शशिभूषण मिश्र का आलेख 'युगीन सामाजिक अंतर्विरोध और अमरकांत की कहानियाँ'
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अमरकांत |
लेखक भविष्यदृष्टा नहीं होता। आमतौर पर वह अपनी रचनाओं में अपने समय और समाज की विडंबनाओं को ही अभिव्यक्त करता है। ये विडम्बनाएं जब तक बनी रहती हैं, लेखन की प्रासंगिकता तब तक बनी बची रहती हैं। अमरकांत ऐसे ही कहानीकार थे जिनकी अपने समय की नब्ज पर पकड़ थी। आजादी के बाद के भारत की कथा व्यथा को गहरे तौर पर जानना हो तो अमरकांत को पढ़े बिना बात नहीं बनेगी। शशिभूषण मिश्र अमरकांत की कहानियों की तहकीकात करते हुए उचित ही लिखते हैं 'अमरकांत की कहानी आजादी के बाद के भारत की बस्तियों की हकीकत बन जाती है। अमरकांत ने पांच दशक पहले जिस सर्वग्रासी संकट की ओर ध्यान खींचा था वह आज और गहरा हो गया है। ध्यान रहे लेखन पर बात करते हुए न उस युग को दरकिनार किया जा सकता है और न आज के हालतों को। हमारे समाज का यह बहुत पुराना रोग है कि वह सार्वजनिक संपत्ति की रक्षा तो कर नहीं सकता किन्तु उसे नष्ट करने में सबसे आगे रहता है। इसीलिए गली की इंटें अगर उखड़ जाएं तो उसे सही करने के बजाए, बची-खुची ईटें उखाड़ कर अपने घर में रख लेने में ही वह अपनी सबसे बड़ी होशियारी समझता है।' कल अमरकांत के जन्मदिन पर हमने उनकी कहानी प्रस्तुत किया था। इसी शृंखला में आज हम शशिभूषण मिश्र का आलेख प्रस्तुत कर रहे हैं। यह आलेख हमने 'बनास जन' के हालिया अंक से साभार लिया है। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं शशिभूषण मिश्र का आलेख 'युगीन सामाजिक अंतर्विरोध और अमरकांत की कहानियाँ'।
'युगीन सामाजिक अंतर्विरोध और अमरकांत की कहानियाँ'
शशिभूषण मिश्र
"मानव जीवन में जो अंतर्विरोध है, विडंबनाएं हैं, जो मानव विरोधी प्रवृत्तियां हैं, शोषण और अन्याय है, कथनी करनी में जो फर्क है, उनकी ओर मानवीय दृष्टि से देखना और उनकी समस्याओं को उठाना ही मेरे सृजन और चिंतन का उद्देश्य है।"
- अमरकांत
"साहित्य को किसी वाद से नहीं बांधा जा सकता। पर एक व्यापक मानवता से उसका अवश्य सम्बन्ध होना चाहिए। समाज में लोभ, अन्याय, शोषण, घमंड, ईर्ष्या आदि दोष हैं.. लेखक इनकी उपेक्षा नहीं कर सकता.. देश में दुःख और दैन्य है, अन्धविश्वास है, पिछड़ापन है। क्या लेखक इनसे अलग रह कर हवा में रह सकता है ?" - मुलाकात' कहानी से
अमरकांत सामाजिक अंतर्विरोध को चीन्हने के साथ आदर्शवाद के खोल में छिपे नकलीपन और काइयांपन को धर दबोचने वाले कथाकार हैं। आजादी के लगभग एक दशक भीतर ही भारतीय समाज के अंतर्विरोध सामने आने लगे थे, इसलिए अपने समय की नब्ज टटोलते हुए वह अंतर्विरोधों को खुल कर सामने लाते हैं। वह तदयुगीन सामाजिक अन्तर्विरोधों को अपनी कहानियों का उपजीव्य बनाते हैं। नामवर जी ने तब ठीक ही लक्षित किया था कि कहानीकार की सार्थकता इस बात में है कि वह अपने समय के मुख्य अन्तर्विरोधों को सामने लाए। मुक्ति का जो मार्ग प्रेमचन्द ने निकाला था उस पर चलने में कई कठिनाइयों थीं। प्रेमचन्द यदि जीवित होते तो उनके लिए भी यह मार्ग उतना सरल न रहता। इस जटिल अंतर्मार्ग की पीड़ा आजाद देश