आदित्य की कहानी 'लेटरबॉक्स'

 

आदित्य


हर दौर अपने आप में बदलाव की बयार लिए होता है। कभी ये बदलाव प्रत्यक्ष तौर पर दिखाई पड़ते हैं तो कभी अप्रत्यक्ष तौर पर कुछ इस तरह घटित होते रहते हैं कि हम उनकी आहट तक नहीं सुन पाते। लेकिन रचनाकार की खूबी यही होती है कि वह न केवल इन बदलावों की पहचान करता है बल्कि उसे अपनी रचनाओं में दर्ज भी करता है। यह समय ऐसे ही कई एक बदलावों का दौर है, जिसके बारे में पहले कभी हम सोच भी नहीं सकते थे। 'लिव इन रिलेशन' हमारे समय का सच है। सेम जेंडर के दो लोगों के एक साथ सार्वजनिक रूप से जीवन बिताने का निर्णय लेने वालों का समय है यह। अभी तक यह सब अनैतिक माना जाता था। तमाम असहमतियों के बावजूद अब इसके लिए समाज में जगह बनने लगी है। हमारे समय का यह यथार्थ है। आदित्य हमारे समय के प्रतिभाशाली रचनाकार हैं। उन्होंने अपनी कहानी 'लेटरबॉक्स' में सुकृति और राशि के मनोभावों को खुबसूरती से व्यक्त किया है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं युवा कहानीकार आदित्य की कहानी 'लेटरबॉक्स'।



'लेटरबॉक्स'


आदित्य


'मैं उन सभी औरतों की स्मृतियों का कुल जमा हूँ जिन्होंने प्यार किया और पीड़ाएं झेलीं।' - टोस्का



"एक दिन आयेगा जब हम सबको भूमिगत होना पड़ेगा। जब सारी किताबें, सिनेमा-संगीत और नाटक प्रतिबंधित हो जायेंगे। जब सरकार को हर कलात्मक अभिव्यक्ति अपने ऊपर खतरे की तरह दिखने लगेगी और लेखकों, कलाकारों, फिल्मकारों की उनके घर की ड्योढ़ियों पर हत्याएं होने लगेंगी। उस दिन अराजनीतिक होने का भी कोई अर्थ नहीं रह जायेगा। तब, जब कोई संतुलित अभिव्यक्ति नहीं बचेगी, बचेगी तो सिर्फ और सिर्फ सत्ता की अराजकता। ऐसे ही दुर्दिन के लिए मैंने इकट्ठी कर रखी हैं किताबें, फिल्में, सिनेमा और संगीत। हम संस्कृति के इस विशाल समंदर में पाइरेट की तरह हैं। पाइरेसी वर्ग संघर्ष का मामला है और हम एक सर्वहारा आंदोलन के रस्ते पर हैं। पाइरेसी ने संस्कृति उद्योग के बड़े-बड़े मुनाफाखोरों का भट्ठा बैठाया है। यही वजह है कि पूंजीपति वर्ग पाइरेसी पर नियंत्रण के लिए सख्त से सख्त नीतियाँ बनवाने के लिए अदालत से ले कर सांस्कृतिक हलकों और संसद तक पहुँचा हुआ है। अगर मुफ्त में न उपलब्ध हो तो बहुत-सी किताबें में आज तक नहीं पढ़ पाता क्योंकि वे निहायत ही महंगी हैं, अधिकतर श्रेष्ठ सिनेमा से वंचित रह जाता क्योंकि वे किसी स्ट्रीमिंग चैनल पर उपलब्ध नहीं हैं। स्ट्रीमिंग चैनल यूँ भी नई परिघटना हैं। पाइरेसी की वजह से ही दुनिया की महान से महान किताब, फिल्में-डॉक्यूमेंट्री आपको मुफ्त में पढ़ने देखने को मिल जाते हैं अन्यथा बहुत-सी ऐसी किताबें और फिल्में हैं जिन्हें देखने के लिए अगर पैसे खर्च करने हों तो निचले तबके के लोग, विद्यार्थी, बेरोजगार, संघर्षशील कलाकार आदि उससे वंचित रह जाएंगे। अच्छी किताबें और सिनेमा शिक्षा का भी एक महत्वपूर्ण माध्यम है ऐसी स्थिति में तो और भी जब दुनिया के अधिकतर देश लगातार अधिनायकवादी लोकतंत्र की ओर बढ़ रहे हैं। आज स्ट्रीमिंग के युग में आप अधिकतर स्ट्रीमिंग चैनल उठा कर देख लीजिए, उनपर बहुत ही चलताऊ किस्म का सिनेमा उपलब्ध हैं। स्ट्रीमिंग सर्विसेज ने हमारे जैसों को भी आलसी बना दिया है। बहुत-सी फिल्में अब मैं इसलिए नहीं देख पाता क्योंकि उनको डाउनलोड करना पड़ता है। लेकिन एक समय था कोई भी फ़िल्म कैसे भी ढूंढ कर डाउनलोड कर लिया करता था। स्ट्रीमिंग सर्विसेज हमारी कलात्मक चेतना को नियंत्रित और नियमित करती हैं, इसीलिए पाइरेसी का महत्व और भी बढ़ जाता है। पाइरेसी को अपराध बना कर, स्ट्रीमिंग सर्विसेज को बढ़ावा दे कर न सिर्फ जनता की बौद्धिक गति को नियंत्रित किया जाता है बल्कि गरीब वर्ग को ज्ञान के एक बहुत बड़े संसाधन से वंचित भी किया जाता है। वहीं मुफ्त कलाकृतियों की उपलब्धता से कितने ही वंचित लाभान्वित होते हैं। जहाँ तक यह सवाल है कि अगर किसी कलाकार की रचना मुफ्त में बिकेगी तो उसका गुजारा कैसे होगा तो उसे यह सवाल संस्कृति उद्योग से पूछना चाहिए। एक कलाकार को उसकी कलाकृति का उचित मेहनताना क्यों नहीं मिलता जिससे वह एक सम्मानपूर्वक जीवन जी सके? वहीं बहुत से ऐसे कलाकार और संस्थाएं भी हैं जिन्होंने अथाह पैसा कमाया है तो एक सवाल यह भी है कि संस्कृति उद्योग में कलाकारों और पूंजीपतियों के बीच संसाधनों का असमान वितरण क्यों है?"


