प्रोफ़ेसर लाल बहादुर वर्मा का आलेख ‘जिंदगी है तो उम्मीद भी’।
स्टीफन हाकिंस के नाम से कौन परिचित नहीं होगा। दुनिया का यह
सर्वश्रेष्ठ भौतिकविद अपने जीवट के दम पर आज जीते-जी ही एक किंवदंती बन चुका है।
हाल ही में स्टीफन के जीवन पर एक बायोपिक फिल्म बनी है - ‘द थियरी ऑफ
एव्रीथिंग’। इस असाधारण फिल्म को जेम्स मार्श ने निर्देशित किया है।
फिल्म में एडी की असाधारण भूमिका ने स्टीफन हॉकिंग की जिजीविषा और उसकी उपलब्धियों
को मर्मस्पर्शी ढंग से जीवंत कर दिया है। जिस शरीर में दिमाग के अलावा सारे अंग
धीरे-धीरे शिथिल पड़ते गये हो वह व्यक्ति गणित और एस्ट्रोफिजिक्स जैसे व्यापक विषय
पर लगातार शोध कर रहा हो ऐसा अविश्वसनीय लगने वाला जीवन स्टीफन हॉंकिंग का ही हो
सकता है। फिल्म ने इस जिजीविषा और जटिलता को पूरी जीवंतता के साथ रचा है। प्रख्यात
इतिहासकार प्रोफ़ेसर लाल बहादुर वर्मा ने इस बायोपिक के बहाने से हाकिंस के जीवन
संघर्ष पर रोशनी डालने का प्रयास किया है। तो आइए आज पढ़ते हैं प्रोफ़ेसर लाल बहादुर
वर्मा का आलेख ‘जिंदगी है तो उम्मीद भी’।
ज़िन्दगी है तो उम्मीद भी
प्रोफ़ेसर लाल बहादुर
वर्मा
आपको पता ही होगा कि साहित्य और कलाएं जीवन और
जगत के वैविध्यपूर्ण यथार्थ की समन्वित और प्रभावी पुनर्रचना होते हैं। इसीलिए वे
आनन्द तो देती ही हैं। जीवन को समझने और बेहतर बनाने की प्रेरणा और सोच भी पैदा करती
हैं।
इसी क्रम में आप यह भी जानते होंगे कि फिल्म
साहित्य और कलाओं का ही नहीं विज्ञान का भी सबसे समन्वित और प्रभावी विधा है। आप
यह भी जानते होंगे कि इसी प्रभाविता के कारण फिल्में तानाशाहों तक को डराती हैं।
फिल्म संसार के सबसे विख्यात कलाकार चार्ली चैपलिन ने एक फिल्म बनायी थी ‘द ग्रेट डिक्टेटर’ कहते हैं कि दुनिया का सबसे बर्बर
तानाशाह हिटलर इस फिल्म से डर गया था।
इस सब के बावजूद यह भी सच है कि यथार्थ कभी-कभी
किसी भी कलाकृति से भी अधिक समृद्ध और हृदयस्पर्शी हो सकता है। ऐसा ही है स्टीफन
हॉकिंग का चमत्कारी जीवन। ऐसा जीवन जिसे कोई भी कलाकृति अपनी पूरी समग्रता और
जीवंतता तथा सृजनशीलता के बावजूद पूरी तरह चित्रित न कर पाये। फिर भी हॉकिंग के
जीवन पर आधारित फिल्म ‘द थियरी ऑफ एव्रीथिंग’ एक असाधारण कलाकृति है। हॉकिंग की
भूमिका निभानेवाले कलाकार ए. डी. रेडीमेन को इस साल का सर्वश्रेष्ठ अभिनय के लिए
ऑस्कर पुरस्कार दिया गया है।
हमारा मानना है कि ऐतिहासिक गल्प यानी अतीत की
साहित्यिक पुनर्रचना किसी भी इतिहास से अधिक प्रभावी होती है, और रोचक भी। अमरीकी उपन्यासकार होवर्ड
फास्ट के अधिकांश उपन्यास इस बात के ज्वलंत उदाहरण हैं। उनके उपन्यासों में इतिहास
के तथ्यों के साथ छेड़छाड़ नहीं की जाती। पर उन्हें संजोने में विवरण और वार्तालाप
सारतः ऐतिहासिक सत्य को ही उजागर करनेवाले कलात्मक सृजन हो सकते हैं। किसी की
जीवनी पर आधारित फिल्में- जैसे हाल ही में हिन्दी में बनी ‘भाग मिल्खा भाग’ और ‘मैरीकॉम’ जैसे बायोपिक को ऐतिहासिक गल्प की कोटि
में रखा जा सकता है। ऐसी फिल्में किसी व्यक्ति के जीवन-उसके देशकाल को पूरी
जीवंतता के साथ और आवश्यकतानुसार कलात्मकता के साथ प्रस्तुत की जा सकती है। उनका
किसी भी दर्शक पर उनकी जीवनी पढ़ने वाले पाठक से अधिक प्रभाव पड़ सकता है। ऐसी ही एक
बायोपिक है ‘थियरी ऑफ एव्रीथिंग।’ जिसे जेम्स मार्श ने निर्देशित किया
है। फिल्म में एडी की असाधारण भूमिका ने स्टीफन हॉकिंग की जिजीविषा और उसकी
उपलब्धियों को मर्मस्पर्शी ढंग से जीवंत कर दिया है। जिस शरीर में दिमाग के अलावा
सारे अंग धीरे-धीरे शिथिल पड़ते गये हो वह व्यक्ति गणित और एस्ट्रोफिजिक्स जैसे
व्यापक विषय पर लगातार शोध कर रहा हो ऐसा अविश्वसनीय लगने वाला जीवन स्टीफन
हॉंकिंग का ही हो सकता है। फिल्म ने इस जिजीविषा और जटिलता को पूरी जीवंतता के साथ
रचा है। पर हॉकिंग का जीवन तो उससे भी अधिक रोचक और विचारोत्तेजक है।
स्टीफन हॉकिंग का जन्म 5 जनवरी 1942 को
इंगलैण्ड के प्रसिद्ध विश्वविद्यालय आक्सफोर्ड की नगरी में हुआ था। उसकी माँ का
नाम ईसा बेल और पिता का फ्रैंक हॉकिंग था। पिता की रुचि विज्ञान में थी और वह
डॉक्टरी का अध्ययन कर रहे थे और माँ दर्शन की। अध्ययन के दौरान ही दोनों ने शादी
की थी और उनकी संतान स्टीफन ने विज्ञान और दर्शन की प्रवृत्तियां मानो विरासत में
मिल गयी थी। माँ-बाप दोनों ही प्रखर बुद्धि वाले थे और अक्सर दोनों भोजन करते वक्त
भी किताब पढ़ते पाये जाते। उनका सादा और अपने में खोया हुआ जीवन पड़ोसियों के लिए
अनोखा था पर उसी ने स्टीफन को गढ़ा।
स्टीफन का बचपन सामान्य ही था और वह अध्ययन के
साथ खेलकूद मे भी दिलचस्पी लेता था। उसे विशेषकर नौकायन (रोईंग) में विशेष रुचि
थी। उसकी प्रारम्भिक शिक्षा बायरन हाउस स्कूल में हुई। उसके पिता चाहते थे कि वह
