गोविन्द निषाद की कहानी 'रहना नहिं देस बिराना है'
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गोविन्द निषाद |
कहानी
'रहना नहिं देस बिराना है'
गोविन्द निषाद
रात का तीसरा पहर समाप्त होने को है। चारों तरफ़ निचंट सन्नाटा पसरा हुआ है। झींगुर भी चिहचिहाते हुए थक गये हैं। दूसरे पहर तक भूकने वाले कुत्ते और हुआने वाले सियार भी अपनी जगहों पर चित लेटे हैं। केवल टिटिहरी अपने अंडों की खोज में बोले जा रही है। नीम के पेड़ पर कोयल तेज आवाज में कूक रही है। दूर कहीं किसी गांव से रामचरितमानस पाठ की मद्धिम सी आवाज आ रही है। सड़क पर एक ट्रेक्टर धड़धड़ाता हुआ चला जा रहा है। इस पहर आदमी की नींद अटूट होती है—घोड़े बेच कर सोने जैसी। लेकिन वही आज की रात दोनों की आंखों से नींद ग़ायब है। यहीं सबसे मुफीद समय है दोनों के लिए घर छोड़ने का। सब सामान पहले से ही तैयार है। जितना भी सामान वह ले जा सकते थे उन्हें एक बोरे में भर लिया। अब बस ताला लगा कर निकलना है। गोपाल ने निकलने से पहले एक बार मुआयना करना जरूरी समझा कि कहीं कोई देख तो नहीं रहा है। जब उसने देखा कि कहीं कोई खतरा नहीं है—तब दोनों बाहर निकले। मुन्नी घर पर ताला लगाती है। ताला लगाते हुए उसे लगता है कि अपने जीवन के सबसे खूबसूरत दिनों को इस घर में कैद कर रही है। मुख्य सड़क गांव से तीन किलोमीटर दूर है। वहां तक उन्हें पैदल ही जाना होगा। वह सामान पीठ पर लाद कर बाहर सड़क पर आ गए। कोई उन्हें देख तो नहीं रहा है। इस आशंका में उनकी धड़कने बढ़ी हुईं हैं। वह चुपचाप सधे कदमों से ऐसे चल रहे हैं कि एक पत्ता भी खड़कता तो उनके रोंगटे खड़े हो जाते। धीरे-धीरे वह गांव की चौहद्दी पर आ गए। यहां से गांव छूटने वाला है। दोनों बहुत भावुक हो गए। गोपाल को रोना आ गया लेकिन उसने आंसुओं को छिपा रखा है। मर्दों का रोना आज भी वर्जित है। मुन्नी को तो इस गांव में आए बस साल भर ही हुआ है। जब गोपाल उसे बताता है कि वह गांव की सीमा पर है। यहां से हम अपना गांव पूरी तरह छोड़ चुके होंगे तो वह भी भावुक हो गईं। इतनी कि उसके आंसू गालों पर बहने को हो आए। उन पेड़ों को दोनों ने जी भर कर देखा जो गांव की सीमा पर स्वागत द्वार की तरह खड़े थे। यहीं ढीह बाबा और काली माई का चौरा भी है। दोनों ने उन्हें प्रणाम किया। वहां कुछ देर खड़े हो कर अपने पुरखों और कुलदेवता को याद करते रहे। गोपाल दूर फ़ैले सिवान और उन जगहों को स्मृतियों में कैद कर लेना चाहता था, जहां कभी उसने अटखेलियां करते हुए अपने बचपन के सबसे खुशनुमा पलों को जिया था। एक पल को गोपाल को महसूस हुआ कि अब अगर उसने गांव से नजरें नहीं फेरी तो वह सभी वर्जनाओं को तोड़ते हुए फफक कर रो पड़ेगा। उन्होंने अपना मुंह गांव के विपरीत फेरा और चल दिए। मुन्नी की भी जिंदगी पिछले एक साल में कितनी बदल गई थी। जैसे-जैसे उसके पांव सड़क पर पड़ रहे थे उसे एक-एक करके सब याद आ रहा है कि कैसे वह एक हंसमुख और चंचल लड़की से एक भगोड़े में बदल चुकी थी।
क्या ही उम्र थी उसकी. यही कोई सत्रह साल. कुछ ही महीनों में वह मताधिकारिणी होने वाली थी। अभी उसने इंटरमीडिएट ही पास किया था। उसकी इच्छा थी कि वह और पढ़े लेकिन उसकी स्वछंदता परिवार वालों को रास नहीं आ रही थी। वह हमेशा उसे ले कर चिंतित रहते कि वह और लड़कियों की तरह क्यूं नहीं रहती है। घर वाले बचपन से उसे रहने का ढंग सिखाते रहे। वह थी कि अपनी धुन में मस्त। कोई उसे सिखाए— यह बात उसे कभी समझ नहीं आई। वह अपनी शर्तों पर जीवन जीने वाली लड़की थी। उसने लड़कियों के लिए तय सीमाओं को लांघना ही अपना परम कर्त्तव्य माना। वाचाल तो वह इतनी थी कि लोग हमेशा उसे चुप ही कराते फिरते। ल़ोग कहते कि क्या फालतू में दांत निपोरती रहती है। लड़कियों को यह सब शोभा नहीं देता। फिर वह स्कूल हो या घर उसकी बकैती पर कोई लगाम नहीं लगा सकता था सिवाय उसके। मारपीट करने में वह अव्वल दर्जे की खिलाडी थी। स्कूल, बाज़ार या खेत से आते-जाते किसी की हिम्मत नहीं थी जो उस पर टिप्पणी करे। सभी जानते थे इसके ऊपर टिप्पणी करना मतलब बैल को मारने का न्यौता देना है। बैल ही थी वह। शरीर और दिमाग दोनों से। ऐसा लोग कहते। इतनी दबंग थी कि लोग उलाहना देने जाने भी डरते थे। उन्हें उलाहना देने के बाद आने वाले तूफ़ान का डर ज्यादा होता। उन्हें डर था कि कहीं वह गुस्से में आ कर उनकी खड़ी फसल को तहस-नहस न कर दे या मौका मिलते ही उन पर गालियों की बौछार न कर दे। उसका दिमाग शैतानियों का पिटारा था। जब खुलता तो उसमे से कुछ न कुछ जरूर निकलता जिससे गांव में खलबली मच जाती। उसकी शैतानियों में सबसे बड़ी शैतानी थी कि भोर में वह उठ कर किसी के घर के पास पर प्रतीकात्मक टोटका कर आती। फिर सुबह-सुबह हल्ला मच जाता। गालियों की बौछारें गिरनी शुरू हो जाती। फिर आता दूसरा पक्ष। जब दोनों पक्ष टकराते तब महाभारत की लड़ाई भी कम पड़ने लगती। उसकी शैतानियों से पूरा गांव जितना ही परेशान होता—उसे उतना ही आनंद आता। घर वाले कितना पीटे उसे। वह भी पीटते-पीटते थक गए थे। ढीठ बन गई थी वह। उसे कोई फ़र्क नहीं पड़ता उनकी मार और गालियों का। परिवार के पास उसे नाथने का बस एक ही साधन था कि वह शादी कर दें उसकी।
वह उसके बारहवीं पास होने का इंतजार करते रहे। जैसे ही उसने बारहवीं की परीक्षा दी वैसे ही वर खोजा जाने लगा। उसकी मां हमेशा गांव की औरतों से शादी की बात कहती रहती। कहीं कोई लड़का मिल जाय इस आशा में उन्होंने रिश्तेदारों के बीच उसकी मुनादी पिटवा दी थी। लड़के उसे देखने आते। इतनी तो सुंदर थी कि सभी को पसंद आ तो जाती लेकिन लड़के को गांव का कोई न कोई आदमी बता ही देता कि उसका चाल स्वभाव ठीक नहीं है.। बहुत चालू लड़की है। इस तरह लगातार पांच लड़कों ने उसे अस्वीकार कर दिया। अब वह देखा-दिखाई से उकता गई। यह उसके स्वभाव के विपरीत हो रहा था। उसने मना कर दिया कि आज के बाद वह किसी को देखेगी नहीं—न खुद को किसी के सामने ले जाएगी। वह कहती— "मैं कोई सामान हूं जो बार-बार ग्राहकों को दिखाते फिरेंगे।" फिर भी परिवार वालों ने उससे बहुत अनुनय-विनय की। उनकी जिद के आगे उसने घुटने तो टेक दिए लेकिन एक शर्त के साथ कि अगर इस लड़के ने मुझे अस्वीकार किया तो मैं आगे से कभी भी यह बकवास काम नहीं करूंगी। इस बार जो लड़का उसे देखने आया था कुछ जुदा था। पता नहीं क्यूं मुन्नी की शैतानियां उसे पसंद आ गईं। गांव वालों ने उसका चरित्र प्रमाण-पत्र गोपाल को विस्तार से समझाया भी था, फिर भी वह उससे शादी करने के लिए राजी हो गया।