सुकृति फोन स्क्रीन पर फेसबुक के नीले आयत में भटक रही थी।


'राशि! अनंत की आज की फेसबुक पोस्ट देखी?'


'नहीं, उसने मुझे ब्लॉक कर रखा है।"


'रुक, कॉपी करके तुझे व्हाट्सएप करती हूँ।'


'फेसबुक पर ज्ञान देता रहता है।'


दोनों कुछ देर तक अनंत की पोस्ट पर बातचीत करते रहे। अँधेरे में उनके फोन स्क्रीन पर बतियाँ झिलमिला रहीं थीं। बीच-बीच में दोनों के खिखियाने की आवाज आती। अँधेरे में फोन का शोर अजीब अराजकता को जन्म देता था। स्क्रीन एक ब्लैक होल की तरह थी। उसके आस-पास पहुँचते ही भीतर की अनंत खाई में बिला जाते। भीतर अथाह संसार था। आदमी शब्दकोश की तलाश में फोन स्क्रीन तक पहुँचता और खबरों वीडियो हँसी ठठ्ठो की अजीबोगरीब अब्सर्ड दुनिया में भटकने लगता। आदमी कैलेंडर देखने के लिए फोन अनलॉक करता और दुनिया की किस अँधेरी गली में खो जाता, उसे जब तक एहसास होता वो एक सिमुलेशन में दाखिल हो चुका होता तब तक सिमुलेशन उसका यथार्थ बन चुका होता। यह उनके व्यक्तित्व का विस्तार भी था तीसरी आँख की तरह जो उन्हें उज्बेकिस्तान से ले कर न्यूयॉर्क की सड़कों तक, लाहौर की अंधी गलियों से ले कर पेरू की पर्वतमाला तक खींच ले जाता। फ़ोन स्क्रीन के सामने वे एक नहीं रहते। वे टूटते-बिखरते, बनते बिगड़ते सैकड़ों हजारों अस्तित्व धारण करते रहते। इस ब्लैक होल के चारों और एक अराजक शोर पसरा रहता। ना जाने कैसी-कैसी विद्युत चुंबकीय तरंगें इस स्क्रीन और उसके आस-पास के मनुष्यों के ऊपर मंडराती रहतीं। चूंकि वे शोर में गुम थे या यूं कहें वे खुद ही शोर बन जाते थे; उन्हें इस अराजकता का एहसास नहीं था। हम जिस दृश्य में होते हैं, उस दृश्य से पैदा होने वाली हिंसा से आक्रांत नहीं होते; हम उसमें शामिल होते हैं उस हिंसा के वाहक होते हैं। कभी अचानक फोन की बत्ती खुद ब खुद कम हो जाती और बिन रोशनी के कमरे में सन्नाटा पसर जाता। सुकृति ने राशि के पाँवों पर अपने पाँव रख दिए। राशि ने बिस्तर पर अपना फोन रख कर उसे धीरे से तकिये के नीचे सरकाया और सुकृति को बाँहों में भर लिया। सुकृति के फोन की बत्ती खुद ब खुद जल कर बुझ गई और दोनों खिखियाने लगीं। सुकृति ने पलट कर राशि के होंठों को चूमा।


एक मद्धम 'आई लव यू' की आवाज के चारों और खामोशी। रुक-रुक कर प्यार की फुसफुसाती ध्वनियाँ।


थोड़ी देर में दोनों बिस्तर पर अपने-अपने कोनों में निढाल लेटे थे।


'तुझे कभी अनंत की याद आती है?'


'नहीं, ऐसी कोई याद तो नहीं आती। मगर ऐसा क्यों पूछ रही?"


सुकृति ने राशि के इस सवाल को नजरअंदाज करते हुए दूसरा सवाल दाग दिया।


'कभी तूने खुद को किसी और के साथ सेक्स करते हुए सोचा है?'


'सु! क्या बात है यारा ऐसे ऊटपटांग सवाल क्यों पूछ रही है?' राशि ने चिढ़ते हुए कहा।


'जाने क्यूँ मन में ये सवाल आते रहते हैं।'


बारह बजे थे। घड़ी की टिक-टिक दिल पर ठक-ठक बज रही थी। एक छिपकली तल्लीन हो कर दीवार पर कीड़ों की तलाश में सरक रही थी। सुकृति छत को एकटक देखे जा रही थी। कमरे के अंधेरे में कहीं पास से रोशनी की एक किरण छत पर गिर रही थी। बेचैनी है, खामोशी है और सब निरुत्तर हैं। क्या होगा जब दुनिया वैसी हो जाएगी जैसी उसके होने से हम हरते हैं? क्या होगा जब हम अपने सामने खड़ी ताकतवर संरचनाओं के आगे मजबूर होंगे। दुनिया हर पल बदल रही थी। दुनिया वैसी हो चुकी थी उसकी जैसी होने से हम डरते थे। आज आधी रात एक नया विधेयक पारित हो चुका था। आधी रात को जब सारा देश सो रहा था तब सांसदों ने विधेयक पारित करा लिया। इनमें से एक विधेयक के मुताबिक लिव-इन रिश्तों में रह रहे सभी कपल्स को नजदीकी थाने जा कर अपना रजिस्ट्रेशन कराना था और एक निश्चित समय सीमा के बाद माँ बाप की रजामंदी से शादी करना भी अनिवार्य कर दिया गया था। सुकृति ने जबसे खबर देखी थी, बेचैन थी। मालूम नहीं वे दोनों कैसे कर पाएंगी। उसके माँ बाप तो यही जानते थे कि वो राशि के साथ रह कर पढ़ाई कर रही है लेकिन लिव-इन, वो भी एक लड़की के साथ?


राशि नींद में जा चुकी थी। सुकृति ने यह देखे बिना कि वो सो चुकी है, बड़बड़ाती रही।


'मुझे डर लग रहा है राशि। नहीं मालूम पुलिस और अपने घर वालों का सामना कैसे करूंगी।'


'कैसी पुलिस? कैसे घर वाले?' नींद में ऊँघते हुए राशि ने पूछा।


'तूने खबर नहीं देखी राशि?'