अपने समय के प्रसिद्ध स्कूल वेस्टमिनिस्टर में पढ़े। पर उस स्कूल के लिए दी जाने
वाली छात्रवृत्ति की परीक्षा के दिन वह बीमार पड़ गया और छात्रवृत्ति न मिलने के
कारण वह उस स्कूल में भर्ती नहीं हो सका। वह सेंट अल्बांस स्कूल में पढ़ता रहा और
वहीं कुछ मित्रों के साथ उसने रसायनशास्त्र और गणित का अध्ययन ही नहीं किया बल्कि आतिशबाजी, हवाई जहाज और तरह-तरह की नावे बनाने के
प्रयोग भी किये। 1958 में अपने गणित के शिक्षक डिकरन टाहटा की मदद से एक दीवाल घड़ी
के पुर्जों को जोड़ कर कम्प्यूटर बनाने की भी कोशिश की। अपनी प्रखरता के कारण स्कूल
में उसे कुछ लोग ‘आइंस्टाइन’ कहने लगे थे। पर परीक्षा में उसे उतनी
सफलता शुरू में नहीं मिल रही थी। पर धीरे-धीरे टाहटा के ही कारण उसकी गणित में
रुचि बढ़ती चली गयी, हालांकि उसके पिता उसे अपनी तरह डॉक्टर
बनाना चाहते थे। सत्रह साल की उम्र में उसने आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के
यूनिवर्सिटी कॉलेज में स्नातक कक्षायें शुरू की। उस समय उसे पाठ्यक्रम बेहद आसान
लगता था इसलिए उसका मन नहीं लगता था। पर दूसरे साल उसने अन्य विद्यार्थियों की तरह
ही अध्ययन करने का निर्णय लिया और उसका छात्र जीवन रोचक हो गया। वह शास्त्रीय
संगीत और विज्ञान गल्प में रुचि लेने लगा। उसने बोर्ड क्लब की भी सदस्यता ले ली। वहाँ
उसके प्रशिक्षक ने पाया कि वह अक्सर
नौकायन में जोखिम भरे अभ्यास करता है और नावों के मरम्मत की ज़रूरत पड़ जाती है।
उसकी योजना थी कि वह स्नातकोत्तर पढ़ाई कॉस्मोलॉजी में कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में
करेगा। पर उसके लिए परीक्षा में बहुत अच्छे अंक जरूरी थे। उसका मन तथ्यों से अधिक
सैद्धांतिक बातों में लगता था। परीक्षा के कुछ दिन पहले उसने बहुत मेहनत की और
रात-रात भर जाग कर पढ़ाई की। फिर भी लिखित परीक्षा में उसके पर्याप्त अंक नहीं आये
और मौखिक परीक्षा देना अनिवार्य हो गया। मौखिक परीक्षा में उससे पूछा गया कि वह
क्या करना चाहता है उसने जवाब दिया: ‘अगर
आप मुझे प्रथम श्रेणी देते हैं तो मैं केम्ब्रिज जाऊंगा। अगर मुझे द्वितीय श्रेणी
मिलती है तो मैं यहीं आक्सफर्ड में ही रहूंगा। इसलिए मुझे उम्मीद है कि आप मुझे प्रथम
श्रेणी देंगे। परीक्षकों ने पाया कि परीक्षार्थी हमसे भी अधिक बुद्धिमान है और उसे
प्रथम श्रेणी मिली। आगे की पढ़ाई केम्ब्रिज में करने से पहले स्टीफन एक मित्र के
साथ ईरान घूम आया।
1962 के अक्टूबर महीने में उसने केम्ब्रिज के
विख्यात ट्रिनिटी हॉल में उच्च शिक्षा शुरू की। उसकी इच्छा थी कि वह विख्यात खगोलीय
वैज्ञानिक फ्रेड हॉयल के साथ काम करे। पर गणित में उसकी तैयारी थोड़ी कमजोर थी
इसलिए उसे डेनिश विलियम सियामा के ग्रुप में भेज दिया गया। वह भी बेहद कुशल
वैज्ञानिक थे और उन्हें आधुनिक कास्मोलॉजी के संस्थापकों में गिना जाता है। इसी
समय उसकी बीमारी का पता चला कि वह ‘मोटर-न्यूरॉन
डिज़ीज़’ से पीड़ित है।
आक्सफर्ड में ही उसने महसूस किया था कि उसके
शरीर में थोड़ी अकड़न बढ़ती जा रही है और उसे नाव चलाने और कभी-कभी तो चलने में भी
तक़लीफ होती है। एक बार तो वह चलते-चलते गिर भी पड़ा था। परिवार के लोग बहुत चिंतित
हुए और जब पूरी जांच करायी गयी तो स्नायु शिथिलता की खतरनाक और लगातार बढ़ते जाने वाली
बीमारी का पता चला। एक समय तो डॉक्टरों ने तो यह भी कह दिया कि अब अधिक से अधिक दो
साल ज़िन्दा रह सकता हॉकिंग। इसके बाद उसकी मानसिक स्थिति में पस्ती आयी और वह कुछ
दिनों के लिए ‘डिप्रेशन’ का शिकार हो गया। पर उसके शिक्षकों ने
उसे उत्साहित किया कि वह अपनी पढ़ाई जारी रखे।
बीमारी के थोड़े ही दिन पहले उसकी मुलाकात एक
दोस्त की बहन जेन वाइल्ड से हुई थी। यह मित्रता बढ़ती चली गयी। हालांकि जेन की
दिलचस्पी का संसार साहित्य और संगीत की ओर था पर इस मित्रता ने स्टीफन को मानो बचा
लिया, क्योंकि उसने लगने लगा कि उसके जीने का
कोई न कोई कारण है। उन्होंने 14 जुलाई 1965 को विवाह कर लिया। यह संयोग ही रहा
होगा कि क्योंकि 14 जुलाई फ्रांसीसी क्रांति के प्रारम्भ का दिन माना जाता है और
आज भी फ्रांस के राष्ट्रीय दिवस के रूप में मनाया जाता है। इस ऐतिहासिक दिन को
सम्पन्न हुआ विवाह वास्तव में एक क्रांतिकारी जीवन का प्रारम्भ था। विवाह के बाद
दोनों को कई बार संयुक्त राज्य अमरीका जाना पड़ा। वहाँ स्टीफन पूरे उत्साह के साथ वैज्ञानिक गोष्ठियों
और सेमिनारों में शामिल हो रहा था। कॉलेज के एकदम निकट घर ढूंढ़ने में बड़ी कठिनाई
हुई। पर यह ज़रूरी था कि स्टीफन बैशाखी के सहारे अपनी प्रयोगशाला तक जा सके। स्टीफन
का वैवाहिक जीवन पूरी तरह संतुष्ट था और उनकी पहली संतान रॉबर्ट 1967 में पैदा
हुई। तीन साल बाद एक बेटी लूसी पैदा हुई और तीसरी संतान टिमोथी 1979 में हुई।
इधर स्टीफन की बीमारी बढ़ती जा रही थी और इस