गोपाल अपने पिता-माता की इकलौती संतान होते हुए भी उनकी संतान नहीं था। उसके मां-बाप बेऔलाद थे। दोनों ने क्या-क्या नहीं किया कि उसके घर कोई औलाद पैदा हो। ऐसी कोई जगह नहीं थी जहां उन्होंने मिन्नतें न मांगीं हो। भैरो बाबा, पौहारी बाबा, गंगा माई, किछौछा की दरगाह और न जाने कहां-कहां वह गए। एक दिन किसी ने उन्हें बताया कि गांव से थोड़ी दूर पर दक्षिण में एक लौटन ओझा जागे हैं। उनके दरबार में हर शनिवार भक्तों का रेला उमड़ता है। कहते हैं कि बाबा एक झटके में सबके दुख दूर कर देते हैं। वह दोनों उस ओझा के पास गए। वह एक गांव की परिधि पर रहता था जिसके बगल में एक नदी बहती थी—जो बरसात के दिनों में उफान मारने लगती। जैसे ही नवंबर आता सिकुड़ती हुईं जमीं में धस जाती। मैं भी उसे कभी-कभी अक्सर बाजार की तरफ आते-जाते देखा करता था। सांवला रंग, धंसी हुई हड्डियां, टुटही साइकिल और मटमैले कपड़े। यही उसकी सार्वभौमिक पहचान थी। उसकी पत्नी चुंबक थी। दोनों हमेशा ही साथ पाए जाते। तोता-मैना की जोड़ी थी। उनके पास घर के नाम पर एक टुटही खपरैल थी। दोनों को कोई संतान नहीं थी लेकिन दोनों का दावा था कि वह किसी को भी संतानोत्पत्ति का आशीर्वाद दे सकते हैं। सुबह-सुबह ही उनके यहां लाभार्थियों की भीड़ लग जाया करती थी।
ऐसे ही एक सुबह गोपाल के पिता शिवराम उसके पास पहुंचे। भीड़ ज्यादा थी। उसी भीड़ में वह भी शामिल हो गए। उनके साथ एक झोला था जिसमें देसी शराब, जयफल, सिन्दूर, नींबू, धूप, लौंग, कपूर और न जाने क्या-क्या भरा था। बड़ी मशक्कत के बाद उनका नंबर आया। जब वह पहुंचे तो ओझा आंखें बंद करके पता नहीं क्या बुबदबुदा रहा था। सामने शराब, नींबू, सिन्दूर, लाल कपड़े पसरे हुए थे और अजीबो-गरीब सा माहौल था। उसने शिवराम को बैठाया। सिर को गोलाकार घुमाते हुए एक लंबी सांस खींची। इतनी गहरी कि उसका पेट पीठ पर चिपक गया। फिर एक तेज फूंक शिवराम के मुंह पर मारी। फूंक में देसी शराब की बास आ रही थी। बोलो बताओ बच्चा क्या बला है? शिवराम ने पूरी बात बताई तो उसने कहा कि बच्चा तुम्हारी पत्नी की कोख पड़ोसियों ने बंधवा दी है। वह नहीं चाहते कि तुम्हे कोई बच्चा हो। तुम निर्वंश मरो। जब तक उसे खोला नहीं जाएगा तुम्हें कोई बच्चा नहीं होगा।
शिवराम—"कुछ उपाय बताइए बाबा।"
बाबा—"कुछ नहीं हो सकता है तुम्हारा।"
शिवराम—"बाबा-बाबा कुछ करिए बाबा। उसने रिरियाते हुए पैर पकड़ लिए उसके।"
बाबा—"ठीक ठीक। मैं कुछ करता हूं।"
तुम बाहर बैठो। मैं तुम्हें उपाय बताता हूं। उसके बाद शिवराम बाहर आ गए। वह लोगों के चले जाने का इंतजार करता रहे। जब सब लोग चले गए तो उसने शिव को अंदर बुलाया। बताया कि रात के बारह बजे अमावस्या की रात को अपनी पत्नी सहित आना होगा। फिर मेरे ताप से वह जरूर एक बच्चे को जन्म देगी। उसने यह बात अपनी पत्नी को बताई। वह एक पल को तो घबरा ही गई। फिर संतान की खातिर वह यह सब करने को तैयार हो गई। संतान की चाहत क्या-क्या न कराए। दोनों अमावस्या की रात का इंतजार करते रहे। आखिर वह दिन आ गया। घनी अंधेरी रात में वह सधे कदमों से उसके घर पहुंचे। वह उनका इंतजार कर रहा था। उसने कर्मकांड शुरू किया। आटे की गुडिया बनाई। उस पर लाल रंग छिटका। फिर नींबू काट कर रख दिया। फूलों की माला चढ़ाई। लोहबान की धुएं से पूरा कमरा दूर्गंध से भर गया। ओझा ने फिर मुंह उसी तरह गोलाकार घुमाया। इस बार उसकी आवाज बदल गई। आवाज में भयंकर कर्कशता थी। उसने सांस को इतना अंतर खींचा की गले की नशें तन गईं। उसका चेहरा भयानक रूप से घिनौना लगने लगा। कुछ मंत्र जैसा बुदबुदाते हुए उसने एक मुट्टी सिंदूर उसके मुंह पर मारा। उसे कोई असर नहीं हुआ। वह चिंघाडा कि किसने बाँधी है तेरी कोख। बोल तू जाएगी कि नहीं। तुमको क्या चाहिए। बकरी या सूअर की बलि। बता दे वरना तुझे यही भस्म कर दूंगा। बता? उधर से कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। वह वैसे ही मूर्ति की तरह बैठी रही। जब उसने कुछ नहीं बोला तो ओझा ने उसका चेहरा कपड़े से बांध दिया। फिर से वही प्रक्रिया दोहराई। उसके मुंह पर इस बार उसने पानी का छींटा मारा। लगा पूछने कि बता किसने बांधी है तेरी कोख। कोई जवाब नहीं। वह शांत और स्थिर बैठी रही। यह तो ओझा को चुनौती देने जैसा था। उसने पानी में हल्का सा मिर्च मिलाया और जोर से दे मारा। इस बार बिलबिला उठी वह। ओझा खुश हो गया। उसकी तो सांस उखड़ी जा रही थी। ऊपर से मिर्च की भयानक चुभन। वह चिल्लाने लगी। लगी गाली देने कि छोड़ हरामी तुझे भवानी माई ले जाए। मार डालोगे क्या। लगी हाथ पांव मारने। दोनों ने उसे कस कर पकड़ा और एक मजबूत रस्सी से बांध दिया। लगे पानी की बौछारें मारने। वह चिल्लाती रही। पानी की बौछारें उसके ऊपर गिरती रहीं। पानी की बौछारें इतनी तेज हो गई कि उसका सांस लेना दूभर हो गया। वह निढाल हो कर गिर गई। उसके कपड़े बेतरतीब ढंग से बिखर गए। अब दोनों क्या करें। दोनों ने तय किया कि उसके होश में आने का इंतजार करते हैं। घंटे भर बाद जब उसे पुनः होश आया। इस बार ओझा ने शिव को बाहर खड़ा रहने को कहा। पहले तो शिव को अंदेशा हुआ कुछ ग़लत होने का, लेकिन पुत्र होने के मोह ने उसे फांस लिया। वह बाहर तो आ गया लेकिन उसका मन बार-बार अंदर झांकने का हो रहा था। उसने किवाड़ के छेद से देखा तो दंग रह गया। इसके ऊपर कपड़े का कहीं नामोनिशान नहीं है। उसने दरवाज़े पर जोर की लात मारी। दरवाजा की कुंडी इतनी भी मजबूत नहीं थी—जो उसके आघात को सह पाती। दरवाजा खुला तो उसने देखा कि वह बेहोश पड़ी हुई और ओझा उसके ऊपर सवार है। उसने पास में रखा एक डंडा उठाया और एक जोरदार प्रहार ओझा के सिर पर किया। वह वही लुढ़क कर गिर गया. उसने अपनी पत्नी को उठाया। कंधे पर लादे हुए वापस घर आया। लोक-लाज के मारे उसने यह बात किसी को भी नहीं बताई। वह पूरी रात बेहोश रही। सुबह जब होश आया तो चिल्लाने लगी बचाओ बचाओ, वह मुझे मार डालेगा। डाक्टर ने आ कर जब इंजेक्शन दिया तब जा कर उसे होश आया। दोनों ने तय किया कि—अब वे बच्चे की इच्छा को मार देंगे। उन्हें कोई बच्चा नहीं चाहिए। ठीक उसी समय शिवराम के छोटे भाई का लड़का पांच साल का हो गया था। छोटे भाई इतने कुरूप थे कि उनकी शादी उत्तर में होनी नामुमकिन सी थी। वह बंगाल गए और वहीं से शादी करके एक औरत ले आए। गांव में लोग उन्हें कलकतिया कहते। इसी औरत ने एक और बेटे को जन्म दिया। छोटे भाई ने तरस खा कर अपने बड़े बेटे गोपाल को शिव को गोद दे दिया। इस तरह गोपाल शिवराम का बेटा हुआ।
