सोनी पाण्डेय की कहानी ‘प्रतिशोध’।


सोनी पाण्डेय




इतिहास को अपनी तरह से व्याख्यायित और स्पष्ट करने का काम साहित्य बखूबी करता है। यह साहित्य ही होता है जो इतिहास द्वारा छोड़ या उपेक्षित कर दी गयी बातों और घटनाओं को रेखांकित करने का काम बखूबी करता है। इतिहास गवाह है कि पुरुषों की सहचरी होने के बावजूद स्त्रियाँ उन अनेकानेक परिस्थितियों की भुक्तभोगी रही हैं जिसके लिए वे कभी जिम्मेदार ही नहीं रहीं। ‘सारी लड़ाईयों और विवादों के मूल में “जर, जोरू और जमीन” ही रही है’ यह उक्ति स्वयमेव ही सब कुछ स्पष्ट कर देती है। सोनी पाण्डेय की कहानी प्रतिशोध प्रकारान्तर से उस मनोवृत्ति पर ही प्रकाश डालती है जो एक मासूम लड़की आभा की खुद उसके परिजनों द्वारा हत्या किये जाने के रूप में दिखाई पड़ती है। पारिवारिक उच्छ्रखंलताओं का शिकार होती है वह आभा जिसकी इज्जत लूट कर कुछ असामाजिक तत्व अपना प्रतिशोध लेने का उपक्रम करते हैं। लगभग मृतप्राय हो चुकी आभा को उसके परिवार के लोग भी मृत घोषित कर जल्द ही चिता पर झोंक देते हैं जबकि उसमें जीवन बाकी था। तो आइए आज पढ़ते हैं सोनी पाण्डेय की कहानी ‘प्रतिशोध’।
         
     
प्रतिशोध

सोनी पाण्डेय
    

सावन का महीना आकाश काले बादलों से पट गया था, लगता था जल्दी ही बारिश होगी। आजी दलान में से चिल्ला रही थीं- ‘‘अरे!ऽ ऽ ऽ दिपना रे ऽ ऽ ऽ जल्दी चऊअन (जानवरों) के भीतर कर, बुन्नी पड़ले बोलत है।’’ आभा की माँ बाहरी आँगन से जल्दी-जल्दी कपड़े समेट रही थी। दोनों चाची भीतरी आंगन से सामान अन्दर कर रही थीं। आभा अपने छोटे भाई-बहनों के साथ द्वार पर तालियाँ बजा-बजा कर जोर-जोर से चिल्ला रही थी- ‘‘आन्ही पानी आवले, चिरयिया ढ़ोल बजावेले।’’ आजी खेलते हुए बच्चों को ध्यान से दख रही थीं, आभा बच्चों में सबसे बड़ी थी, सोलहवां साल, घर भर की लाडली, दुलार में आजी उसे देख कर अक्सर कहा करती थीं- ‘‘हमार बहिनी सुरुज किरिनियां क जोत हई।’’ आभा भाई-बहनों साथ छुआ-छुअवल खेल रही थी, अचानक आजी की नजर उसके शरीर के हिलते हुए उभारों पर गई, चिल्लाती हुई बोलीं- ‘‘बबुनी जल्दी भीतर जा, तोहार बाबूजी आवत होइहं। बच्चे बाबू जी का नाम सुनते ही सरपट घर में भागें। जल्दी से सबने अपनी-अपनी किताबें निकाल कर पढ़ने का अभिनय आरंभ कर दिया।