के नागरिकों में शायद अधिक फैलती थी। नई कहानियों की सीमा यह रही कि उसने इस जटिल अन्तर्मार्ग को छोड़ कर एक अत्यंत वैयक्तिक 'शार्ट-कट' ढूँढ निकाला। शहर और गाँव इस जटिल एकात्मक प्रक्रिया से काट कर अलग-अलग कर दिए गए। कहानीकारों के लिए यह सुविधाजनक भी था। सारी परेशानी वहाँ से शुरू हुई जहाँ स्वयं कहानीकारों ने अपनी प्रक्रिया को पूरे परिदृश्य के लिए लागू करना शुरू किया और परिणाम यह हुआ कि अमरकान्त इन बहसों से बाहर रहे। आलोचकों ने भी कम पैंतरे नहीं दिखाए। सामाजिक आधार के इस अन्तर्विरोध को नजरअन्दाज करके कहानियों की वकालत की गई।
अमरकांत की कहानियां आजादी के बाद व्यक्ति-समाज में आई गिरावट और मूल्यहीनता को लक्षित करती हैं। युगीन अंतर्विरोधों को आधार बना कर लिखी गई 'बस्ती' कहानी इस संदर्भ में उल्लेखनीय है। लोगों की एकजुटता, नेकनीयती और मेहनत से जो बस्ती बन कर तैयार हुई थी उसे 'रामलाल' और 'बांकेलाल' के निजी स्वार्थों ने धरासाई कर दिया। रामलाल और बांकेलाल समाज सुधार और जनसेवा का चोला पहने ऐसे शातिर चरित्र हैं जो दिन भर आदर्श की बातें करते हैं और रात में 'बस्ती' की सड़क की ईटें चुरा कर अपने घर में रख लेते हैं। जब जन सामान्य लोग इनका सच देखते हैं तो उनका सत्य और ईमानदारी से मोहभंग हो जाता है। 'आत्मानन्द सरीखे बेहद सरल और सच पर भरोसा करने वाले व्यक्ति का मोह भंग होना एक सपने के बिखरने जैसा है। कहानी आजादी के बाद के भारत की बस्तियों की हकीकत बन जाती है। अमरकांत ने पांच दशक पहले जिस सर्वग्रासी संकट की ओर ध्यान खींचा था वह आज और गहरा हो गया है। ध्यान रहे लेखन पर बात करते हुए न उस युग को दरकिनार किया जा सकता है और न आज के हालतों को। हमारे समाज का यह बहुत पुराना रोग है कि वह सार्वजनिक संपत्ति की रक्षा तो कर नहीं सकता किन्तु उसे नष्ट करने में सबसे आगे रहता है। इसीलिए गली की इंटें अगर उखड़ जाएं तो उसे सही करने के बजाए, बची-खुची ईटें उखाड़ कर अपने घर में रख लेने में ही वह अपनी सबसे बड़ी होशियारी समझता है।
अमरकांत भ्रष्ट आचरण और अनैतिक चालबाजियों से उपजे श्रेष्ठता बोध, अहंकार और स्वार्थ को जरूरी संदर्भ बनाते हुए पतन के मूल कारणों की पड़ताल करते हैं। आजादी के बाद व्यवस्था के नियामक ऐसे ही लोग बने जिन्होंने गरीबों का खून चूस कर खूब धन संपत्ति बनाई थी। 'पलाश के फूल' कहानी इसका साक्ष्य प्रस्तुत करती है। नियामक होने के बोध से उपजी रायसाहब की जुबान से उनके ही कारनामों की दास्तां सुनिए "लोगों को मैं अपने पैरों की धूल बराबर समझता था.. मारने-पीटने, तंग-परेशान करने और वसूली तहसीली करने में ही तबीयत लगती। मामूली रोब नहीं था अपना.. मेज-कुर्सी लगी है, अफसरान आ रहे हैं, गप्पें लड़ रही हैं, दावतें उड़ रही हैं, नौकर-चाकर दौड़-दौड़ कर हुक्म बजा रहे हैं।" (पलाश के फूल, पृष्ठ, 45) आलोचक वैभव सिंह की स्थापना है कि "अमरकांत की कहानियों में प्रायः चरित्र असलियत में काफी सामाजिक प्रतिष्ठा वाले हैं लेकिन उनकी जिंदगी अपार धूर्तता, बेईमानी और कमीनगी पर टिकी है। ऐसे अफसर, नेता भी उसकी खिंचाई के पात्र बनते हैं जो पैसा खाते हैं सामाजिक जिम्मेदारी