पढ़ने में उसका जरा भी मन नहीं लगता। उदारीकरण का अश्वमेध शहरों के चक्कर लगाने के बाद गांव का चक्कर भी लगा चुका था। इस चक्कर में बदल रहे थे गांव और रहने वाले लोग भी। साथ में राज्य में सत्ता बदल गई थी। धीरे-धीरे गोपाल ने वह सारे काम सीख लिए जो संदिग्ध माने जाते थे। आम का बाग एक बैठने की जगह न हो कर नशेड़ियों का अड्डा हो गया। यहां नशेड़ी किसिम-किसिम के नशे करते। कोई सूंघने वाला तो कोई मुंह से खींचने वाला तो कोई पीने वाला। हद तो तब हो गई जब सिरिंज भी लगाने लगे अपनी नसों में। इसी में गोपाल भी शामिल था। पूरा गांव इन नशेड़ियों से परेशान हो गया। आए दिन कुछ न कुछ गांव में होता रहता। सभी निकम्मे थे। किसी के पास कोई काम-धाम नहीं था। जब घर के पैसे चुक गए तो वह घर का राशन बेच कर नशा करने लगे। जब वह भी चुक गया तो उन्होंने सबसे ख़तरनाक रास्ता तलाशा। अब वे चोरी करने लगे। आए दिन कहीं न कहीं से चोरी की खबरें आतीं रहतीं। किसी की गुमटी खाली होती, किसी के किराने की दुकान तो किसी का घर। पुलिस भी चौकन्नी होती गई। बकरी की मां कब तक खैर मनाएं। एक दिन गांव के सबसे रसूखदार आदमी के घर चोरी हुई। उसका शक सबसे पहले ही नशेड़ियों के गिरोह पर गया। उसने रिपोर्ट में इन्हीं का नाम डलवाया। ऐसा नहीं था कि सभी नशेडी टुटपूजिया थे। उसमें बड़े जोतदारों और ऊंची जातियों के लोग भी थे। जब चोरी की रिपोर्ट दर्ज़ हुई तब रसूखदारो ने अपना नाम हटवा दिया। बच गए केवटहिया के गोपाल और चंदू तथा बढ़ई टोला के मन्नू। पुलिस ने बल भर कूटा उन्हें। उतना कि उठ बैठ पाना भी उनके लिए दूभर हो गया। हालांकि चोरी का माल पहले ही मिल चुका था लेकिन चोरों को सबक सिखाना ही था। सबक कौन सीखा गोपाल, चंदू और मन्नू बाकी राम प्रसाद तिवारी, भोला सिंह, बजरंगी गुप्ता बाइज्जत बरी हो गए। तब जा कर गोपाल को समझ आया कि रे स्याला, अपने साथ तो धोखा हो गया।
इसके बाद गोपाल दिल्ली भाग गया। वहीं गांव के लोगों के साथ दिहाड़ी करने लगा। कोई पांच साल बाद घर लौटा—जैसे सउदिया से लौटा हो। वह पूरा-पूरा बदल चुका था। एक सीधा-साधा इंसान। राह चलते हुए भी रास्ते के सीध में ही देखता। अगल-बगल से गुजरने वालों से उसे कोई मतलब नहीं था उसके पिता उसकी शादी की चिंता में मरे जा रहे थे। जैसे ही कोई लड़की मिलती वैसे ही उसके गांव का कोई न कोई चुगली कर देता कि अरे वह चोर रहा है। ऊपर से इतने बुरे अतीत के बाद भी उसकी ठसक थी कि लड़की सुंदर चाहिए। अब दोनों तो नहीं ही मिल सकते थे। जहाँ लड़की मिलने के ही लाले पड़े थे वहां सुन्दर लड़की मिले कैसे। अपनी शकल देख लेता किसी दिन आइने में तो उसका भ्रम दूर हो जाता। देखता तो था वह आइना लेकिन आईने पर धूल जमीं हुई थी जिसे वह साफ नहीं करना चाहता था। इस चक्कर में उसने कई लड़कियों को अस्वीकार किया। इन दोनों कारणों से धीरे-धीरे उसके लिए रिश्ते आने बंद हो गए। अफवाह फैल गई कि उसको कोई असाध्य रोग है—जिससे लड़की वाले उसे अछूत समझ कर छोड़ देते हैं। इसलिए वह जब लड़की यानी मुन्नी को देखने गया तो पल भर में ही शादी के लिए हां कर दिया। पता नहीं, उसने मुन्नी में क्या देखा था।
घर वालों ने जैसे-तैसे कर के दोनों की शादी कर दी। कहें तो उससे अपना दामन छुड़ा लिया। शादी होने के बाद मुन्नी अपने ससुराल आई। उसके घर में ससुर थे लेकिन सास नहीं थी। कुछ वर्षों पहले वह गुजर गई थी। उसकी न कोई ननद, न देवरानी, न जेठानी। एकदम रानी थी वह ससुराल में लेकिन घर तो एक रंक का था जहां जरूरत की चीजों के लाले पड़े हुए थे। और बिना प्रजा कि रानी कैसी। यह उसके लिए एक अंजान जगह थी। अब वह न कोई टोटका कर सकती थी और न किसी से गाली-गलौज और किसी की खड़ी फसल तबाह। उसकी चंचलता को अकेलेपन के घुन खाने लगे। ससुराल में नैहर की तरह वह कैसे रहती। आखिर अब वह लड़की से औरत बन चुकी थी। और अब उसे वह सब शोभा नहीं देता है। गोपाल उसे हमेशा नसीहतें दिया करता. उसकी सारी खुराफातें धूलधूसरित हो गई। ऐसा लगा कि जैसे किसी ने जादू की छड़ी घुमाई और सब कुछ बदल गया। एक चंचलता भरी दुनिया से वह बंधी हुई दुनिया में आ गिरी थी।
गोपाल दिल्ली में पीओपी का कारीगर बन गया था। वह एक मलिन बस्ती चूना भट्टी में रहता था। जहां न चूना था—न भट्टी। थीं तो बजबजाती नालियां, बेतरतीब गलियां, शौचालय और पानी के लिए लड़ते झगड़ते लोग और कुत्ते। शादी के तीन माह गुजर गए—वह दिल्ली वापस जाने का नाम ही नहीं ले रहा था। पता नहीं कौन सा जादू कर दिया था मुन्नी ने। गांव वाले अक्सर उसे घरघुसना, मेहरबस्सा और न जाने कैसे विशेषण से उसे नवाजते रहते। मगर उसे कोई फर्क नहीं पड़ता। वह बस हंस कर उसे टाल देता। एक दिन अचानक ही उसने तय किया कि वह वापस काम पर दिल्ली जाएगा। हर परदेशी को वापस जाना ही होता है। मुन्नी नहीं चाहती है कि वह उसे छोड़ कर वापस जाए। आखिर किसके भरोसे पर वह यहां रहती। नैहर वाले भी उसे वापस लाने के लिए तैयार नहीं थे। वह करे भी तो क्या करे। गोपाल के वापस जाने की भनक पता नहीं कैसे उसे हो गई। वह निराशा के सागर में डूब गई। शाम को जब दोनों साथ बैठे तो उसने सकुचाते हुए गोपाल से कहा कि मैंने सुना है कि दिल्ली जा रहे हो। यह कह कर उसने अपना चेहरा उसके ठेहुने पर टिका दिया। वह अचकचा गया। सोचने लगा कि इसे कैसे पता चला कि मैं दिल्ली जाने की तैयारी कर रहा हूं। जरूर किसी ने चुगली की होगी।
वह भी उदास था कि नई नवेली दुल्हन को छोड़ कर वह क्यूं जा रहा है। उसने कोई जवाब न दे कर बात को टालना चाहा। जब मुन्नी ने दोबारा रूआंसा सा चेहरा बना कर कहा कि—सही-सही बताइए क्या आप दिल्ली जा रहे हैं?" इस बार ऐसा लगा कि उसका दिल भर आया है। अभी वह रोने लगेगी। अब गोपाल इस बात को और ज्यादा छिपा नहीं सकता था। गोपाल ने उसका कंधा पकड़ लिया। बालों को सहलाते हुए उसे बता दिया कि हां वह दिल्ली जा रहा है क्योंकि उसके पास और कोई रास्ता भी तो नहीं है। बिना कमाए हमें कौन रोटी देगा। कोई टाटा-बिरला के खानदान से तो है नहीं। मैं पिछले तीन महीने से घर ही हूं। पैसा आने का कोई जरिया नहीं है। मैं कमाने नहीं जाऊंगा तो तुम्हें खिलाऊंगा क्या। विवाह में बहुत रूपया खर्च हो गया। उधार भी सिर पर चढ़ गया है।
