पंकज चौधरी का आलेख 'समकालीन हिंदी कविता के देसी कवि दिनेश कुशवाह'
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दिनेश कुशवाह |
'समकालीन हिंदी कविता के देसी कवि दिनेश कुशवाह'
पंकज चौधरी
दिनेश कुशवाह बड़े कवि हैं। यह उनकी संवेदनशीलता और मानवीयता का प्रमाण है कि उन्होंने उन सभी विषयों और व्यक्तियों पर कविताएं लिखी हैं जिनसे उनकी उदात्तता और विश्व बंधुता परिलक्षित होती है। उनकी कविताओं का रेंज इतना बड़ा है कि उसमें एक तरफ यदि राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विद्रूपताओं को प्रश्नांकित करने की हिम्मत है, तो वहीं दूसरी तरफ मीना कुमारी, स्मिता पाटिल, हेलन, रेखा, खजुराहो हितोपदेश, खजुराहो में केली, खजुराहो में मूर्तियों के पयोधर, इसी काया में मोक्ष, पिता की चिता जलाते हुए आदि उनके क्लासिक सौंदर्य बोध और मार्मिकता से हमारा परिचय कराता है। लोक और शास्त्र का इतना विलक्षण प्रयोग समकालीन हिंदी कविता में बहुत कम है। यह उनके काव्य कौशल का परिणाम है कि उनके यहां सम-सामयिकता भी काव्यात्मकता और दीर्घजीविता में कन्वर्ट हो जाती है। दिनेश कुशवाह हिंदी के उन कुछेक कवियों में हैं जिन्होंने कविता को एक गंभीर कर्म के रूप में बरता है और एक प्राकृतिक कवि होने का हमें अहसास कराते हैं।
दिनेश कुशवाह के किसी भी पक्ष पर लिखा जा सकता है और लिखा भी गया है। उनकी कविताओं की गाहे-बगाहे खूब चर्चा होती है। लेकिन यहां एक बात की ओर ध्यान दिलाना जरूरी है कि उनकी सम्पूर्णता में चर्चा नहीं करके उनके उस पक्ष पर चर्चा की जाती है जिससे कि उनका किरदार समकालीन हिंदी कविता के समुद्र में खो जाता है। या उनके उस पक्ष को रेखांकित नहीं किया जाता है जिसने आधुनिक हिंदी कविता की किताब में सबसे बड़ा और मुख्य अध्याय जोड़ा। दिनेश कुशवाह के उस चैप्टर का नाम है जाति या वर्ण-व्यवस्था। मेरा खयाल है कि यह वह चैप्टर है जो मेरे जैसे पाठकों का सबसे ज्यादा ध्यान आकर्षित करता है क्योंकि एक ओर यदि यह भारत का सबसे प्राचीन और बड़ा सवाल है, तो वहीं दूसरी ओर यह एक ऐसा सवाल भी है जो जितना पुराना होता जा रहा है उसके पांव उतने ही पसरते जा रहे हैं। लेकिन समकालीन हिंदी कविता की मुख्यधारा में यह सवाल गायब है। यह सवाल करना कुफ्र है। यह अघोषित रूप से सेंसर्ड और बैन्ड है। अगर आप यह सवाल करते हैं तो समझिए कि आप खुद को देश-निकाला दे देने को मजबूर होंगे। उस देश में जहां आप जाति के बगैर पर भी नहीं मार सकते, वहां हिंदी के महान कवि आपको यह कहते हुए मिलेंगे कि ‘जाति’ कहां है यह तो कब का खत्म हो गई।’ इस विकट परिस्थिति में दिनेश कुशवाह अपने दूसरे काव्य संग्रह ‘इतिहास में अभागे’ को यदि इन पंक्तियों से शुरू करते हैं, तो इसे उनका दुस्साहस ही कहा जाएगा-
‘‘एक बात जान लो
आंच सांच पर ही आती है
झूठ का कुछ नहीं बिगड़ता
और जाति है सहस्राब्दियों का सबसे बड़ा झूठ
जो सच से बड़ा हो गया है।’’1
अब सवाल यह पैदा होता है कि जाति जैसे झूठ को किसने सबसे बड़ा सच बनाया? वही न, जिसने जाति की आड़ में हजारों साल से जीवन के तमाम कारोबार और प्रपंचों को बदस्तूर जारी रखा और यही समझता रहा कि दुनिया ऐसे ही चलती है। आखिर कवि दिनेश कुशवाह ने भी तो इस बात को स्वीकारा कि जाति भले ही सबसे बड़ा झूठ हो लेकिन आज वह सबसे बड़ी सच्चाई बन गई है। अगर गौर से देखें तो सम्पूर्ण भारतीय साहित्य ‘जाति’ की बुनियाद पर आपको टिका हुआ मिलेगा। ऐसा इसलिए क्योंकि जाति ही परोक्ष रूप से समाज, राजनीति और धर्म को संचालित करती है। उल्लेखनीय है कि शासक वर्ग द्विज कभी भी यह घोषित करके राजपाट नहीं चलाता कि वह अपने वर्ग के हितों का ही पोषण करेगा। वह यही घोषणा करेगा कि राज्य के समस्त नागरिक उसकी संतान हैं और उनके अधिकारों की रक्षा उसकी परम नैतिक जिम्मेदारी है। लेकिन हकीकत में वह द्विज हित को ही पुष्ट करता मिलेगा। वहीं, गैर-द्विजों को कभी किसी तरह की सत्ता प्राप्ति हो भी जाती है तो वे दलित-बहुजन का ढि़ंढोरा पीट कर राज-काज संभालेगा और 'बहुजन हिताय बहुजन सुखाय' काम करेगा। आप घोषित रूप से जाति-जाति कर के मुफ़्त में बदनाम होते रहिए और वे अघोषित रूप से जात-पात करते हुए सारा हलवा-पूड़ी डकारते जाएंगे। द्विज शासक वर्ग और गैर द्विज शासक वर्ग में यही मौलिक अंतर है।