के नाम पर, लेकिन अपनी शानशौकत के बीच कुंभकर्णी निद्रा में मगन रहते हैं।" (अन्विति, मार्च 2025, पृष्ठ,06) इस संदर्भ में उन्होंने जनशत्रु, लड़की की शादी, अंतरात्मा, एक बाढ़ कथा, पलाश के फूल, वानगाथा जैसी कई कहानियों के पात्रों को चुना है। वह 'जनशत्रु' कहानी का हवाला देते हुए रेखांकित करते है कि इस कहानी में महंत बाबू महत्वाकांक्षा से ग्रस्त एक ऐसे व्यक्ति का प्रतीक हैं जो रेशमी कुर्ता, धोती, दोनों हाथों की अंगुलियों में सोने और कुछ बेशकीमती पत्थरों वाली अंगूठियां पहनते हैं और जनसेवक का मुखौटा लगा कर राजनीति में अपना करिअर चमकाने की जुगत में लगे रहते हैं। इन जैसे नेताओं को मालूम है कि किन नारों और घटिया मुद्दों पर लोगों को भड़काया जा सकता है। आजादी के कुछ सालों के बाद ही ऐसे लोग यह भी ताड़ गए थे कि 'सभी राजनीतिक पार्टियों के क्रांतिकारी विचार सदा के लिए निष्क्रिय भाषणों, प्रवचनों और नारों का रूप धारण करने की प्रक्रिया में हैं और सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक कल्याण का हर काम परिश्रम व कुरबानी के ठोस रचनात्मक तरीकों से अलग हट कर खूब पैसा खर्च कर कागज पर, कागजी आंकड़ों की मदद से सिदध किया जाने वाला है।
'जनमार्गी' कहानी आजादी के बाद के युगीन परिदृश्य को प्रस्तुत करते हुए इस बिंदु पर सोचने के लिए बाध्य करती है कि 'जिस व्यक्ति ने आजादी के संघर्ष के दौरान जेल का कष्ट भोगा, तरह-तरह की यातनाएं भोगी, उन्हें भी अब यह कहते शर्म लगती थी कि वो एक जमाने में पिस्तौल ले कर घुमते थे, जेल में डंडे बरसे थे और उसकी कविताएँ सुनने के लिए हजारों की भीड़ एकत्र हो जाती थी। उसको लोग भूल चुके थे। किसी को अब उसकी क्रांति और कविताओं की जरूरत नहीं थी, न उसकी ईमानदारी की और न परिश्रम तथा साहस की। लोग अब अधिक चुस्त, होशियार, आधुनिक तथा महान हो गए थे। बुद्धिजीवी लोग उसको देख कर इसलिए व्यंग्य से मुस्कराते तथा उसको चिढ़ाते थे कि वह अपनी रचनाओं में तथा बात करते समय भी यह कह चुका था कि देश में आर्थिक और सामाजिक क्रांति हो कर रहेगी।
अमरकांत की कहानियों में आर्थिक स्थितियों और समाज में लगातार बढ़ते धन के प्रभाव के संदर्भ अटे पड़े हैं। समाज पर पैसे के उत्तरोतर बढ़ते हुए व्यापक प्रभाव का आकलन इन कहानियों में युगीन-परिपार्श्व के समानान्तर देखा जा सकता है। यह गौरतलब है कि आर्थिक स्थितियों परिस्थितियों को वर्णित करते हुए उन्होंने न तो किसी वाद का सहारा लिया और न किसी वाद (मार्क्सवाद) के प्रचारार्थ ही अपनी रचनाओं को प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है। आलोचक यदुनाथ सिंह की इस स्थापना में बल है कि अमरकांत की कहानी का रचना संसार अपने समय और परिवेश की उन वास्तविकताओं को ले कर निर्मित होता है जो स्वतंत्रता के बाद के कुछ वर्षों की प्रतीक्षा के बाद आदमी के मोह को तोड़ कर उस जैसे एकदम सपने से जाग गई हैं और इतनी अग्रहणशील बन गई हैं कि कोई भी आश्वासन, कोई भी विश्वास, उनको नजरअंदाज कर जाने की मानसिकता नहीं पैदा कर सका है।