दोनों के बीच एक सन्नाटा पसर गया। गोपाल की आंखें सावन के बादलों से आप्लावित होने को हो आईं। एक धार बहने को अपना रास्ता तलाश ही रही थी कि उसने अपनी कोहनी से उसे वही खत्म कर दिया। उसे कैसे कहे कि छोड़ कर जाना तो मैं भी नहीं चाहता हूँ।पिछले तीन महीने से वह साथ-साथ हैं। जब वह गोपाल के घर आई थी तब वह कितना कम जानता था लेकिन अब उसे एक पल भी उसे भूल नहीं पाता। उसे भावुक होता देख मुन्नी ने उसे अपनी गोद में सुला लिया। पुचकारते हुए कहा कि—मैं उसे रोक थोड़े न रही हूं। बस पूछ रही हूं। मन तो उसका भी यहां अकेलेपन में कैसे लगेगा। मैं इस उजाड़ में करूंगी क्या। उसकी आंखों में ढ़ेर सारे प्रश्न उमड़ आए थे जिसका जवाब वह गोपाल से चाह रही थी। एक साथ इतने सवालों से वह असहज हो गया। उसकी गोदी से छिटक कर कुर्सी पर बैठ गया। एक लंबी सांस ली। एकटक दीवार पर लगी तस्वीर को देखने लगा। फिर मुंह को अजीबो-गरीब तरीके से बनाते हुए कहा कि बात तो उसकी भी सही है। मुझे तो समझ नहीं आ रहा है कि मैं क्या करूं। उसके नैहर वाले भी बस पीछा छुड़ाना चाहते थे। कभी पलट कर देखा तक नहीं। गोपाल ने सोचा कि क्यूं न उसी से पूछूं कि मैं क्या करूं। जब उसने मुन्नी से पूछा तो निराश होते हुए उसने कहा कि क्या करेंगे आप। कुछ मत करिए। बस मुझे छोड़ कर जाना चाहते हैं आप किसी भी तरह। आपके लिए भी मैं भार हो गई हूं जैसे नैहर वालों के लिए हो गई थी।
गोपाल—"तो तुम क्या चाहती हो बताओ?"
कुछ पल खामोशी छाई रही। दोनों बस एक-दूसरे को टुकुर-टुकुर निहारते रहे। फिर संकोचित होते हुए उसने पूछा-
मुन्नी—"एक बात कहूं गुस्सा तो नहीं होंगे?
गोपाल—"हां कहो, गुस्सा कभी हुआ हूं जो आज होऊंगा।"
मुन्नी—"नहीं, आप गुस्सा हो जाएंगे।"
गोपाल—"अरे नहीं, बोलो।"
गोपाल को लग गया कि वह कुछ गंभीर बात कहने जा रही है.। उसका दिल ज़ोर से धड़कने लगा। सामने रखे गिलास का पूरा पानी वह एक सांस में ही गटक गया। वह चुप हो गई। एक सन्नाटा फिर पसर गया कमरे में चारों तरफ़.। उसने सन्नाटे को तोड़ते हुए कहा कि बोलोगी कुछ कि मुंह गिरा कर ऐसे बैठी रहोगी।
मुन्नी ने चेहरे पर बनावटी हंसी लाते हुए साथ दिल्ली चलने की बात कह दी जिसे उसने डर से अब तक छिपा रखा था। गोपाल ने सुन तो लिया लेकिन क्या उत्तर दे कुछ सूझ ही नहीं रहा था। वह अपलक उसकी ओर सोचनीय मुद्रा में देखता रहा। कुछ देर के लिए सन्नाटा फिर वापस कमरे में आ गया। उसने गोपाल को झिंझोड़ दिया। गोपाल ने ऐसे अभिनय किया जैसे सो कर जगा हो।
मुन्नी—"कुछ बोलोगे कि खाली निहारते रहोगे?"
गोपाल—"मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा है। मैं क्या बोलूं। सब लोग यही कहेंगे कि मेहरारू आते ही ले कर चला गया। बाप का जरा भी ख्याल नहीं आया कि वह कैसे रहेगा घर पर। सब लोग ताना मारेंगे कि पतोह होते हुए भी अपने हाथ से खाना बनाते हैं।"
उसने अपनी अस्वीकृति प्रकट कर दी। उसे पता था कि यही होने वाला है लेकिन वह एक बार पूछ लेना चाहती थी। उसके पूछने भर ने दोनों की जिंदगी में भूचाल ला दिया। उसे जवाब दे कर गोपाल चला गया। वह रोकना चाह रही थी लेकिन वह हाथ छुड़ा कर झटक दिया। वह निराशा के सागर में डूबने-उतरने लगी। सामने रखा हुआ खाना भी उसने नहीं खाया। वह बिस्तर पर औंधे मुंह लेट गई लेकिन नींद आंखों से गायब थी। अकेलेपन का डर उसके सामने भूत बन कर आ जा रहा था।
शाम हो गई। गोपाल अभी वापस नहीं आया। मुन्नी ने फोन भी नहीं किया जबकि पहले अगर वह एक घंटे से ज्यादा बाहर रह जाए तो उसका दिल मचलने लगता था। वह उसे काल कर करके परेशान कर देती थी। शाम का धुंधलका धीरे-धीरे रात के गहरे अंधेरे में बदल गया। गांव में लोग खा कर सोने लगे थे। वह वापस नहीं लौटा था। उसकी चिंताएं बढ़ने लगी। उससे रहा नहीं गया तो उसने फ़ोन लगाया। मोबाइल स्वीच ऑफ आ रहा है। अब वह क्या करे? उसने खुद को कोसना शुरू किया कि उसने ऐसा क्यूं किया। उसका दिमाग ख़राब हो गया था। वह खुद को कोस ही रही थी कि दूर अंधेरे में वह आता हुआ दिखाई दिया। उसकी आंखों में चमक लौट आईं। वह भी काफ़ी खुश था। लग ही नहीं रहा था कि अभी उससे नाराज हो कर गया था।
मुन्नी ओसारे में सामने ही खटिया पर बैठी हुई थी। वह जा कर उसके पास बैठ गया। आते ही मुन्नी के कंधे पर हाथ रख कर खड़ा हो गया। उसने गोपाल का हाथ झटक दिया। मोबाइल बंद करने का कारण पूछने लगी। वह झेंप गया। कोई जवाब नहीं सूझ रहा था। क्या जवाब दे कि शराब पीने गया था लेकिन फिर खेतों की तरफ़ चला गया। वहां सिवान के बीच से गुजरती हुई सड़क पर डूबते सूरज और बाद में अंधेरे से बतियाता रहा। वह पूरे समय सड़क पर बैठा रहा। कितनी गाड़ियां चली गईं, जानवर चले गए, खेतों में काम करते महिला और पुरुष, घास छीलती औरतें सब चले गए लेकिन वह बैठा रहा। कभी आसमान को देखता, कभी खेतों की तरफ। अपने सवालों का ज़वाब चाहता था वह खेतों और आसमान से। बहुत दिनों बाद उसने अपना मोबाइल भी स्वीच ऑफ कर दिया। काफ़ी सोच विचार के बाद उसके दिमाग़ की बत्ती जली। उसका चेहरा खिल गया। जवाब मिल चुका था। उठा और चल दिया घर की तरफ़। गोपाल उसकी तरफ़ प्यार भरी नजरों से देखता रहा। जब मुन्नी से देखा नहीं गया तो उसने उसे कोहनी मार कर एक तरफ धकेल दिया यह कहते हुए कि वह खाली बकर-बकर देखेगा कि कुछ बताएगा भी।
गोपाल—"मैंने सोच लिया है कि मुझे क्या करना है।" इतना कह कर वह शांत हो गया।
मुन्नी—"क्या सोचे हो? बताओ।"
बताते समय उसकी आंखें चमक उठीं। जैसे लग रहा था कि दुनिया का कोई बहुत बड़ा रहस्य उसे बताने जा रहा है। वह उसके पास गया। उसके कंधे पर अपने हाथों को रख दिया। दूसरे हाथ से उसके बालों को सहलाने लगा। जैसे ही उसे बताया कि उसे दिल्ली ले कर चलना चाहता है तो मुन्नी खुशी से उछल पड़ी। ऐसा लगा कि कोई सपना देख रही है। उसे विश्वास नहीं हो रहा था। इसलिए उसने दोबारा पूछा -
मुन्नी—"क्या कह रहे हैं?"