हमारे तीन ग्रंथ महाभारत, रामायण और गीता के मूल में प्रकारांतर से वर्ण-व्यवस्था है, जिनसे चारों वर्ण से जुड़ी कहानियां और दृष्टांत मिलने शुरू हो जाते हैं। प्रमाण के तौर पर इन ग्रंथों के रचना काल और तत्कालीन शासन-व्यवस्था भी देखी जा सकती है। इसलिए समकालीन रचनाएं महाभारत, रामायण और गीता की विकास परंपरा में आती हैं। इस विकास परंपरा में उनकी रचनाएं तो आती ही हैं जो जाति के नाम पर सभी तरह के भेदभाव, अन्याय और असमानता को खत्म करने के लक्ष्य को ले कर रचनाएं करते हैं, और उनकी भी जो जाति को नहीं मानते। बकौल फणीश्वरनाथ रेणु, ‘‘जाति बहुत बड़ी चीज है। जात-पात मानने वाले की भी जाति होती है।’’ दिनेश कुशवाह इस बात को बहुत साफ-साफ और गहराई से जानते हैं क्योंकि ‘इतिहास में अभागे’ जैसी रचना वैसे कतई संभव नहीं-
‘‘वे अभागे कहीं नहीं है इतिहास में
जिनके पसीने से जोड़ी गईं
भव्य प्राचीरों की एक-एक ईंट
पर अभी भी हैं मिस्र के पिरामिड
चीन की दीवार और ताजमहल।
सारे महायुद्धों के आयुध
जिनकी हड्डियों से बने
वे अभागे
कहीं भी नहीं हैं इतिहास में।
पुरातत्ववेत्ता जानते हैं
जिनकी पीठ पर बने
बकिंघम पैलेस जैसे महल
वे अभागे भूत-प्रेत-जिन्न
कुछ भी नहीं हुए इतिहास के।’’2
कवि दिनेश कुशवाह की यह कविता पूरी दुनिया के मजदूरों को संबोधित करते हुए उनकी विश्वदृष्टि का उदाहरण पेश करती है। कविता में विश्वयुद्धों से ले कर मिस्र के पिरामिड, लंदन के बकिंघम पैलेस और चीन की दीवार तक का वर्णन आया है। भारत के परिवेश का वर्णन तो है ही। कवि का मंतव्य यहां स्पष्ट है कि एशिया से लेकर यूरोप, अफ्रीका और अमेरिका तक के मजदूरों और किसानों का दुख एक समान है। कवि की चिंता है कि यह कैसी त्रासदी है कि जिन्होंने दुनिया का निर्माण किया वही इतिहास से बहिष्कृत है। इतिहास की किताबों में उनका जिक्र तक नहीं। कवि की संवेदना यहां हाहाकार कर उठती है। कविता की अंतर्ध्वनियों से उनकी चीत्कार सुनी जा सकती है।
भारत के मजदूरों और किसानों की स्थिति बाकी दुनिया से अलग और भयावह है। यहां कमेरा वर्ग पहले दलित-बहुजन है, बाद में मजदूर और किसान। इसलिए ऊंच-नीच में विभाजित भारतीय समाज में उनको दोहरी-तिहरी मार झेलनी पड़ती है। भीमराव आम्बेडकर ने सामाजिक विभाजन के रूप में इसकी पहचान की थी और उन्होंने इसके खिलाफ ऐतिहासिक लड़ाई लड़ी। प्रयागराज के करछना में एक मजदूर को काम की मनाही करने पर ठाकुरों ने इसलिए जिंदा जला दिया क्योंकि वह दलित था। मनुस्मृति में स्पष्ट विधान है कि शूद्रों-अतिशूद्रों को द्विजों की अवज्ञा करने पर मौत के घाट उतार दिया जाए। वैसे शायद ही कोई दिन ऐसा गुजरता हो जिस दिन किसी न किसी कमेरे की हत्या न की जाती हो।
दिनेश कुशवाह इतिहास का निर्माण करने वालों को यदि इतिहास में नहीं देख पाते हैं तो उसके मूल में यह सारी बातें नत्थी हैं। आज इतिहास से उन सारे प्रतीकों और प्रतिरोध के औजारों को नष्ट कर देने का सिलसिला भारी पैमाने पर हो रहा है जिनसे सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक सत्ता की तथाकथित भावनाएं आहत हो जाती हैं। शूद्रों-अतिशूद्रों, स्त्रियों और कमेरों के मान-सम्मान की लड़ाई लड़ने वाले जोतिबा फुले पर बनी फिल्म को सेंसर बोर्ड रिलीज करने से इसलिए मना कर देता है क्योंकि फिल्म में सावित्रीबाई फुले पर एक ब्राह्मण बालक को पत्थर और गोबर फेंकते हुए दिखाया गया है। अब सवाल यह पैदा होता है कि सेंसर बोर्ड की सलाह पर यदि फिल्म के कंटेंट से छेड़छाड़ किया जाता है, तो हमें सही और सच्चा इतिहास कहां से देखने और पढ़ने को मिलेगा? और सच्चा और सही इतिहास अगर नहीं लिखा गया, तो फिर दुनिया के जो निर्माता हैं, वे तो इतिहास से गायब ही रहेंगे। ऐतिहासिक तथ्यों से यदि इसी तरह तोड़-फोड़ और खिलवाड़ होता रहा, तो दुनिया का जो कमेरा वर्ग है, जिसे भारत में शूद्र, अतिशूद्र के नाम से संबोधित किया जाता है, इतिहास से सदा के लिए गायब कर दिए जाएंगे।