कारण जेन का जीवन उसी के इर्द-गिर्द बीत रहा था। उसने घर की जिम्मेदारियां इस तरह
संभाल ली थी कि स्टीफन अपनी सारी ऊर्जा अपने शोध में लगा सके। 1974 में स्टीफन को
पासाडेना कैलीफोर्निया में नियुक्ति मिल गयी और वहाँ परिवार ने एक साल अच्छा जीवन बिताया। वहाँ से लौटने के बाद स्टीफन की पदोन्नति हो गयी और
अब वह ऐसे संसाधन जुटा सकता था ताकि जेन को भी अपने लिए थोड़ा समय मिल सके।
जेन ने अपनी संगीत की रुचि को प्रोन्नत करना
शुरू किया और एक चर्च में सामूहिक गान के अभ्यास के लिए जाने लगी। वहाँ जेन की मुलाकात जोनाथन हेलियर जोंस से हुई जो
क्वायर म्यूजिक (सामूहिक धार्मिक गान) का प्रशिक्षण देता था। जोंस जेन के घर भी
आने लगा और स्टीफन से भी उसकी दोस्ती हो गयी। धीरे-धीरे जेन और जोंस में रोमानी
सम्बन्ध पनपने लगे पर दोनों ने यह संकल्प ले लिया था कि दोनों किसी भी कीमत पर
स्टीफन का परिवार टूटने नहीं देंगे।
Professor Stephen Hawking as a younger man |
इस बीच स्टीफन की बढ़ती बीमारी के कारण उसकी
सेवा सुश्रुसा के लिए नर्सें और सहायक बढ़ते गये और जेन को लगने लगा कि अब स्टीफन
को उसकी उतनी ज़रूरत नहीं है। जेन और स्टीफन के जीवन में धर्म के कारण भी तनाव पैदा
हुआ। स्टीफन की धर्म में कोई रुचि नहीं थी और वह ईश्वर को नहीं मानता था, जबकि जेन पक्की ईसाई थी और चर्च में
उसका पूरा विश्वास था। इस बीच स्टीफन की एक नर्स इलेन मेशन स्टीफन के काफी निकट
आती दिखी। वह एक प्रभावी व्यक्तित्व की महिला
थी और स्टीफन को बहुत प्यार से संभालने की कोशिश करती थी और परिवार में इस
बात को लेकर तनाव बढ़ता जा रहा था। अंततः स्टीफन ने जेन को छोड़ कर मेशन के साथ रहना
शुरू कर दिया। 1995 में हॉकिंग ने जेन से तलाक ले लिया और मेशन से सादी कर ली। पर
दस साल बाद हॉकिंग और मेशन का तलाक हो गया। हॉकिंग और जेन की मित्रता फिर बढ़ चली
ओर जेन तथा उसके बच्चे हॉकिंग के फिर निकट आ गये। तलाक के बाद जेन ने अपने वैवाहिक
जीवन को केन्द्र में रख कर एक किताब लिखी थी, ‘म्यूजिक
टू मूव द स्टार्स’ इसमें उसने स्टीफन से अपने घनिष्ठ
सम्बन्ध और बाद में उसमें आयी टूटन के बारे में जो कुछ लिखा था उससे मीडिया में
काफी तहलका मचा। पर जैसे कि स्टीफन की आदत थी अपने व्यक्तिगत जीवन को कभी भी ‘पब्लिक इशू’ नहीं बनाना चाहता था। 2007 में जेन ने
अपने जीवन पर दूसरी किताब लिखी ‘ट्रैवेलिंग टू इन फिनिटिव’ माई लाईफ विद स्टीफन’। इसमें उसने बयान किया कि उनके जीवन
में कैसे खुशी लौट आयी है।
उसका स्वास्थ बिगड़ता जा रहा था। अब उसके लिए
लिखना भी मुश्किल हो गया था। पर उसका अध्ययन जारी था, क्योंकि गणित और भौतिकी के बड़े-बड़े
समीकरण समग्र रूप से उसके मस्तिष्क में मानो अवतरित होते। उन्हें अभिव्यक्त करने
की दूसरी तकनीकें ढूंढ़ ली गयी। एक भौतिक शास्त्री वर्नर इस्राइल ने उसके मस्तिष्क
की कार्य विधि की तुलना प्रसिद्ध संगीतकार मात्सार्ट की संगीत रचना से की है। उसके
मस्तिष्क में पूरी की पूरी सिम्फनी समग्र रूप में आ जाती थी। यही हाल स्टीफन का
होता जा रहा था। वह बेहद आत्मनिर्भर व्यक्ति था और किसी की मदद लेने में उसे बहुत
उलझन होती थी। वह बार-बार इस बात पर जोर देता कि वह एक सामान्य मनुष्य है किसी भी
व्यक्ति की तरह उसकी इच्छाएं हैं, महत्वकांक्षाएं
हैं, सपने हैं वह किसी भी व्यक्ति की तरह
उत्प्रेरित होता है और कुछ पाना चाहता है। उसका हमेशा इस बात पर जोर था कि उसे
सबसे पहले एक वैज्ञानिक माना जाय। यह सब वह कैसे कर पाता था? कुछ लोग कहते कि इसके पीछे उसका संकल्प
था। कुछ लोग मानते कि वह तो बस जिद्दी है उसकी पत्नी जेन मानती थी कि स्टीफन में
संकल्प भी है और जिद भी। बड़ी मुश्किल से वह इस बात के लिए तैयार हुआ कि वह बैशाखी
की जगह ‘व्हील चेयर’ इस्तेमाल करे। व्हील चेयर में भी मोटर
लगा दी गयी और वह जब उसे खुद चलाता तो कभी-कभी इतना चलाता और ऐसे मोड़ता कि
दुर्घटना का खतरा पैदा हो जाता। उसके अंदर अधैर्य और चिड़चिड़ापन भी पैदा हो गया था।
वह असाधारण रूप से प्रखर मस्तिष्क का तो था ही कुल मिला कर वह अकेला पड़ता जा रहा
था।
धीरे-धीरे उसकी बोली भी बिगड़ने लगी। कुछ दिनों
बाद ऐसा हो गया कि उसके बहुत निकट के मित्र और परिवार वाले, खासतौर से जेन ही उसकी बात समझ पाते और
जब दूसरों से बात करनी होती तो मित्र या जेन ही उसकी बात को दूसरों तक पहुंचा
पाते। उस जमाने में विकलांगों के लिए हर जगह सुविधा जुटाने का चलन नहीं था।
केम्ब्रिज विश्वविद्यालय में भी व्हील चेयर को कमरों तक ले जाने के लिए रैम्प नहीं
थे। जब स्टीफन के लिए रैम्प अनिवार्य हो गया तो यह सवाल उठ खड़ा हुआ कि कई जगहों पर
रैम्प बनवाने का खर्चा कौन देगा और खर्चा किस मद से होगा? तब स्टीफन और जेन ने विकलांगों के लिए
विशेष सुविधा के लिए अभियान चलाया। विश्वविद्यालय में विकलांग विद्यार्थियों के