गोपाल—"वहीं जो वह सुन रही है।"
मुन्नी—"सच में?"
गोपाल—"अरे हां रे, सच में"
मुन्नी—"कैसे मान गए?"
गोपाल—"मैंने सोचा कि वैसे भी तुम यहां अकेले ही रहती। ऐसे में ठीक है कि मेरे साथ ही चलो।"
2
मुन्नी की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। आंखों में शहर की चमचमाती हुई छवियां घूमने लगीं। ऊंची इमारतें, चौड़ी सड़कें, बड़े पार्क, माल और न जाने क्या-क्या उसके दिमाग़ में तैरने लगा। उसे लगा कि वह हवा में उड़ रही है। शहर जाने की बात से ही उसके मन में एक झुरझुरी सी हो रही है। हमने मिल कर तय किया कि बाबू जी को चाचा के घर खाना खाने के लिए कह देंगे या तो वह पहले की तरह बना कर खा लेंगे। दोनों ने दिल्ली जाने का पूरा खाँका खींच लिया अपने मन में कि हमें वहां जा कर क्या-क्या करना है। मुन्नी ने इतनी योजनाएं बनाईं कि उसका सिर भारी हो गया। घर छोड़ने का दुःख तो उसे बहुत हो रहा था लेकिन साथ रहने के ख़्याल से वह बहुत खुश थी। जीवन में पहली बार आंखों से रेलवे स्टेशन देखने जा रही थी। इससे पहले उसने फिल्मों में देखा था बस। ट्रेन में सफ़र करने के विचार से ही उसके शरीर में कंपकंपी सी छूट रही थी। गोपाल अक्सर पैसे बचाने के लिए अनारक्षित श्रेणी में ही यात्रा करता था। इस बार उसने सोचा कि टिकट आरक्षित करवा लेता है लेकिन इतनी जल्दी कहां आरक्षित सीट मिल सकती थी। गोपाल और रूक भी नहीं सकता था। ठेकेदार का काल बार-बार आ रहा था इसलिए अनारक्षित श्रेणी में ही उसे यात्रा करनी पड़ी।
दोनों स्टेशन के लिए दोपहर में निकले। आजमगढ़ से कैफियत एक्सप्रेस से जाना था। आटो से स्टेशन पहुंचे। मुन्नी के होने के कारण गोपाल ने एक कुली को पैसे दे कर दो सीटों पर कब्ज़ा करने को कहा। अकेला होता तो किसी न किसी तरह घुस ही जाता। दूर ट्रेन आती हुई दिखी। उसे देख कर मुन्नी का मन सिहर उठा। लोग धीरे-धीरे प्लेटफार्म पर भर गए।
जैसे ही ट्रेन प्लेटफार्म पर आई लोग भेड़ों की तरह डिब्बों में घुसने के लिए मारामारी करने लगे। यह देख कर उसका दिमाग़ हिल गया। लोग एक-दूसरे को धक्का मारते हुए डिब्बों में घुस रहे थे। उसकी ख़ुशी न जाने कहां खो गई। हिम्मत ही नहीं हो रही थी कि वह अपने पैर ट्रेन की तरफ़ बढ़ा पाए। दोनों डिब्बों के पास बाहर ही खडें रहे। भीड़ शांत हुई।पीपीपीपी हम बाहर कुली का इंतेज़ार करते रहे। लेकिन वह नहीं आया। दोनों का मन बैठ गया। वह तय नहीं कर पा रहे थे कि अब करें क्या? तभी अचानक एक आदमी उनके पास आया और बोला कि आपको सीट चाहिए क्या? एक बार ठगे जाने के बाद उन्हें दूसरी बार ठगे जाने का अंदेशा हुआ। गोपाल ने उदासी भरे स्वर में कहा—"नहीं, चाहिए मुझे सीट।"
आदमी बोला—"अरे ले लीजिए, आपके साथ महिला हैं, आप तो चले जाएंगे लेकिन यह कैसे जाएंगी?"
आदमी ने उसकी दुखती रग पर हाथ रख दिया। उसे लगा कि हां बात तो सही है लेकिन अब इस आदमी पर कैसे भरोसा करे। उस आदमी ने यह कह कर दिलासा दिलाया कि वह सीट पर साथ में चल कर बैठाएगा। समस्या खत्म नहीं हुई। उसने बताया कि एक ही सीट है, उसी पर दोनों लोगों को एडजस्ट करना होगा। दोनों ने एक-दूसरे की तरफ़ देखा और आंखों ही आंखों में बतिया लिया। बैग उठाया और चल दिए उसके पीछे। डिब्बे के पास पहुंच कर गोपाल ने देखा कि पांव रखने भर की भी जगह नहीं बची है। उसके बाद भी वह आदमी सांप की तरह अंदर घुस गया। उसने गोपाल को अंदर आने के लिए कहा। वह तो इन सबका आदी था लेकिन मुन्नी। वह तो पहली बार ट्रेन में बैठ रही थी।
गोपाल तो किसी तरह घुस गया. अब बारी मुन्नी की थी। वह क़दम ही नहीं रख पा रही थी। ऐसे लग रहा था कि वह आग में पैर रखने जा रही है। आग से ज्यादा भयंकर है उसके लिए यह सब। गोपाल के बार-बार कहने के बाद उसने किसी तरह अपना पैर रखा। तिल रखने भर की जगह नही थी। उसका पैर एक आदमी के पैर पर पड़ गया। वह भीतर से अचकचा गई। उसने पैर बाहर खींच लिए। उसकी अंदर आने की हिम्मत नहीं हो रही थी। गोपाल ने हाथ पकड़ कर खींचना चाहा। उसने आदमी के पैर को रौंदते हुए दूसरे आदमी के ऊपर पैर रख दिया। गेट के पास इतनी भी जगह नहीं थी कि आर-पार भी देखा जा सके। वह मुन्नी का हाथ पकड़ कर खींचा लेकिन मुन्नी के लिए आदमियों को ढकेल कर आगे बढ़ना युद्ध लड़ने के बराबर था। उसकी वक्ष भीड़ में रगड़ खा रहे थे। तभी किसी का हाथ उसके वक्ष पर कुछ टटोलता सा महसूस हुआ। अब उसकी निजता उसके सपनों पर भारी होती जा रही थी। उसकी सांस उखड़ने लगी। जब उससे डिब्बे में घुसना नहीं हो पाया तो वह रूआंसी हो गई। उसे समझ ही नहीं आ रहा है कि वह कहां फंस गई है। वह गोपाल का हाथ छुड़ा कर बाहर भाग आई। पीछे से वह भी बाहर आ गया। उसने मुन्नी को झिड़क दिया। मुन्नी ने मना कर दिया कि उसे शहर नहीं जाना है। दोनों का मन बैठ गया। अब क्या करें। उन्हें कुछ समझ नहीं आ रहा था। इतने में ट्रेन ने सीटी दी। गोपाल ने गुस्सा होते हुए पूछा कि —चलना है कि नहीं? उसने कहा कि अगर वह जाना चाहे तो जा सकता है, वह नहीं जाएगी। इतने में ट्रेन चल पड़ी। दोनों ट्रेन को जाते हुए देखते रहे।
3