कवि दिनेश कुशवाह की यह कविता कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण है। ‘इतिहास का अंत’ पर कई दशकों से जो वैश्विक बहस चल रही है, उसके अंतर्निहित मंतव्यों का यह कविता एक ओर जहां उसका काव्यात्मक चित्रण करती है, वहीं दूसरी ओर दलित-बहुजन विमर्श को भी यह एक आकार प्रदान करती है। यहां कवि से बिलकुल असहमत नहीं हुआ जा सकता कि इतिहास के असली निमार्ताओं का इतिहास में न तो भूत-प्रेत-जिन्न के रूप में वर्णन मिलता है और न ही जानवरों से भी बदतर जीवन जीने वालों के रूप में। यह कविता अपने मूल में न्याय, करुणा, मैत्री, विश्व बंधुत्व और प्रेम की पुकार है। भारतीय परिप्रेक्ष्य में इस कविता की प्रासंगिकता इसलिए भी ज्यादा महत्वपूर्ण है क्योंकि आम्बेडकर की अध्यक्षता में बने संविधान के प्रावधानों को लागू करने की दिलचस्पी मौजूदा शासक वर्ग में नहीं है। भारतीय संविधान के विधानों का यदि सही-सही पालन हुआ होता तो आज भी पाठशालाओं में पढ़ने जाते बच्चों को भालों की नोंक पर नहीं टांग दिया जाता, बच्चियों की कोख को कूड़ेदान नहीं बना दिया जाता, कुमारियों के शव तालाबों और नदियों में तैरते हुए नहीं मिलते और दलित दूल्हों को घोड़ों से नहीं उतार दिया जाता।
कवि दिनेश कुशवाह की इस कविता में दरअसल इतिहास के अभागों से ले कर वर्तमान और भविष्य के अभागों की भी गहरी चिंता प्रकट हुई है। कवि इतिहास का सिरा पकड़ कर वर्तमान और भविष्य का खाका इसलिए पेश कर पाता है क्योंकि उन्हें इतिहास और सामाजिक अवस्थिति का गहरा बोध और ज्ञान है। उनका चित्रण इसलिए भी प्रामाणिक और विश्वसनीय बन पड़ा है, क्योंकि उनको स्वयं भी कमोबेश सामाजिक अन्याय और दुरभि संधियों का सामना करना पड़ा होगा। ‘इतिहास में अभागे’ की पीड़ा और मर्म को यदि पाठक अहसास कर लेता है, तो उसका कारण यह है कि कवि निम्नवर्गीय और निम्नवर्णीय परिघटनाओं और परिस्थतियों से अपने को कनेक्ट करता है। देश के हालात दिनों-दिन जिस तरह बिगड़ते जा रहे हैं उसमें किसी भी तरह की कल्पना अस्वाभाविक नहीं है एवं आने वाले दिनों में वंचितों, महिलाओं और अल्पसंख्यकों के साथ किसी भी तरह की अनहोनी से इनकार नहीं किया जा सकता।
दिनेश कुशवाह की वे कविताएं मुझे ज्यादा अपील करती हैं जिनको उन्होंने सबसे सताए और कमजोर लोगों को लक्ष्य कर के लिखी हैं। ऐसे सताए हुए लोग दुनिया के किसी भी कोने के हो सकते हैं। मुझको ऐसा प्रतीत होता है कि उनकी ऐसी कविताएं ज्यादा चमकदार होती हैं। वे विमर्श की मांग करती हैं। ऐसी कविताएं उनकी संवेदना, करुणा और सरोकार का पता देती हैं, साथ ही इससे उनकी उदात्तता और व्यापकता की भी खोज होती है। कवि कनाड़ा के दोनोवाल बेली के 1996 में 100 मीटर की दौड़ जीतने पर ऐसी कविता लिखते हैं जिससे पूरी दुनिया के अश्वेत, दलित, कमजोर और असहाय लोग प्रेरणा पा सकते हैं-
‘‘अपने रंग को ले कर तुम्हें
इतने ताने क्यों सुनने पड़ते हैं
ऐसे मारक ताने जो तुम्हारी जान ले लेते हैं
जबकि तुम्हारे शरीर की बलवती मछलियां
समुद्र मथ कर अमृत निकाल सकती हैं।
लगता है तुम्हारा खुला मुंह
अभी निगल लेगा सूरज को
हमारे आदिवासी हनुमान की तरह।
तो आखिर तुम सारे
विश्वविजयी खिलाडि़यों का मुंह
अपने प्रति हो रहे
अत्याचारों के खिलाफ
कब खुलेगा!’’3
