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रुचि उनियाल की कविताएं

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रुचि उनियाल जैसे जैसे हम समझदार होने की तरफ कदम बढ़ाते हैं वैसे-वैसे रूढ़ियां और परंपराएं हमें अपनी जकड़ में आबद्ध करने लगती हैं। मान्यताएं हमारी बौद्धिक चेतना से दो दो हाथ करने लगती हैं। कवि के सामने यह एक बड़ी चुनौती होती है। हिन्दू धर्म में पितरों को तर्पण देने की प्रथा ऐसी ही है। स्वाभाविक रूप से अपने पितरों के लिए हमारे मन में आदर और सम्मान होता है। हिन्दू परम्परा में पितृ पक्ष में पितरों को तर्पण देने का प्रचलन है। लेकिन हमारे पितर अब किस जीवधारी के रूप में होंगे, और उन्हें किस तरह तर्पण किया जाए, इसे ले कर कवयित्री रुचि उनियाल संशयग्रस्त हैं और अपने मनोभावों को कविता में इस तरह अभिव्यक्त करती हैं : "कैसे चीन्ह लूँ किसी कुत्ते में तुम्हारी छवि?/ कैसे करूँ विश्वास कि,/ तुम उसी कौवे के रूप लौटे हो/ जिसे तुम भी नहीं स्वीकारते थे/ काँव-काँव सुन कर/ और उड़ा देते थे छज्जे से उसे/ इस डर से कि,/ गौरैया के घोंसले से खा लेगा उसके अण्डे"। कविता के अन्त में वह एक सवाल खड़ा करती हैं जो मानीखेज है 'क्या तुम तृप्त हो जाओगे पिता?' आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं रुचि उनियाल की ...

सीमा आज़ाद की कहानी 'अभी इतने बुरे दिन नहीं आये हैं'

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  सीमा आज़ाद  लोकतन्त्र राजनीति की सबसे बेहतर शासन प्रणाली इसीलिए है कि इसमें सबको, चाहें वह किसी भी धर्म, जाति, नस्ल या समुदाय का हो, अपनी मर्जी के मुताबिक रहने और जीने  का अधिकार प्राप्त होता है। सबको विचार और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता होती है। अल्पसंख्यक समुदाय भी इस प्रणाली के तहत खुद को सुरक्षित महसूस करता है। लेकिन जब यह लोकतन्त्र धीरे धीरे 'बहुसंख्यकतन्त्र' या 'भीड़तन्त्र' में तब्दील होने लगता है तब अल्पसंख्यक समुदाय के लोग कुछ डरे डरे या आशंकित से रहने लगते हैं। 'मॉब लिंचिंग' जब कानून का जगह लेने लगती है तब यह भय लाजिमी भी हो जाता है। यह लोकतन्त्र के लिए त्रासद होता है। इतिहास गवाह है कि नाजी जर्मनी में यहूदियों के साथ किस निर्ममता के साथ व्यवहार किया गया। आज की परिस्थितियां भी कुछ इसी तरह की होती जा रही हैं। सीमा आज़ाद ने इस हालात को बेहतर तरीके से अपनी कहानी में अभिव्यक्त किया है। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं सीमा आज़ाद की कहानी 'अभी इतने बुरे दिन नहीं आये हैं'। 'अभी इतने बुरे दिन नहीं आये हैं' सीमा आज़ाद कमरे में सन्नाटा था। दो लो...

प्रभा मुजुमदार की कविताएं

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परिचय डॉ. प्रभा मुजुमदार जन्म:  10.04.1957, इन्दौर (म.प्र.) एम.एस-सी. पी-एच.डी.(गणित), तेल एवम प्राकृतिक गैस निगम में भूवैज्ञानिक के तौर पर 35 वर्ष कार्यकाल के बाद  उपमहाप्रबंधक (तेलाशय) के पद से 2017 में सेवानिवृत।  5 कविता संग्रह ‘अपने अपने आकाश’ (2003), ‘तलाशती हूँ जमीन’ (2010), ‘अपने हस्तिनापुरों में’ (2014), “सिर्फ स्थगित होते हैं युद्ध” (2019) तथा “नकारती हूँ निर्वासन” (2025) प्रकाशित, अनेक साझा संग्रहों में प्रकाशन, कविता के अतिरिक्त छिटपुट व्यंग, आलेख, समीक्षा, कथा लेखन। प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिकाओं मे प्रकाशन।  जीवन है तो संघर्ष है और संघर्ष है तो जय और पराजय है। जैसे कोई संघर्ष अन्तिम नहीं वैसे ही कोई जय या पराजय अन्तिम नहीं होती। इतिहास गवाह है कि मानव सभ्यता की शुरुआत से ही युद्ध होते रहे हैं। युद्ध में जन धन की व्यापक पैमाने पर बर्बादी होती है और अंततः युद्ध एक शांति की तलाश में रुक जाता है। लेकिन फिर परिस्थितियां कुछ ऐसी करवट लेती हैं कि पुनः तनाव बढ़ने लगता है और युद्ध फिर आरम्भ हो जाता है। इस तरह देखा जाए तो युद्ध कभी स्थगित नहीं होता। कवयित्री प्रभ...