घर वापसी में रास्ते भर वह उसको डांटता रहा। कहता रहा कि अब वह कभी उसे शहर नहीं ले जाएगा। कितनी बढ़िया था सीट भी मिल रही थी। मेरा कितना पैसा ख़र्च कराया है तुमने। कभी एक पैसा कमाई होती तो न जानती कि पैसा कैसे कमाया जाता है। पैर का पसीना माथे पर आ जाता है। फाट कर हाथ में आ जाती है. ऐसी ही न जाने कितने उलाहने वह रास्ते भर सुनती रही। वह बुत बनकर बैठी रही। दोनों घर पहुंचे।रात का दूसरा पहर होने वाला था।सीधे बिस्तर में चले गए। उस दिन खाना भी नहीं खाया। एक-दूसरे से नाराज दोनों रात भर बस करवटें बदलते रहे। नींद दोनों को नहीं आई। अगले दिन भी गोपाल मुन्नी से कुछ नहीं बोला। उसने चाय बना कर दी। उसे भी फेंक दिया। खाना न खाने की धमकी देते हुए वह घर से निकल गया। इस बार भी खेतों के बीच से गुजरने वाली सड़क पर बैठा आसमान की तरफ़ देखता रहा। इस बार उसके सवालों का जवाब न आसमान ने दिया न खेतों ने। लग रहा है कि यह दोनों भी उससे रूठे हैं। अपने सवालों का जबाब न पा कर वह उदास उत्तर विहीन बाजार की तरफ़ लौटा। अब एक ही जगह थी जो उसके सवालों का जवाब दे सकती थी, वह थी मयखाना। एक समय था जब वह शराबियों का बादशाह हुआ करता था लेकिन यह पहली बार था—जब वह शराब किसी दुःख में पीने जा रहा था। इससे पहले तो मजे के लिए पीता था। जम कर शराब पी जब तक कि सिर न घूमने लगा। मुंह से तोप की तरह गालियों के गोले निकलने लगे। गालियां देता हुआ वह बाज़ार से घर के लिए लौटा।
उसका शरीर झूम रहा था। ऐसा लग रहा था कि अब गिरा कि तब। तभी पैर अचानक एक पत्थर से टकराया. वह मुंह के बल गिर पड़ा। मुंह से आवाज भी निकलनी बंद हो गई। नशा इतना चढ़ गया था कि दिमाग सुन्न पड़ रहा था। वह मस्त सड़कों की धूल चाटते हुए वही अधमरा हो गया। बीच में एक कुत्ता आया उस पर जल अर्पण करके अपना रास्ता नापा. किसी लड़के ने जा कर मुन्नी को बताया कि गोपाल रास्ते में गिरा हुआ है। वह दौड़ पड़ी। ऐसा पहली बार था जब वह बिना घूंघट के ही घर से बाहर निकल रही थी। वैसे भी कौन सी वह महारानी थी जो उसे कोई कभी देख न पाएगा। पहुंची तो देखा कि वह मिट्टी में मुंह के बल लेटा हुआ है। उसने उठाना चाहा लेकिन उठा नहीं पाई। वह बार-बार गिर जाता। लोगों की मदद से किसी तरह उठा कर उसे घर लाई। वह बार-बार मुन्नी को भद्दी गालियां दिए जा रहा है। उसे आस-पास के लोगों का भी कोई ख्याल नहीं था। नशा उतारने के लिए उसने पहले जम कर नहलाया। फिर खटाई चटाई। नशा कम हो गया। फिर भी वह बेसुध खटिया पर लेटा हुआ बकबका रहा था। मुंह से अब भी उलाहने ही निकल रहे थे। उसका यह रूप देख कर मुन्नी आश्चर्यचकित थी। इसने तो पहले कभी नहीं पी, फिर अचानक ही इसको क्या हो गया कि इतना पी लिया। तभी एक लड़का जो साथ में आया था उसने बताया कि भैया बहुत बड़े पियक्कड़ हैं। साला झूठ बोल कर चला गया। दोस्तों के साथ ही तो पीता हूं। अब उसे समझाए कौन। उसने नशे में ही भुनभुनाते हुए कहा लेकिन उसकी बात किसी को समझ नहीं आई। मुन्नी का दिल बैठ गया। घर वाले जब देखने आए थे तो उसने खुद अपने पिता से पूछा था कि लड़का पीता तो नहीं है। उसके पिता ने कहा था लड़का बहुत अच्छा है। कोई नशा नहीं करता है। वह भी तो आश्वस्त हो गई थी पिछले तीन महीने में। वह कभी शराब पी कर नहीं आया था। फिर अचानक आज उसे एहसास हुआ कि उसके साथ धोखा हुआ है। इतना बड़ा धोखा कि वह बता नहीं सकती है। उसे पीने वालों से शख्त नफ़रत है। गोपाल बेसुध लेटा हुआ था। उसे दुनिया-जहान की कोई खबर नहीं थी। शराब पीने का यह सबसे बड़ा फायदा है। जब तक नशा है आदमी किसी बादशाह से कम नहीं। वह आज बादशाह है। उसे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि मुन्नी या दुनिया उसके बारे में क्या सोचती है।
सुबह गोपाल की आंखें खुली। धूप उसके चेहरे पर सीधे पड़ रही थी। मिट्टी में सने कपड़े रात में हुई उसकी दुर्गति की गवाही दे रहे थे.। रोम-रोम में दर्द भर गया था। सिर भारी-भारी लग रहा था। उसने खटिया से लेटे-लेटे आवाज लगाईं—"मुन्नी, अरे हे मुन्नी!" ऊधर से कोई जवाब न पा कर उसने पुनः आवाज लगाई— "अरे कहां हो, सुनाई नहीं दे रहा है तुमको?" वह सुन रही थी लेकिन सब सुन कर भी अनसुना कर रही थी। वह गुस्सा थी और अपने गुस्से का इजहार वह अपने मौन से देना चाहती थी। गोपाल आवाज लगाते हुए जब थक गया तब खुद चल कर आ गया। देखा वह चूल्हे के पास बैठी है। उसने पहुंच कर उसके कंधे पर हाथ रखना चाहा। जैसे ही हाथ उसके कंधे को स्पर्श हुआ मुन्नी ने तुरंत ही उसे झटक दिया। उसने दोबारा से साहस किया। इस बार दोगुनी गति से झटकते हुए उसने चेतावनी दी कि देखो मुझे छूना मत। बेलन देख रहो। अभी इसी से रात का सारा नशा उतार दूंगी। पहले अपनी दशा देखो। समझे!
"क्यूं क्या हुआ है?" गोपाल ने ऐसे पूछा जैसे पता ही नहीं कि रात में क्या हुआ था।
गुस्साई आवाज में मुन्नी ने पुनः जवाब दिया, "मैं ही बताऊं कि क्या हुआ है। तुम्हें नहीं पता कि रात में कहां मर रहे थे। उठा कर नहीं लाई होती तो वहीं मरते।"
वह चुप हो गया। कोई जवाब नहीं था उसके पास। चुपचाप ओसारे से बाहर आया। बाहर खटिया पर बैठ गया। नशा अभी तारी है। नींद आ गई। मुन्नी से उसकी हालत देखी नहीं गई। वह बाहर आई। देखा कि वह अब भी वही रात के कपड़े पहना हुआ है। उस पर उल्टी के छीटे पड़े हुए हैं। उसने नहलाते हुए फिर कभी नहीं पीने की चेतावनी दी कि आज के बाद वह पी कर आया तो वह कुछ नहीं करेगी। वह शर्मिंदगी से कुछ बोल ही नहीं पा रहा था। उसे समझ नहीं आ रहा था कि मुन्नी को क्या जवाब दे। जब आदमी के प्रायश्चित करने के लिए कुछ नहीं होता है तो उसके आंखों में बस आंसू और मन में पछतावा ही होता है। उसके दिल में पछतावा भी था और आंखों में आंसू भी। उसकी आंखों में आंसू देख कर मुन्नी से रहा नहीं गया। उसकी आंखें भी गीली हो आईं। दोनों ने अपने-अपने आंसुओं के द्वारा क्या बतियाया कि मुन्नी का ग़ुस्सा ठंडा हो गया और उसका प्रायश्चित्त भी पूरा हो गया। दोनों ने एक दूसरे को बांहों में भर लिया। आंसुओं की बूंदें पीठ को भिगोने लगी।
"जानती हो मैंने क्यूं पी है?" हकलाते हुए गोपाल ने कहा।
मुन्नी—"क्यूं बताओ?"
