ममता जयंत की कविताएं

 

ममता जयंत 



परिचय: 


नाम - ममता जयंत 
शिक्षा - परास्नातक इतिहास, बी.एड.


लेखन व प्रकाशन 

प्रकाशित पुस्तक- 'मनुष्य न कहना' शीर्षक से एक काव्य संग्रह प्रकाशित। [वर्ष - 2024. हिन्दी अकादमी दिल्ली के प्रोत्साहन से]

विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं व ब्लॉग में नियमित रूप से आलोचनात्मक लेख व कविताएँ प्रकाशित।

अनुवाद: कविताएँ अंग्रेजी, उर्दू, मराठी और नेपाली में अनूदित


शिक्षा जगत में भूमिका : उत्तर प्रदेश शैक्षिक दूरदर्शन पर प्रसारण हेतु ई-एजूकेशन के तहत शैक्षिक विडियो निर्माण। 

सम्प्रति - शिक्षक 




बेटियां जितने बेहतर तरीके से अपने पिता और घर परिवार का ध्यान रखती हैं उतना आमतौर पर बेटे नहीं रख पाते। बेटी की समय पर शादी कर उसकी विदाई करना हर पिता की एक चाहत और जिम्मेदारी भी होती है। वह समाज की बुरी नजरों से अपनी बेटी को बचाना चाहता है। इसके लिए वह बेटी को अपनी तरह से नियंत्रित संचालित करना चाहता है जबकि बेटी अपनी राह चलना चाहती है। यही पर पिता पुत्री के विचारों के बीच  एक टकराहट होती है। अलग बात है कि अधिकांश मामलों में बेटी के सामने समर्पण करने के सिवाय कोई चारा नहीं होता। पिता के मन के किसी कोने में एक डर होता है। ममता जयंत अपनी कविता 'पिता' में सवालिया अंदाज में इस डर पर ऐतराज जताते हुए लिखती हैं : 'क्या सचमुच!/ समाज का डर बड़ा होता है आत्मा के डर से?/ क्या इसी से बची रहेगी हमारी अस्मिता?/ यूँ तो मैं टुकड़ा थी तुम्हारे कलेजे का पिता/ फिर कौन से निमित्त थे/ मेरी जल्द विदाई के'। ममता उन स्त्रीजनित समस्याओं से साहसपूर्वक टकराती हैं और उसे अपनी कविताओं में करीने से व्यंजित करती हैं, जो अन्य के यहां आक्रोश के आधिक्य की वजह से प्रायः छूट जाती हैं। आज पहली बार पर प्रस्तुत है ममता जयंत की कविताएं।




ममता जयंत की कविताएं 




अधर्म
 

नहीं था हमारे भीतर
परम्परा के प्रति कोई सन्देह
जिसने जो दिया अपना लिया

यह रास्ता सुगम था 
बजाय अपना बनाने के
या कि स्वीकारने के चुनौतियाँ 

हम दूसरों के दिए भोजन पर तृप्त रहे
पहन कर दूसरों के कपड़े राजी
उनका दिया दान और दुआ
हमें दवा सा लगा

हम फिरते रहे ले कर धर्म की प्यास 
छोड़ सब काम हुए धर्मों के चाकर
सच खोजने की ताकत हमारे भीतर कम थी
इन्सान बनने का हुनर न के बराबर

हमारे भीतर कोई प्यास कोई विद्रोह नहीं था
अनुभव से पहले ही कर लिया सब स्वीकार
हमारा कोई धर्म नहीं था
न था कोई ईश्वर!




बैसाख की आस


तुमने भूख का वास्ता दिया
मुझे अन्न उगाने की सूझी
मैंने बोए गेहूँ, जौ, चना, चावल-दाल 
और शर्बत चाय चीनी के नाम पर रोप दी ईख 

मेरे इसी कार-व्यवहार पर टिके थे सब त्यौहार 
बसंत आया फूल खिले हवा चली खेत लहलहाए
आस जगी बैसाख की

इसी सुनहरी चमक में थे
वनिता के गहने लाजो की चुनरी
नन्हें-मुन्नों के खेल खिलौने और कॉपी किताब