'मैं सपने देख रही थी सु। हमने एक पर्शियन बिल्ली पाली है और उसे 'जिनपा' नाम रखा है। हम तीनों पॉण्डिचेरी घूमने गए हैं। समंदर के किनारों पर जिनपा और हम खूब मजे कर रहे हैं। हमारे होटल की खिड़की से समुद्र तट पर टकराता हुआ नीले पानी का अंबार दिखाई देता रहता है।'


'राशि, अब हमें अपने रिलेशनशिप को थाने में रजिस्टर कराना पड़ेगा।'


'मुझे मालूम है, सु।'


'तो तू इतनी निश्चिंत कैसे है?'


'यानी कि मैं तेरे एक्स को स्टॉक करूं तभी मानेगी कि मुझे भी चिंता होती है?'


'मैं स्टॉक नहीं कर रही। मुझे बस डर लग रहा है। मेरी बेचैनी मुझे ऐसी जगहों में ले जा रही जहाँ मुझे जाना नहीं चाहिए। जैसे कोई दरवाजा हम दोनों के बीच खुल गया है और इससे कोई भी भीतर आ सकता है।' सुकृति रोने लगी।


घड़ी की टिक-टिक दिल पर ठक ठक बाज रही थी। कमरे के अँधेरे में कहीं पास से रौशनी की एक किरण छत पर गिर रही थी। बेचैनी है, खामोशी है और सब निरुतर हैं।


राशि उठ कर बैठ गई थी। अपना फोन अनलॉक किया और इंस्टाग्राम पर अंगुली खिसकाने लगी। सुकृति ने उसकी कमर को दोनों हाथों से लपेट कर उसकी गोद में अपना सिर लिटा दिया। रोते-रोते उसकी सुबकी एक टेर में बदल गई जिसे राशि अपने जंघे पर महसूस कर रही थी। उसके आँसू से राशि के शॉर्ट्स पर एक गोल आकार बन गया था जो उसके लगातार गिरते आँसू से  विकृत भी हो रहा था।


'सॉरी, सू लेकिन हमें इन हालातों से लड़ना होगा ना कि हार मानना। मैं तेरे साथ हूँ। अगर हमें रजिस्ट्रेशन करने के लिए मजबूर कर दिया जाएगा तो हम रजिस्टर करेंगे। थाने से या घर वालों से डर कर हमने प्यार नहीं किया था। मेरा बस इतना साथ दे कि मेरे एक्स को स्टॉक करना बंद कर दे और मुझे बार-बार उसकी याद दिलाना भी।'





कदम्ब हॉल का दरवाजा खोल कर वह अंदर दाखिल हुई थी। अँधेरे में सफ़ेद कवर में ढंकी कुर्सियाँ रखी थीं। पीछे की कतार में कोई खाली कुर्सी नहीं थी। सामने स्क्रीन पर फ़िल्म चल रही थी। लाल कार में एक महिला ड्राइवर के साथ एक पुरुष बैठा हुआ था। कार के साथ-साथ एक आधुनिक एशियाई शहर के भू-दृश्य पीछे छूट रहे थे। उसे स्क्रीनिंग में देर से पहुँचने का अफ़सोस तो हो ही रहा था, बैठने की जगह ढूँढनी भी मुश्किल थी। थोड़ा आगे बढ़‌ कर उसने देखा दो सीढ़ी नीचे कुर्सियों की कई और क़तारें थीं जिधर कई कुर्सियां खाली पड़ी थीं। उसने सोचा वह उतर कर एक कुर्सी पर बैठ जाएगी। मगर अँधेरे में उसके पैर फिसल गए और वह दो कतारों के बीच ढह गई। पलट कर कुछ लोगों ने उसे देखा। वह अपनी ओर मुखातिब नजरों को 'सॉरी सॉरी' कहते हुए धीरे से उठी। बगल में एक स्टूल पर प्रोजेक्टर रखा हुआ था जिससे निकलने वाली शंकुलाकार रोशनी सीधे स्क्रीन पर पड़ रही थी। प्रोजेक्टर के दूसरी तरफ कुछ और खाली कुर्सियाँ थीं। उसकी एक नजर फ़िल्म स्क्रीन पर और दूसरी नज़र कुर्सी ढूँढने में लगी थी। रोशनी के शंकुल से बचते हुए नीचे सिर झुका कर वह दूसरी तरफ की कुर्सियों की ओर बढ़ी और एक कुर्सी पर बैठ गई। यह एक बहुत छोटा हॉल था जिसके बीचों-बीच बने एक चैम्बर में रील ऑपरेटर सिनेमा का सरंजाम ले कर बैठे थे। उसे सबसे आगे की कुर्सियों पर बैठे लोगों के सिर स्क्रीन के बीच दिखाई दे रहे थे। वो सिर दाएँ बायें कर के सबटाइटल पढ़ने की कोशिश कर रही थी। उसकी कुर्सी के बगल में दो-तीन सीढ़ियाँ थीं जिसके ऊपर कुछ और कुर्सियाँ थीं मगर सब भरी हुई। वो चिड़चिड़ी हो रही थी। दायें-बायें अपना सिर उचका कर वह परेशान हो चुकी थी। तभी उसकी नजर सीढ़ी के दूसरी और रखी कुर्सियों पर बैठी एक लड़के पर गई। लड़के ने सफेद रंग की एक शर्ट के साथ गहरे नीले रंग की जीन्स पहन रखी थी। शर्ट पर सफेद धागों की महीन कड़ाई थी और गर्दन पर लाल गमछा। वो भी अपना सिर दायें-बायें करके सबटाइटल पढ़ने की कोशिश कर रहा था। उसे कुछ सांत्वना मिली। ख्याल आया कि वह चाहे तो कुर्सी से उतर कर सीढ़ी पर बैठ सकती है क्योंकि सीढ़ी कुर्सी से ऊपर थी और वहाँ से फ़िल्म स्क्रीन साफ दिखाई देती। चलती फिल्म के बीच में अकेले इतनी हलचल करने पर वह पहले ही शर्मिंदा थी। अब उसे फिर से जगह बदलने में संकोच हो रहा था। मगर बहुत देर तक हिचकते हुए वह कुर्सी छोड़, हॉल में बैठे अभिजनों की आपत्तियों की चिंता किए बगैर सीढ़ी पर बैठ गई। अब स्क्रीन साफ दिखाई दे रहा थी। उसे संतोष हुआ कि किसी ने कोई आपत्ति नहीं की। मगर उसे समझ नहीं आ रहा था कि कमरे में इतना अँधेरा क्यों है? अँधेरे के भीतर अँधेरे की एक परत हो। जैसे वह अँधेरे के किसी उपसमुच्चय में बैठी हो। हॉल में अंदर आने से पहले उसने गॉगल लगा रखा था जिसे आने के बाद उतार कर सामान्य चश्मा पहनने पर उसका ध्यान ही नहीं गया। उसने चश्मा बदल लिया।