दिनेश कुशवाह ने इस कविता को दिवंगत दलित लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि को समर्पित किया है। मुझे नहीं लगता कि ओमप्रकाश वाल्मीकि से ज्यादा उपयुक्त सुपात्र इसके लिए कोई और हो सकता है। इस कविता की सार्थकता इसमें है कि यह पूरी दुनिया के अश्वेतों और दलितों के मनोबल एवं आत्मविश्वास को बढाने का काम करती है। उन्हें उनकी ताकत का अहसास कराते हुए उनमें ऊर्जा का संचार करती है। कवि का पहला दायित्व और कर्तव्य यह बनता है कि वह समाज या व्यक्ति का इमोशनल ब्लैकमेल नहीं करे। वह अपने नागरिकों को उनके अतीत और वर्तमान की याद जरूर दिलाएं, लेकिन इस शर्त पर कि उनसे निजात पाने को उनके भीतर ताकत के जो अजस्र स्रोत हैं वे हिलोरें मारने लगें। कवि अपने समाज और नागरिकों को यह अहसास कराएं कि प्रकृति ने हरेक जीव और मनुष्य को विकट से विकट परिस्थितियों से पार पाने की क्षमता प्रदान की है, जिसको उन्हें खोजने की जरूरत है। दिनेश कुशवाह का कवि यह काम बखूबी करता है। वे पूरी दुनिया के सताए और कमजोर लोगों से आह्वान करते हैं कि जिनसे इस दुनिया की चमक, रौनक और खनक बरकरार है, यदि वे अपनी अपूर्व आंतरिक शक्ति और संख्याबल को पहचान लें, तो ऐसी कोई ताकत नहीं जो उनसे आंख भी मिला ले।
दिनेश कुशवाह की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे प्रतिरोध भी बड़ी शालीन और मर्यादित भाषा में दर्ज करते हैं जिससे उनकी रचनात्मक अभिव्यक्ति और उत्कर्ष देखने को मिलता है। हिंदी कविता का अध्ययन करने पर पता चलता है कि प्रतिरोध की अमूमन कविताएं अपनी शालीनता और मर्यादा को भंग करते हुए आगे बढ़ती हैं, जिससे उनकी पाठकीयता भी प्रभावित होती है- ‘‘नई पीढ़ी के विद्वानों ने सामाजिक यथार्थ के नाम पर भाषागत आभिजात्य के विरोध में आंदोलन चलाया है। ज्ञातव्य है कि भाषा को सीधे वर्ग से जोड़ कर देखना उचित नहीं है। दूसरी बात यह कि भाषा वर्गीय संस्कारों से प्रभावित होती है, लेकिन उच्च वर्गों के सारे संस्कार त्याज्य नहीं होते। सुरुचि और शालीनता यदि यथार्थ को छिपाने के लिए प्रयोग में लाई जाती है, तो वह त्याज्य है, लेकिन वह अभिव्यक्ति के उत्कर्ष के रूप में सामने आती है, तो वरेण्य है।’’4
प्रतिकार, प्रतिरोध, प्रेरणा, प्रेम, करुणा, न्याय और मुक्ति दिनेश कुशवाह की कविताओं के बीज शब्द हैं। इन्हीं शब्दों से वे अपनी कविताओं का ताना-बाना बुनते हैं, जिनकी ध्वनि और प्रतिध्वनि उनके दोनों संग्रह की कविताओं में सुनाई देती हैं। वरिष्ठ और वरेण्य कथाकार-उपन्यासकार शिवमूर्ति लिखते हैं- ‘‘प्रेम एवं करुणा की जो पुकार दिनेश कुशवाह की कविता में मिलती है, उसके अनुकरण में बार-बार अनेक कवि-कंठ फूट पड़ते हैं। वे कबीर की तरह सच को सबसे बड़ा तप मानते हैं और मुक्तिबोध की तरह अभिव्यक्ति के खतरे उठाना जानते हैं।’’
दिनेश कुशवाह को पढ़ते हुए यह बात नोटिस करने वाली है कि उनके दूसरे संग्रह की अधिकांश महत्वपूर्ण कविताएं प्रचलित अर्थों में कहूं तो दलित-बहुजन विमर्श की कविताएं हैं। इन कविताओं के मूल में सामाजिक न्याय की प्रेरणा है। ऐसा अकारण भी नहीं है क्योंकि कवि जिस समाज का प्रतिनिधित्व करता है उसे भी सामाजिक न्याय की दरकार है और नए दौर में वह भी विमर्श के दायरे में शामिल है। ऐसा कैसे हो सकता है कि दिनेश कुशवाह जैसा जागरूक, संवेदनशील और राजनीतिक कवि अन्य जनवादी-प्रगतिशील कवियों की तरह क्लासलेस सोसायटी बनाने की आड़ में जाति के प्रश्नों को छिपाता चला जाए। हालांकि दिनेश कुशवाह की कविताओं में भी जातियां उस तरह नहीं आतीं जिस तरह दलित कवियों की कविताओं में आती हैं। उनकी भी कविताओं की संरचना प्रगतिशील कवियों की ही तरह है। लेकिन उसमें वर्णित घटनाओं, स्थितियों और परिवेश का चित्रण कुछ इस तरह से होता है कि कोई भी उसको दलित-बहुजन से कनेक्ट या रीलेट कर सकता है। कवि दिनेश कुशवाह की विशिष्टता यहीं परिलक्षित होती है कि वह प्रगतिशीलता का निर्वाह करते हुए हिंदी कविता के सामाजिक लोकतंत्र के दायरे को विस्तृत करते जाते हैं-
‘‘जाल में चिड़ियां फंसाने वाले
या जल में मछली मारने वालों को
व्याध कहना
भुखमरों पर ज्यादती होगी
महाराज!