आभा के पिता तीन भाई, तीन बहनों में सबसे बड़े थे, गांव की प्राइमरी पाठशाला के हेड मास्टर, बीस बीघे के काश्तकार, मझला भाई गांव की चट्टी (बाजार) पर खाद बीज की दुकान करता था। सबसे छोटा, सबसे नकारा, पान-सुरती खाता, द्वार-द्वार घूम कर राजनीति करता, बड़ी मुश्किल से बारहवीं पास कर पाया था। टोले भर की लड़कियां उसे देख कर कोस भर दूर भागतीं। आभा के पिता पर घर भर की जिम्मेदारी अल्पायु में ही आ पड़ी थी। पिता उनका तथा बड़ी बेटी का ब्याह कर स्वर्ग सिधार गए। मां पिता का वियोग सह नहीं पायीं, साल भीतर वह भी स्वर्ग सिधार गयीं। घर की पूरी जिम्मेदारी आभा के पिता के कंधों पर आ गयी, एक-एक कर दोनों छोटी बहनों का विवाह तथा भाईयों को पढ़ाया-लिखाया, रोजगार कराया लेकिन छोटा भाई निकम्मा निकला।
आभा के दो छोटे भाई थे, बड़ी चाची के एक बेटा दो बेटी, छोटी चाची के ब्याह को दो साल बीत चुके थे, लेकिन बच्चा अभी तक नहीं हुआ था, आजी सभी देवता-पित्तरों से मन्नत मान चुकी थीं।

आभा के पिता तारकेश्वर तिवारी परिश्रमी, चालाक तथा दूरद्रष्टा व्यक्ति थे, बड़ी चतुराई से गवई राजनीति का रूख बदल देते थे। पिछले दस वर्षों से गांव के प्रधान थे। गांव में चार पट्टियां थीं ब्राह्मण टोला, अहिरौटी, भरौटी, तथा दक्खिन में चमरौटी, बाकी बनियों, लाला, नाई, लोहार, कोहार, डोम आदि जातियों के दो-दो, चार-चार घर गांव के बाहरी हिस्से में बसे थे। गांव में ब्राह्मणों का वर्चस्व था।

आभा के पिता तारकेश्वर तिवारी खुशहाल सम्पन्न व्यक्ति थे, जीवन में कोई अभाव नहीं था, परिश्रमी धर्मपरायण पत्नी, आज्ञाकारी भाई, दिव्य सुन्दरी पुत्री, इनके अलावा घर में विधवा निःसंतान चाची थीं। जो स्त्रियों की पहरेदार थीं। उनकी उपस्थिति में दरवाजे पर कुत्ते-बिल्ली तक की मजाल नहीं की आ सकें, आदमी की क्या औकात। टोले भर की औरतें कहतीं- ‘‘बुढ़िया छानी पर कऊवा ना बइठे देले।’’ तारकेश्वर पंडित सम्पन्न व्यक्ति थे किन्तु छोटे भाई माहेश्वर से दुखी रहते थे। अक्सर लड़कियों तथा बनिहारिनों से छेड़छाड़ की शिकायत आती रहती थी किंतु बुढ़िया के सामने शिकायतकर्ता की खैर नहीं रहती, बुढ़िया आंखें निकाल कर गुर्राती- ‘‘हमार साड़ छुट्टा रही, जेके आपन गाय बान्हें के-ह-ते बान्ह ले।’’ तारकेश्वर पंडित समझाते-बुझाते ऊँच-नीच का एहसास कराते, घर की बेटियों की दुहाई देते, परिणाम वही ‘‘ढाक के तीन पात’’ निकलता।

     बाग में आम पर पड़े झूले पर झूलती लड़कियाँ गा रही थीं-
‘‘कजरी के ही संग खेलूं मोरी सखियाँ
पिया मोरे गये विदेशवा ना ऽ ऽ ऽ........