ऑडिटोरियम की बत्तियाँ जलीं। सब अपनी आँखें मींचे और अगल-बगल नजरें दौड़ाते हुए अपनी सीट से उठ रहे थे। राशि ने बगल में बैठे लड़के की और देखा। वो अब भी सीढ़ी पर बैठे स्क्रीन को निहार रहा था। अचानक से होने वाले शोर की बिना पर वह थोड़ा अचकचाई और अपना दुपट्टा सही करते हुए उठी। राशि की ओर देखते हुए लड़के ने बोला


"भारी फ़िल्म थी, हाँ।'


'हाँ', उसने कहा और उसे एक झटके में देखा तो पाया कि ये कोई और नहीं बल्कि अनंत है। तेज कदमों से वह हॉल से बाहर आ कर वह वाटर कूलर पर रुक कर पानी पीने लगी। अनंत भी तब तक वाटर कूलर पर आ गया था।


'सीढ़ी पर बैठने की हिम्मत देने के लिए शुक्रिया।'


'कोई बात नहीं। मैं जल्दबाजी में हूँ अनंत।' कह कर वहाँ से दफा हुई। अनंत को देख कर उसकी धड़कन रुक-सी गई थी। जाने किस बुरे संयोग की बात थी कि कल से अनंत की बातें और अब अनंत उसका पीछा नहीं छोड़ रहे थे। वह हल्के कदमों से दौड़ते हुए हैबिटेट सेंटर से बाहर की ओर निकली और ऑटो ले कर मेट्रो चल पड़ी। अनंत से उसकी यह मुलाकात उसके भीतर हलचल मचाती रही। उसकी साँसे फूल रहीं थीं और दिल में धक-धक...


मार्च का महीना। बोगनवेलिया, अमलतास और गोल्डन फायर की रंगीनियाँ हर ओर दिखाई देती थीं। सेमल के पत्तों और फूलों से पटी हुई थीं कॉलोनी की सड़कें। शहर में है यह फिल्मों का मौसम। उसे जाने कहाँ से फिल्मों का यह चस्का लग गया था। शहर में होने वाले किसी भी स्क्रीनिंग को वह मिस नहीं करना चाहती थी। फिल्में जैसे उसके बौद्धिक और कलात्मक जीवन के लिए खाद पानी थे। शहर में यही प्यार का मौसम भी था। सर्दी का भारीपन उतरता था और मन में एक हलकापन भर जाता था। सड़क पत्तों से पट जाते थे और हर ओर फूल ही फूल दिखाई देते।


मद्धम धूप खिड़की से उतर कर मेट्रो के फर्श पर लोट रही थी। राशि अपने फोन की फोटो गैलरी में गोते लगाने जा रही थी। उसकी नज़र एक तस्वीर पर ठहर गई। इस तस्वीर में राशि और अनंत कनॉट प्लेस में एक ग्रैफ़िटी के सामने खड़े थे और एक-दूसरे की ओर देखते हुए हंस रहे थे। सु को अगर पता चलेगा यह तस्वीर अब भी उसके फ़ोन में है तो वह इसे डिलीट करने को कहेगी। मैं इसे डिलीट नहीं करना चाहती। कैसी तो याद है यह तस्वीर। एक उदासी की। एक त्रासदी की। जिस दिन यह तस्वीर ली गई थी, इसे राशि ने इसे अपने व्हाट्सएप स्टेटस पर लगाया था। राशि की माँ ने तस्वीर पर जवाब देते हुए पूछा था कि क्या तस्वीर में जो लड़का है वह ग्रैफिटी बनाता है? उसने हँसते हुए जवाब दिया था, 'नहीं, हम दोनों दूसरों की बनायी हुई तस्वीर के आगे खड़े होते हैं।' इसी फरवरी के महीने की बात है। आप कह सकते हैं कि उन्होंने एक-दूसरे को प्यार किया था। वह खुद को पाइरेट कहता था। उसका शौक़ था लिबजेन से किताबें और टॉरेंट से फ़िल्में और संगीत डाउनलोड कर के हार्ड ड्राइव में इकट्ठी करके रखने का। उसके पास हजारों फ़िल्में और किताबें थीं। जब उससे यह पूछते कि क्लाउड के जमाने में यह हार्ड ड्राइव में इतना सब कुछ क्यों इकट्ठा कर रहा है तो वह कहता कि इन्हें यह उन दिनों के लिए जमा कर रहा है जब क्लाउड आम आदमी की पहुँच से बाहर हो जाएगा या कोई ब्लैकआउट आयेगा या अधिनायकवादी शक्तियाँ इतनी दमनकारी हो जायेंगी कि उनकी अनुमति के बिना किताबें फ़िल्में देखना पढ़ना मुश्किल हो जाएगा। वह राशि से प्यार करता था। इतना तो वह जानती ही थी। लेकिन वह ना जाने किस सेंस ऑफ अर्जेंसी में रहता था, मानों हर पल उन दिनों की तैयारी में लगा रहता था जब देश के अधिनायक पुस्तकालयों, विश्वविद्यालयों, संस्कृतिकर्मियों और सड़कों पर नुक्कड़ नाटक तक को हड़प लेने वाले थे। उसके भीतर एक अजब बेचैनी और जुनून था।


