शर्मिला जालान का आलेख 'जवाहर गोयल : एक मर्मज्ञ कवि का अविस्मरणीय रचना संसार'

 

जवाहर गोयल



साहित्य का संसार व्यापक है। इस संसार में एक साथ तमाम लोग लिख रहे होते हैं। कुछ रचनाकार जीते जी वह ख्याति अर्जित कर लेते हैं जो स्वप्न सरीखा होता है तो दूसरी तरफ कुछ ऐसे भी रचनाकार होते हैं जो बेहतर लिखने के बावजूद गुमनामी की चादर में खोए रहते हैं। ऐसा ही एक नाम है जवाहर गोयल का। हालांकि जवाहर गोयल ने मूल रूप से इंजीनियरिंग और मैनेजमेंट की पढ़ाई की, लेकिन उनकी अभिरुचि साहित्य में थी। उन्होंने कई विधाओं में लेखन किया। इस क्रम में उन्होंने कहानी, संस्मरण, कला समीक्षा और कविताएँ लिखीं, चित्र बनाए, लेकिन वे खुद को प्रमुख रूप से कवि ही मानते थे। आज 30 जुलाई को मर्मज्ञ कवि और समर्थ गद्यकार श्री जवाहर गोयल जी की जयंती है। इस अवसर पर उनके व्यक्तित्व और साहित्यिक अवदान पर शर्मिला जालान ने एक परिचयात्मक आलेख लिखा  है। कम चर्चित रचनाकारों को रेखांकित करने और प्रकाश में लाने का सराहनीय कार्य शर्मिला ने किया है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं शर्मिला जालान का आलेख 'जवाहर गोयल : एक मर्मज्ञ कवि का अविस्मरणीय रचना संसार'।



स्मृति : जवाहर गोयल

(जन्म : 30 जुलाई, 1949; मृत्यु : 20 अगस्त, 2018)


'जवाहर गोयल : एक मर्मज्ञ कवि का अविस्मरणीय रचना संसार'


शर्मिला जालान



हम सभी जानते हैं कि साहित्य का एक विशाल और प्रकट समाज होता है, जो आकाश की तरह अनंत है। इसी व्यापक साहित्य-आकाश के भीतर एक सूक्ष्म किंतु प्रभावशाली जगत भी सक्रिय रहता है— शांत, संकोचपूर्ण, एक ऐसा निजी अड्डा, जीवंत कोना, जहाँ साहित्य और कला के अर्थों की सघनता होती है। इस अंतरंग बिरादरी में शामिल रचनाकार उतने ही मौलिक और संवेदनशील होते हैं, जितने वे साहित्यकार, जो समय की चर्चा और सराहना के केंद्र में होते हैं। यह भीतर का संसार— यह राग-विराग से भरी सर्जनात्मकता— साहित्य को उसकी गहराई और ऊँचाई दोनों प्रदान करती है।


आज हम आदर और आत्मीय भाव से जवाहर गोयल को याद कर रहे हैं — 30 जुलाई, वह दिन जब उनका जन्म होता है। उनके काव्य और गद्य को पढ़ते हुए, उनके शब्दों की दुनिया में लौटकर, सम्मान से उनका स्मरण कर रहे हैं।


वे 16, लार्ड सिन्हा रोड पर स्थित अशोक सेकसरिया जी के निवास में जमने वाले विचारशील अड्डे के गहराई से जुड़े सदस्य थे। उन की शांत उपस्थिति हमेशा समृद्ध किया करती थी।


सन् 1949 में सिवनी, मध्य प्रदेश में जन्मे जवाहर गोयल की मूल शिक्षा सतपुड़ा-अंचल के बीच हुई। उन्होंने कहानी, संस्मरण, कला समीक्षा और कविताएँ लिखीं, चित्र बनाए, पर वे प्रमुखत: कवि थे।


प्रयाग शुक्ल के साथ जवाहर गोयल



यह एक सौभाग्यपूर्ण संयोग था कि उन से मेरा परिचय हुआ, और स्नेह मिला। उनकी सादा और गहरा असर छोड़ने वाली उपस्थिति ने समृद्ध किया । उनसे मेरी पहली मुलाकात 16, लॉर्ड सिन्हा रोड में हुई। वे अशोक जी के साथ 2002 में जनसत्ता में प्रकाशित अपनी कहानी ‘हबीब का घर’ की चर्चा कर रहे थे। बातचीत सिर्फ कहानी तक सीमित नहीं थी। यह चर्चा कहानी से होते हुए दिल्ली तक चली गई थी। मैं दोनों को बात करते हुए देख-सुन रही थी। उसके बाद कई बार मैंने जवाहर जी को अशोक जी के निवास स्थल पर देखा और सुना। साहित्य-समाज, कला पर लिखने–पढ़ने, सोचने–चर्चा करने का उनका सिलसिला चलता रहा।


