विजय कुमार तिवारी की कहानी 'मशाल'

 

विजय कुमार तिवारी


दुनिया के सभी मनुष्यों में तमाम प्रतिभा और संभावनाएं छिपी होती है। जरूरत होती है बस उस प्रतिभा या संभावना को पहचानने की। एक न्यूटन आता है और धरती के गुरूत्वाकर्षण के बारे में बता कर लोगों की अवधारणाओं को उलट पलट देता है। एक गैलीलियो आता है और अपनी दूरबीन से अंतरिक्ष के लिए संभावनाओं की खिड़की को खोल देता है। एक जेम्स वाट आता है और भाप के चमत्कारिक शक्ति की खोज कर दुनिया का रुख औद्योगीकरण की तरफ मोड़ देता है। प्रश्नाकुलता ने ही मनुष्य को आज सबसे बुद्धिमान प्राणी बना दिया है। कभी कभी ऐसा भी होता है कि हम खुद को पहचान नहीं पाते। कोई प्रेरणा देने वाला जामवन्त आता है और तब हनुमान को अपनी शक्ति का अहसास होता है। विजय कुमार तिवारी ने इधर अपने आलेखों और समीक्षाओं के जरिए हिन्दी संसार का ध्यान अपनी तरफ आकृष्ट किया है। उन्होंने कहानी और उपन्यास विधा में भी हाथ आजमाए हैं। अपनी कहानी मशाल में वे लिखते हैं - मैं तुमसे कुछ पूछना चाहता हूँ। उत्तर देना मेरे भाई, "क्या तुम अपने भीतर कुछ मरता हुआ नहीं महसूस करते या कभी-कभी तुम अपनी हत्या स्वयं नहीं करते? संसार में घट रही अमानवीय घटनाओं के विरूद्ध जागते भीतरी आक्रोश को क्या स्वयं नहीं दबा देते? या अनिच्छापूर्वक सहन नहीं करते हो?"

तुम चुप हो गये न? आँखें बोझिल होने लगी हैं? कुछ याद करना चाहते हो? खोज रहे हो ना स्वयं में स्वयं को?

लेकिन कह नहीं सकते। नकारना तुमने सीखा ही नहीं और सच बोल नहीं सकते। उत्तर दोगे भी तो क्या...?

दुष्यन्त कुमार लिखते हैं : "मेरे सीने में नहीं, तेरे सीने में सही/ हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।" विजय कुमार तिवारी लिखते हैं : 'भीतर में एक आग है, एक जलती हुई मशाल। इसकी लौ में ही दुनिया का सृजन छिपा हुआ है। इसे हमेशा प्रज्वलित रखना, कभी बुझने मत देना।' लेखक का उद्देश्य यही होता है । वह मनुष्य के अन्दर छिपे इसी आग को बाहर लाने के उद्देश्य से ही रचना की तरफ उन्मुख होता है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं विजय कुमार तिवारी की कहानी 'मशाल'।



कहानी  


'मशाल'


विजय कुमार तिवारी


मुझे उनकी यह हरकत बिल्कुल पसन्द नहीं। नहीं चाहता कि कुछ भी अशोभनीय हो या ऐसा कुछ घटित हो कि विहड़ता, विरानगी का रुप सामने आये। तुम! तुम क्या कर लोगे उनका? उनकी ओर देखने की हिम्मत कभी हुई है तुम्हारी? कभी भी स्वयं को उठा सके हो? कभी भी देख सके हो उनकी आँखों में? टुकुर-टुकुर क्या देख रहे हो? जाओ, पानी में अपना चेहरा देखो। ये बड़े-बड़े बाल, मरियल से चेहरे पर उगी हुई बेतरतीब घास। झाड़-झंखाड़ कटवा दो मेरे मिट्टी के शेर। शायद सुन्दर लगने लगोगे। कभी देखा है-आईना? डरते रहे हो ना? जानता हूँ मैं, क्यों? क्योंकि वे लोग तुम पर हँस न दें। मगर यह सब तुम्हारा वहम है या तुम्हारी कमजोरी।