शाम होते ही बादलों का रुख बदला
रंग गहराया बिजली चमकी
छाए उमड़-घुमड़ कर
जैसे कर रहे हों पैमाईश धरा की

मैंने नज़र उठाई देखा और गुहार लगाई
आज बादलों से ज्यादा गड़गड़ाहट मन में थी
भीतर की अर्चना रोक रही थी ऊपर की गर्जना को
प्रकृति पर पहरे का प्रयास कोरी मूर्खता है

उस रात कंकड़ों ने भी दिखाई खूब नज़ाकत
यौवन से मदमाती फसल
सिमट गई थी वृष्टि की आगोश में
और समा गई धरा की गोद में

भोर होते ही 
मैंने यूँ निहारा खुले मैदान को 
ज्यों विदा वक्त देखता है एक पिता बेटी को
मेरे पास डबडबाई आँखों के सिवा कुछ न था

एक हाथ में रस्सी थी दूसरे में हँसिया
और मन में तरह-तरह के ख़याल
अब सरकारी वादों पर टिकी थी
हर एक साँस!




मनुष्य न कहना


अभी मैंने पेश नहीं किए
अपने मनुष्य होने के वे सारे प्रमाण 
जो जरूरी है मनुष्य बने रहने को
इसलिए तुम मुझे मनुष्य न कहना 

न कहना खग या विहग
क्योंकि उड़ना मुझे आया नहीं
मत कहना नीर क्षीर या समीर भी
क्योंकि उनके जैसी शुद्धता मैंने पाई नहीं 

न देना दुहाई 
धरा या वसुधा के नाम की
चूंकि उसके जैसी धीरता मुझमें समाई नहीं

हाँ कुछ कहना ही चाहते हो
पुकारना चाहते हो सम्बोधन से
तो पुकारना एक ऐसे खिलौने की तरह 

जो टूट कर मिट्टी की मानिंद
मिल सकता हो मिट्टी में
जल सकता हो अनल में
बह सकता हो जल में
उड़ सकता हो आकाश में
उतर सकता हो पाताल में

ताकि तुम्हारे सारे प्रयोगों से बच कर
दिखा सकूँ मैं अपनी चिर-परिचित मुस्कान
दुखों से उबरने का अदम्य साहस
और एक सम्वेदनशील हृदय  

बावजूद इसके बची रहूँ
एक आखिरी उम्मीद की तरह
कहीं किसी कोने में 

इसके सिवा एक मनुष्य 
और दे भी क्या सकता है 
अपनी मनुष्यता का साक्ष्य?









एक शहर


एक शहर
जिसके पास हैं अनन्त तस्वीरें 
वह ढल रहा है प्रेमिका की आँखों से 
आँसू बन कर

वही शहर
बन गया है बच्चे के मन की जिज्ञासा
झाँक रहा है चमकती आँखों के कौतूहल से

एक शहर
भरा है बुज़ुर्गों की आँखों में
जिनकी लाचारी निगाह बाँधे देखती है
हर आदमी को बड़ी उम्मीद के साथ

शहर का आदमी
देख रहा है नुमाइश में लगा सर्कस
शहर कर रहा है उसका मनोरंजन
पूरी उमंग और उल्लास के साथ

एक शहर 
डूब गया है अँधेरे में
हो गया है प्रेमी की आँखों से ओझल
लौट रही है उसकी रोशनी ढलते आँसूओं के संग 
उजाला सिर्फ़ प्रेमी की स्मृतियों में है!

एक शहर
हो गया है गुम
अपनी ही गलियों में कहीं! 




मन की ऊसर भूमि
 

उग आए हैं उर के आँगन में 
झाड़ झंखाड़ और खरपतवार
आ बसते हैं ज्यों ठाले में फ़िज़ूल ख़याल 

उखाड़ फेंकना चाहती हूँ उन्हें 
उगाना चाहती हूँ ऊसर भूमि पर
एक अनोखी फसल

डाल कर सम्वेदनाओं का खाद
लगा कर कल्पना के कीटनाशक 
बोना चाहती हूँ बंजर धरती पर सम्भावनाओं के बीज  

करना चाहती हूँ आत्मा की सिंचाई शील के जल से 
कि हो एक ऐसा खेत तैयार
लहलहाएँ जहाँ प्रेम के पौधे

रह कर जिनकी आबो-हवा में
हम समझ सकें वक्त की नाज़ुकता को,
हृदय की भावुकता को, जीवों की व्याकुलता को
और मनुष्य, मनुष्य की मनुष्यता को

प्रेम की यह हरियाली 
बिखर कर रह जाए अपनी उत्कृष्टता में 
और तुम कह सको एक सार्थक खेती!