अमरकांत समाज के तथाकथित मर्यादानियामक व्यक्तियों की अंतर्विरोधी कारस्तानियों को बरकाते नहीं बल्कि व्यंग्य की रांपी से छील देते हैं। वह दिखाते हैं कि प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने वाले, कानून की शिक्षा लेने वाले, प्रोफेसर जैसे पद पर काम करने वाले व्यक्तियों में भी कितना दोचितापन है! राजनीति की तो बात ही छोड़ दीजिए। दरअसल उन्होंने कानून की पढ़ाई कर रहे युवाओं के जीवन और वकालत परिसर की गिरावट को अपनी आंखों से देखा था, इसलिए वह बहुत चिंतित थे कि जब पढ़े-लिखे वर्ग और डिग्रीधारी लोगों का यह हाल है तो व्यवस्था में आम आदमी के न्याय के लिए की कितनी गुंजाइश बचेगी। उनकी कहानियों में यह चिंता का भाव बारहा व्यक्त हुआ है।
यह कहने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए कि अमरकांत की कहानियों पर बात करते हुए आलोचकों की चर्चाएँ अक्सर जिंदगी और जोंक, दोपहर का भोजन, डिप्टी कलेक्टरी के इर्द-गिर्द घूमती रहती हैं। इन कहानियों के वृत्त से बाहर आ कर हम देख पाते हैं कि उनकी कहानियों में युवा मन के भीतर अखुआते प्रेम के स्पंदन है । 'लड़का लड़की', 'असमर्थ हिलता हांथ', 'रिश्ता जैसी कई कहानियां प्रेम संबंधों पर घर-परिवार-समाज के बर्ताव को मनोवैज्ञानिक धरातल पर देखने-परखने का यत्न करती हैं। इन प्रेम कथाओं में भी अमरकांत युगीन अंतर्विरोधों को ओझल नहीं होने देते। इस सम्बन्ध में सत्तर के दशक में लिखी गई कहानी 'लड़का-लड़की' दो युवाओं- तारा और चंदर के प्रेम के बहाने स्त्री-पुरुष के मध्य फर्क को रेखांकित करती है। कहानी में एक ओर है चंदर की वासना और अहंकार तो दूसरी ओर है तारा की निश्छलता और साहस। उस युग में किसी नौजवान होती लड़की का अपने घर वालों को प्रेम संबंध के बारे में इसरार करना कितना मुश्किल भरा क्षण होता होगा- इसे बताने की जरूरत नहीं है। कहानी में माता-पिता की प्रतिक्रिया और बर्ताव का चित्रण बहुत स्वाभाविक ढंग से किया गया है। तारा जब विवाह प्रस्ताव को चंदर के सामने रखती है तो वह अप्रत्याशित प्रतिक्रिया देता है। तारा को आघात लगता है क्योंकि न तो वह विवाह के लिए तैयार है और न ही उसका साथ छोड़ना चाहता है। वह चंदर की असलियत तो समझ जाती है किन्तु ऐसे कठिन क्षण में अपना आत्मविश्वास बरकरार रखते हुए साहस का परिचय देती है "आपकी संघर्ष की बातें जिम्मेदारियों से बचने और स्वार्थ को छिपाने का बहाना है। मैंने तो जीवन के आरंभ से ही संघर्ष किया है, आपने क्या किया है? आप भूख जानते हैं? आपको गरीबी, जलालत, घुटन, ऊब, निराशा का पता है? साफ बात तो यह है कि आपको एक नारी-देह की जरूरत है और जरूरत है अपने अहंकार की तृप्ति की।" (पृष्ठ 78) स्वाभिमान और आत्मविश्वास से भरी स्त्रियों के अंतद्वंद्व को चित्रित करने में अमरकांत का कोई जवाब नहीं।
