ख़ालिद जावेद के उपन्यास 'नेमत ख़ाना' पर यतीश कुमार की समीक्षा
लेखक वही बेहतर माना जाता है, जो कल्पना लोक में विचरण करते हुए भी अपने पाठकों को यथार्थ का अवलोकन कराता है। वह यथार्थ को पाठक का बिल्कुल अपना है। यथार्थ का यह सेतु ही पाठक और लेखक को परस्पर जोड़ने का काम करता है। खालिद जावेद ऐसे ही लेखक हैं जो हवा को भी एक किरदार बना देते हैं। खालिद जावेद के उपन्यास की समीक्षा करते हुए यतीश कुमार लिखते हैं : 'हर आदमी के साँस लेने का रिदम अलग है और आदमी का व्यक्तित्व भी, हवा यहाँ व्यक्तित्व का पहचान करवा रही है। दरअसल इस किताब की शुरुआत में हवा एक किरदार की तरह उपन्यास के आबोहवा का परिचय देती नज़र आती है। यहाँ रह-रह कर हवा की शक्लें बदलती हैं, बदलती शख़्सियत और बदलते मौसम की तरह।' आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं ख़ालिद जावेद के उपन्यास 'नेमत ख़ाना'पर यतीश कुमार की समीक्षा :रह रह कर बदलती हवा की शक्लें'।
रह-रह कर बदलती हवा की शक्लें
यतीश कुमार
“बावर्चीखाना - एक ख़तरनाक जगह है।”
इस रहस्यमयी कथन के पहले लगा जैसे अब तक हवा से बाते कर रहे थे। हवा से बातें करने का मतलब असल में वो नहीं, जो आप समझ रहे हैं बल्कि वो है, जो शुरुआत में मेरी समझ में भी ठीक से नहीं आया। हर आदमी के साँस लेने का रिदम अलग है और आदमी का व्यक्तित्व भी, हवा यहाँ व्यक्तित्व का पहचान करवा रही है। दरअसल इस किताब की शुरुआत में हवा एक किरदार की तरह उपन्यास के आबोहवा का परिचय देती नज़र आती है। यहाँ रह-रह कर हवा की शक्लें बदलती हैं, बदलती शख़्सियत और बदलते मौसम की तरह।
थोड़ी देर में ही किताब का प्रमुख किरदार ‘बावर्ची ख़ाना’ अपनी पूरी उपस्थिति के साथ प्रस्तुत होता है। उसकी काली छत के सामने डरबों और कबुकों के बीच दाने चुगती ज़िंदगी की दुनिया में मुर्गी की तरह लंबी छलांग लगाने का मन लिए काली औरतें उड़ती नज़र आती हैं और अगले ही पल झट से वापस ज़मीन पर बैठते ही फिर से दाने चुगने लगती है। यह कैसी विचित्र दुनिया है कि ज़िक्र पर ज़िक्र हुए जा रहा है बावर्चीख़ाने का इस पर भी यहाँ से बाहर निकलने का जी ही नहीं कर रहा। किताब एक कोने में बिठा कर विचार करने को उकसाती है कि बावर्ची ख़ाने में जब लड़ने के इतने सारे औजार मौजूद हैं, तो भी औरतें ख़ुद को इतना निस्सहाय क्यों महसूस करती हैं!
क़ब्रों के ऊपर बने इस मुहल्ले का ज़िक्र करते हुए लेखक कब्रों में सोए इंसानों की रूहों तक जाने की कोशिश करता है। ऐसा करते हुए वह साफ़ दर्ज कर रहा होता है कि किन कब्रों पर आज भी चादरों और फूलों को चढ़ाया जाता है और किन पर बैठ कर आवारा लौंडे ताश खेलते हैं और हुड़दंग मचाते हैं।
एक पूरा संसार है जो भाषा और विश्लेषण से लगता मायावी है, पर है यथार्थ की ज़मीन पर गढ़ा हुआ। उस दुनिया की हवा और हवा में घटती साँसों तक की आहटों पर लेखक की नज़र है। उस अनूठी दुनिया का अवलोकन बहुत बारीकी से करवाता है लेखक, यहाँ तक कि गिरगिट क्यों चूल्हे के इर्द गिर्द टहलते रहते हैं और अनदेखे साँप की हिस-हिस का राज क्या है। किस्सागोई ऐसी कि आंतों की बड़बड़ाहट और उल्टियों में भी चेहरा देखने का क़िस्सा है।