प्रेम 


सबसे निश्छल मन 
सबसे ज्यादा छले गए 
कुचले गए सबसे निर्मल मन 
बेहद निर्ममता से 

प्रेम सौंपा था 
जिन अँजुरियों ने हँस कर 
उन्हीं हथेलियों ने पोंछे अकेले में आँसू

दिए जिसने सबसे ज्यादा दुख 
दिल सबसे ज्यादा शुक्रगुजार रहा उसका 
किया जिसने सबसे ज्यादा दरकिनार
झुका सजदे में उसी के बार-बार
रहकर ईमानदारी में रत

प्रेम में हारे हुए मन 
सबसे ज्यादा तृप्त मिले
चिपट कर रह गए एक दिन 
किताबों से दीमकों की तरह

नहीं सीख पाए वे
सही को सही ग़लत को ग़लत कहना
वे पढ़ते रहे प्रेम में 
सिर्फ़ दुआएँ!



शायद खोज पाऊँ -1


तुम नहीं मिलते
निकलती हूँ ले कर उम्मीदों का काफ़िला
और गुज़रे पलों में कैद कुछ तस्वीरें

रास्ते में आये
तमाम पेड़ों नदियों पहाड़ों पंछियों
से पूछती हूँ पता तुम्हारा

बादशाह हो मन के
सत्ता स्थापित है दिल पर तुम्हारी
लड़ती हूँ उन अँधेरों से जो नाक़ाम करते हैं 
मेरी कोशिशें

विश्वास की पगडण्डी पर बना है रास्ता
शायद खोज पाऊँ कल 
कहीं किसी पथ पर 
तुम्हें!



ख़्वाहिश


ये किताबें हैं 
या तुम्हारी प्रेमिकाएँ
जो झाँकती हैं बंद अलमारी के शीशे से तुम्हें 
निहारती हैं उम्मीद भरी निगाहों से 
एक बेआवाज़ मिलन की चाह लिए 

और तुम दे कर दिलासा करते हो आश्वस्त
आने वाली छुट्टी के नाम पर 
ये छुट्टी कौन सी होगी पता नहीं

किसी रविवार, तीज-त्यौहार 
या किसी नेता-राजनेता की मौत पर 
मनाए गए शोक की

इससे नहीं है
उन्हें कोई सरोकार 
उन्हें तो बस तुम्हारा साथ चाहिए

उनका ये भरोसा झूठा नहीं है
कि वक्त पाते ही पुकारोगे नाम से 
पलटोगे पन्ना दर पन्ना कई-कई बार
पहुंचोगे शब्दों से अर्थों तक

इनकी खुशनसीबी देख ख़याल आता है
काश कि होती कहीं मैं भी इस अलमारी के बीच 
करती तुम्हारा इन्तज़ार
बेतरह!




प्रेमी की पत्नी के नाम


पता नहीं
मैं तुम्हारे लिए कौन हूँ 
पर तुम मेरे लिए उस प्रेम की सुयोग्य अधिकारी हो 
जिसे पाने की चाह मेरे भीतर 
सदा बलवती रही

तुम फलती-फूलती रहीं जिसकी छाँह में
मैं बीतती और रीतती गयी उसकी चाह में

ऊब जाती हो जिसे तुम देख कर-सुन कर 
मैं झरोखों से झाँका करती हूँ उसे
रहता है इन्तज़ार आवाज़ सुनने का उसकी

सोचती हूँ बता दूँ तुम्हें सच-सच
हम हारे हैं एक ही खेल में
जीता तो कोई और है 

मगर डरती हूँ 
कहीं तुम नफ़रती हो कर न उगलने लगो आग
बरसो बेतहाशा, कोसो मुझे दिलो-जान से
सींचती हूँ जिस पौधे को मैं नित नेह-नीर से
न उखाड़ दो तुम उसे पल में जड़ से 

सुनो सखी! 
जिसे तुमने विश्वास से बाँधा है
मैंने उसे प्रेम से थामा है
हमें आग और पानी की तरह नहीं
नीर और क्षीर की तरह मिलना चाहिए

प्रेमिकाओं ने जलाए हैं सदा
प्रेमियों के नाम के दीये 
देखा है नम आँखों से 
चाँद को चुपके-चुपके!








पिता


पिता! 
जब विदा किया तुमने मुझे देहरी से
तुम आँखों से रोए दिल से हँसे थे
बोझ जो उतर गया था कन्धों से
जवान बिटिया का

मेरे बारह बरस का होते ही 
सोचने लगे थे तुम मेरे ब्याह की बातें
मेरे यौवन के बढ़ते क्रम से सहमी माँ
डूबी रही पल-पल सोच में
उसके आर से आखर भेदते थे तुम्हें

जितनी तेजी से बढ़ रहे थे मेरे वक्ष
तुम उतनी ही तीव्रता से खोज रहे थे वर
मेरे हाथ पीले कर डोली उठाने के सपने ही 
सुख देते थे बस

मैं जीत जाना चाहती थी
दौर के उन सभी दुराग्रहों से 
जिनके चलते चढ़ जाती हैं या चढ़ा दी जाती हैं
दुनिया की तमाम बेटियाँ रस्मों की वेदी पर
मगर तुम रोकते रहे मुझे मेरे पढ़ने, बढ़ने और लड़ने से

क्या तुम भी जूझ रहे थे पिता
उन विडम्बनाओं से जो मेरे भीतर आज 
खलबली मचाए रहती हैं? 
मैं जीव-विज्ञान पढ़ना चाहती थी
तुम समाजवाद भी नहीं सिखा रहे थे

क्या सचमुच! 
समाज का डर बड़ा होता है आत्मा के डर से? 
क्या इसी से बची रहेगी हमारी अस्मिता? 

यूँ तो मैं टुकड़ा थी तुम्हारे कलेजे का पिता
फिर कौन से निमित्त थे 
मेरी जल्द विदाई के

क्या सौंपे थे संस्कृति ने सरोकार तुमको
या किया था सभ्यता से करार तुमने? 
या फिर दिखाना था समाज को
उजला चेहरा?




गंगा स्नान


औरतें उमग रही हैं गंगा स्नान को
कार्तिक पूर्णिमा का महापर्व है
बड़े गुरू का जन्मदिन भी 

रातों रात बना ली हैं मिठाइयाँ
चाव से चुन-चुनकर धर रही हैं अँगिया चोली
पहनने को गंगा घाट पर

वे टोलियों में गा रही हैं गीत गंगा मैया के
बढ़ा रही हैं सामूहिक समागम के सौंदर्य को
गंगा के मटमैले जल में कर स्नान
पाग रही हैं खुद को प्रेम और
पवित्रता की चाशनी में

माँग रही हैं मन्नतें धो रही हैं पाप
मना रही हैं पितरों को कर रही हैं दान
दे दे कर अर्घ्य पूर्ण कर रही हैं स्नान

पानी में उतर कर हो गई है काया कंचन
वे अनभिज्ञ हैं उन देह दृगों से
जो सिखाते हैं कसना वक्ष

निहार रहे हैं अपनी कलुषित आँखों से
चख रहे हैं खारेपन से बनी देह का नमक
कर रहे हैं पाक को नापाक

औरतें लौट रही हैं नहा कर 
सिकुड़ा सा तन फूला सा मन लिए 
कर रही हैं अनदेखी उन घूरती आँखों की
जो हो रही हैं तृप्त देह-दर्शन से

वे करती रही हैं 
हर युग में आत्मा होने की कोशिश 
मगर नहीं देखा गया उन्हें देह से आगे 

औरतों ने हर युग में ढोया है
मर्दानी आँखों के इस मैल का बोझ
और न जाने ढोती रहेंगी
कब तक?



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)


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