क्षमा करें आदिकवि!
आपसे अच्छा कौन जानेगा
उन लोगों के बारे में
जो शिकार को
खेलना कहते हैं।’’5
यहां यह खुल कर बताने की जरूरत नहीं है कि ‘‘जाल में चिड़ियां फंसाने वाले या जल में मछली मारने वाले’’ किन जातियों और समाजों के लोग होते हैं। दिनेश कुशवाह यहां इशारों में उनके पेशों के बारे में जानकारी देते हैं जिससे हम जान लेते हैं कि ये समाज के निम्नवर्णीय लोग हैं जिन्हें सामाजिक न्याय की दरकार है। दिनेश कुशवाह की कविताओं की हेडिंग भी बड़ी अर्थपूर्ण होती हैं। वे वर्तमान में चल रहे विमर्शों को एक मुक्कमल आकार प्रदान कर जाती हैं। ‘मैंने रामानंद को नहीं देखा’ प्रख्यात दलित आलोचक डॉ. धर्मवीर की उस स्थापना की सहसा याद दिला जाती है जिसमें उन्होंने रामानंद को कबीर का गुरु मानने से इनकार कर दिया है। डॉ. धर्मवीर का तर्क है जो कबीर ब्राह्मणों, वेद-पुराणों, कर्मकांडों आदि की जिंदगी भर चिंदियां उड़ाता रहा, उसका कोई सनातनी और जात-पात में लिथड़ा ब्राह्मण कैसे गुरु हो सकता है? उसमें भी उस विद्रोही कबीर का जिसका रामानंद ने जुलाहा होने के कारण गुरु बनने से इनकार कर दिया था? डॉ. धर्मवीर कहते हैं कि कीड़ा-मकोड़ा या पशु-पक्षी कबीर का गुरु हो सकता है लेकिन कोई ब्राह्मण नहीं। दिनेश कुशवाह की ‘मैंने रामानंद को नहीं देखा’ जैसी हेडिंग एक तरफ यदि डॉ. धर्मवीर की स्थापना को बल प्रदान करती-सी लगती है, वहीं दूसरी तरफ रामानंद के महान गुरु होने से संबंधित समाज में जो किम्वदंतियां प्रचलित हैं उसको कवि हिंदी कथाकार काशीनाथ सिंह पर परोक्ष रूप से आरोपित करते हैं। कवि का मानना है कि उन्होंने रामानंद को तो नहीं देखा लेकिन उनके जो गुण समाज में गाए जाते हैं, उन गुणों का साक्षात्कार कोई चाहे तो काशीनाथ सिंह में कर सकते हैं। यहां यह बताना जरूरी है कि संयोग से काशीनाथ सिंह कवि दिनेश कुशवाह के भी गुरु रहे हैं। मेरा मानना है कि ‘मैंने रामानंद को नहीं देखा’ हिंदी की एक विलक्षण और क्लासिक कविता है क्योंकि इसमें एक गुणी गुरु होने की कसौटियां भी बताई गई हैं- ‘‘पहले गुरु, गुरु थे, प्रेम में सद्गुरु हो गए।’’6
भारत में सबसे बड़ा अपराध वर्णव्यवस्था है। इस अपराध ने देश का सबसे बड़ा नुकसान किया है। महासागरों में भी उतने जल नहीं होंगे जितने आंसू वर्णव्यवस्था से पीड़ित लोगों ने बहाए हैं। अतिशूद्रों-शूद्रों और महिलाओं को इस व्यवस्था ने कैसे-कैसे तोड़ा है यह अवर्णनीय है। सभी बड़े कवियों-लेखकों ने इस पर लिखा और इसको खत्म करने की मांग की। लेकिन इसको खत्म करने की जितनी कोशिशें होती हैं यह उसी अनुपात में बढ़ती जाती है। दिनानुदिन यह नए-नए रूपों में आकार ग्रहण करके प्रकट होती है। अब तो यह अदृश्य हो कर भी शिकार करती है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि वर्णव्यवस्था ने अपने पुराने रूपों से छुटकारा पा