दूर खेतों के बीच मेढ़ के रास्ते आती हुई मियाईन को देख कर लड़कियां झूले से कूद पड़ीं, सब झुंड बना कर आती हुई मनिहारिन मियाईन को एक-टक देखने लगीं। मियाईन के सिर पर बड़ी सी बास की दऊरी, ऊपर तक खचाखच सामानों से भरा, जब मियाईन भारी बोझ लिए चलती तो उसकी कमर में अजीब सी लचक होती, बड़ी-बड़ी आखें, कमर तक लम्बे बाल, बालों में रेशमी लाल धागे, का परादा ऐसे बल खाता जैसे नागन। सांवला रंग, भरा बदन, लम्बी कद-काठी, उभार देखकर औरतें एक-दूसरे को कोहनी से ठुनकियातीं ‘‘ससुरी इंटा भरले है।’’ और जोर से समवेत् ठाहाका उठता। मियाईन लड़कियों के करीब पहुंची, पान का पीच थूकते हुए बोली- ‘‘आज ओ पुरा की बारी है।’’ लड़कियाँ चिल्लाईं नाऽ नाऽ नाऽ और रास्ता घेर कर खड़ी हो गयीं। मियाईन हँस कर बोली- ‘‘अच्छा-अच्छा धिया चलते हैं।’’ मियाईन आगे-आगे लड़कियाँ इठलाती-बलखाती पीछे-पीछे। आती हुई मियाइन को गाँव की बाल मंडली ने देखा, हर्ष ध्वनि गुंजायमान, छोटा धन्ने, अपनी आजी का आँचल पकड़ कर मचलने लगा, ‘‘मियाईन, आईल, गाली (गाड़ी) लेईब रेऽऽ आजी, और जोर-जोर से हुआ-हुआ करके रोने लगा, ये बालहठ का ब्रह्मास्त्र है। मियाईन पायल छमकाती बड़का दुवार की ओर बढ़ी। पुरानी रीत थी, मनिहारिनें इसी द्वार पर दौरा उतारती आयी थीं। त्योहार का समय था किन्तु बरसात के मौसम के कारण आसमान में बादलों की आवा-जाही जारी था। खुशनुमा मौसम में टोले भर की औरतें, काम-काज छोड़ कर बड़का दुवार की ओर चलीं। गांव के प्रधान तारकेश्वर पंडित के दरवाजे पर पंचों के बैठने के लिए बड़ा सा चबूतरा बना था जिस पर मेला के दिनों में माहेश्वर नौटंकी भी करवाता था, चारों गांव के मनचलों का सम्मेलन भी इसी बहाने होता। मियाईन चबूतरे पर दौरी उतार बैठ गयीं चारों तरफ लड़कियां, बच्चे, बुढ़ियों का हुजुम, दरवाजे पर कोलाहल सुन कर बुढ़िया बाहर निकली, बुढ़िया मनिहारिन को देखते ही पिनिक जाती, साज-श्रृंगार से उसे नफरत थी, चिढ़ कर बोली- ‘‘ऐ छिनरी के हमरे दुवार मजलिस लगावे के मिलेला।’’

मनिहारिन बुढ़िया की नजरों में औरतों को पथभ्रष्ट करने का साधन थी। युवावस्था में वैधव्य ने उसे इस प्रकार कुंठित किया कि सुहागिनों का श्रृंगार उसे कांटे की तरह चुभता, मजाल की तीनों पतोह लाली, इसनों खरीद सकें। मनिहारिन ने धरती का स्पर्श करते हुए कहा- ‘‘पांव लागीं बड़की मईया’’, बुढ़िया मुँह चमका कर बरामदे की सीढ़ियों पर बैठ गयी। दरवाजे का ओट लिए दोनों छोटी बहुएँ बाहर का दृश्य देख रही थीं। आभा का छोटा भाई पिंकू डौड़ता हुआ उसके कमरे में गया- ‘‘दीदिया जल्दी उठ, मियाईन आयी हैं।’’ आभा नभदामिनी की फूर्ति से द्वार की ओर भागी, माँ ने सम्हल कर चलने का उलाहना दिया।

