ठाकुर प्रसाद सिंह का निबन्ध 'वाराणसी : एक बहुत पुराना नया शहर'

 [आज डेंटिस्ट की मेज से लौटकर कुछ करने का मन नहीं हो रहा था, लेकिन इतने काम थे सामने कि कि मन को यों छोड़ा भी नही जा सकता था। कुछ नई और अनपढी किताबों की ओर निगाहें पड़ी तो ठाकुर प्रसाद सिंह की किताब ‘ हम अपनी परम्परा नहीं  छोड़ेंगे’ उठाई  और एक के बाद एक कई निबंध पढ़ गया। ‘जिस तरह तू बोलता है उस तरह तू लिख’ वाली कंसौटी पर छाकरर प्रसाद जी का गद्य बिलकुल सही बैठता है। उनका एक एक शब्द बनारस के रस मेंं डूबा हुआ। तो आप भी पढ़िए यह अनूठा गद्य:]


'वाराणसी : एक बहुत पुराना नया शहर'


ठाकुर प्रसाद सिंह 


बचपन से अक्षर लिखना सीखने के बाद हर लिखावट पढ़ने की इच्छा छोटे बच्चों को उगे पहले दांत की तरह अभिभावकों के लिए दिक्कत तलब होती है। इसी इच्छा के चलते मैंने परदादी की खेमराज श्री कृष्णदास की वेंकटेश्वर प्रेस की रामायण की दुर्गति कुछ दिन पहले की थी। उस दिन घर में स्वदेशी काटन मिल, बनारस की जनानी धोती माँ के पहनने के लिए आई थी। धोती के एक कोने पर चिपके कागज़ पर एक तस्वीर थी, तस्वीर के ऊपर तथा नीचे की लिखावट में मेरे परिचित अक्षर थे। मैंने माँ से लड़ कर तस्वीर ली फिर पूरी संजीदगी से मैंने तस्वीर के नीचे की इबारत पढ़नी शुरू की-स र ना ब-यह पढ़ तो लिया पर इसका मतलब क्या होगा? मेरा अहं मुझे माँ के पास जाने से रोक रहा था पर बात बन नहीं रही थी। थोड़ा सोचने-समझने के बाद माँ से पूछा- "माँ यह सरनाब क्या होता है?"


उस दिन जैसी लज्जा का अनुभव फिर शायद कभी ही हुआ हो। माँ ज़ोर से हंसी- "अरे उलटा पढ़ रहा है। बाएं से दाहिने पढ़ा जाता है। फिर से पढ़।" मैंने फिर से रुकते-रुकते पढ़ा- 'बनारस' और मेरे सामने एक रहस्य खुल गया। तो यह बनारस है-बनारस जिसमें मैं रहता हूं।


पहले एक पहली गली का मकान, फिर मुहल्ले के और घर-घरों के बीच राम मन्दिर, ईश्वरगंगी तालाब, रामलीला के पड़ाव, गंगा का घाट-स्टेशन-डॉक्टरों, बैंकों के मकान, फिर धीरे-धीरे एक नगर का एहसास। बनारस को मैंने टुकड़ों से-धीरे-धीरे जाना समझा है।


तब पंचगंगा घाट का माधवराव का धौरहरा गिरा नहीं था। जब भी परदादी या दादी के साथ गंगास्नान के लिए जाऊं, दोनों ऊंची मीनारें मुझे बांध लेती थीं। पता नहीं कब इन पर चढूंगा, बड़ी प्रतीक्षा के बाद एक दिन मुझे ऊपर चढ़ने की छूट मिली। दादी ने धड़कते कलेजे से मुझे ऊपर जाने दिया और खुद वे नीचे बैठ गईं।