उनसे हुई मुलाकातों में मैंने उन्हें संयत, संतुलित, शालीन और एक गंभीर अध्येता, साहित्य–कला प्रेमी के रूप में पाया। मैं उनसे अपनी कहानियों पर चर्चा करती थी। मेरे दूसरे कहानी संग्रह “राग विराग और अन्य कहानियाँ” पर उन्होंने टिप्पणी लिख कर दी, जो पुस्तक के फ्लैप पर है।


वे रामकृष्ण मिशन, पुस्तकालय (कोलकाता) के सदस्य थे और वहाँ होने वाले संगीत कंसर्ट में अपनी मूर्तिकार पत्नी नीलिमा जी के साथ जाया करते थे। मैंने उन्हें संगीत में अपनी रुचि के बारे में बताया। उन्होंने कहा कि वे पेन ड्राइव में कुछ अच्छे लिंक सेव करके सुनने के लिए मुझे देंगे। पर ऐसा हो नहीं पाया। वे गंभीर रूप से अस्वस्थ हो गए।


जवाहर जी साठ के दशक के कथाकार, एंथ्रोपोलोजिस्ट प्रबोध कुमार जी से संवाद में थे।





उनका पहला काव्य संग्रह — ‘आओ, जल में जल की छाया देखें’ 62 वर्ष की उम्र में सन 2011 में प्रकाशक संस्थान, दिल्ली से आया। कविता संग्रह की भूमिका कवि कमलेश ने लिखी, जो इस प्रकार है :—


“पाठकों के सामने कविता भाँति-भाँति के वेष धारण करके आती है। उसके कुछ प्रसिद्ध वेष हैं, 'अर्थगौरव' का वेष और 'पदलालित्य' का वेष। 'फैशनपरस्ती' के युगों में कविता तरह-तरह के 'डिज़ाइनर' वेषों में भी दीखती है। इन असंख्य वेषों में कविता का एक महत्त्वपूर्ण वेष साधारणता का है।


इस संग्रह की कविताएँ —

किसी भी बड़े शब्द के बिना

किसी भी अनूठे अर्थ के बगैर

बिना किसी भी अनुष्ठान को किए...

कविता का वेष धारण करने वाली कविताएँ हैं।

लेकिन इसी साधारण वेष में सारा असाधारण समाया रहता है —

पत्तों से पत्तों पर गिरती

बारिश की आवाज

रात में ढोल-मंजीरों का उल्लास


जैसी कविताएँ हाइकु जैसे जापानी छन्द का अनुशासन प्राप्त करती हैं।


इन कविताओं में कुछ असाधारण घटित होता हुआ साधारणता की तरह अंकित होता है —


पहाड़ों का निर्भीक मौन

सूर्य की हथेलियों पर स्नान करता है

उज्ज्वल हरा पेड़ों को सँवारता है

विस्तीर्ण आयास गाय की आँखों-सा ताकता है

टूटी टाँग लिए कौआ फुदक कर आगे बढ़ता है

गर्दन मोड़ता है, चोंच खोलता है

हमें मित्र भाव से देखता है।


जवाहर गोयल , नीलिमा गोयल और अलका सरावगी



साधारणता के वेष में मन विश्रान्ति की अवस्था में पहुँच गया है। मन की यह विश्रान्ति अवस्था साधारणतया नहीं उपलब्ध होती। यह अवस्था असाधारण को ही प्राप्त होती है-


वह कमरा था मेरी आत्मा की तरह खाली,

जिसमें हल्का प्रकाश था।

कुछ भी नहीं था, विश्रान्ति थी। 

आभा मात्र अनुभव थी। मेरी चेतना।

संसार को ढंके लिहाफ मेरे भीतर था। 

मैं नहीं पर कोर में अन्य सब था।

मैं आकाश था, जल था, वायु था। 

ताप था, धूल था।

न होने में अतीन्द्रिय सुख था।


इसी तरह का वेष धरी हुई ये कविताएँ - 'कविता' के न होने में अतीन्द्रिय सुख देती हैं। 'लिपि के अक्षरों का आकार और भाषा का विराट इतना कुछ निरन्तर देते चलता है कि उसका कोई अर्थ नहीं होता। हम तक इन्हें पहुँचाने वाले पूर्वजों की रचनात्मकता का स्मरण मात्र हृदय को ऊष्म और तपित रखता है।' कवि के लिखे 'आरम्भ में यह' शब्द इन शब्दों की तरह इन कविताओं को भी पूर्वजों की कड़ी से जोड़ते हैं और अपनी साधारणता से पाठकों को भावगम्य बना कर कृतज्ञ बनाते हैं।