आभा की माँ भण्डारे में चावल फटक रही थीं, मियाईन के आने का संदेशा सुन काम छोड़ बाहर निकलीं, देवरानियों को उन्हीं की प्रतीक्षा थी देखते ही खिल उठीं। आभा की माँ व्यवहार कुशल और विनम्र महिला थीं जिसके कारण सभी उनका आदर करते थे, उनके बाहर निकलते ही औरतों का मौन मुखरित हो उठा, बुढ़िया का भय समाप्त हो गया। बुढ़िया मुँह बिजका कर बोली- ‘‘जा तोहरे जोहाई है।’’ आभा मनिहारिन की दौरी के पास पालथी मार कर बैठ गयी, मियाईन ने बलाएं जीं, मुस्कुरा कर माथा चूमते हुए बोली- ‘‘आ गइली, हमरे सूरूज किरिनिया क जोत।’’ बुढ़िया क्रोध से आग बबुला हो उठी, ये कहने का अधिकार केवल उसका था, आभा की माँ ने हाथ जोड़ कर शान्त रहने का इशारा किया। खरीददारी शुरू हुई, आभा ने लाल फीता लिया, माँ ने देवरानियों के लिए श्रृंगार का सामन, बच्चों के लिए खिलौने, बुढ़िया के लिए काजल की डीबिया खरीदी। एक-एक कर सबकी खरिददारी पूरी हुई, औरतें धीरे-धीरे उठ कर अपने-अपने घरों को चलीं। धन्ने की जिद अभी-भी अधूरी थी, उसकी आजी बांह पकड़ कर घसिटते हुए लेकर चलीं, बच्चा दर्द से चिल्लाने लगा। मियाईन ने दौड़ कर हाथ छुड़ाया बच्चे को गाड़ी पकड़ाते हुए बोली- ‘‘कहां भागत हंयी ऐ महरानी जी, अगली बार दे देहल जाई।’’ इसी बीच द्वार पर आभा के पिता तारकेश्वर पंडित पहुंचे, आभा की मां सिर का पल्लू सम्हाल कर घर के अन्दर चलीं, बुढ़िया प्रसन्न हो गयी। तारकेश्वर पंडित कनखियों से मियाईन को देखते हुए आगे बढ़े। मियाईन मुस्कुरा कर बोली- ‘‘का ए परधान जी आप ना कुछ लेईब, उधर से बिना मुखातिब हुए आवाज आयी तू देयो ना पईबू।’’ मनिहारिन हँसते हुए उठ कर चल दी।


एक रात अचानक आभा के पेट में दर्द उठा, छटपटा कर उठ बैठी, पलंग पर माँ को न पाकर पेट पकड़ कर दलान की ओर चली, अचानक सीढ़ियों के नीचे के हिस्से से किसी के फुसफसाहट की आवाज सुन कर चौकन्नी हुई, पैर दबा कर उस ओर बढ़ी, देखा सीढ़ियों के नीचे के कोतर में माहेश्वर और दिपना-बो एक दूसरे से लिपटे हुए थे, भय के मारे पैर लड़खड़ाने लगा, पेट की वेदना पूरे शरीर को ऐंठने लगी, उफ्फ, कैसे चाची बर्दाश्त करती हैं ये सब, कैसे गुजरेगी उनकी जिन्दगी, दर्द काफूर हो गया, वापस कमरे में आकर रात भर सोचती रही, क्या होगा चाची का, चाची विरोध क्यों नहीं करती, आदि कई सवाल उसके दिमाग में उथल-पुथल मचा रहे थे, छोटी चाची से उसे सहानुभूति और चाचा से घृणा हो गई। आभा को यह देख कर घोर आश्चर्य होता कि सब कुछ देख सुन कर भी छोटी चाची कैसे चुपचाप सबकी सेवा-टहल में लगी रहती हैं? सोचती अगर मेरा पति ऐसा निकला तो मैं उसे छोड़ कर अपने पैरों पर खड़ी (आत्मनिर्भर) हो जाऊँगी। उसकी बातें सुन सहेलियाँ कहतीं- ‘‘तुम्हें कौन छोड़ेगा चारो गाँव तुम्हारे सौन्दर्य पर मुग्ध रहता है, सुना नहीं मियाईन क्या कह रही थीं- उस पार के बाभनों के लड़के तुम्हें उठा ले जाने की सोचते हैं।’’ आभा क्रोध से काँप उठी- ‘‘बस-बस, मेरे बाबू जी और चाचा लोग बबुआ लोगों की खाल उधेड़ कर भूसा भर देंगे सारा भूत एक ही क्षण में पिपर पर डेरा डाल लेगा। लड़कियाँ चुप रहने में ही भला समझ खिसक लेती। आभा की नस-नस में माँ और आजी ने कुल मर्यादा की घुट्टी इस प्रकार भरा था कि वह ऐसी बातों को सोचना भी गुनाह मानती थी।