“वह मरा नहीं, वह बच गया। लोग कभी-कभी बच जाते हैं।” यह पंक्ति पढ़ते हुए अपने आप में एक पूरी कहानी लग रही है। दर्शन के पीछे छिपे कथ्य की आहट मिली इस पंक्ति में, एक बच्चा जलती आँच पर पूरी मासूमियत के साथ बैठ जाता है। इस पंक्ति को लिखने से पहले सोचता हूँ उस आग ने किस रूप में उकसाया होगा उसे, ठीक उन सपनों की तरह जिन्हें पाने के चक्कर में पूरा जीवन स्वाहा कर लेते हैं लोग। यहाँ तो एक बच्चा था जिसे कुछ वैसा ही शायद दिखा होगा या दिखी होगी रोटी आँच पर पकती, जो उस समय का सपना होगा। ऐसी कई पंक्तियाँ हैं इस किताब में जो मुझे इस किताब से कहीं दूर ले जाती हैं और लिखने लगूँ तो उन पंक्तियों पर अलग से दर्ज करते हुए कई पन्ने भर दूँ, पर सोचता हूँ वापस तो मुझे यहीं इस किताब की ज़मीन पर लौटना है, जो कभी थोड़ी जानी और साथ ही बहुत अनजानी भी लग रही है। रह-रह कर दिलचस्प दर्शन भरी बातें आसमानी बारिश की तरह बरस पड़ेंगी। लगेगा, लेखक आज किस ओर बहाये जा रहा है हमें, कहानी की धारा तो पीछे छूट रही है, पर अगले ही पल आप ख़ुद को बावर्चीख़ाने के इर्द-गिर्द ही पायेंगे, जो साथ ही नेमतख़ाना की गलियों में आपको भटकाएगी।
पृथ्वी की घूर्णन की तरह आपके भीतर भी कुछ घूम रहा होता है, जिसका इल्म हमें नहीं होता। भीतर जलती हुई लकड़ी है जिस पर यादें पक जाने के बाद भी आप पानी मार कर बुझा नहीं पाते और उस जद्दोजहद में सिस-सिस की आवाज़ आती, सुनाई पड़ती है। इसी कड़ी में, जैक और लूसी का एक पल के हादसे में गुम हो जाना आपको भीतर तक दहला देगा।
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खालिद जावेद |
इस किताब में सुंदर और जीवंत मौसमों का ब्योरा बहुत रोचक तरीके से लिखा मिलेगा आपको। इससे भी रोचक है मौसमों के साथ गुड्डू मियाँ के बदलते सपनों का ज़िक्र। कई बार सपने गुड्डू मियाँ देखते हैं और डर पढ़ने वाले को लगता है। नाग के न दिखने पर भी उसकी हिस-हिस महसूस होती है। कलेजा और गुर्दे का ज़िक्र आपके कलेजे को हलक तक निकाल लेता है। खासकर के गुड्डू मियाँ का दिवास्वप्न!
यहाँ मौसम का सिर्फ़ सपनों से वास्ता नहीं है बल्कि व्यंजनों की विविधता और उसके जायके से भी है।
पाठकों को इससे गुजरते हुए बिजली के झटके जैसा भी कुछ लगता रहता है। उपन्यास की यह विशेषता है कि पूरी सहजता से लेखक सबसे असहज वाक़या कह देता है, मसलन आफ़ताब भाई की हत्या जिस अचानक आए पल में होती है उस पल में आप भीतर तक कौंध जाते हैं। कनपटी मार का इस हत्या की स्वीकारोक्ति और नहीं तो पूरे सिस्टम पर उठाया गया प्रश्न ही तो है। इस किताब से गुजरते हुए हत्याओं को खुदा की बेआवाज़ लाठी में बदलते देख रहा हूँ । यह किताब क़त्ल और मौत दोनों की बहुत बारीकी से तक़रीर करते हुए दोनों की अंतर मनःस्थिति को भी उतनी ही बारीकी से बयाँ करती है।
किरदारों में कुछ महत्वपूर्ण बेज़ुबान किरदार हैं, जिनकी ज़रूरी आवाज़ें यहाँ दर्ज की गयी हैं। मसलन कनकटा खरगोश या फिर मिर्ची खाने वाला तोता सुंबुल या फिर अनदेखा साँप और इन सब से इतर बिना ख़ून का जिस्म लिए हर ख़ून का चश्मदीद नामुराद कॉकरोच। इन सब की मौजूदगी इस उपन्यास का फैलाव और ठहराव दोनों है। उनका हमारी ज़िन्दगी में कितना वास्ता है और वे हमारी भावनाओं को हमसे बेहतर कैसे समझ लेते हैं, इसको भी कई हिस्सों में दर्ज किया गया है।