चक्करदार जीने से चढ़ता जब मैं घरहटे के ऊपर पहुंचा तो एक विचित्र दुनिया मेरे सामने थी। गंगा एकदम मेरे नीचे थीं और अब मैं गंगा के पार भी बहुत दूर तक देख सकता था। मेरे दाएं तथा बाएं पक्के घाटों की श्रृंखला थी- पूरा का पूरा नगर मधु के छत्ते की तरह सूनेपन की गूंज से गुंजित था। सहमा हुआ मैं देर तक दाएं-बाएं और सामने देखता रहा। बाहर किले जैसा मजबूत शहर भीतर से असंख्य खिड़कियों, दरवाजों और बरामदों में खुलता था।


मेरे पीछे दूर तक बत्तियों का सिलसिला था। धीरे-धीरे रास्ते समझ में आने लगे, फिर मैंने अपने मुहल्ले का साधुओं का टीला तथा मौलश्री का पेड़ भी खोज लिया। मौलश्री के पीछे मेरे ईश्वरगंगी तालाब का एक हरा टुकड़ा भी दीख रहा था।


हरे-सफ़ेद तथा मटियाले रंगों के मिश्रण तथा समंजन से उस दिन बनारस ने अपनी जो छवि मेरी आंखों के सामने प्रकट की थी वह आज भी लगभग उतनी ही ताजी है।


फिर जागा इतिहास-बोध। बनारस को समझने के लिए तब पंचगंगा-घाट के धौरहरे की ज़रूरत नहीं रही। मैं बनारस में प्रविष्ट कर गया, बनारस मुझसे घुल-मिल गया। गंगा-गोमती तथा वरुणा के संगमों के बीच सरकते, उजड़ते, बसते हुए नगर ने बहुत लम्बा जीवन लिया है। इतिहास की पुराण, प्रागैतिहासकी, वैदिकी-किसी की भी पकड़ में नहीं आता पर ज्योतिर्लिंग की ऊंचाई गहराई नापने में कभी ब्रह्मा-विष्णु असमर्थ हो गए थे। मेरे विचार से बनारस की अस्तित्व-गाथा भी ज्योतिर्लिंग की तरह अशक्य है, अगम्य है। किन लोगों ने किस पुण्य घड़ी में यहां बसने का निश्चय किया, कौन लोग थे वे, क्या थे उनके विश्वास, कैसी थी उनकी अदम्य जिजीविषा जिसके आंशिक स्पर्श-मात्र से ही यह अमरत्व पा गया।


गंगा, वरुणा नदी और असीनाला इसकी सीमाएं बनाते थे कभी। आज इतने वर्षों के बाद भी ये तीनों सीमाएं वर्तमान हैं। नगर सीमाओं के बाहर चला गया है, पर लोग मन से इस नगर के बाहर नहीं गए।


बनारस मूल रूप से गलियों का शहर रहा है। गंगा की ओर मुंह किए नगर की सभी गलियां गंगामुखी हैं। आज भी गंगा के किनारे बसे, लगभग पांच छह मील लम्बे इस नगर में नंगे पांव, खुले शरीर, पैदल केवल गलियों में हो कर इस पार से उस पार जाया जा सकता है। आप जो भी हों, कोई आंख उठा कर आपको देखेगा नहीं। वस्त्र बनारस में आज भी अनावश्यक है, आप अच्छे से अच्छे वस्त्र में हों या लगभग नंगे हो, आपके प्रति आदर भाव में कोई विशेष अन्तर नहीं पड़ेगा। एक नंगे देवता के शहर की यह धज स्वाभाविक लगती है।


जब बनारस की बात कही जाती है तो उसका मतलब पत्थरों से बने इसी गलियों वाले नगर से होता है। गलियों में आज भी कोई सवारी प्रवेश नहीं कर सकती। कार, रिक्शा, तांगा सभी एक सीमा के बाद रुक जाते हैं, अन्त में आदमी को अपने भरोसे ही चलना पड़ता है। बनारस कभी भी राजधानी-नगर नहीं रहा है।