लिए रहने की अलग व्यवस्था हो इसके लिए भी अभियान चला। यह बात बीसवीं शताब्दी के
सातवें दशक की है। इस मुद्दे को भी स्टीफन ने इस तरह उठाया था कि यह एक सामान्य
सामाजिक समस्या के रूप में सामने आये न कि केवल उसकी व्यक्तिगत समस्या। बाद में तो
उसने इस तरह के कई अभियान चलाये।
1985 में वह फ्रांस और स्वीटजरलैण्ड की सीमा पर
स्थित एक परमाणु शोध संस्थान में गया हुआ था और वहाँ उसे बहुत ठण्ड लग गयी। उसे निमोनिया हो गया।
उसके शरीर की जो हालत थी उसमें उसे बचा पाना बहुत दुष्कर था पर जेन ने उसकी बहुत
सेवा की। पर किसी एक व्यक्ति के लिए चौबीस घण्टे उसकी निगरानी कर पाना असंभव था।
अंत में एक अमरीकी संस्था ने धन जुटाया और उसके लिए तीन शिफ्टों में चौबीस घण्टे
नर्सिंग की व्यवस्था की गयी। इन्हीं नर्सों में एक थी इलेन मेशन जो स्टीफन की बाद
में कुछ दिनों के लिए दूसरी पत्नी बनी।
निमोनिया के बाद उसकी वाणी भी जाती रही। एक बार
फिर तकनीक काम आयी। कम्प्यूटर पर एक पूरा प्रोग्राम ‘इक्वालाइजर’ रचा गया, जिसे तैयार करने में वाल्ट वोल्टोज की मुख्य भूमिका थी। इसमें ढाई
तीन हजार शब्दों का एक बैंक बनाया गया। जिसमें से स्टीफन जरूरत के हिसाब से शब्द
चुन सकता था और यह प्रोग्राम भौंहो के इशारे पर चलता और इस तरह बिना बोले
कम्प्यूटर से उसकी बात सुनाई पड़ती। इसके लिए पहले अलग से कम्प्यूटर का इस्तेमाल
होता पर जल्दी ही एक छोटा कम्प्यूटर विकसित कर लिया गया जिसे स्टीफन की व्हील चेयर
से जोड़ दिया गया। अब वह अपनी बात दूसरों तक पहुंचाने में समर्थ हो गया जो बोली
सुनाई पड़ती वह उसकी नहीं होती। पर स्टीफन का कहना था कि अब वह पहले से बेहतर ढंग
से अपनी बात संप्रेषित कर सकता है। स्टीफन उसकी आवाज में आज भी बोलता है और अब तो
यह आवाज भी उसकी पहचान बन गयी है। अब वह बिना बोले ही पहले की तरह व्याख्यान देता
है।
धीरे-धीरे उसकी उंगलियों ने भी काम करना बंद कर
दिया। पर स्टीफन हार मानने वालों में नहीं है। उसने कम्प्यूटर को अपने गाल की
मांसपेशियों से संचालित करने लगा। अब उसके लिए स्वतंत्र रूप से अपनी व्हील चेयर भी
चलाना असंभव हो गया। अब इस पर शोध चल रहा है कि स्टीफन के मस्तिष्क की गतिविधियां
सीधे कम्प्यूटर तक कैसे पहुंचा दी जाय। उसे सांस लेने में भी तकलीफ होने लगी है और
कई बार उसे वेन्टिलेटर पर रखना पड़ता है। उसे कई बार अस्पताल पहुंचाना पड़ता है। पर
स्टीफन ने यात्राएं करना नहीं छोड़ा है। अब भी वह दूर-दराज की यात्राएं करता है और
अब चूंकि उसके पास पर्याप्त धन है इसलिए वह निजी जेट विमान से दूर-दराज की
यात्राएं करने में समर्थ है। कौन नहीं इन हालात में हार मान लेगा। पर स्टीफन ने
कभी हथियार नहीं डाले और आज भी वह शोधरत है और उसके साक्षात्कार के दौरान बीच-बीच
में हँसी के फव्वारे छूटते हैं, क्योंकि
स्टीफन का हास्यबोध (सेंस ऑफ ह्यूमर) बहुत तेज है।
स्टीफन ने अपने डॉक्टरेट के लिए ‘सिगुलरटी थियरम’ पर काम किया था। यह धारणा इस सिद्धांत
पर आधारित थी कि ब्रह्माण्ड का विशिष्ट अस्तित्व है। उसने अपनी धारणा को
आइन्स्टाइन द्वारा प्रतिपादित ‘जनरल
थियरी ऑफ रियलिटिवटी’ से जोड़ कर आगे बढ़ाया। सत्तर के दशक में
उसने ‘ब्लैक होल’ की गतिकी पर काम करना शुरू किया। वह
अपने सिद्धांतों के प्रतिपादन में इतने आवेग और आवेश के साथ जुट जाता कि वह उस
क्षेत्र के दूसरे वैज्ञानिकों से बाजी लगा लेता। इनमें कई बार बाजी जीतता और कई
बार हार जाता। उसकी बात गलत साबित हो जाने पर वह खुले आम अपनी गलती स्वीकार कर
लेता बिना किसी तनाव या तिक्त्तता के।
1973 के बाद वह ‘क्वांटम’ के क्षेत्र में काम करने लगा। वह इस
बीच मॉस्को गया हुआ था और वहाँ इस क्षेत्र
में हो रहे काम से बहुत प्रभावित हो कर लौटा। उसके काम को सैद्धांतिक भौतिकी
(क्रिटिकल फिजिक्स) में बहुत महत्त्वपूर्ण माना गया और उसे इंग्लैण्ड और दुनिया की
सबसे महत्त्वपूर्ण मानी जाने वाली संस्था ‘रॉयल
सोसाइटी’ का फेलो मनोनीत कर दिया गया। आधुनिक
युग के प्रारम्भ में सोलहवीं शताब्दी में जब विज्ञान का आधुनिक काल जब शुरू हुआ तो
इंग्लैण्ड के शासकों ने विज्ञान को प्रोत्साहन देने के लिए एक राजकीय संस्था ‘रॉयल
सोसाइटी’ का गठन किया। आधुनिकता के दौड़ में इंग्लैण्ड सबसे आगे निकल गया। इसके
पीछे ‘रॉयल सोसाइटी’ जैसी संस्था द्वारा दिया जाने वाला प्रोत्साह और मान्यता भी
था। आज भी दुनिया के वैज्ञानिक इस संस्था का फेलो बनाये जाने पर अपने को बहुत
सम्मानित मानते हैं। ज्ञातव्य है कि भारत की विशिष्ट प्रतिभा माने जाने वाले
गणितज्ञ रामानुजम भी विश्वविख्यात हो गये थे जब इस संस्था के फेलो बनाये गये थे।
स्टीफन को यह सम्मान बहुत कम उम्र में ही मिल गया।
1970 में कैलीफोर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ
टेक्नोलॉजी (काल्टेक) में स्टीफन हॉकिंग को विजटिंग प्रोफेसर नियुक्त किया गया।