राशि ने अपना सिर झटका और मन ही मन बुदबुदाया 'नहीं, नहीं, मैं अब अनन्त से प्यार नहीं करती'। मुझे सुकृति के साथ अपने रिश्ते को बेहतर बनाने पर ध्यान देना चाहिए और जरूरत पड़ने पर थाने जा कर अपना रिश्ता रजिस्टर करना चाहिए। उसे यह विश्वास दिलाना चाहिए कि मैं उसके साथ हूँ। इस दुर्दिन में हमें साथ रहना होगा। किसी पुरुष को अपना समझने की गलती नहीं करनी। प्यार एक स्विच बटन की तरह था जो ऑफ कर देने पर खत्म हो जाता था और ऑन करने पर पेट में तितलियों उमड़ने लगती थीं।


विचारों के मकड़जाल में भटकते राशि, अनंत के लेटरबॉक्स्ड प्रोफाइल को देखने लगी। वह जो भी फिल्म लॉग करता था, उसकी लंबी-लंबी समीक्षाएँ लिखता। उसका अपना एक टेलीग्राम चैनल था जिस पर वह दुर्लभ फ़िल्में अपलोड करता रहता था। राशि उसके टेलीग्राम चैनल से फिल्में भी डाउनलोड करती रहती थी। अगर सुकृति को भनक भी लगे कि राशि ने अनंत की लेटरबॉक्स्ड और टेलीग्राम प्रोफाइल पर इतना समय जाया किया है तो उसकी असुरक्षा और बढ़ जाती। राशि ने अपना फोन स्क्रीन लॉक किया और गहरी उसाँस भरी। ईर्ष्या एक अच्छे गुप्तचर का काम करती है लेकिन यह गुप्तचर इतना न्यूरॉटिक होता है कि सामने दिखते सच को भी जटिल बना कर रद्द कर देता है। सोशल मीडिया हर आदमी को किसी ना किसी तरह से एक गुप्तचर बनने की भूमिका के लिए थोड़ी बहुत जगह तो दे ही देता है।


जब वह घर पहुंची तो सुकृति किचन में कुछ बना रही थी। राशि घर वापस आ कर चुपके से कमरे में बिस्तर पर लेट गई। अनंत उसके दिमाग से जा नहीं रहा था। बार-बार उसे यह लगता रहा कि रुक कर अनंत से बात करनी चाहिए थी। वह एक कायर की तरह वहाँ से क्यों भागी। उसके मन में पुरानी यादें रील की तरह चलने लगीं थीं। अनंत से बात करना सुकृति के साथ धोखा नहीं है। वह अनंत से अब प्यार तो करती नहीं बल्कि अनंत भी अब किसी लड़की के साथ रिश्ते में है, ऐसा उसने दूसरे दोस्तों से सुना भी था। फिर वह क्यों डरती है? क्या यह डर उसके भीतर छिपे चोर मन से आता है? यह डरती है क्योंकि शायद यह सच हो। दिल के कहीं एक कोने में अनंत के लिए नर्म-खयाली तो नहीं? हम किसी रबर से अतीत के पन्ने मिटा तो नहीं सकते जिनसे अब बचना चाहते हों। कितनी बार अतीत बिना बताए लौट आता है। कई बार खुशियाँ देता है तो कई बार हाथ पकड़‌ कर यातनाओं की अंधी गलियों में छोड़ देता है। जो भी हो उसे इस तरह से भागना नहीं चाहिए। उसका बस चले तो वह समय को पलट दे और वापस वाटर कूलर पर जा कर अनंत से से बातचीत करे। घर आ कर भी वह जाने-अनजाने अनंत के लेटरबॉक्स्ड प्रोफाइल में भटकती रही। उसे कोई होश नहीं था। बस भटकती रही एक फिल्म से दूसरी फिल्म तक। बर्गमैन और ब्रेसां से ले कर ताइवानी ईरानी न्यू वेव फ़िल्मों तक। इनमें से कितनी ही फिल्में उसे अनंत ने दिखाई थीं। वह पाइरेट था। पाइरेट के पास कई हार्ड ड्राइव इन पाइरेटेड कलाकृतियों से भरे हुए थे। पाइरेसी के मार्फत एक सर्वहारा आन्दोलन उनका साझा सपना था। इस सपने में प्यार था और बेहतर दुनिया बनाने में भागीदारी की एक दृष्टि थी। उनका सपना एक पल की मासूमियत का विस्तार था।


बीता सब कुछ मानो फिर से घटित होने लगा। बेचैनी भी। दुहरा अपराध-बोध। रह रह कर यह ख्याल आता कि शायद उसे आज की बात सुकृति को बता देनी चाहिए ताकि उसके मन के भीतर का चोर तो कम से कम खत्म हो जाये। लेकिन सुकृति से यह बात साझा करना आसान नहीं था। बातें साझा करने से साझी हो जातीं तो क्या बात होती। हम संवाद की तलाश में भटकते रहते हैं- कितना ही शोर और पदबंध खर्च करते हैं। लेकिन समझे जाने की संभावना? उसने कितने ही खत लिखे, कितने टेक्स्ट मैसेज, ई मेल्स लिखे अपनी बात कहने के लिए। माँ बाप से ले कर दोस्तों और पूर्व प्रेमियों तक को। कभी-कभी लगता वो सब कुछ किसी शून्य में बिला गया। कहीं से एक ऐसा उत्तर नहीं आया जिसे पढ़ कर उसके दिल को सुकून मिला। हर कही हुई बात अन्य के लिए हमारे खिलाफ नए जाल रचने का आधार तैयार करती है। हम बोलते हैं और अपने खिलाफ एक षड्यंत्र रच लेते हैं। हमारी बातों को लोक कर हम पर पलट कर मारने के लिए ना सिर्फ हमारे प्रियजन बल्कि सरकार भी हर पल तत्पर है।