उत्तर भारत के प्रमुख यात्रा-पथ पर रहने की नियति उसे बराबर विदेशी तथा राष्ट्र के भीतर की उथल-पुथल के सामने निराश्रित फेंक देती रही स्थिति में बनारस ने एक निजी सुरक्षात्मक चरित्र विकसित किया है। जिन इसका बाहर का नक्शा बनाया या जिन्होंने गंगा के किनारे की पक्की कि इसे मण्डित किया वे बहुत ही सावधान लोग थे। तब से लेकर आज तक इस किलेबंदी में सुरक्षित पड़ा है। पतली गलियों में सुनियोजित तरीके लगे हैं जिन्हें ज़रूरत पड़ने पर संकेत मात्र से बन्द किया जा सकता है। सबसे बड़ी वस्त्र व्यापार मण्डी-इन्हीं गलियों की भूलभुलैया में स्थित है मात्र से यह सारा का सारा बाजार जादू की तरह से गायब हो सकता है। विशाल कोठियां गंगा से जुड़ी हैं। बनारस एक सधे हुए तैराक की तरह ज तब गंगा में डुबकी लगा कर प्रयाग या गाजीपुर में प्रकट हो सकता है।


गलियों में कदम-कदम पर मन्दिर हैं। मन्दिरों में दोपहरी में गहरा होता है पर प्रातः तथा सायंकाल जीवन की हलचल बहुत तेज़ रहती है। दिनों के बाद कदम-कदम पर कपड़े धोने की दुकानों, परचूनियों तथा चाय की बहुतायत के बाद भी गलियों का पुराना माहौल बदला नहीं जा सकता घोड़े पर बैठने के लिए एक ख़ास तरह की शिक्षा तथा मनःस्थिति ज़रूरी वैसे ही इन गलियों में रहने की भी अजब शर्त है। आप एक साथ सड़क दोनों में नहीं रह सकते। गलियों से निकल कर सड़क पर आते ही आपक चाल बदल देनी होगी। हर कदम पर रिक्शे, मोटरगाड़ी से बचने का कौशल आप को नई जगहों पर मोड़ता है। गलियां यह सब कुछ नहीं मांगतीं। आप थोड़ी देर चलने के बाद स्वयं में डूब जाएंगे।


कभी गलियों को बीच से काटकर अंग्रेजों ने सुविधा के लिए सड़कें थीं। ये सड़कें पश्चिम से पूरब की ओर जाते नगर को उत्तर-दक्षिण का सड़कों पर चलते समय आप अगर दाएं कोई गली देखेंगे तो बाएं भी उसके सामने एक गली और होगी। सड़कें मात्र विराम हैं, गलियों से होकर गति चले जाने का सिलसिला कभी टूटता नहीं। कभी सड़कें सड़कें रही होंग लाख लोगों के लिए नियोजित इस नगर में आज सात लाख के ऊपर लोग हैं। कारबार, धर्म-पूजा तथा अन्य कारणों से हज़ारों लोग इस नगर में आ उत्तर प्रदेश तथा बिहार के लगभग एक करोड़ लोगों के लिए वाराणसी उनके नगर जैसा है। छोटी-मोटी खरीद वे भले ही अपने नगरों में कर लें पर विशेष के लिए वे बीस बार बनारस आते हैं। नारंगी की फांक की तरह इस नगर देश भिन्न-भिन्न मोहल्लों में अलग-अलग रहता है। रामापुरा, बंगाली टो कलकत्ते की छटा होगी तो केदार घाट पर दक्षिणात्य रंग, वैसे ही ब्रह्मा घाट,पंचगंगा, दुर्गाघाट मराठों के केन्द्र हैं। ये सभी लोग प्रथम तो ठेठ बनारसी हैं, फिर घर जाने पर बंगाली, मराठा या दक्षिणात्य। आज के वाराणसी के निर्माण में सर्वाधिक योगदान मराठों का है, वैसे ही यहां की प्रजा तथा पांडित्य केवल मराठों, बंगालियों, मैथिलों तथा दाक्षिणात्यों ने स्थापित किए हैं। हिन्दी भाषा के विकास में जितना योगदान भारतेन्दु का है उतना ही पराड़कर, गर्दै, खाडिलकर का भी है। कभी बनारस में बाहरी-भीतरी का झगड़ा चला था जिसमें भीतरी का पक्ष निदेशन करने वाले थे पराड़कर, खाडिलकर, विद्याभास्कर-यानी मराठे तथा तमिल।


