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सुधा अरोड़ा की कहानी 'देह धरे का दंड'

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  सुधा अरोड़ा  पितृसत्तात्मक समाज स्त्रियों पर अपना वर्चस्व कायम रखने के सारे  पितृसत्तात्मक समाज स्त्रियों पर अपना वर्चस्व कायम रखने के सारे तिकड़म तो करता ही है वह उन्हें महज एक 'वस्तु' की तरह देखता है और व्यवहार भी करता है। इस क्रम में स्त्रियां पुरुषों के उस व्यवहार का अनायास ही शिकार होती हैं जिसकी कल्पना वे स्वयं नहीं करतीं। धर्म की आड़ में स्त्रियों का यह शोषण कुछ अधिक ही होता है। साधु महात्मा का बाना ओढ़े ढोंगी लोग इसका नाजायज फायदा उठाते हैं। धर्म इन ढोंगियों के लिए सर्वाधिक सुरक्षित शरणस्थली साबित होता है। सुधा अरोड़ा ने अपनी कहानी 'देह धरे का दंड' के जरिए इस ढोंग को करीने से उद्घाटित करती हैं। सुखदेव जी महाराज हर वर्ष अपने शिष्यों समेत तनेजा परिवार के घर पधारते हैं और इस अवसर पर अपने भक्तों को कृतार्थ करते हैं। धर्म की आड़ में सब कुछ इस व्यवस्थित तरीके से चलता है कि इन ढोंगियों की हरकतों को परिवार के लोग भी भांप नहीं पाते। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं सुधा अरोड़ा की एक बेजोड़ कहानी 'देह धरे का दंड'। 'देह धरे का दंड' सुधा अरोड़ा पूरी रात विश...

यतीश कुमार द्वारा की गई समीक्षा

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  यह जीवन एक अनजाना सा सफर है। कब किस मुकाम पर यह यात्रा थम जाए, कहा नहीं जा सकता। फिर भी जीवन का यह संघर्ष तो निरन्तर चलता ही रहता है। यही जीवन की खूबी है। कवयित्री गीता गैरोला को कैंसर जैसी घातक बीमारी के चपेट में आ गईं। गीता जी ने जिस जीवट के साथ इस बीमारी का सामना किया वह प्रेरणास्पद है। कैंसर से जूझने के अपने अनुभवों को उन्होंने अपने संस्मरण में पिरो डाला है जिसकी परिणति है उनकी किताब 'गूंजे अनहद नाद'। यतीश कुमार ने  गीता गैरोला के इस किताब की समीक्षा लिखी है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं  यतीश कुमार द्वारा की गई समीक्षा  सकारात्मक बने रहने का सन्देश देती गूंजै अनहद नाद। सकारात्मक बने रहने का सन्देश देती गूंजे अनहद नाद  यतीश कुमार  इस किताब के कुछ पन्ने पलटे ही होंगे कि समझ में आया अनुभव की नयी दुनिया में प्रवेश करने जा रहा हूँ। यह मात्र किसी कैंसर सर्वाइवर की कहानी मात्र नहीं है। कहानी में सच्चे अनुभव के साथ सकारात्मक संदेश छिपे हैं। बड़ी बहन सरोजनी और अपने चाचा जी के साथ-साथ जिन डॉक्टर सिंह के यहाँ गीता जी का इलाज चल रहा था उनकी पत्नी, डॉक्टर संगी...

भरत प्रसाद का आलेख 'कविता के प्राण पर भाषा की प्रभुसत्ता'

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  विनोद कुमार शुक्ल  विनोद कुमार शुक्ल ने लिखने की जो अलग शैली इजाद की, उसके साथ इस बात का खतरा लगातार बना रहा कि पाठकों में इसे स्वीकृति मिल पाएगी अथवा नहीं। विनोद जी की कविताएं पढ़ते हुए प्रथमदृष्टया पाठक यह अंदाजा नहीं लगा पाते, कि आखिरकार कवि कहना क्या चाहता है। लेकिन एक बार जब इस शैली के अन्दर से हो कर हम गुजरते हैं तो विषय की परतदार गूढता से दो चार होने लगते हैं। विनोद कुमार शुक्ल अपनी तरह की ऐसी अलग फैंटेसी गढ़ते हैं जो ऊब पैदा नहीं करती बल्कि कथ्य को नया आयाम प्रदान करती है। कवि भरत प्रसाद ने कवि के इन शिल्पगत प्रयोगों की तहकीकात की है। विनोद जी पर हम पहले ही प्रियदर्शन और पीयूष कुमार के आलेख प्रकाशित कर चुके हैं। इस कड़ी में यह तीसरा और अंतिम आलेख है। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं भरत प्रसाद का आलेख। ' कविता के प्राण पर भाषा की प्रभुसत्ता'         (विनोद कुमार शुक्ल पर केंद्रित) भरत प्रसाद  बड़ी रचना में जितनी अहम् भूमिका प्रतिभा की होती है, उससे कुछ कम महत्वपूर्ण भूमिका दृष्टि-साधना या व्यक्तित्व-साधना की नहीं होती। जब तक दोनों का सं...

पीयूष कुमार का आलेख 'साधारण के असाधारण लेखक'

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  विनोद कुमार शुक्ल  रचनाकारों के लिए प्रचलित भाषा से अलग हट कर अपनी अलग तरह की भाषा इजाद करना आसान नहीं होता। खासकर कविता, कहानी और उपन्यास के क्षेत्र में यह एक चुनौती की तरह होता है। विनोद कुमार शुक्ल ऐसे रचनाकार हैं जिन्हें गद्य और पद्य दोनों में उनकी अलग तरह की भाषा के तौर पर पहचाना जा सकता है। विनोद जी की यह भाषा रचना को पढ़ने में कहीं पर भी व्यवधान नहीं करती बल्कि विषय के अंतरजगत में प्रवेश कर उसकी बन्द पड़ी गिरहों को खोलने की कोशिश करती है। इस तरह उनकी भाषा असाधारण है जो साधारण यानी आम की बात कुछ खास अंदाज में करती है। विनोद जी को इस वर्ष के ज्ञानपीठ पुरस्कार से नवाजा गया है। उन्हें बधाई देते हुए कल हमने प्रियदर्शन का एक आलेख प्रस्तुत किया था। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है यह दूसरा आलेख। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं  पीयूष कुमार  का आलेख 'साधारण के असाधारण लेखक'। 'साधारण के असाधारण लेखक' पीयूष कुमार  विनोद कुमार शुक्ल का जन्म एक जनवरी को हुआ था। लगता है हिंदी में सत्तासी साल पहले शुरु हुए नए साल के पहले ही दिन को एक दृश्य में दो दृश्य देखने की, शब्दों ...