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हर्षिता त्रिपाठी की कविताएं

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  हर्षिता त्रिपाठी  समय सतत गतिशील है। अलग बात है कि हम अपने रोजमर्रे में कुछ इस कदर मशगूल हैं कि समय की गतिशीलता महसूस ही नहीं हो पाती। लेकिन समय किसी की परवाह नहीं करता। युवा कवयित्री हर्षिता त्रिपाठी समय के इस मिजाज से भलीभांति वाकिफ हैं। वे लिखती हैं  : 'जीवन महसूस होता रहा/ एक यात्रा की तरह/ जो चलता चला गया/ दूर तलक/ जहाँ नही मिला कोई स्टेशन/ न सुख का/ न दुःख का/ मिले तो लोग मिले/ भीड़ मिली/ और मिला दूर तक पसरा/ खामोशी का एक भयानक सन्नाटा'।  'वाचन पुनर्वाचन' शृंखला की यह शृंखला आठवीं कड़ी तक पहुंच चुकी है। इस शृंखला में हम प्रज्वल चतुर्वेदी,  पूजा कुमारी, सबिता एकांशी, केतन यादव, प्रियंका यादव, पूर्णिमा साहू और आशुतोष प्रसिद्ध की कविताएं पहले ही प्रस्तुत कर चुके हैं। 'वाचन पुनर्वाचन' शृंखला के संयोजक हैं प्रदीप्त प्रीत। कवि बसन्त त्रिपाठी की इस शृंखला को प्रस्तुत करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका है। कवि नासिर अहमद सिकन्दर ने इन कवियों को रेखांकित करने का गुरुत्तर दायित्व संभाल रखा है। तो आइए इस कड़ी में पहली बार पर हम पढ़ते हैं हर्षिता त्रिपाठी की कविताओं पर नास

सेवाराम त्रिपाठी का आलेख 'व्यंग्य का बाज़ार बनाम बाज़ार का व्यंग्य'

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  सेवा राम त्रिपाठी 'व्यंग्य का बाज़ार बनाम बाज़ार का व्यंग्य' सेवाराम त्रिपाठी  वैसे बाज़ार कब नहीं थे। बहुत लंबे अरसे से तरह-तरह के बाज़ार हुआ करते थे। पूर्व में भी बाज़ार की सत्ताएं थीं और आज भी हमारे चारों ओर बाज़ार का महान छत्र तना हुआ है। जिधर देखिए उधर बाज़ार। स्वार्थ तब भी थे और आज भी हैं। उसके रूप और आकार ही नहीं बल्कि भाव-भंगिमाएं तक बदल गई हैं। आजकल सत्ताएं और व्यवस्थाएं भिन्न-भिन्न रूपों में हमारे सामने अपना संगठित बाज़ार बना चुकी हैं एक विराट उद्योग की भांति। यही नहीं जो भी पवित्र है उसे अपवित्र बनाने के लिए बाज़ार व्यापक रूप से प्रयत्नशील है। बाज़ार तो चुनावों के बांड का भी है लेकिन इसके बारे में कोई कुछ पूछे नहीं। आपने पूछा तो गए काम से। सत्ताएं  हाथ धो कर पीछे पड़ जाती हैं। ये काबिज़ सत्ताएं कह रही हैं कि कोई उन पर सवाल भी न उठाए। विज्ञापन का बाज़ार, वोट का बाज़ार, मूर्खताओं का बाज़ार, झूठ-झांसों का बाज़ार और लूटने-खसोटने का एक बहुत बड़ा बाज़ार हमारे सामने है ही। जिनकी निरंतर लीलाएं जारी हैं। और हमारा देश इसी में भरमाया हुआ है। किसी की भी समझ से परे है कि आख़िर

बोहमिल हराबल की चेक कहानी 'देवदूत'

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  Bohumil Hrabal आज पहली बार पर हम चेक कहानी देवदूत प्रस्तुत कर रहे हैं। मूल चेक भाषा से इसका अंग्रेजी अनुवाद पॉल विल्सन ने किया है जबकि अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद किया है कवि श्रीविलास सिंह ने। श्रीविलास सिंह ने विश्व साहित्य के कुछ अनछुए पन्नों को सामने लाने का महत्त्वपूर्ण प्रयास किया है। कहानी को उसके मूल के भाव में अनुवादित करना श्रीविलास सिंह की खासियत है। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं  बोहमिल हराबल की चेक कहानी 'देवदूत'। 'देवदूत' (चेक कहानी) बोहमिल हराबल (1914-1997) अंग्रेज़ी अनुवाद : पॉल विल्सन अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद : श्रीविलास सिंह   युवा सुरक्षाकर्मी कक्ष के बाहर उस जगह खड़ा था जहाँ वे फायर क्ले के पाइपों का भण्डारण करते थे। जब वह महिला कैदियों को फायर क्ले के बड़े-बड़े कन्डुइट उतारते हुए देख रहा था, उसका अंगूठा उस सैम ब्राउन बेल्ट में अटका हुआ था जिससे होल्सटर में रखा रिवाल्वर लटक रहा था। उसके बगल में विलो का एक वृक्ष - जिसका पुस्सी विलो (विलो वृक्ष से प्राप्त रुई जैसा फाइबर) हर बसंत मानवीय हाथों द्वारा नोच लिया जाता था - फिर से पहले की अवस्था में आने हेत