ऐसा भी क्या? देखने में तुम्हारा मासूम सा चेहरा, इन उपरी बालों से, बेतरतीब दाढ़ी की घासों से थोड़े ही भयानक हो जायेगा? समाज की ओर से तुम्हें ऐसी उम्मीद छोड़ देनी चाहिए। समाज की आँखें बहुत तेज होती हैं। उनसे सच्चाई छिप नहीं सकती।


तुम्हें मैं क्या कहूँ? थोड़ी सी चिन्ता, थोड़ी सी उम्मीद और थोड़ा सा आक्रोश आता है तुम्हारे उपर। आखिर तुमने ऐसा क्यों सोचा? लेकिन नहीं... तुम सोच भी क्या सकते हो?


तुम यह क्यों नहीं सोचते कि........ खैर छोड़ो।


तुम मेरे दोस्त हो। तुम... तुम मेरे हो.... बस। तभी तो मैं तुम्हें चाहता हूँ।  तुम्हें स्नेह करता हूँ, तुम्हें प्यार करता हूँ।  तुम्हारे प्रति सहानुभूति पैदा हुई है मेरे मन में।


जानते हो-कौन सी चीज तुम्हारे भीतर है जो मुझे अच्छी लगती है--तुम्हारा भोलापन। तुम बहुत भोले हो, बिल्कुल नादान। दुनिया को अपनी तरह समझते हो, अपनी नजर से देखते हो। यह दुनिया तुम्हें बड़ी अच्छी लगती है, यहाँ के लोग, उनके सम्बन्ध और दृश्य सब  कुछ।


बस यहीं, यहीं मैं तुमसे भिन्न हो जाता हूँ, अलग हो जाता हूँ। मुझे भी यह दुनिया अच्छी लगती है, लेकिन वैसे नहीं, जैसे तुम समझते हो। मुझे पता है कि तुम भी मुझे पसंद करते हो। किन कारणों से?  यह तुम्हीं जानते हो।


कितना अंतर है-तुम में और मुझ में.....?


बहुत या शायद कुछ भी नहीं... खैर छोड़ो।  मैं तुमसे कुछ पूछना चाहता हूँ। उत्तर देना मेरे भाई, "क्या तुम अपने भीतर कुछ मरता हुआ नहीं महसूस करते या कभी-कभी तुम अपनी हत्या स्वयं नहीं करते? संसार में घट रही अमानवीय घटनाओं के विरूद्ध जागते भीतरी आक्रोश को क्या स्वयं नहीं दबा देते? या अनिच्छापूर्वक सहन नहीं करते हो?"


तुम चुप हो गये न? आँखें बोझिल होने लगी हैं? कुछ याद करना चाहते हो? खोज रहे हो ना स्वयं में स्वयं को?


लेकिन कह नहीं सकते। नकारना तुमने सीखा ही नहीं और सच बोल नहीं सकते। उत्तर दोगे भी तो क्या...?


बस यही प्रक्रिया है और उन्होंने तुम्हें हथिया लिया है। तुम अकेले नहीं हो उनकी गिरफ्त में। तुम्हारी तरह लाखों, करोडों लोग हैं। तुम पर वो अपना आधिपत्य जताते हैं। तुम्हीं उनकी प्रजा हो जिस पर वे शासन करते हैं। तुम्हारे लिए उन्होंने धर्म बनाये हैं, कानून बनाये हैं। दुख तो यह है कि तुम्हारे ही भीतर के लोग उनके सिपाही और न्यायाधीश हैं, पहरेदार और जासूस हैं।  उनके लिए धन की व्यवस्था तुम्हीं करते हो और तमाम सुखों के स्रोत तुम्हीं हो। कभी तुम्हें गाँवों में बाँटा जाता है, कभी समाजों में बाँटा जाता है। राज्यों और देश की सीमायें भी तुम्हारे ही लिए हैं।


तुम्हारी रगों को वे बहुत अच्छी तरह पहचानते हैं। उन्हें पता है तुम्हारी किस भावना को कब उबलने देना है और किस उबाल को कब पानी डाल बुझा देना है। जिस दिन तुम उनके लिए उपयोगी नहीं रहोगे, तुम्हें सदा के लिए हटा दिया जाता है। जान बच भी गयी तो भी तुम किसी लायक नहीं रहते।