गोपाल ने कहा कि—मैंने शादी में ठीकेदार से पैसे उधार लिए थे। कहा था कि काम कर के चुका दूंगा। वह मुझे हफ्ते भर से काल कर रहा है आने के लिए। कल जब मैंने बताया कि मैं नहीं आ पाऊंगा तो वह भड़क गया। उसने मुझे डांटने के साथ गालियां भी दीं। मैं बस सुनता रहा। क्या करता पैसा जो ऊधार लिया है। ऊपर से उसने मना कर दिया कि वह पैसे चुका दे और काम पर न आए।
मुन्नी—"अच्छा फिर तुमने मुझे क्यूं नहीं बताया।"
गोपाल—"कैसे बताता? क्या बताता? कुछ समझ में नहीं आ रहा था।"
मुन्नी—"अच्छा ठीक है लेकिन फिर कभी मत पीना।"
गोपाल—"तुम्हारी क़सम कभी नहीं पीऊंगा।"
दोनों ने एक दूसरे को बांहों से अलग किया। लेकिन समस्या का हल क्या है दोनों को नहीं पता। ठेकेदार पैसे के लिए रोज-रोज फोन करता। वह गांव के पास का ही था। उनका घर भी जानता था। वह मोबाइल भी बंद कर देते तो भी वह उनके घर आ जाता। ठेकेदार था कि फ़ोन पर फ़ोन किए जा रहा था। उनको उसका फ़ोन उठाने की हिम्मत ही नहीं हो रही थी। बार-बार फोन से तंग आ कर उसने एक बार मोबाइल बंद भी कर दिया। उसके दो दिन बाद ही ठेकेदार का लड़का आ कर उसे धमका गया कि पैसा दे दो वर्ना ठीक नहीं होगा। वह परेशान रहने लगा। दिन-रात इसी शोक में डूबा रहता। इतनी जल्दी इतना पैसा कहां से लाए। कोई काम भी करता है तो पैसे इकट्ठा करने में समय लगेगा। कोई उधार भी नहीं देने वाला। यहाँ घर में पड़े-पड़े कैसे चुकाए उसका उधार। उसका न तो किसी काम को करने में उसका दिल लगता, न ही वह कोई काम ही ढूंढता। निठल्ला घर पर पड़ा रहता। घर पर बैठे रहने से तो पैसे आयेंगे नहीं। पेड़ पर उगते तो तोड़ कर लाता और उसके मुंह पर ला कर मार देता। कहां से लाए पैसा। उसने कई जगह से रुपये उधार लेने की कोशिश की लेकिन उनकी माली हालत देख कर कोई भी उसे रुपये देने को तैयार भी होता। हज़ार रुपये की बात होती तो बात भी होती, पांच लाख रुपये कोई कहाँ से दे। वह असहाय था। दूर तक था तो केवल घना अंधकार। रोशनी का कहीं नामोनिशान भी नहीं।
4
सुबह का समय था। दोनों यूँ ही चिंतातुर बैठे थे। अचानक एक लड़की उनके घर पर आईं। अनजान लड़की देख कर दोनों आश्चर्यचकित हो गए कि यह कौन है। लड़की बिल्कुल स्मार्ट लग रही है। कसी हुई जींस और शर्ट उसके शहरी होने का आभास पैदा कर रहे थे। ऊपर से मेकअप। इस तरह उसे घर में घुसते देख उन्हें आश्चर्य हुआ। गोपाल ने उससे पूछा, "कौन है आप?"
लड़की—"मैं माइक्रो फाइनेंस कंपनी में काम करती हूं"। सीधा जवाब दिया लड़की ने।
गोपाल—"यहां क्या करने आई हैं?" दूसरा सवाल किया उसने।
लड़की—"हमको पता चला है कि आपको रूपये की बहुत जरूरत है, इसलिए हम आपको बताने आए हैं कि हमारी कंपनी आपको यह रूपये दे सकती है।"
गोपाल—"तुम्हें कैसे पता चला कि मुझे रूपए चाहिए?"
लड़की—"आपके पास-पड़ोस से ही हमें पता चला, हम आपकी मदद करना चाहते हैं।"
गोपाल—"आपको क्यूँ लगता है कि आपको हमारी मदद की ज़रूरत है?"
लड़की—"वो ऐसा है कि हम मदद करने का ही काम करते हैं। इसलिए हम आपकी मदद करना चाहते हैं।"
गोपाल—"फिर बताइए आप हमारी मदद कैसे करेंगी?"
लड़की ऐसे बोल रही थी जैसे कि वह देवदूत बन कर आई हो। मुन्नी खड़ी-खड़ी सब कुछ सुन रही थी। वह जानती है इसके बारे में। पड़ोस की एक औरत ने भी लोन ले रखा था। पड़ोस क्या गांव की ऐसी कोई महिला न होगी जिसने यह लोन न ले रखा हो। एक बार उसकी पड़ोस वाली ने मुन्नी को बताया था कि वह भी लोन ले ले। लेकिन मुन्नी ने उस समय कोई उत्सुकता नहीं दिखाई थी। हफ्ते दर हफ्ते कोई लड़की भी आती है पड़ोसी के घर। यह वही लड़की तो नहीं है। उसे शंका हुई कि जरूर पड़ोस की औरत ने इसे बताया है। फिर वह लड़की क्यूं नहीं आईं जो रोज रोज आती है। दूसरी लड़की क्यूँ आई है। उसने लड़की से पूछा उसके बारे में। लड़की ने बताया कि वह उस लड़की को जानती है। दोनों दोस्त हैं। वह काफ़ी समय से कंपनी में काम कर रही है। उसी ने इसे भी जोड़ा है। उसने ही दया भाव दिखाते हुए उसे आपके यहां भेजा है। नहीं तो वह खुद आती यहाँ। लड़की के पहले ही ग्राहक हैं वह दोनों। उसने विनती की कि अगर हम यह लोन ले ले तो उसके लिए भी अच्छा होगा और आप दोनों के लिए भी।
दोनों ने आपस में इस मसले पर बातचीत की। गोपाल को पैसे कि सख्त जरूरत थी। उसने पूछा— "बताइए कैसे मिलेगा लोन?"
लड़की—"आपको कुछ नहीं करना है। बस आप अपना आधार कार्ड, पता, रिश्तेदारों का नाम और पता तथा एक स्थानीय आदमी की सिफारिश जिसने हमारी कंपनी से लोन ले रखा हो।"
गोपाल—"अरे इतना आसान है क्या लोन लेना?" उसने आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा। उसे वह दिन याद आ गए जब वह एक बार पिता लोन लेने बैंक गए थे। कितना दौड़ाया था बैंक वालों ने और लोन भी नहीं दिया था।
"हां, आप जब चाहे ले ले।" लड़की ने सिर हिलाते हुए कहा।
गोपाल ने कहा —"ठीक है। आप जाइए हम कल बताते हैं।" उसने मुन्नी की ओर देखा और भीतर चला गया। लड़की ने साइकिल को सड़क पर उतार दिया। मुन्नी उसे जाते हुए देखती रही। जब लड़की आंखों से ओझल हो गई तब उसने अपनी निगाहें गोपाल की ओर फेरीं। उसके चेहरे पर खुशियों के बादल उमड़ आए थे। इससे जो बारिश हो रही है उससे उसका तन-मन पुलकित हो रहा था। ठेकेदार का पैसा चुकाने की बात पर ही शांति की नदी में वह बहने लगा। उसने मुन्नी की ओर देखा। वह चुप है उसकी राय जानने की कोशिश की।
मुन्नी ने कहा कि उसे लोन लेना अच्छा नहीं लग रहा है। नैहर में बाप लोन ले कर पहले से बैठे हैं और अब यह भी। शादी उसके पिता ने लोन ले कर ही की थी। उसका तो मन नहीं है। अगर वह लेना ही चाहता है तो ले ले। वह मना नहीं करेगी। मुन्नी ने यह कह कर उसकी खुशी को चुटकियों में गायब कर दिया। उसके पास कोई दूसरा चारा भी तो नहीं था। गोपाल ने उसे समझाया कि वह काम कर के लोन की सभी किस्त समय पर चुका देगा। मुन्नी ने कुछ नहीं कहा अब की बार। गोपाल ने कहा कि वह पड़ोस वाली चाची से बात करें सिफारिश के लिए। वह कुछ नहीं बोली बस अपना सिर हिला दिया।