संध्या होने वाली थी, बुढ़िया बाहरी आँगन में खटिया पर बैठ कर, हरे राम, हरे राम, राम-राम, हरे-हरे का जाप कर रही थी, सामने से आती हुई आभा को पास बुला कर प्यार से बिठाया, दुलारते हुए समझाने लगीं, ‘‘बबुनी ऐतनी बेला तक घूमा न करो, कवनो कुछ कर-धर देगी तो जिन्दगी खराब हो जायेगी। अनुभवी वृद्धा घर के कपूत के करतूत और कन्या के सौन्दर्य से भयभित रहती थी।

फागुन के बासंती बयार ने वातावरण में मादक सुगन्ध भर दिया था, खेत सरसों के फूलों के सौन्दर्य और गेहूँ की हरितिमा की चादर ताने धरती आभामंडित कर रहे थे। आम के बौर तथा महुए की सुगन्ध वायु में मादक गंध भर रहे थे। वृक्षों पर तोता, कऊवा, मैना, गौरैया और छोटी लालमुनी चिड़िया का कलरव मधुर संगीत सुना रहा था। सहुवाईन को देख कर झिनकू बाबा गा रहे थे- ‘‘फागुन में बुढ़वा देवर लागेऽऽऽ फागुन मेंऽऽ, सहुवाईन ने हँस कर कहा- ‘‘का हो बाबा, बऊरा गईल, अबहिन त फगुवा पनरह दिन बा।’’

झिनकू बाबा- अरे! सुन ला भाई, ना- त फगुनवा गरियावे लागी।’’ हास-विनोद से पूरित वातावरण में सभी अपने-अपने कर्म में रत् आगे बढ़ रहे थे।

नाऊन बड़का दुवार पर बैना लिए आई, ‘‘ऐ काकी मईया, कन्हईया बाबा क बड़की बेटी आइल बा, बैना ले लीं, बुढ़िया भीतर से डाली में चावल ले कर निकली, दौरी में डाल कर बैना की मिठाईयाँ ली, लड्डू, बताशा, टिकरी, खाजा देख कर बच्चे मचलने लगे, ‘‘हम के आजी, हमके आजी’’, बुढ़िया ने बुदबुदाते हुए अग्रभाग गाय की हऊदी में तोड़ कर डाला तब बच्चों को बाँटा। दिपना बो को देखते ही नाऊन विदक कर बोली- ‘‘कारे दिपनवा बो आँखे क पानी हेरा दे-ले हई, मरद रोटी सेंकेला, लइकन साम्हारेला औरी तूं दिन-रात ईंहे पड़ल रहेली।’’ नाऊन की बात सुन कर माहेश्वर तमतमा गया, लाठी उठा कर जोर से नाऊन की दौरी के पास दे मारा, बेचारी काहेऽऽ बाबा, काहेऽऽ बाबा कह कर घिघियाने लगी। माहेश्वर चिल्ला रहा था, भाग-भाग ससुरी भाग इहां से। नाऊन जाते-जाते सुनाते गयी, ‘‘हे काकी मईया धियान देई चमरौटी उबिलत हवे। बुढ़िया सिहर उठी। ‘‘हरे छिनरिया, भाग रे भाग माहेश्वर से विनती करते हुए बोली- ’’अरे नाशे पर लागत हऊवा पुता, तनिको डेरईता, लईकी सयान होत विया।’’ माहेश्वर गुनगुनाते हुए निकल गया, बुढ़िया पथराई आँखों से जाते हुए माहेश्वर को देखती रही, अनहोनी की आशंका से बुढ़िया कांप उठी।

आभा पास के गांव में स्थित स्कूल में इण्टर की छात्रा थी, पूरे गाँव की लड़कियाँ एक झुण्ड में साईकिल से स्कूल जातीं। आते-जाते मंगल पहलवान का लड़का फेरा डालता, लड़कियाँ किनारे हट कर आगे निकल जातीं। आभा की माँ ने समझा रक्खा था कि ‘‘हाथी चलती है कुत्ते भौंकते रहते हैं तू अपने साथ अपने कुल की इज्जत लिए चलती है आँच न आने पाए। तुम्हारा गोरा रंग कुल का कालिख नहीं बनना चाहिए। लड़कियाँ जा रही थीं लड़का गाते हुए निकला- ’’चँदवा के ताके चकोर हे गोरी हम तोहके निहारी।’’ आभा ने पैडिल पर पैरों की गति बढ़ाई, देखते-देखते लड़कियाँ हवा हो गयीं।