कुत्ता क्या उम्मीद करता है अपने मालिक से, जानते हो? बस थोड़ा सा भोजन, एक-आध रोटी या एक मांस का टुकड़ा। मालिक क्या चाहता है? उसकी पूरी मानसिकता। मुझे किसी के भी भीतर का यह कुत्तापन पसंद नहीं। मानसिक तौर पर स्वछन्द हूँ मैं। ध्यान से स्वयं को देखो, तुम भी वही हो।





भीतर में एक आग है, एक जलती हुई मशाल। इसकी लौ में ही दुनिया का सृजन छिपा हुआ है। इसे हमेशा प्रज्वलित रखना, कभी बुझने मत देना।


मैं भी तुम्हारी ही तरह था, शायद तुमसे भी भोला या नादान। दुनिया की कुटिलता का शिकार होना भी मुझे सह्य था। समझता था- मेरी शायद यही नियति है, सह लेता था, सुन लेता था। मुझे अपना वह समय याद है जब मैं कुछ भी नहीं था।  मगर मैं हारा नहीं, रुका नहीं। चल पड़ा-स्व की खोज में, अपनी ही नियति पहचानने।


अरे तुम सोने लगे.. यह सब पसंद नहीं क्या? लगता है तुम्हारे भीतर की सारी आग राख हो गयी है। भीतरी सब कुछ दुनिया की दृष्टियों को नापने, समझने में खपा दिये हो। दूसरों की नजरों को देखते रहे हो। तुमने दूसरों को प्रसन्न रखने का प्रयास किया है। कितने प्रसन्न हुए?


कुछ सोचने लगे ना? देख लो अपने को। पहचानो।


"मैं प्रसन्न नहीं हूँ," तुम कह रहे हो। सही कह रहे हो ना या मुझे ठगना चाह रहे हो? जरा सामने देखो। तुम्हें देख तो लूँ। जी भर कर देख लेने दो मुझे, शायद राख के नीचे कोई चिनगारी शेष हो, कुलबुला रही हो।


"कुछ नहीं होगा। होगा वही, जिसको साथ ले कर मैं पैदा हुआ हूँ और वह है एक बुझी सी आग, "ऐसा कहते हुए लग रहा है तुम्हारी आवाज बिल्कुल बेदम है। तुम बहुत थके लग रहे हो। अभी तो लम्बी चढ़ाई बाकी है। खाना-पीना और सो जाना ही जीवन नहीं है।


तुम पूछ रहे हो, "आखिर क्या चाहते हो मुझसे?


"यही कि पहचान लो-तुम कौन हो, क्या हो और क्या हो गये हो?"


मेरे रुपान्तरण की कहानी सुनो।


मैं पड़ा हुआ था, अपनी उस झोपड़ी में जिसका निर्माण मैंने अपने ही हाथों किया था। पहला घर जल चुका था। उस घर की छत मुझे बचा नहीं पा रही थी- अंधड़ से, तूफान से। ये बवंडर मुझे हमेशा ही डराते रहे और मैं भय खाता रहा। शायद यही कारण है कि मेरा शोषण होता रहा। दरिंदे मुझे नोचते रहे और मैं देखता रहा।


पीड़ा असह्य थी और सम्पूर्ण संसार पीड़ित था। हर रात गलियों में भेड़ियो का शोर उभरता था, हिंसक लोगों की दहाड़ होती थी। लोगों को अपने घरों में सहमते, सिमटते देख कर दुख होता था। कोई नहीं था जो खड़ा हो सके और उनका विरोध कर सके। आदमी इतना दुर्बल और लाचार कैसे हो सकता है? उसकी चेतना मरी हुई क्यों है?