लिया है। खौफनाक और हैरतअंगेज तो यह है कि नए के साथ-साथ इसके पुराने रूप भी बदस्तूर जारी हैं जो सारी आधुनिकता, कम्प्यूटर-मोबाइल-इंटरनेट युग, सभ्यता और संस्कृति पर सवाल खड़े कर रहे हैं। दूसरी ओर दलित-बहुजन समाज से आने वाले कवियों को जाति के प्रश्न इस तरह परेशान करते रहते हैं कि घुमा-फिरा कर जाति उनके यहां चली आती है। इन कविताओं के जरिए कवि कई-कई सवालों का हल जानने की कोशिश करते हैं।
मेरा खयाल है कि ‘‘कमाल है!! कहा कंवल भारती ने’’ कविता हिंदी कविता की थाती है और बगैर इसके जिक्र के यह आलेख अधूरा रहेगा। इस कविता के माध्यम से दिनेश कुशवाह ने प्रख्यात विचारक-आलोचक कंवल भारती की दृष्टि, चिंतन और विचार का अचूक, सटीक और जीवंत काव्यात्मक चित्रण किया है। जो कोई भी कंवल भारती की आलोचना और टिप्पणियों से परिचित होगा, उसे इस बात की जानकारी होगी कि समकालीन हिंदी साहित्य की दुनिया में कंवल भारती एक ऐसा नाम है जो न सिर्फ एंटी एस्टिबल्श्मिेंट लेखन करता है बल्कि द्विजवादी साहित्य और उसकी वैचारिक सरणियों के पुर्जे उड़ाता रहता है। कंवल भारती के बारे में यदि यह कहा जाए कि वे दलित-बहुजन साहित्य के लिए गाइड का काम कर रहे हैं, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। उनके संदर्भ में यह भी कहा जाना चाहिए कि वहां समझौता या मिलावट की बहुत कम गुंजाइश है, क्योंकि वही यह घोषणा कर सकते हैं कि राजकमल, राधाकृष्ण, वाणी, राजपाल एंड संस, भारतीय ज्ञानपीठ, किताबघर जैसे द्विजवादी प्रकाशन संस्थान उनसे कोई सम्पर्क नहीं करें। उल्लेखनीय तो यह है कि कंवल भारती ये सब तब कर रहे हैं जब धुरंधरों की पावर और स्टेट के खिलाफ बोलती बंद है और वे छोटे-छोटे स्वार्थों के लिए समझौता किए जा रहे हैं। एक अर्थ में कंवल भारती आत्महंता आस्था के प्रतीक हैं। वे जिस मौज और लगन से आधुनिक साहित्य की वैचारिकी के निर्माण में लगे हुए हैं वह उन्हें हिंदी साहित्य के इतिहास में सबसे खास बनाता है। दिनेश कुशवाह कंवल भारती का अक्श उभार कर रख देते हैं-
‘‘उनसे स्वीकृति की भीख क्यों मांगे?
उन्होंने पांच सौ सालों तक
कबीर को कवि नहीं माना
आपको कवि होना था
तो जन्मना था उनके कुल में।
हम सबसे आदरपूर्वक
पढ़ते हैं उनकी पोथियां
पर सबसे अधिक घृणा
वे हमारे खिलाफ ही बांचते हैं।
युगों से हम उन्हें
देवता की तरह पूजते हैं
पर वे आज तक हमें
आदमी नहीं मानते।’’7
दिनेश कुशवाह की चिंता और परेशानी को हम उनकी परोक्ष रूप से ‘चुल्लू भर पानी का सनातन प्रश्न’, ‘आज भी खुला है, अपना घर फूंकने का विकल्प’, ‘उजाले में आजानुबाहु’ और प्रत्यक्ष रूप से ‘हरिजन देखि प्रीति अति बाढ़ी’ जैसी कविताओं में भी महसूस कर सकते हैं-
‘‘पर जब सुना किसी का नाम
आगे पीछे लगा है राम
जैसे राम सजीवन राम
या बाबू जगजीवन राम
राम नाम की माला फेंकी
मुंह से निकला छी! छी! राम!