अमरीका प्रवास में उसका शोध बहुत आगे बढ़ा और वह इस संस्था से लगातार अपना सम्बन्ध
बनाये रखते हैं। उसके काम को लगातार पुरस्कृत किया जा रहा था और इसलिए वह और अधिक
प्रसिद्ध हो गया, क्योंकि वह मीडिया में भी बहुत
लोकप्रिय होता गया। समाचार पत्रों और टेलीविजन पर उसके कार्यक्रम बहुत लोकप्रिय
होने लगे और उसे कई विश्वविद्यालयों से मानद डॉक्टरेट भी दी जाने लगी। 1978 में उसे
विश्वविख्यात अल्बर्ट आइंस्टाइन मेडल प्रदान किया गया।
सत्तर के दशक के अंत में केम्ब्रिज
विश्वविद्यालय में उसे गणित का ‘ल्यूकैशियन
प्रोफेसर’ बना दिया गया। गणित के क्षेत्र में यह
एक बहुत बड़ा सम्मान था। पद ग्रहण के अवसर पर उसने उद्घाटन भाषण में उसने एक नई
परिकल्पना प्रस्तावित की- ‘इज द एण्ड इनसाइट फॉर थियरेटिकल
फिजिक्स’ (क्या सैद्धांतिक भौतिकी का अंत दिखायी
दे रहा है)। उसने प्रस्तावित किया कि ‘सूपर
ग्रैविटी’ एक ऐसा हिरावल सिद्धांत हो सकता है जो
भैतिकी के बहुत सी समस्याओं का समाधान प्रस्तुत कर सकता है।
Stephen Hawking in Chicago, 1986 |
उसका स्वास्थ बिगड़ता जा रहा था और इसलिए वह
गतिण की समस्याओं से हटकर उस क्षेत्र की ओर बढ़ने लगा जो चिंतन और दर्शन का क्षेत्र
है। इस समय उसने ऐसे प्रस्ताव रखे जो ‘क्वांटम
मैकेनिक्स’ के मूलभूत तत्वों पर ही प्रहार करते
थे। इससे एक विज्ञान के क्षेत्र में अन्तर्राष्ट्रीय बहस शुरू हो गयी जिसको कुछ
लोगों ने ‘द ब्लैक होल वार’ कहना शुरू कर दिया।
अब हॉकिंग ब्रह्माण्ड के उद्भव की धारणा पर
चिंतन करने लगे थे उन्होंने यह कहना शुरू किया कि हो सकता है ब्रह्माण्ड का न कोई
प्रारम्भ हो न अंत।
जिम हार्टल और स्टीफन हॉकिंग ने मिल कर यह
थियरी प्रस्तावित की कि जैसे उत्तरी ध्रुव के आगे नहीं जाया जा सकता, हालांकि वहाँ कोई सीमा नहीं है उसी तरह ब्रह्माण्ड की भी कोई
सीमा नहीं है। इस तरह एक ‘बंद ब्रह्माण्ड ईश्वर के अस्तित्व पर
प्रश्न उठाता है। उस समय हॉकिंग ने कहा: ‘अगर
ब्रह्माण्ड की कोई सीमा नहीं है और वह स्वयं निर्धारित है तो ईश्वर के पास यह
चुनने की स्वतंत्रता नहीं बचती कि ब्रह्माण्ड शुरू कैसे हुआ। उसी समय उसकी पुस्तक
आयी ‘ए ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ टाइम’। मानव इतिहास में समय की धारणा सबसे
अमूर्त है। विभिन्न दर्शनों और धर्मों में ‘काल’ की परिकल्पनाएं हैं पर उसे समग्र रूप
में ग्राह्य और निर्धारित करने में कोई सफल नहीं हो पाता। दूसरी ओर इतिहास को देश
और काल (स्पेश एण्ड टाइम) में अवस्थित कहा जाता है। अगर इतिहास देश और काल के दो
स्तम्भों पर ही टिका हुआ है तो समय को इतिहास में कैसे बांधा जा सकता है? जब उसे कहीं अवस्थित ही नहीं किया जा
सकता। ऐसे जटिल प्रश्न को स्टीफन की पुस्तक ने सामान्य चर्चा में ला दिया। लेखन
जगत में मानो विस्फोट हो गया। आज तक शायद ही कभी ऐसा गंभीर विषय इतने व्यापक चर्चा
में आया है। जब न्यूटन ने सोलहवीं शताब्दी में गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत
प्रतिपादित किये थे तब निश्चित ही दुनिया में हलचल मची होगी। पर वह मुख्यतः यूरोप
और वहाँ भी वैज्ञानिकों के बीच ही मुख्यतः चर्चित रही थी। गैलीलियो ने जब अपनी दूरबीन
बनायी और ब्रह्माण्ड नजदीक आ गया तब जरूर
इसका मर्म आम लोगों तक भी पहुंच गया था, क्योंकि
इससे यह सिद्धांत ध्वस्त हो गया था कि ब्रह्माण्ड के केन्द्र में धरती है। इस बात को बर्टोल्ड ब्रेख्त
ने अपने नाटक ‘गैलीलियो’ में बहुत बखूबी दिखाया है कि इटली के नगरों में होने वाले
सालाना कार्निवल में भी यह दृश्य दिखाया जा रहा है कि पोप की कुर्सी हिल गयी है, क्योंकि जब धरती ही केन्द्र में नहीं
रही तो धर्म के केन्द्र में पोप कैसे रह सकता है? लेकिन तब तक संचार के साधन इतने विकसित नहीं थे कि न्यूटन और
कोपरनिक्स तथा गैलीलियो की बातें दूर-दूर तक पहुँच पाती।
हाँ, बीसवीं
शताब्दी के प्रारम्भ में जब आइंस्टाइन ने सापेक्षता का सिद्धांत प्रतिपादित किया
तब तक संचार के माध्यम विकसित हो चुके थे। यह सिद्धांत भी ज्ञान मीमांसा के अब तक
प्रतिपादित क्षेत्र को ध्वस्त कर देने वाला था। पर शुरू में यह सिद्धांत ही बहुतों
को समझ में नहीं आया। वर्षों नहीं दशकों लग गये इस सिद्धांत को ठीक से समझ पाने
में और जब इसके निहितार्थ उजागर हुए और मनुष्य अंतरिक्ष में यात्राएं करने लगा तब
आइंस्टाइन के सिद्धांत का महत्त्व उजागर हुआ। पर यह सिद्धांत तो किसी पुस्तक में
नहीं एक वैज्ञानिक शोध पत्र में उजागर हुआ था। उसका सार तो एक समीकरण में बद्ध है।
E = mc2
जब स्टीफन की किताब उस समय आयी जब दुनिया पर
मीडिया का राज्य स्थापित हो चुका है। प्रिन्ट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया अनपढ़ लोगों
के जीवन में प्रचार के माध्यम से प्रवेश कर चुके हैं और मीडिया की यह प्रकृति है कि