शिवाजी महाराज हों या महारानी अहिल्याबाई या बैजाबाई। सभी ने अपनी मुक्ति के लिए काशी की ओर देखा। पूरे देश ने काशी को अपना नगर माना- काशी सदैव सबकी रही। भक्ति आन्दोलन दक्षिण से उपजा पर उसे अभिव्यक्ति मिली काशी में ही। काशी के माहौल में एक अजीब किस्म का फक्कड़पन तथा खुलापन भी है। ऐसा न होता तो कबीर, रैदास तथा तुलसीदास जैसे महाकवियों को यह नगर शरण न दे पाता।


रूढ़िग्रस्तता के साथ मस्ती तथा 'कोई फ़िक्र नहीं' का रुख़ काशी के चरित्र का विचित्र लक्षण है। 'प्रेम जोगिनी' में कभी भारतेन्दु ने एक यात्री के मुंह से कहलवाया था- 'आधी काशी भांड़ भड़ेरिया, आधी में संन्यासी'। बात हंसी में कही गई थी पर काफी हद तक ठीक भी है। काशी में कई स्तर पर लोग रहते हैं। हर एक के लिए यहां प्रशंसक मिल जाएंगे।


स्वतंत्रता के बाद या पहले की सीमा में काशी का इतिहास नहीं बांधा जा सकता। कुछ मामलों में इसका रुख़ परम प्राचीन हो सकता है पर अधिकतर समस्याओं की ओर काशी का रुख़ काफी हद तक व्यावहारिक होता है। जो लोग इसे शिव का नगर कहते हैं या अविमुक्त मानते हैं वे भी यह जानते हैं कि केवल मुक्त बनकर रहा नहीं जा सकता। अयोध्या, वृन्दावन जैसे उजाड़-तीर्थ इसके प्रमाण हैं। वाराणसी शुरू से ही रचनाकार रहा है। इसकी अधिकांश आबादी उस परम्परागत व्यापारों में लगी है जिनके चलते काशी के कौशल की ख्याति दूरस्थ देशों में थी। दीपान्तरों के व्यापार से अपार सम्पदा अर्जित कर जो नागरिक वाराणसी लौटे थे उनकी शुद्धि के लिए काशी में महासागर तीर्थ बन गए थे। कभी राजन्य, वणिक तथा पुरोहित वर्गों के बीच आधिपत्य का जबरदस्त संग्राम चला था- उसकी गाथाओं के संकेत जातक तथा तत्कालीन ग्रंथों में देखे जा सकते हैं। बौद्धमत के प्रसार-विस्तार के मूल के भी यही कारण थे। आज वाराणसी की पूरी बुनकर आबादी पूरे नगर का एक तिहाई है। पूरे नगर के विकास की प्रक्रिया का अध्ययन करने वालों के लिए आबादी का यह अनुपात मनोरंजक तथ्य प्रकट करेगा।


अपनी परम्परा में अर्जित चरित्र के साथ यह नगर आज इस नये माहौल में अपनी स्थिति के लिए दु यह संपर्ष कर रहा है। कॉस्मोपोलिटन तथा महानगरों की तुलना में इनर की साज-सजा या सफाई पर कोई खास ध्यान नहीं दिया आता। पाचार की दीवारों में चाहर तो बनारस काफी पहले चला आया था, अब परथी की पाओं से भी आगे चला गया है। कभी की सड़कें गालियां लगने लग गई है, सड़कें तो वाराणसी में शायद एकाच ही होंगी।