परीक्षा का समय आया बाकी लड़कियाँ कला वर्ग की छात्रा थीं अकेली आभा विज्ञान वर्ग की अतः उसे परीक्षा दिलाने घर का कोई न कोई पुरुष सदस्य ले कर जाता। एक-एक कर परीक्षा समाप्ति की ओर था कि एक दिन दिपना हाँफता-दौड़ता आया, मलिकार खरिहाने में आग लग गईल है, सभी एक साथ खरिहान की ओर भागे, आग बुझाने के प्रयास में आभा के पिता का हाथ झुलस गया, किसान की थाती जल जाय और किसान देखता रहे ये सम्भव नहीं। एक तिहाई अनाज भस्म हो गया, पास के पोखरे की सहायता से आग पर काबू पा लिया गया वरना गाँव के सटे खरिहान से जान-माल की भारी क्षति होती। मझले भाई रामेश्वर, तारकेश्वर को लेकर डाक्टर के यहाँ चले, माहेश्वर से आभा को परीक्षा दिलवा लाने को कहते गये। माहेश्वर टोले की ओर चला, सीटी बाजते, गाते, गुनगुनाते कंधे पर लाठी लिए मस्ती में झूमता हुआ ऐसे चल रहा था जैसे कुछ हुआ ही नहीं। टोले में घुसते ही सहुवाईन ने अपनी गुमटी से हाँक लगाया- ‘‘ऐ पंडित जी कइसे खरियाने में आग लागल’’, कनखियों से चेहरे के भाव को पढ़ते हुए बोली ‘‘जरूरे आपे क करतूत होई। बड़का बाबा त गऊ मनई हऊंव। माहेश्वर स्टूल लेकर बैठ गया, बतकही में आभा की परीक्षा का ध्यान ही नहीं रहा। इधर आभा विलंब होता देख छत-दुवार एक किये हुए थी। हार कर माँ से बोली, ‘‘अम्मा हमारा परीक्षा छूट जायेगा, हम साइकिल से जा रहे हैं, आप नाहक ही घबड़ाती हैं, हम ढोर-डांगर नहीं हैं जो लकड़सुंघवा खेद ले जायेगा। साईकिल उठाया और निकल पड़ी। माँ की छाती धक्क से अन्दर तक धस गयी। आभा गाँव से बाहर निकल चुकी थी। साईकिल की पैडल पर विद्युत की गति से पैर मार रही थी आँखों में केवल एक ही अर्जुन का लक्ष्य था, परीक्षा केन्द्र तक शीघ्र पहुँचना। अभी वह साधु की कुटी वाले बाग तक ही पहुँची थी कि पीछे से मार्सल गाड़ी उसे धक्का देते हुए आगे निकली, वह भरभरा कर गिर पड़ी, फुर्ती से उठी साइकिल सम्हालकर अभी बैठने ही जा रही थी कि बगल के खेतों में से दसों लड़के मुँह पर गमछा बांधे निकले, ऊँचे गन्ने और अरहर के खेतों के कारण उसके भीतर कौन है, देखना आसान नहीं होता। आभा सहम गई, साइकिल फेक कर भागी, लड़के दौड़ कर उसे पकड़ने लगे। वह जोर-जोर से पूरी ताकत लगा कर चिल्ला रही थी- ‘‘अरे चाचाऽऽऽ हो ऽऽऽ अम्मा रेऽऽऽ बचावऽऽऽ।’’ एक लड़के ने उसका मुँह दबाया, दूसरे ने मुँह में गमछा ठूंस दिया, खींचते हुए गन्ने के खेत में लेकर चले, रगड़ से उसके हाथ-पैर छिल रहे थे, गन्ने के धारदार पत्ते लड़की के शरीर को छिले जा रहे थे।