उसमें सबसे अधिक वह चीज चलती है जो अनोखी है। इस बार तो बात तो अनोखी थी ही बात
करने वाले का जीवन भी अनोखा और सुप्रचारित था। इसलिए जल्दी ही उनकी किताब ‘ए ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ टाइम’ ‘बेस्ट सेलर’ बन गयी। इसका मतलब यह नहीं कि किताब
खरीदने वाले हर आदमी ने इसे पढ़ा ही हो। समझने की तो खैर बात ही और है। पर ऐसी
अनोखी चीज के बारे में बात करना एक तरह का ‘स्टेट्स
सिम्बल’ बन गया। कई भाषाओं में उसका अनुवाद आ
गया-हिन्दी में भी।
ऐसी किताब लिखने का एक बेहद सांसारिक और
व्यावहारिक कारण भी था। स्टीफन को सम्मान तो बहुत मिला था और मिलता जा रहा था पर
आमदनी तो बढ़ नहीं रही थी,
जबकि परिवार बढ़ गया था। ऐसे में स्टीफन
ने एक लोकप्रिय ऐसी किताब लिखने का मन बनाया था जो ब्रह्माण्ड को सामान्य जनता के
करीब ले आये। इसलिए किसी अकादमिक प्रकाशक से बात करने के बजाय उसने लोकप्रिय
पुस्तके छापने वाले ‘बैंटम बुक्स’ से कॉन्ट्रैक्ट किया और उसे अच्छी-खासी
अग्रिम राशि भी मिल गयी। पर उसे मशक्कत बहुत करनी पड़ी, क्योंकि प्रकाशक के आग्रह पर उसे
बार-बार अपनी पुस्तक को अधिकाधिक सरल बनाने के लिए कई बार दोहराना पड़ा। पर 1984
में एक बार छप जाने के बाद उसकी सफलता सारे कीर्तिमान तोड़ने लगी। एक अनुमान के
अनुसार इस किताब की करीब एक करोड़ प्रतियां बिक चुकी हैं। अमेरिका की लोकप्रिय
पत्रिका न्यूज वीक ने स्टीफन हॉकिंग को अपने कवर पर छापा और उसे ‘मास्टर ऑफ द यूनिवर्स’ कहा। इस सफलता की वजह से उसे बहुत सारे
गैर अकादमिक कामों में समय लगाना पड़ा। कई जगह उसे भाषण करने पड़े। उसे जगह-जगह से
निमंत्रण मिलने लगे। उसके सहयोगियों को लगने लगा कि स्टीफन का बहुमूल्य समय
प्रचारात्मक कामों में नष्ट हो रहा है।
इस पुस्तक में स्टीफन हॉकिंग ने कुछ मूलभूत
प्रश्न उठाये थे उसने लिखा: ‘अगर
हम एक समग्र सिद्धांत ढूंढ़ लेते हैं तो यह मनुष्य की तर्क शक्ति की अंतिम विजय
होगी, क्योंकि तब हमें ईश्वर की बुद्धि का
पता लग जायेगा।’ उसका मतलब यह था कि एक ऐसा सिद्धांत
ईश्वर को अनावश्यक बना देगा। विज्ञान ईश्वर की अवधारणा से बार-बार टकराता है, क्योंकि विज्ञान की धारणा और पद्धत्ति किसी ऐसे नियंता
के अस्तित्व को स्वीकार्य नहीं कर पाती जो स्वयं अप्रश्नेय हो और अंततः जिसे आस्था
और विश्वास के कारण ही स्वीकार करना पड़ता हो। ‘रीजन
इन रिवोल्ट’ नामक पुस्तक के लेखक ने यह स्थापना दी
है कि अब तक विज्ञान की सभी शाखाएं ईश्वर के प्रश्न पर अंततः अटक या भटक जाती है
और यही उनके आगे के विकास में रोड़ा बन जाता है। यह सच है कि बड़े-बड़े वैज्ञानिक भी
ईश्वर के अस्तित्व को पूरी तरह नकारने का साहस नहीं जुटा पाते। आधुनिक काल के सबसे
बड़े वैज्ञानिक माने जाने वाले अल्बर्ट आइंस्टाइन भी ईश्वर की कल्पना एक अन्तिम
नियति जैसा करते हैं। उनका रूपक बहुत प्रसिद्ध है कि ताश के पत्ते हमें मिल जाते
हैं पर हमें उन्हें अपने ढंग से खेलने की स्वतंत्रता होती है। जाहिर है कि ऐसी
परिकल्पना में भी ईश्वर की सत्ता बनी ही रह जाती है।
स्टीफन हॉकिंग भी ब्रह्माण्ड के निर्माण में
ईश्वर की भूमिका नकारते हैं और अपने को नास्तिक मानते हैं। पर इस मुद्दे पर दो टूक
कुछ कहने के बजाय लफ्फाजी के शिकार हो जाते हैं। उनकी पुस्तक तमाम सरलीकरण के
बावजूद सबके लिए ग्राह्य नहीं थी इसलिए बाद में उन्होंने उसका एक और संक्षिप्त
संस्करण ‘ए ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ टाइम’ प्रकाशित किया।
हॉकिंग की अनाकादमिक व्यस्तताओं के बावजूद उनका
शोध कार्य चलता रहा। 1994 में केम्ब्रिज के ‘न्यूटन
इंस्टीट्यूट’ में हॉकिंग और एक अन्य विश्वविख्यात
वैज्ञानिक पेन रोज ने छः महत्त्वपूर्ण व्याख्यान दिये। इन्हें बाद ‘द नेचर ऑफ स्पेश एण्ड टाइम’ के नाम से प्रकाशित किया गया।
हॉकिंग के विज्ञान-दर्शन के सरोकार बहुत गंभीर
थे। पर उनका जन जुड़ाव भी उतना ही गंभीर है। इसलिए इरॉल मॉरेश ने जब ‘ए ब्रीफ
हिस्ट्री ऑफ टाइम’ पर फिल्म बनाने का प्रस्ताव रखा तो वह मान गये। विश्वविख्यात
फिल्म निर्देशक और निर्माता स्टीवेन स्पीलबर्ग ने इस फिल्म का निर्माण करना
स्वीकारा और 1992 में फिल्म प्रदर्शित हुई। हॉकिंग ने जोर दिया था कि फिल्म में
उनके जीवन पर नहीं, बल्कि विज्ञान पर जोर दिया जाय। पर
अन्ततः उन्हें मानना पड़ा था कि ऐसी फिल्म दर्शक नहीं जुटा पायेगी। इसलिए फिल्म में
हॉकिंग के जीवन के सूत्र पिरोये गये थे फिर भी यह फिल्म बहुत लोकप्रिय नहीं हो
पायी। इसे ही ध्यान में रखकर हाल ही में उनके जीवन पर बनी फिल्म ‘ए थियरी ऑफ ऐवरथिंग’ मुख्यतः ये ‘बायोपिक’ है। फिर भी हॉकिंग के सारे वैज्ञानिक सरोकार इस तरह पिरोये गये हैं
कि सामान्य जनता भी उन्हें समझ सके। 1993 में टेलीविजन के लिए छः कड़ियों वाली एक
सीरीज बनायी गयी ‘स्टीफेन हॉकिंग्स यूनिवर्स।’ इस श्रृंखला को 1997 को एक पुस्तक के