शहर में छोटे उद्योगों का जाल फैला है। बड़े उद्योगों के सहायक उद्योग भी साथ-साथ पनप रहे हैं पर बिजली तथा कच्चे माल की कमी से वह अपनी शक्ति का अंग भर ही काम में ला पाता है। इतना होते हुए भी विदेशों को तैयार माल बीजने वाले क्षेत्रों में वाराणसी का स्थान दूसरा है। कानपुर में बड़े उद्योग भले ही अधिक हो, पर पंजीकृत छोटे उद्योगों की संख्या की दृष्टि से प्रदेश में वाराणसी का स्थान पहला है। पिछले दिनों मुख्यमंत्री ने प्रदेश के उद्योगियों की एक बैठक लखनऊ में बुलाई थी। वहां वाराणसी के उद्योगियों की आवाज देर तक गूँजती गी। उनकी शिकायतें थीं पर उन्होंने अपने रचनात्मक सुझावों से सभी को प्रभाषित किया। उनकी अपने बल पर खड़े होने की टेक का इसीलिए गलत मतलब नहीं लगाया गया।


उद्योग-व्यापार में यह आत्मनिर्भरता ही वाराणसी का तेवर बनाती है। तुलसी का 'कार की बेटी से बेटा न व्याहयो' वाला रुख उसे बराबर निश्चिन्त रखता है।


सामान होने वाले, पल्लेदार, राज-मजदूर, फेरीवार, छोटे घरेलू कारखानों के मजदूर किसी विशाल कारखाने या संगठन के अभाव में अपेक्षाकृत कम आमदनी में जीवन यापन करते हैं। वे इसी कारण मजदूर कम नागरिक ज्यादा लगते हैं। पुराने संस्कार उन पर हावी हैं, वे मूल रूप से पुराने संयुक्त परिवारों की नैतिकता से जुटे हुए हैं। इसी के चलते मई दिवस के जुलूस तक बारात जैसे लगते हैं। अब भी हजारों लोगों का ध्यान गंगा पर केन्द्रित है। हजारों लोग प्रातः-सायं गंगा-स्नान करते तथा देर तक मन्दिरों में जल चढ़ाते घूमते रहते हैं। काशी विश्वनाथ की आरती पर अब भी भीड़ जमती है। 'सात वार नौ त्यौहार' वाले शहर में मेले अब भी प्रेरक हैं। उनमें लाखों लोग बेलौस भाग लेते हैं। तुलसी की रामायण सबसे प्रिय ग्रन्थ है, वैसे उनकी स्थापित राम-कृष्ण लीलाएं आज लगभग हर मुहल्ले में आयोजित होती हैं। शंकर का शहर होते हुए भी बनारस हनुमान का जबरदस्त भक्त है। तुलसी द्वारा स्थापित सभी हनुमान मन्दिर वाराणसी में पूजित हैं।


लखनऊ की तुलना में वाराणसी की सामाजिकता कहीं अधिक विकसित है। यहाँ की संगीत सभाएं आज भी प्रेरणादायक हैं। मंदिरों में निर्धारित तिथियों पर अभी भी यहां के प्रसिद्ध कलाकारों को अपने श्रद्धा-निवेदन करते सुना देखा जा सकता है।


सभी शोर शराबे और विघटन के बीच वाराणसी ने वह सबकुछ बचा रखा है जिसके लिए उसका स्मरण किया जाता है। वेद की शाखाओं का पाठ हो या कर्मकाण्ड का परिपालन, व्याकरण हो या तर्कशास्त्र हो या दर्शन, हर क्षेत्र के विद्वान अब भी वाराणसी में मिल जाएंगे। संगीत के क्षेत्र में बिस्मिल्ला, सिद्धेश्वरी, गिरिजादेवी, गोपालमिश्र, गुदई किसन अब भी काशी का वर्चस्व स्थापित किए हुए हैं। शायद देश में ऐसी जगह कहीं भी नहीं होगी जहां दशाधिक पद्मभूषण, पद्मश्री लगभग एक ही गली में रहते हों। वाराणसी में ऐसा मुहल्ला है कबीरचौरा।