एक दिन भयानक बरसात हुई। तूफान जोरों पर था और मैं अपने घर में। छत से पानी टपकने लगा था। बर्फीली हवा की कड़ाके की सर्दी भीतर तक व्याप्त होती गयी। भीतर कुछ ठिठुर रहा था, पूरे शरीर में कम्पन थी और मैं दर्शक की भाँति देख रहा था। धीरे-धीरे वह मर गया। वह यानी मैं जो दुखी, आक्रान्त और हारा हुआ था और मैंने जन्म लिया। मैंने यानी जो आज तुम्हारे सामने खड़ा हूँ।


मुझे उस टपकते हुए घर में पड़े रहने की अपेक्षा बाहर की भीषण बरसात अच्छी लगी। दौड़ पड़ा बाहर की ओर। मेरे भीतर का साहस जाग गया था और मैं रोमांचित था। मैं दहाड़ना चाहता था और ललकारना भी। किंचित उमंग के साथ भीतर का संगीत उभरा और सुनाई पड़ा ब्रह्माण्ड का अनहद नाद। लगा, मैं ऊपर उठ रहा  हूँ, ऊपर, और ऊपर। इतना उपर कि बादल मेरे नीचे थे और सारे अंधड-तूफान भी। मैं देख रहा था, लोग भीग रहे हैं, कांप रहे हैं।


मैं जाग गया था परन्तु देखा कि लोग बिलख रहे है, तड़प रहे हैं। मेरी चेतना मुझे झकझोर रही थी- इनका दुख कैसे दूर होगा?


चल पड़ा-खोज में। संसार के हर पन्ने को देखने और पढ़ने। देखा-शराब की बोतलें और मेज के चारों ओर खूख्वार-पशु। उनके जबड़े भिंचे हुए थे, उनके मुँह से टपक रहा था-मानव-रक्त और गूँज रहा था उनका अट्टहास। मानवता चीत्कार रही थी। दूसरी ओर विशाल मशीनें, हथियार और उन्हें छोड़ने के लिए तत्पर हजारों राक्षसी हाथ। सामने थी पूरी मानव-जाति तड़पती हुई, कराहती और आर्तनाद करती। अपंग बच्चे, बिलखती नारियाँ और टूटे हुए पुरुष।


मेरे हाथ में यह मशाल है- स्वतन्त्रता की मशाल, स्वयं के अस्तित्व की मशाल और सम्पूर्ण मानव-जाति की चेतना की मशाल। क्या देख रहे हो घूर-घूर कर? सड़क के बीच में मैं क्यों खड़ा हूँ?


यह सड़क है, एक रास्ता-लोगों के आने-जाने का मार्ग। तुम्हारे जैसे लाखों-करोड़ों लोग आय़ेंगे-जायेंगे। अपनी सड़क कितने लोगो ने बनायी है? सब दूसरों की बनायी सड़क पर चलते हैं।  कभी सोचा है- कहाँ जाओगे? समझ लो, वहीं जाओगे, जहाँ उनकी सड़क जायेगी, जहाँ वे तुम्हें ले जाना चाहेंगे।


तुम्हें आश्चर्य हो रहा है न कि मैं क्या कह रहा हूँ? यही सत्य है भाई। मैं तुम्हें जगाना चाहता हूँ- सोये मत रहो, जागो और सजग रहो। सुविधाभोगी मत बनो, संघर्ष करो। लोभ, लालच, ईर्ष्या-द्वेष सबको मर जाने दो। देखना- तुम्हारे भीतर एक नयी चीज पैदा हो जायेगी। उसे सहेज लेना क्योंकि वह बहुमूल्य होगी। उसकी रोशनी में तुम्हें सत्य दिखाई देगा, उज्ज्वल भविष्य और किलकती-बिहँसती मानवता।


मैंने तुम्हें दोस्त कहा है क्योंकि आज तुम भी प्रक्रियाओं से गुजर रहे हो। संसार में सब कुछ प्रक्रियाबद्ध और सुव्यवस्थित है। जल्दी आगे बढ़ो और थाम लो यह मशाल।



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)



सम्पर्क 


विजय कुमार तिवारी


टाटा अरियाना हाऊसिंग, टावर-4 फ्लैट-1002

पोस्ट-महालक्ष्मी विहार-751029

भुवनेश्वर, ऑडिशा, भारत


मोबाइल - 9102939190 


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