रूप में भी छापा गया। इस बार हॉकिंग की इच्छानुसार जोर विज्ञान पर है।
2001 में उनकी एक और लोकप्रिय किताब आयी ‘द यूनिवर्स इन ए नक्शेल।’ 2006 के बाद हॉकिंग ने ब्रह्माण्ड के बारे में एक सिद्धांत विकसित किया जिसे ‘टॉप डाउन कॉस्मोलॉजी’ कहते हैं। इसके अनुसार वर्तमान अतीत के
बहुत से रूपों में से कुछ का चयन करता है।
‘ब्लैक
होल’ और ब्रह्माण्ड पर हॉकिंग द्वारा किये
गये शोध में अनुमान और परिकल्पना की बहुत बड़ी भूमिका है। उनकी अधिक से अधिक पुष्टि
गणित के स्तर पर ही हो सकती है। ऐसे सिद्धांतों को समग्र रूप से किसी प्रयोगशाला
में प्रमाणित नहीं किया जा सकता। हाँ ऐसे कुछ प्रमाण मिल सकते हैं जो अंशतः एक समग्र
सिद्धांत की ओर इशारा करते हैं। इसलिए हॉकिंग के विचार अकादमिक जगत में बार-बार
उथल-पुथल मचाते हैं और हॉकिंग अन्य वैज्ञानिकों के साथ लगायी गयी बाजियां कभी
जीतते हैं कभी हारते हैं।
हॉकिंग ने अपनी बेटी लूसी के साथ मिल कर बच्चों
तक भी सैद्धांतिक भौतिकी को पहुंचाने का काम शुरू किया और ‘जॉर्जजे’ सीकरेट की ‘टू द यूनिवर्स’ नामक पुस्तक लिखी जिसके 2011 तक कई ‘सीक्वेल’ प्रकाशित हुए। 2002 में बी.बी.सी. ने ब्रिटेन की सौ विभूतियों की एक
सूची प्रकाशित की जिसमें स्टीफेन हॉकिंग का भी नाम शामिल है। उन्हें सम्मानित करने
का सिलसिला थम नहीं रहा है और न ही उनके शोध का सिलसिला। अब तक 39 वैज्ञनिक उनके
साथ उनके निर्देशन में डॉक्टरेट पा चुके हैं। केम्ब्रिज विश्वविद्यालय के नियमों
के अनुसार 2009 में उन्हें प्रोफेसर के पद से मुक्त हो जाना था पर स्टीफेन ने
घोषित कर दिया कि सेवानिवृत होने का उनका कोई इरादा नहीं।
शुरू में स्टीफन विकलांगों के लिए कुछ अलग से
करने में संकोच करते थे, क्योंकि वह अपने को भी विकलांग मानने
को तैयार नहीं थे। पर धीरे-धीरे उन्होंने यह स्वीकार कर लिया कि वह ‘दूसरी तरह समर्थ यानी विकलांग लोगों के
लिए एक रोल मॉडल बन सकते हैं’ फिर
तो उन्होंने इस काम के लिए जनमत बनाने और धन जुटाने के कामों में सक्रिय भागीदारी
शुरू कर दी। इक्कसवीं शताब्दी के शुरू होने पर ग्यारह अन्य विभूतियों के साथ मिल कर
स्टीफन हॉकिंग ने ‘चार्टर फॉर द थर्ड मिलेनियम ऑन
डिशएबिलिटी’ पर हस्ताक्षर किया। तीसरी सहस्त्राब्दी
में विकलांगों के चार्टर में सरकारों से आग्रह किया गया है कि विकलांगता को
नियंत्रित करने के लिए समुचित उपाय किये जाये और विकलांगों के अधिकारों की रक्षा
की जाय। विकलांगों के सामर्थ्य को प्रदर्शित करने के लिए स्टीफन ने एक ऐसा निर्णय
लिया जिसको देख-सुन कर सामान्य व्यक्ति की सांस थम जाये। 2007 में ‘जीरो ग्रैविटी कारपोरेशन’ द्वारा किये जा रहे ‘भारहीनता’ सम्बन्धी प्रयोग में हिस्सा लिया।
स्टीफन ने एक नहीं आठ बार भारहीनता का अनुभव किया। एक जर्जर शरीर परन्तु अनमनीय
निश्चय की हवा में लटकी तस्वीर किसे नहीं उत्साहित कर देगी। 2012 में विकलांगों के
ओलंपिक खेलों-पैरालिंपिक्स के उद्घाटन समारोह में भाग लिया। अगले साल उनके जीवन पर
बनी डॉक्यूमेन्ट्री में खुद अपना अभिनय किया और अपील की कि ऐसे रोगियों जिनके रोग
का कोई निदान न हो मृत्यु का वरण करने वाला कानून बनाया जाय।
अधिकांश वैज्ञानिकों की तरह स्टीफन यह नहीं
मानते कि वैज्ञानिकों के पास राजनीति के लिए समय नहीं है। उन्हें धर्म, पर्यावरण यहां तक कि राजनीति से भी
गंभीर सरोकार है। 1968 में जब सारी दुनिया उद्विग्न और उद्वेलित थी और जगह-जगह
विशेषकर युवा प्रदर्शन और विद्रोह कर रहे थे तब तारिख अली के साथ वियतनाम युद्ध के
विरुद्ध प्रदर्शन में स्टीफन हॉकिंग भी शामिल थे। ब्रिटेन की राजनीति में वह हमेशा
लेबर पार्टी का खुला समर्थन करते रहे हैं। उन्होंने अमरीका के राष्ट्रपति के चुनाव
में डेमोक्रेटिक पार्टी के अल गोर का समर्थन किया था। इराक पर अमरीकी सरकार द्वारा
हमले को उन्होंने ‘युद्ध अपराध’ घोषित किया था। इस्रराइली सरकारी
फिलस्तीनियों के प्रति नीति के कारण एक बार उन्होंने इस्रराइल में होने वाले
वैज्ञानिकों के सम्मेलन का बहिष्कार किया था। वह परमाणविक हथियारों के बहिष्कार के
भी समर्थक हैं। इस तरह कुल मिलाकर वह वामपंथी राजनीति के समर्थक कहे जा सकते हैं।
उनका मानना है कि ब्रह्माण्ड विज्ञान के नियमों
द्वारा संचालित है। उन्होंने एक लेख में साफ-साफ लिखा था कि स्वर्ग-नर्क की बातें
मिथक और परिकथा हैं। उन पर वही विश्वास करते हैं जो अज्ञात से रहते हैं। वह मानते
हैं कि उनका सामान्य अर्थों वाले धर्म में कोई विश्वास नहीं है। अमेरिकी टेलीविजन
द्वारा निर्मित और ‘डिस्कवरी’ चैनल पर प्रदर्शित एक श्रृंखला ‘क्यूरिऑसिटी’ के प्रारम्भ में उन्होंने घोषित किया: ‘ हम स्वतंत्र हैं कि जिस चीज में चाहे
विश्वास करें। मेरा तो सीधा सा विचार हैं कि ईश्वर नहीं है। ब्रह्माण्ड का निर्माण किसी ने नहीं किया और कोई भी हमारी