इसी बीच मनिहारिन उस ओर से गुजरी, गिरी हुई साइकिल और किसी के घसीटने के निशान को देख कर चौंकी, दौरी उतार कर चुपचाप पैर दबा कर निशान की सीध में आगे बढ़ी। बिगहे भर में फैले गन्ने के खेत के बीचो-बीच का दृश्य देख कर उसका शरीर सुन्न हो गया, वहीं जड़ हो गयी, लड़के आभा को गिद्ध की तरह नोच रहे थे, लड़की मछली की तरह तड़प रही थी, आस-पास उसके कपड़ों के चिथड़े बिखरे पड़े थे। हिम्मत कर मनिहार टोले की ओर गिरते-पड़ते भागी, गाँव के बाहर ही माहेश्वर साहू जी की दुकान पर मिल गया, बिजली की फुर्ती से लपक कर उसका हाथ पकड़ा, माहेश्वर रोमांचित हो उठा, हिम्मत कर माहेश्वर के कान में पूरी घटना संक्षिप्त में बताकर धम्म से जमीन पर बैठ गयी। माहेश्वर चिल्लाते हुए दुवार की ओर भागा, दरवाजे पर पूरा गाँव तथा आस-पास के गाँवों के ब्राह्मण इकट्ठे थे, कारण प्रधान की फसल जली थी, घायल हुए थे। संवेदना प्रकट करने वालों का तांता लगा था। माहेश्वर ने भाई को ललकारते हुए कहा- ‘‘अरे बाप रे भईया..... इज्जत गईल...... ससुरा अभवा के ऽऽऽ अभी उसकी बात पूरी भी नहीं हुई थी। लपककर रामेश्वर ने माहेश्वर का गला पकड़ लिया.......। का बे साले, तोहसे कहल रहे कि साथे लेके जईहे, माजरा सबको समझ में आ चुका था। पूरा गाँव लाठी, हँसिया, गड़ासा, भाला लिए साधु की कुटी की ओर भागा। मनिहारिन आगे-आगे दौड़ रही थी, धूल उड़ती देख लड़के चौकन्ने हुए, लड़की का शरीर शांत हो चुका था। एक ने गाल थपथपा कर देखा, ‘‘मर गई साली’’, दूसरे ने कहा, एक लाश और चाहिए थी साले किस्मत से बच गये। एक साथी खेत के बाहर गया, हाँफता हुआ- अन्दर आया भाग- बे- भाग पूरा बभनऊटी इधर ही आ रहा है, पता नहीं कईसे सालों को मालूम चल गया। लड़के अपने-अपने कपड़े समेट कर दूसरी तरफ से भाग निकले। मियाईन फुर्ती से घटना स्थल की ओर बढ़ी, जनता पीछे, गंतव्य पर पहुँच कर सबके होश उड़ गये। रामेश्वर ने अपनी धोती खोलकर आभा के नग्न शरीर पर डाला, मियाईन दहाड़े मार कर रोने लगी, लड़की के पास पहुँचकर सीने पर कान लगाया, सांसे रह-रह कर आ-जा रही थीं, गिड़गिड़ाते हुए रामेश्वर से बोली- ‘‘ऐ बाबा अबहिन जान बा, डागडरी ले चला।’’ रामेश्वर लात से धक्का देते हुए लड़कों को खोजने चला, तारकेश्वर पंडित को छोड़ कर सभी लड़कों की तलाश में जुटे थे। तारकेश्वर सिर पकड़ कर आभा के निर्जीव शरीर के पास बैठे थे। मियाईन ने गुप्तांगों के पास का कपड़ा हटाया, बोली आही रे बप्पा बछिया हग-मूत कुल देले बाड़ी। तारकेश्वर पंडित को झकझोरते हुए बोली- ‘‘डगडरी लें चली ऐ बाबा।’’ इतने में माहेश्वर कुछ लड़कों के साथ वापस आया, तारकेश्वर ने पूछा- कवनों भेंटईलं।’’ निराश होकर रामेश्वर बोला- ‘‘इनकी माँ की साले भाग निकले।’’ अचानक माहेश्वर मियाईन का बाल पकड़ कर बोला, ऐ साली के कईसे पता चलल, मिलल हिए और लात, घूसों के साथ टूट पड़ा, मियाईन सकपका गई। ‘‘अरे ऐ बाबा, हम अईसन काहें करब।’’ माहेश्वर अन्य युवकों के साथ उसे घसीटते हुए दूसरी तरफ लेकर चला, ‘‘ससुरी अईसे नहीं बतायेगी,’’ सब के सब जानवरों की तरह मियाईन पर टूट पड़े।