- कमलेश


संग्रह की एक कविता देखिए :


आओ, जल में जल की छाया देखें


आओ, जल में जल की छाया देखें

बिन काया यह माया देखें

सुनें ताप के तले सतह को

देखें धरती के खुले वक्ष को

फैले अक्ष का अट्टहास सुनें

निर्जन पेड़ों में चट्टानों को गिनें

जल में अपनी छाया निरखें

लहराते पत्थर, हिलती काया को छू लें

सुन्न दोपहरी, पेड़ों की माया देखें

आओ, जल में जल की छाया देखें


जवाहर गोयल ने इंजीनियरिंग और मैनेजमेंट की पढ़ाई कर कोल इंडिया लिमिटेड में पैंतीस वर्षों तक काम किया। इसी कारण कोलकाता में बस गए। पढ़ने-लिखने और चित्र बनाने की प्रवृत्ति के कारण साहित्य और कला से निरन्तर सक्रिय संपर्क रहा।


जवाहर गोयल अपनी पत्नी नीलिमा गोयल के साथ 



वे अपने पहले संग्रह के ‘आरंभ में यह’ लिखते हैं —

बरसों से कविता लिखने और चित्र बनाने का अभ्यास, स्नान और भोजन करने की तरह साथ चलता रहा। किंतु आज से ढाई वर्ष पूर्व मई 2009 में जब अकस्मात् एक लंबी बीमारी का संयोग जुड़ा, तब इन्हीं कामों से मुझे औषधि की तरह प्रभावकारी लाभ मिलने लगा।


इस दौर की चेतावनियों और दबावों में अपनी मानसिकता को संतुलित एवं स्वस्थ रख पाने में इनकी इतनी सहायता रही कि वह मेरे अनुमान से परे था। ढाई बरसों की उस सामग्री में से चुनी इन कुछ कविताओं में वही सब है।


मेरे आत्मीय अग्रज अशोक सेकसरिया जेठ की दुपहरियों में पसीने से भींजा कुरता पहने नित्य मिलने आते थे। आरंभ में ही दो खाते पकड़ाते उन्होंने कहा कि आज से एक में कविता और दूसरे में अन्य बातें लिखना है।


इनके भरने पर अब तक उनसे दूसरे खाते मिलते रहे हैं। ऐसे ही अन्य आत्मीयों जैसे प्रबोध कुमार, रमेश गोस्वामी, प्रभा प्रसाद, रामकुमार तिवारी, संजय भारती आदि अनेक स्नेही मेरी खोज–खबर के अलावा, लिखी जा रही सामग्री को परिचितों में वितरित करने लगे तथा पत्र–पत्रिकाओं में प्रकाशित भी कराते रहे।


यह संकलन भी उन्हीं सबकी योजना और प्रयासों का परिणाम है। इन सभी से मुझे निरंतर अतुलनीय बल मिलता रहा।


रवींद्र सदन परिसर में, एक कला प्रदर्शनी के दौरान सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुधा अरोड़ा जी से आत्मीय भेंट



आरंभ में अस्पताल में भर्ती होते समय दो किताबें साथ ले ली थीं — गांधी जी द्वारा सन् 1929 में यरवदा जेल में लिखी 'गीता-बोध' और कुँवर नारायण जी की कविता की नई किताब 'वाजश्रवा के बहाने'। दोनों से मुझे अद्भुत प्रश्रय मिला। ऐसा समय न केवल एकाग्रता से पढ़ने–लिखने का अवसर देता है, बल्कि देह की समस्याओं पर केन्द्रित होने से भी बचाता है। एक बार अपनी कविता पर बात करते हुए रघुवीर सहाय ने कहा था कि मेरे लिए कविता लिखी जाने के साथ ही मर जाती है। उनका आशय लेखन प्रक्रिया की उस रचनात्मक ऊर्जा से था, जिसके जरिए लेखकीय सरोकारों और संवेदना से उपजी कोई कविता लिखी जाती है।