नियति का संचालन नहीं करता। यही मेरी गहन अनुभूति का आधार है। कदाचित कोई स्वर्ग
नहीं न ही जीवन के बाद कोई और जीवन। हमारे पास ब्रह्माण्ड की शानदार लीला की
प्रशंसा करने के लिए यही एक जीवन है और मैं इसके लिए कृतज्ञ हूँ’। अंततः सितम्बर 2014 में उन्होंने घोषित कर दिया कि वह
नास्तिक हैं।
एक संवेदनशील मनुष्य और एक विराट वैज्ञानिक
होने के नाते स्टीफन हॉकिंग धरती और मानवता के भविष्य के बारे में चिन्तन करते
रहते हैं। वह बार-बार कहते हैं कि वर्तमान हालात में कभी भी एक परमाणु युद्ध छिड़
सकता है या विनाशकारी वायरस का इस्तेमाल हो सकता है या ऐसे खतरे उत्पन्न हो सकते
हैं जिनके बारे में अभी तक सोचा भी नहीं गया है। यह गंभीर सवाल हैं। वह मानते हैं
कि अंतरिक्ष की यात्राएं और दूसरे ग्रहों की यात्रा धरती के भविष्य को सुरक्षित
करने के लिए ज़रूरी हैं। वह यह भी सोचते हैं कि ब्रह्माण्ड इतना बड़ा है कि कहीं न
कहीं जीव हो सकते हैं पर उनसे दूर ही रहना अच्छा है। वह ‘आर्टीफीसियल इण्टेलिजेंस’ के हिमायती हैं और सोचते हैं कि उसका
विकास मनुष्य के हित में हो सकता है। उनके अनुसार एक ‘सूपर इण्टेलीजेण्ट’ उपकरण का आविष्कार इतिहास की एक बड़ी
निर्णायक घटना होगी। कम्प्यूटर के वायरस के बारे में उनका कहना है कि वह मनुष्य की
प्रकृति के बारे में एक ज़रूरी टिप्पणी है। यही वह रूप है जो केवल और पूरी तरह
विध्वंसात्मक है। शायद ही किसी अन्य वैज्ञानिक ने कम्प्यूटर वायरस पर इतनी गंभीर
टिप्पणी की हो और उसे मनुष्य की प्रकृति से जोड़ कर उसकी ऐसी आलोचना की है।
स्टीफन के विचारों में कभी-कभी उद्धत्तता की
गंध आती है। 2011 में उन्होंने घोषित कर दिया था कि ‘दर्शन का अंत हो गया’ उनके अनुसार दार्शनिकों ने आधुनिक
विज्ञान के विकास को आत्मसात् नहीं किया है अब ज्ञान के क्षेत्र में आविष्कार के
हिरावल वैज्ञानिक हो गये हैं। दार्शनिक समस्याओं का उत्तर नये वैज्ञानिक सिद्धांत
ढूंढ़ सकते हैं। ये सिद्धांत ब्रह्माण्ड और उसमें मनुष्य के अस्तित्व की नयी छवि
प्रस्तुत करते हैं।
2006 में हॉकिंग ने इण्टरनेट पर एक खुला प्रश्न
प्रस्तुत किया था: ‘आज दुनिया में राजनीतिक और सामाजिक रूप
से तथा पर्यावरण के क्षेत्र में अराजकता व्याप्त है। इन हालात में मानव जाति अगले
सौ वर्षों तक कैसे जीवित रह पायेगी?’ जाहिर
है यह सवाल आज की दुनिया का गंभीरतम सवाल है। कुछ दिनों बाद स्टीफन ने स्वयं जवाब
दिया ‘मैं इस प्रश्न का उत्तर नहीं जानता
इसीलिए मैंने यह प्रश्न लोगों के सामने रखा ताकि लोग इसके बारे में सोचें और उन
खतरों के प्रति आगाह हो जाये हम जिनके रू-बरू खड़े हैं।
स्टीफन हॉकिंग सही अर्थों में एक जन नायक है।
प्रायः नायकों की पूजा की जाती और अपनी भूमिका भूल कर नायक पर आश्रित हो जाता है।
इसी मानसिकता से अवतारों का जन्म होता है। पद जन नायक जन की संभावनाओं और शक्ति को
उजागर करता है और यह प्रमाणित करता है कि जन अपने संकल्प और सृजनशीलता के दम पर
असंभव की सीमाओं को तोड़ सकता है।
प्रोफ़ेसर लाल बहादुर वर्मा |
सम्पर्क
मोबाईल – 09454069645
प्रोफेसर लाल बहादुर वर्मा को पढ़ना हमेशा से ही रोमांचित करता है। उनका लेख साझा करने हेतु धन्यवाद ।
जवाब देंहटाएंयह लेखक अहा जिंदगी में इसी वर्ष प्रकाशित हुआ है। बेहतर होता कि स्रोत का उल्लेख भी साथ में दिया जाता।
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंयह लेख अहा जिंदगी में इसी वर्ष प्रकाशित हुआ है। बेहतर होता कि स्रोत का उल्लेख भी साथ में दिया जाता।
जवाब देंहटाएंदुनिया के श्रेष्ठ भौतिकविद स्टीफन हॉकिन्स के जीवन और उनके वैज्ञानिक अवदान पर प्रो लालबहादुर वर्मा का यह आलेख इस महान वैज्ञानिक के सृजनशील व्यक्तित्व पर बेहतरीन ढंग से प्रकाश डालता है। 'पहली बार' पर ऐसाा सार्थक आलेख प्रस्तुत कर आपने वाकई बहुत सराहनीय कार्य किया है। मैंने इसे अपनीी फेसबुक वॉल पर भी साझा किया, जिस पर सुबह से बहुत से मित्रों की महत्वपूर्ण टिप्पणियां आ रही है। आपका फिर से आभार।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन जानकारी रोचक और सरल शब्दों मे।
जवाब देंहटाएंसाधुवाद।
बेहतरीन जानकारी रोचक और सरल शब्दों मे।
जवाब देंहटाएंसाधुवाद।
पढ़ कर अच्छा लगा...बहुत रोचक लेख है....
जवाब देंहटाएंप्रो. वर्मा मेरे लिये वह हैं, जो कोई दूसरा नहीं है. और उनके कलम से सीखने वाले अगणित कलमकारों के बीच मैं ख़ुद को महसूस कर स्वयं को सौभाग्यशाली मानता हूँ. स्टीफेन हाकिंग पर उनका यह लेख शेयर कर रहा हूँ. साथ ही इसे प्रिन्ट आउट के रूप में वितरित करने का आज़मगढ़ के युवा क्रान्तिकारी साथियों से अनुरोध करने का मन बना रहा हूँ.
जवाब देंहटाएंवाह बहुत ही सूंदर लेख लिखा है आपने। धन्यवाद। Zee Talwara
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