चरित्रों के निर्माण के संबंध में अमरकांत की इस विशेषता को लक्षित किया जाना चाहिए कि वह अपने पात्रों को जबरन कांतिकारी, युक्त प्रवर्तक या महान नहीं दिखाते। वह अपने आस-पास के समाज की सीमाओं और जटिलताओं को देख रहे थे इसलिए चरित्रों के सहज विश्लेषण में सफल हुए। इस संदर्भ में उनकी कई कहानियां याद आ रही हैं किंतु फिलहाल "प्रैक्टिस" और "प्रिय मेहमान" की मुख्तसर चर्चा करूंगा। "प्रैक्टिस" कहानी में जहां वह वकालत के पेशे की गिरावट, मूल्यहीनता और थेथरई को हीरालाल और अखिलानंद जैसे चरित्रों के माध्यम से सामने लाते हैं वहीं "प्रिय मेहमान" में वह नीरज और नीलम के माध्यम से स्त्री के प्रति पुरुष के मनोविज्ञान को बड़ी सूक्ष्मता से अवलोकित करते हैं। अखिलानंद जैसे वकीलों की सफलता का राज उनकी मेहनत नहीं बल्कि तिकड़म और जुगाड है। अमरकांत दिखाते हैं कि जो जितना तिकड़म भिड़ा ले, अधिकारियों, जजों और बड़े वकीलों की मक्खनबाजी कर ले वह इतना ही सफलता प्राप्त करता है।
अमरकांत अपनी कहानियों में राजनीति में प्रभावी होते अवसरवाद का बहुत ही प्रभावशाली चित्रण करते हैं। राजनीति में स्खलन का सबसे बड़ा कारण धन-प्रतिष्ठा की महत्वाकांक्षा के साथ नियामक होने का भाव है। 'लोक परलोक' में चुनाव की राजनीति का एक घिनौना पक्ष सामने आता है। जिसमें राजनेता महेश्वर प्रसाद मुसलमान अकबर को इसलिए धर्म परिवर्तन करा कर 'बालचन्द्र आर्य बनाते है, ताकि वह हर चुनाव में उनके लिए अपनी जाति का मसीहा बन कर अधिक से अधिक वोट प्राप्त करने का साधन बन सके। महेश्वर प्रसाद एक स्थान पर कहते हैं - उसकी वजह से जाति-बिरादरी में मुझे काफी प्रतिष्ठा मिल गई। अगर हमारी जाति का प्रत्येक आदमी एक विजातीय का जिम्मा अपने ऊपर ले ले तो देश का बड़ा कल्याण हो।
अमरकांत की कहानी 'जिंदगी और जोंक' सिर्फ इसलिए महत्वपूर्ण नहीं लगती कि उसमें गरीबी, विवशता और निम्न वर्ग की जिजीविषा को सामने लाया गया है बल्कि यह इसलिए ज्यादा महत्वपूर्ण लगती है कि इसमें उभरते मध्य वर्ग के अंतर्विरोधों को बड़ी सूक्ष्मता से लक्षित किया गया है। शिवनाथ बाबू को ही देख लीजिए -"चमार-सियार डॉट-डपट पाते ही रहते हैं। अरे, इस पर क्या पड़ी है, चोर-चाई तो रात-रात भर मार खाते हैं और कुछ भी नहीं बताते। फिर बायीं आँख को खूबी से दबाते हुए दाँत खोल कर हँस पड़े- चलिए साहब, नीच और नींबू को दबाने से ही रस निकलता है!" मुहल्ले में आया रजुआ जिसे शिवनाथ बाबू के घर में बेगारी करने से दो जून का बचा कुचा भोजन नसीब हो जाता, वह भी मुहल्ले वालों को अखरता है। मतलब दूसरों का सुख किसी से देखा नहीं जाता। मुहल्ले वालों को यह बात कष्ट दे रही थी कि केवल दोनों जून भोजन पर रजुआ शिवनाथ बाबू की सेवा कर रहा है। मुहल्ले वालों की दृढ़ इच्छा थी कि जब भगवान ने उनके बीच एक नौकर (रजुआ) भेज ही दिया है तो उस पर उन सबका भी उतना ही अधिकार है जितना शिवनाथ बाबू का। मुहल्ले का ऐसा कोई घर नहीं बचा होगा जिसने रजुआ का शोषण न किया हो। उसके श्रम का उचित मूल्य दिया हो। किंतु जब वही रजुआ हैजे और खुजली की बीमारी से मृतप्राय हो जाता है तो कोई आगे बढ़ कर उसकी मदद नहीं करता। मुहल्ले वाले केवल अपने बारे में सोचते हैं। जिस वक्त उनकी तरफ से उसकी मदद होनी चाहिए थी, वो उसके मरने का इंतजार करते हैं। कैसी विडंबना है कि बाहर से कुरूप दिखने वाला रजुआ अंदर से कितना रूपवान है और बाहर से अच्छे-भले मानुष दिखने वाले लोग वास्तविकता में कितने कुरूप हैं। एक तरफ है रजुआ जो अपनी दयनीय स्थिति के बाद भी भीख नहीं माँगता, मेहनत से अपना पेट भरता है दूसरी ओर हैं मुहल्ले वाले जो उसके श्रम का हिस्सा मार कर खुद को महान समझते हैं। यह है आजादी के बाद तैयार हो रहा मध्य वर्ग, जो न केवल अपनी सोच में विरोधाभाषी है बल्कि जिसका नैतिक पतन भी हो चुका है। अमरकांत की कहानियां मध्यवर्गीय समाज की इस मनोवृत्ति को तो उजागर करती ही हैं निम्नवर्ग और निर्धनों के प्रति उनके उपेक्षापूर्ण व्यवहार को भी दिखाती हैं। 