तुलसी, रैदास, कबीर, भारतेन्दु, प्रसाद, प्रेमचन्द, रामचन्द्र शुक्ल, श्यामसुन्दर दास, पराड़कर के नगर ने कभी हिन्दी का नेतृत्व किया था। पुस्तकालयों में प्रकाशित पुस्तकों के सूचीपत्र में वाराणसी से प्रकाशित पुस्तकों की संख्या तब आधी से अधिक होती थी। अब भी रायकृष्ण दास जी जीवित हैं। उनकी जीवनभर की साधना का प्रतीक भारत कला भवन दिनों-दिन प्रगति कर रहा है। नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी से दिल्ली चली गई है तथा डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी, पं. विश्वनाथ प्रसाद मिश्र जैसे विद्वान अब भी वहां हैं। उनके अलावा भी कई नए- पुराने रचनाकार वहां रचनारत हैं पर वाराणसी का रचनात्मक व्यक्तित्व दिनोंदिन धूमिल होता जा रहा है। नयी परम्परा के प्रवेश के साथ-साथ नगर में नए धनपति भी आए हैं। क्लब भी कई बने हैं पर उनकी रुचि नगर की परम्परा के विकास में उतनी नहीं जितनी आत्म-प्रदर्शन में है। पिछले दिनों एक ही मंच पर कवियों, शायरों, नर्तकों, गायकों - सभी को एक साथ प्रस्तुत किया गया था। ऐसे आयोजन वाराणसी का चित्र बिगाड़ते हैं।


मूल्यों के विघटन तथा भोंडी रुचि का कहर पूरे देश को भोगना पड़ रहा है। वाराणसी उसका अपवाद कैसे हो सकता है? वाराणसी का कोना-कोना आदमियों से भरा हुआ है। कोई अनुशासन नहीं, कोई सुरक्षा नहीं। और शहरों से एक ही विश्वविद्यालय नहीं संभलता। वाराणसी के लिए तीन-तीन विश्वविद्यालय हैं। युवकों की बड़ी संख्या वाराणसी के नागरिक जीवन के बैरोमीटर का पारा बराबर चढ़ाए रखती है। रेस्तरां, चायघर, पान की दुकानें सब नये लोगों से भरी बराबर तपती रहती हैं। इसी के चलते वाराणसी आन्दोलन के लिए सबसे उपयुक्त नगर है। पूरब-पश्चिम के हारे-थके नेता भी यहां आकर जी उठते हैं।


सड़कों पर आए दिन झगड़े, मारपीट का बाजार गर्म रहता है। नया खून हर कहीं जागृत। मूल्यहीनता के चलते भटकाव और बेचैनी। इसका निराकरण वाराणसी में ही ढूंढ़ा जाना चाहिए। प्रसन्नता की बात है कि यहां की नई पीढ़ी इधर गम्भीरता से सोचने समझने लगी है। यह स्पष्ट नहीं कि पूरे देश का दिशा-निर्देश करने वाले निर्णय वाराणसी के नये लड़के ही लें।


इस आपाधापी में सबसे बड़ी मुसीबत आई है इस नगर के देवताओं पर। कभी वाराणसी में डेढ़ करोड़ देवता थे। इस बीच तस्करों, मूर्ति चोरों के चलते


उनकी संख्या आधी रह गई है। मेरे अपने मन्दिर के देवता भी पिछले वर्ष गायब हो गए। सूने मंदिरों में चायघर, पान की दुकानें तथा बीस तरह के कारबार शुरू होते जा रहे हैं। ऐसी ही स्थिति रही तो जल्दी ही देवताओं की आबादी यहां के निवासियों से घट जाएगी। दस वर्ष पहले यह अनुपात 15 और 1 का था।


वाराणसी इन सबके बाद भी एक जीवन्त शहर है। एक बहुत पुराना शहर होते हुए भी वह बहुत नया भी है। वह एक बहुत पुराना नया शहर है। उसकी अमरता का यही कारण है।


प्रतिश्रुति प्रकाशन कोलकाता

मूल्य 180 page 144

mail.prakashan@gmail.com

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

हर्षिता त्रिपाठी की कविताएं

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण