के फूल थे 

कोई तो चीन्हेगा 

हमारे होठों पर कविताएँ थी’ 


और श्रीकांत वर्मा के शब्दों में- 


‘चाहता तो बच सकता था 

मगर कैसे बच सकता था 

जो बचेगा 

कैसे रचेगा’


कवि यतीश भी विसंगति को जीवन का सत्य मानकर दायित्वबोध से युक्त हो उठते हैं और लिखते हैं- 


‘वक्त से पहले 

अँधेरा दस्तक देता है 

शाम होते-होते सभी खुद को 

पेट के अँधेरे में गर्त कर लेते हैं

हर शाम जिंदगी अपनी परिभाषा भूल जाती है।’


‘उम्र की सांझ पर तपिश 

पेट से ही चिपकी रह जाती है 

बदन पर नहीं उतरती 

तब इंतजार मौत से भी बदतर लगता है 

इन्ही दृश्यों के बीच 

आठ साला बच्चा 

ढूह की मिट्टी मस्तक पर लगाता है

और ग्यारह साल की लड़की 

उसकी उँगली सख्ती से पकड़ लेती है’


जाति से जूतों का सम्बन्ध 

और जूतों की संख्या से 

ऐसा प्रतीत होता हैं 

हजारों घोड़े 

धान के बिचड़े रौंदते जा रहे हो



संवेदना और समाज का नया रंग


यतीश कुमार की कविताओं का तीसरा आयाम उनकी सामाजिक चेतना, प्रगतिशील दृष्टि, और संवेदनशीलता को उजागर करता है, जो न केवल व्यक्तिगत भावनाओं को, बल्कि समाज के बदलते परिदृश्य को भी गहराई से चित्रित करता है। यतीश कविता की गहराई धरातल से पैंदे तक नहीं नापते हैं। बल्कि अपनी कविता के जरिए वे पाठक के मानस को धरातल से पैंदे तक तो लेकर जाते ही हैं, पर पैंदे से धरातल तक वापस लाकर भी छोड़ते हैं। कविताओं की अंतर्वस्तु अनेक आयामों को समेटे आगे प्रसार करती है।


कवि अष्टभुजा शुक्ल कहते हैं “यतीश की कविता का कुनबा बहुत बड़ा है।” इस कुनबे की विविधता और संवेदना की परिधि से निकला कवित्व का बीज इतना व्यापक पुष्पित हैं कि जिसकी सौंधी महक से विनोद कुमार शुक्ल के कथन में “पाठक के विराट हृदय के मानस को सार्वजनिकता उपलब्ध होती है।”


यतीश का साहित्य मनुष्य को संवेदनशील बनाने की पूरी-पूरी क्षमता रखता है। जिस समतामूलक संवैधानिक समाज की नींव हम साहित्य में गढ़ते हैं, वह समाज जो कबीर, रैदास, निराला, दिनकर और ओमप्रकाश वाल्मीकि जैसे विराट हृदयों की आँखों में उतरा, उस समाज में कवि यतीश ने अपनी कलम की स्याही ने नया रंग भर दिया है।


कवि यतीश अपनी किन्नर कविता में वैचारिकता और प्रगतिशीलता को धारण करते ही हैं, साथ में अपने समय के समाज की रूढ़िवादी सोच का खंडन भी करते हैं। आधुनिक समय में क्या प्रासंगिक है, यह युग समयानुसार संस्कृति में क्या बदलाव चाहता है, यतीश विवेक के साथ इसे तय करते हैं। थर्ड जेंडर के प्रति उनकी संवेदना इस तरह प्रकट होती हैं-



नौ महीने के अविरल प्रेम का

मैं भी पैगाम था

ओलनाल कटने तक

मैं भी इंसान था

सुख मेरी दहलीज में

दाखिल न हो सका

पर मैं तुम्हारे हर सुख में शामिल रहा

और अब भी मैं

समाज की बजाई हुई ताली में एक चीख मात्र हूँ...


यतीश न सिर्फ यहाँ समाज की विसंगति को उद्घाटित कर रहे हैं, बल्कि आदर्श समाज के नए प्रतिमान भी स्थापित कर रहे हैं। समकालीन आधुनिक भावबोध का ये कवि भावों की तीव्रता, प्रकृति से गहरा राग, रोमानी प्रेम को महत्व, नए किस्म के शब्दों पर बल, कविता की पुरानी परिपाटी व बंधनों से मुक्त हो कर अभिव्यक्ति की नवीन सहजता और स्वच्छंदता पर बल देता है।


यतीश प्रेम के स्वतंत्र और रोमानी रूप को स्वीकार करते हैं। रीतिकाल का देहमूलक प्रेम और भक्तिकाल का वह प्रेम जहाँ प्रेम और भक्ति में अंतर नहीं बचता, इन्हें रुचिकर नहीं लगता हैं। यतीश के लिए प्रेम का अर्थ भावनाओं में डूबे प्रेम से है और वह साधारण न हो कर जीवन का सारतत्त्व हैं-


एक स्थिति हैं हम-तुम

वो जो डाल पर बैठे

तोता-मैना हैं

वो हम-तुम हैं


पेड़ की जो दो फुनगियां हैं

आपस में बिन बात बतियाती रहती है

वो हम-तुम हैं


हम हैं स्टेशन की पटरियाँ

जो शुरुआत में समानांतर

और आगे जब चाहे

क्रॉसिंग पर गले मिल लेती है।


एक संज्ञा के रूप में प्रेम कितना सुकुमार, भावनात्मक, सरल और पवित्र हो सकता है, यतीश को इसकी परख है। यतीश का हृदय उस सूक्ष्म प्रेम के सौंदर्य की प्रतिमूर्ति है। दूसरी ओर यतीश की सौंदर्य चेतना का फलक बड़ा विस्तृत है, उदात्त है, ये चेतना जीवन के सुखात्मक पक्षों के समानांतर दुखात्मक पक्षों को भी सुंदर बना देती है। यतीश की कुछ कविताएँ बाहरी कलेवर से समाज से विमुख सी लग सकती हैं, लेकिन वास्तविक रूप में समाज के साथ इनका गहनतम संबंध है। वे भोगे हुए यथार्थ पर बल देते हैं।


उनकी संवेदना इतनी आधुनिक हैं कि वो विभिन्न आयामों से टकराती है और स्पंदित होती हैं। यहाँ सत्ता के वास्तविक चित्र हैं, मुखरित होती जनवादी चेतना हैं, सामाजिक परिवर्तन की संभावना है, बढ़ते शहरीकरण और यांत्रिकता से उत्पन्न अशांति हैं, नैराश्य में डूबा ग्रामीण मानस हैं और उसके लौटने की संभावना है-


टायरों और जूतों के बीच

पिसती गाँव की सड़कें

शक्ल की शिनाख्त करने में लगी हैं


सड़कों का संघर्ष जारी हैं

संघर्ष की कोई हद नहीं होती

शहर के नलके गाँव में आ कर

रह-रह कर खाँसते हैं


बाबा कहराते हुए बताते हैं

जिन गांवों से हो कर सड़कें गुजरती हैं

वे उजड़ जाते हैं


यतीश कुमार का कविता संग्रह ‘अंतस की खुरचन’ हिंदी कविता संसार में एक ऐसी दस्तावेज है, जो न केवल व्यक्तिगत संवेदनाओं को उकेरता है, बल्कि सामाजिक यथार्थ, प्रेम, विसंगति, और प्रकृति के गहन दर्शन को भी सामने लाता है। संग्रह की कविताएँ मौन और स्वर, प्रेम और विसंगति, स्मृति और यथार्थ के बीच एक संतुलित संवाद रचती हैं। उनकी प्रगतिशील दृष्टि, सामाजिक चेतना, और संवेदनशीलता हिंदी साहित्य की श्रीवृद्धि में एक नया रंग भरती है, जो कबीर, निराला, नागार्जुन , मुक्तिबोध की परंपरा को और समृद्ध करती है। यतीश कुमार का यह काव्य-शिल्प हिंदी साहित्य में गहन समयानुकूल संवेदनाओं का प्रतिबिंब है।


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