यह भी स्वाभाविक है कि लिखी जाने के बाद वह कृति अपने सन्दर्भों और प्रसंगों से भी स्वायत्त हो जाती है तथा पढ़े जाने पर पाठक के निजी रचनात्मक आकाश का अंश होती हुई पुनः अपना अस्तित्व पाती है। जब लिखने और पढ़ने वाले व्यक्तियों की जमीन एक होने लगती है, तो कविता जीव8न पाने लगती है। संभवत: सार्थक होने लगती है। प्रस्तुत संकलन की बातें केवल मेरी अपनी हैं — ऐसा मुझे कभी नहीं लगा। इस दौरान यह आभास अंतरतम तक बोध गया कि किसी भी तरह से, कुछ भी इतना निजी होता ही नहीं है कि वह केवल अपना कहला सके। व्यापक समग्रता का यह क्षीणतम आभास कितना–कितना संतोषजनक होता है, मुझे यह इन्हें लिखते हुए अनुभूत हुआ।

           

लिपि के अक्षरों के आकार और भाषा का विराट इतना कुछ निरंतर देते चलता है कि उसका कोई अंत नहीं होता। हम तक इन्हें पहुँचाने वाले पूर्वजों की रचनात्मकता का स्मरण मात्र हृदय को ऊष्म और तप्त रखता है। हम उन सबके प्रति केवल कृतज्ञ हो सकते हैं।“


जवाहर गोयल पर अब तक कुछ लिखा नहीं गया है। पर उन्होंने जो भी लिखा है, उससे उन्हें कवि के रूप में ‘मान’ मिला है। 


उनकी रचनाएँ समास, सदानीरा, जनसत्ता आदि पत्र–पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। ‘दिनमान’ में भी उन्होंने लिखा है।


‘सदानीरा’ में प्रकाशित कुछ कविताएँ :


1. एक अच्छी कविता


एक अच्छी कविता संध्या की तरह

दिन और रात के बीच आकाश पर

फैल जाती है, कुछ भी नहीं चाहती

सिवा अपने सत्य का कोमल पीला प्रकाश।

पहाड़ों की कगारों को छू कर वह

आपके मन में लौट आती है

ईश्वर के स्पर्श-सा आश्वस्त करती

संध्या में घाटी की तराई के एकांत को

समेटती, दीपक की लों के पास रखती।

एक अच्छी कविता उघारे गुमसुम बच्चे-सी

धूल के बीच से उठ, देख कर हँस देती

बूढ़े के बचे पीले दातों में फँसी

हम में हर किसी से अधिक उत्सुक

तमाम कुछ के बीच सबके जीवन में

जीती है — एक अच्छी कविता — सबके समीप।


जवाहर गोयल कला मर्मज्ञ रहे हैं। समय-समय पर कलाओं पर लिखा। उनके कुछ लेखों के शीर्षक इस प्रकार हैं —


‘बच्चों के चित्र, पिकासो और रवीन्द्रनाथ’, ‘पनेसर की दुनिया’, ‘गणेश पाइन’, ‘सोमनाथ होर’ आदि।


जवाहर गोयल , अशोक सेकसरिया और जवाहर जी की मूर्तिकार पत्नी  नीलिमा गोयल  



उन्होंने संस्मरण भी उतनी ही शिद्दत से लिखा है।

अशोक सेकसरिया पर लिखे संस्मरण के कुछ अंश.. 


"अशोक जी से मेरी मुलाकात सन अस्सी में मेरे प्रिय कवि रघुवीर सहाय के माध्यम से हुई थी। बाद में अशोक जी इसे कई बार याद भी करते थे। रघुवीर सहाय उन दिनों साप्ताहिक 'दिनमान' के संपादक थे, और मैं उसमें एक छद्म नाम से लिखा करता था, क्योंकि तब मैं कलकत्ते में एक सरकारी नौकरी कर रहा था। रघुवीर जी ने पता देते हुए मुझसे आग्रह किया था कि मैं अशोक सेकसरिया और रमेश चंद्र सिंह से अवश्य मिलूँ। मैं अपनी पढ़ाई समाप्त कर कुछ वर्ष पहले ही कलकत्ते आया था। लेकिन मन में कुछ आदर्श और ऐसे जुनून भी सवार थे कि समाज में बदलाव के लिए एक अलग भूमिका निभाऊँ। अशोक जी के उस पते पर जब मिलने गया तो देखा कि वे कलकत्ते के एक संपन्न इलाके की बड़ी-सी कोठी में रहते हैं, जिसमें नीचे के तल्ले में उनका सारा परिवार रहता था, और ऊपर के तल्लों में विदेशी किराएदार रहते थे। सारे घर में संभ्रांत और सुरुचिपूर्ण सादगी की छाप थी। तब अशोक जी दाढ़ी–मूँछें नहीं रखते थे, और उनकी भूषा हुआ करती थी — मोटी खादी का हल्के रंगों का कुरता, सफेद पायजामा और चड़ड़े की सादी चप्पलें। उनका कमरा वैसा अस्त–व्यस्त और अव्यवस्थित नहीं रहता था, जैसा कि ऊपर के तल्ले में तब हुआ करता, जब वे अपने पिता की मृत्यु के बाद परिवार से अलग अकेले वहाँ रहने लगे थे।"