गाँव के बुजुर्ग तारकेश्वर पंडित के पास पहुँचे, रक्त प्रवाह से धरती लाल हो चुकी थी, सबने समझा लड़की मर चुकी है। पिता ने एक बार उँगलियों को अहिस्ते से हिलते हुए देखा था किन्तु मौन रहे। दोपहर हो चुकी थी, सबने राय दी थाने में रपट करनी होगी, दरोगा आए, लड़की के पिता ने मृत घोषित किया, प्रथम दृष्टया बलात्कार का केश था डाक्टरों ने खानापूर्ति कर मुक्ति ली। पंचनामा बना। गवाहों के बयान लिए गये। शाम होने को आयी थी, सूर्य अस्त हो रहा था, गाँव के बाहर ही टिक्ठी आई, कफन, फूल, माला आदि, दिपनाबों ने लाश को नहलाया धीरे से रामेश्वर से बोली, ‘‘देहिया गरम बा।’’ रामेश्वर का जलता हुआ चेहरा देखकर जल्दी-जल्दी कफन ओढ़ाया, आनन-फानन में पोखरा के किनारे शिवालय के पास चिता सजी, लड़की की लाश चिता पर रख दी गयी। मियाईन को होश आया, कपड़ा समेटते हुए भागी, अरे काठ क करेजवा जानि करे ऐ बाबा, बबुनी जीयत हई, बुजुर्गों ने मियाईन को पकड़ कर पीपल के पेड़ से बाँध दिया, मियाईन चित्कारती रही। नाऊ ने तारकेश्वर पंडित का बाल बनाया पंडित ने मंत्र पढ़े नाजो से पली बेटी को मुखाग्नि दी, कलेजा जोर-जोर से धड़क रहा था, हाथ काँप रहा था, भाईयों ने कस कर भाई को पकड़ लिया, चिता से आग की लपटे उठने लगीं, अचानक लड़की का शरीर काँपने लगा, तीनों भाईयों ने आँखें बंद कर लिया, तारकेश्वर पंडित जमीन पर गिर पड़े, दो बूंद जमीन पर गिरा बुदबुदाये, जी कर क्या करती बहिनी।’’ बुजुर्गों ने तीनों भाईयों को चिता से दूर हटाया, दिपना ने बास के फट्टे से पीट-पीट कर लाश को जलाया। सब गाँव की ओर लौटे, शिवालय के पुजारी ने मियाईन को खोल दिया। सुबह बड़का दुवार पर खबर आयी, मियाईन की लाश पोखरे में उतराई है, चमरौटी में रात भीषण आग लगी, छानी-छप्पर सब भस्म हो गया, काफी संख्या में बच्चे, बूढ़े और औरतें मारे गये। तारकेश्वर पंडित बाँस की कईन और लोटा में गुड़, अक्षत, तिल लिए साधु की कुटी वाले पीपर की ओर चले, पीछे-पीछे नाऊ। औरतें- दलान में चित्कार रही थीं, बुढ़िया राग कढ़ा कर बीच-बीच में रूदन करती- ‘‘कहाँ गईली हमरे सुरूज किरिनिया क जोत हो रामा।’’

सम्पर्क

मोबाईल - 09415907958

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी की है)

टिप्पणियाँ

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (26-06-2016) को "लो अच्छे दिन आ गए" (चर्चा अंक-2385) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" रविवार 26 जून 2016 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!

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  3. दिल को झकझोर कर रख दिया कहानी ने। झूटी मान-मर्यादा के आदे इन्सान की जान कुछ नही। आपकी कहानी कहने की शैली अदभुत है बहुत पसंद आई।

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