'दो चरित्र' कहानी के कॉपरेटिव इंस्पेक्टर के पद पर कार्यरत जनार्दन का गरीबों के बारे में मानना है कि हैं जिन्हें लोग भिखमंगा समझते हैं अरे भाई ये पूरे ठग हैं। ऊपर से ही गरीब दिखाई देते हैं उनके घर जाइए तो पता चले उनकी हमसे आपसे अच्छी हालत है।
अमरकांत के समकालीन रहे कमलेश्वर और मोहन राकेश ने भी मध्यवर्गीय व्यक्ति और जीवन को अपनी कहानियों के केंद्र में रखा है। कमलेश्वर की कहानियां यदि मध्यमवर्गीय पारिवारिक जीवन के आपसी विरोधाभासों को दिखाने में अव्वल ठहरती हैं तो मोहन राकेश की अधिकांश कहानियां स्त्री-पुरुष संबंधों की यंत्रणा को प्रस्तुत करने में अपना विशिष्ट महत्व रखती हैं। जबकि वहीं अमरकांत की कहानियां मध्यवर्गीय स्वार्थी मनोवृति को सामने लाने के साथ सामाजिक परिवेश को अंकित करती हैं। वह आडम्बरपूर्ण जीवन को उघाड़ कर रख देते हैं कृत्रिम सद्भावना और जीवन में प्रदर्शन की भावना आदमी को कितना मतलबी, स्वार्थी, क्रूर और बेकार बना देती है, इसे चित्रित करना वह नहीं भूलते।
'कुहासा' गरीबी और विवशता की मार्मिक कथा है जो अपने सीने में पलायन की पीड़ा को समेटे हुए चमरटोली के एक लड़के (दूबर) के जीवन संघर्ष के साथ आगे बढ़ती है। वह एक ऐसे वक्त में घर से शहर की ओर निकलता है जब गाँव में सूखा पड़ा है और गरीब घर के लोग दाने दाने के लिए तरस रहे हैं। बिना किसी आसरे के दूबर मजूरी कर के अपना पेट भरता, जहां-तहां रात गुजारता पर जाड़ा अब काटे नहीं कटता। भीषण ठण्ड और बारिश की उस मनहूस रात में जब पूरा शहर कुहासे में घिरा ठिठुर रहा था, दूबर का शरीर अकड़ कर हमेशा के लिए ठंडा पड़ गया था। कहानी में कई कारुणिक दृश्य आते हैं जब वह अधपेट रात काटता है. लोगों की चालाकियों का शिकार होता है पर क्या कीजे। गरीब और बेसहारा दूबर का जीवन, शायद जीवन की श्रेणी में आता ही न हो। अमरकांत की कई कहानियां गांव से शहरों की ओर पलायन कर गए व्यक्तियों की समस्याओं को केंद्र में रख कर (घर, मकान) लिखी गई हैं। बेहतर जीवन की आकांक्षा में गांवों से शहरों की ओर विस्थापित हुए लोग यह महसूस करते हैं कि शहर के जीवन में सहजता नहीं औपचारिकता और दिखावा है।
अमरकांत ने जिन साधारण घटनाओं के माध्यम से आम जन जीवन की कथाएँ रची हैं उन्हें देखने के लिए आँखों की नहीं नजर की जरूरत पड़ती है। नजर अर्थात 'नजरिए' के बिना इन कहानियों में विन्यस्त बीहड़ साधारणता को चीन्हा नहीं जा सकता। जीवन की यह बीहड़ साधारणता उनकी कहानियों में अपरम्पार हिलगी हुई है।
संपर्क :
सहायक प्राध्यापक, हिंदी,
राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय
बांदा, उत्तर प्रदेश
मोबाइल : 9457815024
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