कुछ देर में सुकृति कमरे में आई तो उसने देखा कि कमरा पूरा अस्त-व्यस्त था। बिस्तर पर ट्रॉली बैग खुला पड़ा था और दूसरी तरफ राशि लेटे हुए ना जाने किन सपनों में खोयी थी। स्टडी टेबल पर कपड़े और कई उलझे सुलझे तार बिखरे थे। अलमारियों के दरवाजे खुले हुए थे। फर्श पर कहीं चावल के दाने गिरे थे तो कहीं दाल के धब्बे लगे थे। चलते हुए पंखे से जालों के बड़े-बड़े लोथड़े नीचे गिर रहे थे। प्रेस का प्लग स्विच में लगा हुआ था। हर तरफ बेतरतीबी। बेतरतीबी थी और बर्दाश्त नहीं। उसने दोनों हाथों से अपने बालों को नोचा। गुस्से से तमतमाते हुए उसने बुकशेल्फ से किताबें गिरानी शुरू की। फिर अलमारियों से कपड़े और डोलचियाँ गिरा दी और चीख पड़ी। उसने देखा कि एक ईयरफोन स्टडी टेबल के पायदान से दबा हुआ है। एक तो ओसीडी, ऊपर से ये बेतरतीबी। उसे समझ नहीं आ रहा था वह कहाँ से शुरू करे। यह उनके बीच सबसे गंभीर मसला था। सुकृति के लिए सब कुछ एक पैटर्न में होना चाहिए। घर के सारे सामान। यह रोज अपना कितना समय सिर्फ पैटर्न बनाये रखने में जाया करती थी। उसे इसका एहसास नहीं होता। ये उसके लिए जीने-मरने जैसा सवाल था। पैटर्न से थोड़ा भी विचलन हो तो उसका दिमाग काम करना बंद कर देता। वह या तो फिर से पैटर्न को संवारने में लग जाती या पस्त हो कर निढाल पड़ जाती। उसके मन में एक दबी छिपी इच्छा यह भी होती कि राशि घर को एक पैटर्न में बनाए रखने में मदद करे। लेकिन राशि के लिए ये कोई मसला ही नहीं था। सुकृति ने सबसे पहले ट्रॉली बैग को संजो कर बिस्तर से हटाया और कबर्ड के हवाले किया। बिस्तर को झाड़-पोंछ कर सही किया। स्टडी टेबल को करीने से सजा कर उसने सारे तार सुलझाये। लेकिन पूरा कमरा सही करने से पहले ही थक गई और बिस्तर पर गिर पड़ी। उसे अपने नस-नस में दर्द महसूस हो रहा था और यह भी लगता कि कल रात की उनकी बातचीत अधूरी रह गई है। मानो राशि इस मसले पर बात ही नहीं करना चाहती हो।


'राशि'.. उसने फुसफुसा कर कहा।


'हम्म'


'जाने क्यों मुझे लगता है तू हमारी समस्याओं को गंभीरता से नहीं ले रही। हमने अब तक इस मसले पर ढंग से बात नहीं की। वी नीड टू फिगर आउट।'


'सू! फिगर आउट करने के लिए कुछ नहीं है। अगर यह नया विधेयक सुप्रीम कोर्ट से रद्द नहीं होता तो हम जा कर अपने रिश्ते को रजिस्टर करेंगे। मुझे इस बारे में कोई संदेह या संकोच नहीं है। लेट्स सी हाउ थिंग्स टर्न आउट बेब!'


'डॉट बेब मी! मैं इनसिक्योर महसूस कर रही हूँ।'


'बी विल फिगर आउटा'


'आई डॉट नो व्हेन विल यू फिगर आउट! फिगर आउट शब्द से तेरी बेपरवाही ध्वनित होती है। तू समझती नहीं मैं कैसा महसूस कर रही हूँ। मैं कोई काम नहीं कर पा रही। चौबीस घंटे ये दुःस्वप्न मेरा पीछा करता रहता है। मुझे लगता है जैसे मैं कोई अपराधी हूँ।


'मैं समझती हूँ, सू। ऐसा मत बोल कि मैं कुछ समझती नहीं। मैं समझती हूँ कि ये एक मुश्किल स्थिति है। पूरी दुनिया तबाही की कगार पर है।"


'जब मैं तुझसे अपनी या हमारी बात करती हूँ तो तू उसे इतना अमूर्त क्यों कर देती है? हमारी ठोस समस्याओं का सामान्यीकरण क्यों करती है? बहुत-सी छोटी लड़ाइयां हमें लड़नी पड़ती हैं। सिर्फ बड़ी लड़ाइयाँ ही लड़ने के लिए नहीं होतीं।'


"मैं समझ रही हूँ तू किधर बात को घुमाना चाहती है। लेकिन तुम्हें अपने आप से बाहर निकल कर देखना चाहिए।'


'मैं समझ रही हूँ तू बातचीत को किस दिशा में बढ़ाना चाहती है। तुम वोक लोगों के पास दूसरों को नीचा साबित करके सिर्फ अपनी बेहतरी का प्रदर्शन करने के अलावे क्या है।'


'प्लीज सू'!


'क्या प्लीज। तुझे मेरी बात सुननी चाहिये।"


'मैं सुन रही हूँ लेकिन तू बातचीत नहीं कर रही, तोहमतें लगा रही है। जैसे में कोई इंसान नहीं होऊँ, मशीन होऊँ?" कह कर, एक लंबी साँस ले कर राशि उठी और अस्त-व्यस्त कमरे को सही करने लगी। सुकृति बिस्तर पर गोल हो कर उदास लेटी थी। उसने प्रेस हटाया, बुकशेल्फ सही किया। डौलचियों में कपड़ों को तह लगा कर रखा। फिर उन्हें कबर्ड में बंद किया। झाडू  ले कर फिर वह कमरे को साफ करने लगी। उसने कमरे के हर कोने अतरों में झाडू घुसा-घुसा कर सफाई की। फिर यह पोछे लगाने लगी। उसने पूरा घर एकदम साफ चकाचक कर दिया। गीजर ऑन किया और गर्म पानी भर लिया। रात के नौ बज गए होंगे। उसने गर्म पानी से नहा कर थोड़ी राहत महसूस की होगी। लौट कर कमरे में आई तो सुकृति नींद के हवाले हो चुकी थी। उसने कपड़े बदले और बिस्तर पर लेट गई।


देर तक नींद की तलाश करती रही। कभी घुप्प अँधेरे में, कभी फोन स्क्रीन के आयताकार उज्जाले में। उसने अपनी फेक आईडी से अनंत को स्टॉक करना शुरू कर दिया और यादों, उदासी और अपराध-बोध के घने जंगल में भटकने लगी। अचानक से उसे लगने लगा वह बहुत अकेली है। जैसे हम किसी दिन की एक अजीब नींद से उठते हैं; अपनी पहचान और अपने पते तक के बारे में खुद को अनिश्चित पाते हैं। सुकृति की ओर एक नजर डाली। नींद में भी उसके चेहरे पर बेचैनी थी। फिर उसने व्हाट्सएप पर सर्च बॉक्स में अनंत लिखा। बहुत देर तक टेक्स्ट बॉक्स यूँ ही खोल कर लेटी रही। अंत में उसने उसे एक मैसेज लिख दिया।


'अनंत आज इतने दिनों बाद तुम्हें ऐसी जगह पर देखना जहाँ तुमसे मिलने की उम्मीद सबसे कम थी, सुखद आश्चर्य था। मैं पहली नज़र में तुम्हें पहचान नहीं पाई। कितने बरस हो गए हमें मिले हुए? तीन-चार बरस तो हो ही गए हैं। तुम्हें देख कर अच्छा लगा। सॉरी, मैं तुमसे बात नहीं कर पाई। थोड़ी हिचकिचाहट थी और समय भी नहीं था। तुमने मेरे अजीब व्यवहार का बुरा तो नहीं माना ना? कभी-कभी मुझे लगता है मैंने तुम्हारे साथ ठीक नहीं किया। आज तुम्हें देख कर सात साल पुराने इसी मार्च का महीना याद हो आया। ऐसा लगता है मानो किसी ने दिल में छेद कर दिया हो.. आई फील सॉरी अबाउट ए लॉट ऑफ थिंग्सा'


ट्रिंग की एक आवाज हुई होगी अनंत के फोन स्क्रीन पर और वह देखेगा, अरे ये तो राशि है और खटाक से उसे जवाब लिख डालेगा। शायद हमारी आज की छोटी मुलाकात ने हमारे बीच की नासमझियों को पिघला दिया हो। उसके भेजे मैसेज पर दो टिक तो बन चुके थे। मगर बहुत देर तक कोई जवाब नहीं आया।


असल में कई घंटों के इंतजार के बाद भी कोई जवाब नहीं आया। उसे पछतावा होने लगा कि आखिरकार उसने क्या सोच कर अनंत को मैसेज किया। उसने मैसेज डिलीट करने की कोशिश की पर अब वह मैसेज डिलीट नहीं कर सकी। बेचैनी से तड़प उठी। महसूस हो रहा था कि उसने अनंत के सामने खुद को बेवजह अनावृत कर दिया। ऊपर से एक डर यह कि सुकृति को जब पता चलेगा तो? उसका दिमाग चकराने लगा। वह फोन में भटकते हुए पोर्न वेबसाइट तक पहुँच गई। पोर्न के अंधे गलियारों में देर तक भटकती रही। इसलिए नहीं कि उसे कोई राहत मिली। आत्म-श्लाघा। आत्म प्रवंचना। फिर जाने कब उसे नींद आई। नींद में भी घड़ी की टिक-टिक दिल पर ठक-ठक सुनाई दे रही थी और एक छिपकली बड़ी तल्लीनता से दीवार पर कीड़ों की तलाश में सरक रही थी। एक छिपकली के लिए नीचे की दुनिया सीधी होती होगी?


राशि रोज सुबह लालबाग जाती थी। यहाँ फूलों की एक नर्सरी में काम करने वाले मजदूरों के संघर्ष पर यह फिल्म बनाना चाहती थी। दिल्ली की सबसे बड़ी नर्सरी। एक दिन उसने सपना देखा कि नर्सरी में सभी फूल काले रंग में खिल रहे हैं। सभी मजदूरों को नौकरी से निकाल दिया है। नर्सरी में रोबोट अब कामगार हैं। इस ख्याल को वह एक फ़िल्म में डालने की आकांक्षा में पिछले डेढ़ महीने से रोज नर्सरी में आती है। नर्सरी के कामगार बगीचे के एक खामोश कोने में बनी झुग्गियों में रहते थे। उसने बच्चों से दोस्ती की, बच्चों को रोज सुबह दो घंटे की पढ़ाती, उनसे उनके घर के पोल लेती और अपनी फिल्म के लिए नोट्स बनाती। उस दिन उसे घर लौटने में थोड़ी देर हो गई।


मेट्रो से निकल कर जब वो बाहर आई उसे एहसास हुआ कि मेट्रो में अंदर उसे टॉयलेट जाना चाहिए था। तभी ख्याल आया कि बाहर भी शौचालय था। उस दिन वह खुश महसूस कर रही थी। जब तक वह शौचालय से बाहर निकली, झुटपुटे का अँधेरा छा रहा था। सार्वजनिक शौचालय के पीछे एक बड़ी-सी पार्किंग थी जिसमें अनगिनत गाडियाँ झिलमिला रही थीं। शौचालय और पार्किंग के बीच में एक संकरा गलियारा था। इस गलियारे में खड़े हो कर कई पुरुष पेशाब कर रहे थे। अपनी पीठ पर बैकपैक लटकाए मानो वे दीवार को अपने लहू से रंग रहे थे। वह जाने किन ख्यालों में गुम थी और गलियारे की ओर अन्यमनस्क सी ताकती रही। यह अजीब था कि पास में शौचालय है लेकिन कई पुरुष वहाँ जा कर पेशाब करने की जगह गलियारे में खड़े हो कर पेशाब कर रहे थे। अजीब किस्म की बदबू उठ रही थी। उसका मन खिन्न हो गया। तेज कदमों से रैंप से उतर कर मेट्रो की ओर जाने लगी कि उसे एक सीटी की आवाज आई। अनायास ही उसकी नजर आवाज की दिशा में मुड़ गई। एक पुरुष अपनी पेंट की चेन के बीच से अपना शिश्न बाहर निकाल कर उसकी और भद्दे इशारे कर रहा था।


सुन्न। उसके कान सुन्न। उसकी जबान पर ताला और आँखों से रोशनी गायब। एक पल की अजीब खामोशी और उस खामोशी की पृष्ठभूमि में एक अजनबी का शिश्न अँधेरे गलियारे में लहरा था। खुद को झटकते हुए वह इस सन्नाटे से बाहर निकली और चीख पड़ी-


'ओ माय गॉड! ये बंदा मुझ पर फ्लैश कर रहा है।' उसने दोनों हाथों से अपने गालों को कस कर दबाया और चीखने लगी। 


शौचालय के कामगार बाहर आए। गलियारा एकदम खाली था। राशि ने उसे पार्किंग की तरफ दौड़ कर भागते देखा। जब तक वह शौचालय से बाहर आए लोगों को अपना मसला समझाती तब तक वह पार्किंग का दैत्य बन कर गुम हो गया था।


आस पास एक-दो मुसाफिर थे जिन्होंने उसे प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा। वह तेज कदमों से मेट्रो की ओर बढ़ी। मेट्रो प्रवेश द्वार पर खड़े पुलिस से उसने शिकायत की तो उसने दिल्ली पुलिस से शिकायत करने की अर्ज की क्योंकि घटना मेट्रो के बाहर हुई थी। वह दिल्ली पुलिस की तलाश में मेट्रो से बाहर आई। पास में एक रेड़ी पर एक पुलिस वाला चाय पी रहा था। उसने पुलिस के पास जा कर उससे अपनी रामकहानी शुरू की थी कि वो घुड़क पड़ा।


'देख ना री चा पी रहा हूँ? थम जा तने!"


वो थम गई। एक पल के लिए यूँ लगा मानो दुनिया थम गई हो। इन सबसे बेपरवाह पुलिस वाला रेड़ी वाले के साथ हँसी ठट्ठे कर रहा था और उसकी चाय तो यूँ थी मानो उसमें गूलर के फूल पड़े थे जो खत्म होने का नाम नहीं लेते। देखते-देखते दस मिनट गुजर गए। चिढ़ कर उसने पुलिस वाले को सॉरी बोला और वहाँ से निकल गई। धीरे-धीरे कदमों से वो मेट्रो की सीढ़ियाँ उतरने लगी। इतनी भी रात नहीं थी कि ऐसी घटना होने की कोई आशंका उसे हुई होती। एएफसी गेट से गुजरते, प्लेटफार्म तक पहुँचते, उसे ऐसा लग रहा था मानो उसे अपनी ही कोई खबर नहीं। उसका दिमाग सुन्न हो रहा था। मेट्रो आई। मेट्रो में बैठ कर वह अपने नोट्स फाड़ते हुए सिसक-सिसक कर रोने लगी। नहीं मालूम कि रोते-रोते जगी आँखों में एक सपने जैसा चलने लगा या वह किसी पोर्टल से दूसरी दुनिया में दाखिल हो गई थी। सामने एक खाली पड़ोस है, नॉनसेंस यथार्थ, अब्सर्ड, अव्यवस्थित संबंधों और विश्व क्रम के टूटे-फूटे, आधे-अधूरे दृश्य। यहाँ पागल सबसे अधिक सभ्य हैं। सभ्य सबसे अधिक कुटिल। हम जिसकी तलाश करते हैं, यह अनंत, अतल में बिलाता जाता है। हम जितना उसके पीछे दौड़ते हैं उतना ही वह कोई दैत्य बन कर हमारे पीछे हो लेता है। भागो, यह देखो, एक दैत्य मेरा पीछा कर रहा है और मैं पार्क की कंटीली तारों के पास आ कर एक छोटा-सा फूल देख कर उसके पास रुक जाती हूँ और पीछे मुड़ कर देखती हूँ। देखती हूँ.. तो दैत्य गायब। एक छोटे से फूल से विशालकाय दैत्य तक हर जाता है। फूल उससे कहता है स्वर्ग में सब सकुशल है। वे सभी स्वर्ग की तलाश में निकले हैं इसलिए उसने अपना रास्ता बदल दिया। वे पूछते हैं, तुम किसकी तलाश में हो और वह खुद से पूछती है तुम किसकी तलाश में हो और तलाश पूछता है तुम किसकी तलाश में हो...।


यूँ वह भटकती रहती है। वह एक अँधेरे कमरे में खड़ी है। कमरे की नीची छतों से लटका हुआ एक फिलामेंट बल्ब जिसकी फीकी रोशनी में वह कुछ ढूंढ रही है। बगल में एक और छोटा कमरा है जिस पर लिखा है 'एडिटिंग रूम', अंदर एक फ़िल्मकार अपनी नई फिल्म की लेटरबॉक्सिंग कर रहा है। बल्ब की रोशनी में वह पढ़ती है अपने लिखे पर्चे। पर्चे जिनके बारे में पुलिस को खबर है एक क्रांतिकारी दस्तावेज होने का। ड्योढ़ी पर खड़े वे उसका इंतजार करते हैं लेकिन उस पर्चे में हैं उसकी अधूरी कविताएँ, फिल्मों के विचार और नोट्स जिन्हें पढ़ कर वह अहक-अहक कर रोती है। वे पागलों की तरह गोलियों की बौछार शुरू कर देते हैं और वह भागती है, और और तेज दौड़ती है, अपनी कायरता से चिढ़ती हूँ और गिर जाती हूँ एक ट्यूब में। उसके साथ ही साथ एक अराजक शोर ट्यूब में सरकता जाता है।


यह साढ़े दस तक पर पहुंची और पहुंचते ही उसने सुकृति से अपने साथ हुई बदसलूकी साझा कर के फफक कर रोने लगी। सु. मैं पुरुषों के सानिध्य भर से उनसे प्रताड़ित महसूस करती हूँ। जाने क्यूँ। समझ नहीं आता, भले ही वे मुझसे बुरा व्यवहार ना कर रहे हों। यही वजह है मैंने अनंत को डिच कर दिया। हम एक औरत होने की यातना झेल रहे हैं।


'हम सभी अलग-अलग औरतें नहीं हैं, राशि। हम सभी एक-दूसरे की यातनाओं को झेल रहे हैं।'


राशि ने सुकृति की पीठ पर अपना सिर गड़ा दिया और फफक कर रोने लगी।



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)



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