"ललित कलाओं में सदा उनकी रुचि रही। अनेक कलाकारों और कला पर लिखने वालों से उनके अच्छे संबंध थे। यदि रवींद्रनाथ, अमृता शेरगिल, रामकिंकर और जामिनी राय का काम उन्हें पसंद था, तो रामकुमार, सोमनाथ होर और हिम्मत शाह आदि के काम के भी वे बड़े प्रशंसक थे। उनके साथ कला दीर्घा में होना, उनकी संवेदनशीलता और पूर्वाग्रहों से मुक्त प्रतिक्रियाओं के कारण खरा अनुभव होता।यदि उन्होंने प्राचीन भारतीय कला पर आनंद कुमार स्वामी की किताबों का अध्ययन किया था, तो जॉन बर्जर का आधुनिक कला पर लेखन भी उसी चाव से पढ़ा था। कला के विषय में अपने को वे अनपढ़ कहते, किंतु उनसे कला की सूक्ष्मता पर अच्छी चर्चा की जा सकती थी। एक दफा जब गणेश पाइन का साक्षात्कार करने जा रहा था, तो उत्साह से साथ हो लिए। पाइन से बातचीत के दौरान गपशप में दोनों ऐसे घुलमिल गए कि सिलसिला चलता ही रहा। उसके बाद जब भी गणेश पाइन से भेंट होती तो वे उनके बारे में अवश्य पूछते। रामकुमार जी से भी मेरी जब भी भेंट होती, वे अशोक जी के बारे में मुझसे अवश्य पूछते थे। कला की बाज़ारू और व्यवसायिक नियति उन्हें बड़ी विडंबनापूर्ण लगती, क्योंकि ऊँचे दामों में बिक कर कलाकृति सामान्य व्यक्ति की पहुँच के बाहर हो, किसी की निजी संपत्ति बन कर गायब हो जाती। उनका मानना था कि सामान्य जीवन का हिस्सा बन कर ही कला अपने उचित सांस्कृतिक अर्थ पाती है।


अपने ही तरीके से अशोक जी कई नए युवा कलाकारों को वैसे ही प्रोत्साहित किया और उनकी सहायता की, जैसी कि नए युवा लेखकों की करते रहे थे। जहाँ ज़रूरी समझते, अपने को गोपन रखना भी उन्हें पर्याप्त आता था। बहुत नज़दीकी लोग भी इस बात को नहीं जान सके कि अशोक जी ने अनेक कविताएँ भी लिखी थीं। इन्हें दूसरों को नहीं दिखाया, न ही कभी प्रकाशित कराया।


डायरी में अथवा फुटकर पन्नों में ही ये छिपी रहीं। उनकी किसी डायरी के एक पन्ने में टेलीफोन नंबरों और पतों के बीच उनके हाथों से लिखी यह कविता हाल में मिली —


मर्म ही है धर्म है।"


अंत में यही कहूँगी- जवाहर गोयल की कविताओं और गद्य दोनों को याद किया जाना चाहिए। उनका लिखा बहुत कुछ कहता है, जिसके मर्म और शक्ति को पढ़ कर ही जाना जा सकता है।  मुझे भरोसा है कि आने वाले समय में सुधी पाठक उनकी कविताएँ, कहानियाँ और संस्मरण ढूंढ़ कर ज़रूर पढ़ेंगे।


(इस पोस्ट में प्रयुक्त सभी चित्र शर्मिला जालान ने उपलब्ध कराए हैं।)






सम्पर्क 


ई मेल : sharmilajalan@gmail.com


टिप्पणियाँ

  1. जवाहर गोएल को याद कर अच्छा लगा |

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  2. कांचरापाड़ा में पहली बार रघुवीर सहाय की लोक-सभा में देखा
    ।वे अशोक सेकसरिया जी के साथ‌ सभा में शामिल होने के लिए आए थे
    सभा की समाप्ति के बाद भी वे कांचरापाड़ा में रात को ठहरे थे।

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