गुड्डू मियाँ के हाफ़िज़ बनने के बाद मैं पन्ने तब तक पलटता रहा जब तक उसकी शादी नहीं हो गई, फिर ठहर गया और पुरानी गति, फूँक-फूँक कर पढ़ने की वापिस मुझे मिल गई। अब मैं उसकी बीवी अंजुम के किरदार के भीतर झाँकने की कोशिश कर रहा हूँ। लेखक अब भी अंजुम को जीवन के प्रति खाने के स्वाद के फीकेपन की तरह देख रहा है और देखते हुए वह आधी अधूरी चीजों का ख़ौफ़नाक स्वरूप देख रहा है। अब जब इस पंक्ति को सुन रहा हूँ कि “मैं कोई चुहिया नहीं पैदा करना चाहती।” तब भीतर से उसके असली चेहरे के साथ हिल गया हूँ।
अशफ़ाक़ जैसे किरदार हर शहर में उस शहर से नाखुश घूम रहे हैं और उनकी नाखुशी की सज़ा उन्हें आज भी मिल ही रही है। इस किताब की जो सबसे ख़ास बात है, वो है कहन। कथ्य को कैसे कहा जाए सारा मसला यही पर केंद्रित है। यहाँ मसला इंसानी दुरंगेपन का है जो कमोबेश सब में होता है मामला मात्राओं पर आकर सीमित और निर्भर दिखता है। यहाँ किरदारों में यह मात्रा बहुत तेज़ी से बदलती दिखती है। भीतर का जानवर कब सरपट दौड़ने लगे किसे पता। इस अनियंत्रित दौड़ को लेखक स्वाद, व्यंजन और उसकी तासीर के बिम्बों से जोड़ने का बेजोड़ हुनर लिए आपको मिलेगा।
तीसरे अध्याय में आते ही मैं फिर से पन्ने पलटने लगा। बातों में नज़ला बहने की बात हद से ज़्यादा हो रही थी और पढ़ने वाला इस नहले की उबकाई से परेशान था। मैं उन पन्नों में साहसी समय से पहले बड़ा होने वाले गुड्डू को तलाश रहा था जबकि मुझे बुझा हुआ इंसान हाफ़िज़ बार बार नज़र आ रहा था। पाठक का किरदार से मिलने की चाहत जब खोज में बदल गई तब फिर फावड़ा दर फावड़ा उपन्यास की ज़मीन को जल्दी-जल्दी खोदने लगा, तब लगा जैसे लेखक के हाथ में उसका किरदार अपना दम और ख़म खोता दिख रहा है और पाठक को उर्वर ज़मीन बंजर-सी लगने लगती है। यहाँ मैं अभी उपन्यास के इसी बंजर ज़मीन की सूखी मिट्टी की चटकने की आवाज़ें सुन रहा हूँ कि गोया थोड़ा निराश हो रहा हूँ कि मेरा गुड्डू मियाँ आख़िर कहाँ खो गया। वह खो गया जैसे बढ़ती उम्र के साथ खो जाता है भोला बचपन और फिर इस एक्सक्यूज़ के साथ मैं आगे की ज़मीन खोदने लगा, पढ़ने लगा और मुझे तब जा कर राहत मिली जब मैं अंजुम जान से मिला। कई बार हम विस्तार देते-देते वापिस का रास्ता भूल जाते हैं पर इस उपन्यास ने अंजुम जान की याद से वापिस किया।
एक जगह लिखा है “मैं अकेली नहीं सामूहिक मौत की तरह जाऊँगा” अब मेरा पूरा ध्यान इस वाक्य के इर्दगिर्द घूम रहा है। अहा! क्या इच्छा है, क्या सुंदर मनोकामना उस अंतिम पल के लिए, जहाँ से अंतिम विस्थापन की शुरुआत होती है। सामूहिक होते ही आप स्वयं से बाहर कूद जाते हैं, आप, आप नहीं रहते। भीड़ का हिस्सा होते ही आप भीड़ में बदल जाते हैं। जैसी भीड़ वैसी आपकी आत्मा। जीवन के उस प्रस्थान बिंदु पर ऐसा सोचना कितना रोमांचकारी है सच!
अंत में वह दृश्य दिल में ठहर जाता है, जहाँ ढहते हुए नेमत ख़ाना और नई बनती हुई इमारत की शक्ल एकमय हो रही है। धूल और ग़ुबार दोनों के नसीब का हिस्सा है और उसी उड़ती धूल में यादों का धुआँ शामिल है, जिसकी तलाश हम सब के भीतर टहल रही है और यात्रा जारी है।
ख़ालिद जावेद को एक बेहतरीन उपन्यास लिखने के लिए लाखोंलाख शुक्रिया और ज़मान तारिक को बहुत सुंदर अनुवाद के लिए विशेष बधाई जिनकी वजह से हम जैसे पाठक उपन्यास की आत्मा में उतर पाये।
नेमत ख़ाना - ख़ालिद जावेद
अनुवाद- ज़मान तारिक
सूर्य प्रकाशन मंदिर - बीकानेर
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यतीश कुमार |
सम्पर्क
यतीश कुमार
मोबाइल : 8777488959
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