हरिजन देखा, आंखें फूटीं
करुणा, दया, भलाई छूटी।’’8
मेरा खयाल है कि जाति का सवाल बड़े सवालों में एक है और इसके तार अनेकानेक सवालों से जुड़े हुए हैं। समकालीन हिंदी कविता में दिनेश कुशवाह उन कुछेक कवियों में हैं जो मूल को पकड़ते हैं और उसके जरिए सभी सवालों की पड़ताल करते हैं। उनकी कविताओं की जद में वह सब कुछ आता है जिससे एक भारतीय का जीवन प्रभावित होता है। महिलाओं के सवाल और मकबूल फिदा हुसैन के बहाने उन्होंने हमारे जिस्म में दौड़ते नफरती खून का जिस तरह पोस्टमार्टम लिया है वह ‘नया भारत’ की अवधारणा को तार-तार करता है। यहां यह कहने की जरूरत है कि महिलाओं की प्रताड़ना और एक सोची-समझी रणनीति के तहत अल्पसंख्यक प्रतीकों पर लगातार हमले वही लोग कर रहे हैं जिन्हें आम्बेडकर की अध्यक्षता में बने संविधान नहीं सुहाता तथा वे उसकी जगह मनुस्मृति लागू करने की कवायद में जुटे हुए हैं। ‘ऑनर किलिंग के समय में बालसखी’, ‘महिला सरपंच के निर्वसन घुमाए जाने पर’ और ‘हर औरत का एक मर्द है’ जैसी कविताएं यह बताने के लिए काफी हैं कि जिन अपराधों को सामंती, कबीलाई समाज में अंजाम दिया जाता था, वे आज भी बदस्तूर जारी हैं। महिलाओं को महाभारत काल से ले कर आज तक इसलिए दंडित किया जाता रहा है ताकि उनकी अस्मिता को दबाते हुए पुरुषों की यौन कुंठा को तृप्त किया जा सके। दिनेश कुशवाह की कविता ‘ऑनर किलिंग के समय में बालसखी’ प्रेम से शुरू होती है और ऑनर किलिंग की भयावह आशंका पर खत्म होती है। मेरे कहने का मतलब है कि शूद्रों के साथ-साथ महिलाओं को दंडित करने के जो विधान मनुस्मृति ने 2500 साल पहले रचे थे, उसका पालन आज भी किया जाता है। दिनेश कुशवाह की एक अन्य कविता ‘पूछति ग्रामवधू सबसे’ में यह सवाल किया जाता है-
‘‘भूखा ही मनुआ सो जाए, नया जमाना आए-जाए,
देह जली है, पेट जला है, अपना क्या कुछ भी बदला है।’’9
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि भारतीय संविधान की सक्रियता और सामाजिक जागरुकता के कारण दलितों और महिलाओं की स्थिति में थोड़ा-बहुत बदलाव हुआ है, लेकिन अब उस बदलाव को रोकने की भी येन-केन प्रकारेण साजिशें रची जाने लगी हैं।
दलितों और महिलाओं के साथ जिस वर्ग को आज सबसे ज्यादा टारगेट किया जा रहा है वह अल्पसंख्यक, विशेषकर मुसलमान है। मुसलमानों के खिलाफ माहौल में इतना जहर घोल दिया गया है कि उन पर संदेह करते हुए उनकी देशभक्ति पर लगातार सवालिया निशान लगाया जा रहा है। हालांकि मुसलमानों के खिलाफ नफरत पूर्ववर्ती शासन काल में भी देखने को मिलती थी और उसी के परिणामस्वरूप मकबूल फिदा हुसैन जैसे महान और विश्वप्रसिद्ध कलाकार को भारत छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा। लेकिन कल्पना कीजिए कि यदि आज हुसैन जीवित होते, तो इस मुसलमान विरोधी माहौल में उनकी क्या दशा होती! हुसैन का सरस्वती की न्यूड बनाने के कारण उनके अपने ही देश ने न सिर्फ अनादर किया बल्कि उन्हें इतना परेशान किया कि उन्होंने खुद अपने को देशनिकाला दे दिया। जबकि हमारा महान साहित्य और इतिहास न जाने ऐसे-ऐसे कितने न्यूडों से भरा पड़ा है। यहां कवि के सवाल देखने लायक हैं-
‘‘जयदेव, विद्यापति और सूर की राधा के
चित्र मिटा दोगे तुम?
वृंदावन को जला दोगे
कि वहां एक बार कृष्ण के मन
में जगी लालसा गोपियों को निर्वसन देखने की
सरस्वती और ब्रह्मा की कथा का क्या करोगे?
और सारे पुराणों का?
तुम उनके खिलाफ क्यों नहीं बोलते
जो सरस्वती का निर्लज्ज व्यापार कर रहे हैं
दरअसल
वे निर्वसन कर रहे हैं सरस्वती को।’’10
दिनेश कुशवाह हुसैन के बाबत और भी बहुत सारी बातें करते हैं जिनसे उनके बहुपठित होने और उनकी प्रज्ञा का दर्शन होता है। मेरा खयाल है कि जो देश किसी कलाकार का धर्म और जाति देख कर उसके साथ अपराध करता है वह कभी भी तरक्की नहीं कर सकता। मुस्लिम प्रतीकों, शासकों और कलाकारों के वजूद को मिटाने की आज जिस तरह से आंधी चला दी गई है, वह इसका संकेत है कि बुरे दिन आ चुके हैं। कवि की हुसैन पर लिखी कविताओं से अप्रत्याशित अनहोनियों और आशंकाओं की सूचनाएं प्रकट होती हैं। इस तरह हम देखते हैं कि दिनेश कुशवाह सत्ता का क्रिटिक रचते हैं और एक असली बुद्धिजीवी की भूमिका में सदैव उपस्थित होते हैं। उनकी कविताओं के गहरे अर्थ होते हैं, जिनका प्रसार असीम एवं अछोर है।
दिनेश कुशवाह समकालीन यथार्थ के कवि हैं। उस यथार्थ के जो नई सामग्री प्रदान करता है। वे हिंदी के समकालीन यथार्थवादी कवियों से इस अर्थ में भी भिन्न हैं जो मूल समस्याओं से ध्यान भटका कर अवांतर प्रसंगों या जिनका देश की विशाल आबादी की स्थितियों, परिवेश और दुनिया से कोई रिश्ता नहीं बनता। यदि कभी उनसे उनका रिश्ता बन भी गया तो वे या तो उनको उपहास के पात्र बना देंगे, या नहीं तो फिर उनका खलनायक या नव फासीवादी के रूप में चित्रण करेंगे। प्रमाण के लिए पिछले 30-40 वर्षों की हिंदी कविताओं पर अगर रिसर्च किया जाए तो अनेक स्वनामधन्य कवि सामाजिक न्याय के शत्रु बनते नजर आएंगे। दिनेश कुशवाह यथार्थ की नई सामग्री प्रस्तुत कर परंपरा और कला का विकास करते हैं- ‘‘एक ओर, यथार्थ हमेशा नई सामग्री प्रदान करता है और पुरानी सामग्री को दृष्टि से हटाता है। लेकिन वह उनके बहाव में पड़ कर भी उन प्रवृत्तियों को सामने लाने में सफल हो जाता है जिनकी महत्ता पहले नहीं समझी गई थी। नए रूपों का विकास यथार्थ के इसी सक्रिय, अविरल परिवेक्षण से गहरे में जुड़ा है। इस अर्थ में कला विकासमान है और सभी कलाकृतियां, चाहे उनका संबंध विकास के किसी भी चरण से हो, अंतत: सौंदर्यात्मक रूप में समान हैं।’’11
तेजस्वी युवा आलोचक संतोष अर्श ‘इतिहास में अभागे’ पर विहंगम दृष्टि डालते हुए कहते हैं- ‘‘दिनेश का अन्य संग्रह ‘इतिहास में अभागे’ भी भूमंडलीकरण की परछाईं तले रचा गया है। यह शीर्षक फ्रेंज फेनॉन की पुस्तक ‘दि रैचिड ऑफ द अर्थ’ के शीर्षक का स्मरण कराता है। जिसकी प्रस्तावना सार्त्र ने लिखी है। ‘धरती के अभागे’ नाम से जिसका अनुवाद हुआ है और जिसमें अश्वेतों के प्रति हुए औपनिवेशिक अन्याय का हवाला है। फेनॉन लिखते हैं, ‘हां, देसी कवि का पहला कर्तव्य यह स्पष्ट तौर पर देखना है कि उसने अपनी कलाकृति के विषय के तौर पर किन लोगों को चुना है। वह मजबूती के साथ तब तक आगे नहीं बढ़ सकता जब तक उसे उनसे अपने अलगाव का अहसास नहीं होता। (धरती के अभागे, अनुवादक : अशोक कुमार, पृष्ठ-175)। इस संग्रह से हम साफ देख सकते हैं कि दिनेश इस अलगाव को महसूस कर भारतीय समाज के शोषितों को कविता का विषय तीव्रता से बनाते हैं। इसमें वे अश्वेतों के लिए भी कविता लिखते हैं और भारतीय हरिजनों, दलितों के लिए भी।’’12
दिनेश कुशवाह की कविताओं की अनेकानेक विशेषताएं हैं। नए यथार्थ की खोज के साथ-साथ काव्य-कला और भाषा का विलक्षण प्रयोग भी उनके यहां सहज ही देखने को मिलता है। जबकि नए यथार्थ के साथ काव्य-कला को भी साध लेना बड़ी बात मानी जाती है। शिवमूर्ति कहते हैं- ‘‘अद्भुत कथन शैली, देसी मिठास और शास्त्रीय परिमार्जन से भरी भाषा को जो मणिकांचन योग दिनेश कुशवाह की कविता में उपस्थित होता है, अन्यत्र दुर्लभ है। कल्पना, प्रतीकों और बिम्बों से सज्जित अपनी कविता में वे वैज्ञानिक-दार्शनिक तर्को के साथ ऐसी सरसता न जाने कहां से लाते हैं। जबकि वैचारिक आधार और राजनीतिक दृष्टि ही उनकी कविता के पाथेय हैं।’’ दिनेश कुशवाह के ये सारे गुण उनको कवि-आचार्य के पद पर विराजमान करते हैं और उनकी कविताओं को दीर्घजीवी बनाते हैं।
संदर्भ सूची :
1. कुशवाह, दिनेश, इतिहास में अभागे, राजकमल प्रकाशन प्रा.लि., 1-बी, नेताजी सुभाष मार्ग, दरियागंज, नई दिल्ली-110002, पृष्ठ-10
2. वही, पृष्ठ-11, 12
3. वही, पृष्ठ-25, 26
4. नवल, नंदकिशोर, कविता : पहचान का संकट, भारतीय ज्ञानपीठ, 18, इन्स्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड, नई दिल्ली-110003, पृष्ठ-174
5. कुशवाह, दिनेश, इतिहास में अभागे, राजकमल प्रकाशन प्रा.लि., 1-बी, नेताजी सुभाष मार्ग, दरियागंज, नई दिल्ली-110002, पृष्ठ-15
6. वही, पृष्ठ-17
7. वही, पृष्ठ-94
8. वही, पृष्ठ-43
9. वही, पृष्ठ-82
10. वही, पृष्ठ-98
11. लुकाच, जार्ज, समकालीन यथार्थवाद (द मीनिंग ऑफ कंटेंपोरेरी रियलिज्म), अनु., चौहान, सिंह, कर्ण, स्वराज प्रकाशन, 4697/3, 21-A, अंसारी रोड, दरियागंज, दिल्ली-110002, पृष्ठ-92
12. मिश्र, विनोद, कृति बहुमत, विनोद कुमार मिश्र द्वारा, 2ए, सड़क-13, सेक्टर-10, भिलाई-490006, दुर्ग (छ. ग.), फरवरी-25, पृष्ठ-13
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