दूसरे दिन सूरज चढ़ते ही लड़की हाजिर हो गई। उसने गोपाल से पूछा कि क्या उसने सब इंतजाम कर लिया है? मुन्नी ने पड़ोस वाली चाची को सिफारिश के लिए राजी कर लिया था। वह आधार कार्ड के साथ अपनी फोटो ले आया। उसकी फोटो देख कर लड़की ने कहा कि—लोन तो हम आपकी पत्नी के नाम देंगे, आपके नाम पर नहीं। उसने पूछा कि ऐसा क्यूं, कल तो आपने नहीं बताया था? लड़की ने यह काम अभी नया-नया ही शुरू किया है। वह कल यह बात बताना ही भूल गई कि कंपनी का नियम है कि वह लोन सिर्फ महिलाओं को देती है। अब एक नई समस्या सामने आन पड़ी। उसने मुन्नी की तरफ़ देखा। मुन्नी ने कहा कि जब तुम्हारा मन बन गया है तो ले लो। जैसे तुम—वैसे मैं। पड़ोस वाली चाची आईं। उन्होंने सिफारिश कर दी। लड़की ने चाची से कहा कि कल आप इन्हें ले कर आम वाली बाग में होने वाली समूह की बैठक में आ जाएं—लोन की रकम उन्हें कल दे दी जाएगी। इतना कह।कर उस लडक़ी ने सारे कागजात समेटे और निकल गई।
अगली सुबह मुन्नी पड़ोस वाली चाची के साथ बाग में गई। उसने वहां जो देखा उसकी आंख फटी की फटी रह गई। कितनी सारी औरतें लोन के रूपए लेने आईं हुईं थीं। सबको लोन की रकम हाथों हाथ दी जानी थी। मुन्नी भी उन्हीं महिलाओं के बीच जा कर बैठ गई। एक-एक कर के सबका नाम पुकारा जाने लगा। औरतें जाती। उनसे कुछ पूछा जाता और फिर एक कागज दिया जाता जिस पर अंग्रेजी में पता नहीं क्या लिखा होता। औरतें उस पर दस्तखत करके और अंगूठा लगा कर नोटों के बंडल को हाथ में ले कर वापस आ जातीं। "मुन्नी पत्नी गोपाल आएं।" अपना नाम सुन कर वह हड़बड़ाकर उठी। पास पहुंचने पर वहां बैठी लड़की ने उससे पूछा कि अच्छा तो ये बताइए कि आप कौन सा व्यवसाय करने जा रही है तो यह सुन कर वह अचंभित हो गई कि व्यवसाय! कैसा व्यवसाय? उसने तो कुछ सोचा ही नहीं है। लोन वाली लड़की ने फिर कहा कि अरे यही कि आप इन रूपयों का क्या करेंगी. भैंस खरीदेंगी, कोई काम करने वाली मशीन लेंगी या कोई दुकान खोलेंगी। क्या करेंगी बताइए? एक बार तो मुन्नी को समझ ही नहीं आया कि वह क्या जवाब दे। फिर अचानक से उसने कह दिया कि वह दुकान खोलेगी। "अच्छा ठीक है, यहां दस्तखत करके अंगूठा लगा दीजिए।" इंटर तक पढ़ने के बाद भी मुन्नी कागज पर लिखे अंग्रेजी शब्दों को कोशिश करने के बाद भी पढ़ नहीं पाई। जब उसे कुछ समझ नहीं पाया तो उसने भी दस्तखत पर अंगूठा लगा दिया। महिला ने उसे मुबारकबाद देते हुए नोटों का बंडल उसे थमा दिया। हाथ में रुपये लेते ही उसे पता चला कि पांच लाख रुपए कितने भारी होते हैं।
वह ख़ुशी-ख़ुशी रूपए ले कर घर आई। गोपाल की ख़ुशी का ठिकाना नहीं था। अब ठेकेदार की किचकिच से मुक्ति मिलेगी। उसने रूपए बंडल के बंडल ही ठेकेदार को दे दिए। अब हर महीने किस्त के रुपये तय तारीख़ को जमा करने थे। पहले किस्त जमा करने की तारीख़ इतनी जल्दी आ गई कि उन्हें पता ही न चला। महीने की एक तारीख़ को दस हजार एक सौ रूपए लौटाने थे। पांच हजार मूलधन और सौ रूपए व्याज। शर्तों के अनुसार अगर रूपए एक तारीख़ को जमा नहीं करता है तो उसे लेट जमा करने के प्रतिदिन के हिसाब से अतिरिक्त पचास रुपए देने होंगे। वह आश्वस्त था कि रूपए एक तारीख़ को जमा कर दिया कर देगा। पैसे जमा करने के लिए काम करना जरूरी था। एक बार फिर उसने तय किया कि पुनः दिल्ली जाएगा और किसी दूसरे ठेकेदार के यहाँ काम करेगा। मुन्नी नहीं मानी। उसने यही कुछ काम तलाश करने की सलाह दी। उसकी सलाह सिर माथे पर। वह मान गया। उसका भी मन था कि वह मुन्नी के पास ही रहे। उसने काम की तलाश शुरू की। काम मिलने में ज़्यादा परेशानी नहीं हुई। काम मिल गया। प्रतिदिन पांच सौ रूपए मिलने थे। उसे छतों की ढलाई करने वाली मशीन पर काम करना था।
जिंदगी की गाड़ी पटरी पर लौट आई थी। लोगों के पास इतना पैसा था कि रोज ही किसी न किसी की छत ढालनी ही होती थी। जिनके पास पैसा नहीं था उनके पास था सरकारी आवास का पैसा। इस तरह उसने तीन महीने की किस्त समय पर जमा की। उसमें से जो पैसे वह बचा पाया—उसमें जिंदगी की गाड़ी भी सरपट दौड़ रही थी।
5
सर्दियों के दिन बीत गए थे। मौसम ने वसन्त के आगमन के संकेत देने शुरू कर दिए थे। धूप की चमक बढ़ कर उतनी हो गई थी—जहां उसका गुनगुनापन बढ़ना होना शुरू हो जाता है। फागुन चल रहा था। होली का रंग सबके ऊपर चढ़ा हुआ था। इन्हीं दिनों में एक दिन वह ढलाई के कार्य में व्यस्त था। तभी साथी मजदूर ने उसे बताया कि कोरोना की महामारी आ गई है। मोबाइल पर बता रहा है। एक आदमी को हो जाती है तो उसके पास जो जाता है उसे भी हो जाती है।
गोपाल—"भक्क साले झूठ बोल रहे हो ना।"
आदमी—"अरे नहीं रे, सही में। तुम लगता है देखे ही नहीं।"
उसने अपनी बात को दूसरे मजदूर से सत्यापित करवाया तो जा कर उसे भरोसा हुआ कि कुछ आ गया है। फिर सबने आपस में ढांढ़स बंधाते हुए कहा कि कुछ नहीं होगा। खाली डरा रहे हैं यह लोग। वह शाम को जब पास की बाजार में पहुंचे, तब वहां रोज की अपेक्षा दुकानों पर भारी भीड़ लगी हुई थी। लोग भर-भर कर सामान खरीद रहे थे। उन्होंने जब पता किया कि इतनी भीड़ क्यूं है तो पता चला कि लाकडाउन लगने वाला है। कल से सब कुछ बंद हो जाएगा। कोई कहीं आ जा नहीं सकता है। काम भी बंद होने जा रहा है। गोपाल वापस लौटा। मुन्नी घर पर नहीं थी। वह पड़ोस के घर में बैठी बतिया रही थी। उसने आते ही खटिया को जोर से पटका और लेट गया। मुन्नी आई तो उसे अचानक झिंझोड़ कर जगाया। वह हड़बड़ा कर उठ गया। वह चिल्लाने लगी कि कल से सब कुछ बंद होने वाला है। सब कुछ बंद हो जाएगा तो कैसे पैसा जमा होगा। गोपाल ने उसे शांत कराया। वह किस्त जमा करने को ले कर परेशान हो रही है। गोपाल ने उसे सांत्वना दी कि लाकडाउन तो सबके लिए है फिर वह अकेले क्यूं परेशान हो रही है। जो होगा देखा जाएगा।
अगले दिन गांव के गांव और शहर के शहर सील किए जाने लगे। लोगों की बेतहाशा भीड़ सड़कों पर भूखी प्यासी भागी जा रही थी। दोनों मोबाइल में यह सब देख रहे थे। उन्हें लोगों को इस तरह तड़पते देख कर कष्ट होता लेकिन वह खुश भी थे कि शहर नहीं गए। और अब तो कभी जाएंगे भी नहीं। अगर हम जाते तो ऐसे ही भटकते। लाकडाउन पहले एक हफ्ते, फिर एक हफ्ते कर के बढ़ाया जाने लगा। जो पैसा पिछले दिनों गोपाल ने कमाया था वही पैसा अब गुजारे में काम आ रहा था लेकिन कितना चले—दो हफ्ते बाद वह भी चुक गया। गोपाल ने फिर से मज़बूरी में मालिक से रूपए उधार लिए, इस आशा में कि जल्दी ही लाकडाउन हट जाएगा तो काम करके सारे रूपए चुका देगा। लाकडाउन था कि बढ़ता ही जा रहा था। हटने के आसार दूर दूर तक नजर नहीं आ रहे थे। महीने हो गए। बाजार बंद, काम बंद।
लोन की चौथी किस्त चुकाने की तारीख़ आ गई। लाकडाउन की वजह से समूह की किस्त वसूलने की बैठक नहीं हो पाई। दोनों बेफ्रिक हो कर ठेकेदार से उधारी ले कर लाकडाउन के दिन काट रहे थे। ऊपर से सरकार ने पांच किलो राशन भी फ्री कर दिया है। कुल दो महीने बाद लाकडाउन हटा। तब तक तीन महीने लोन की किस्त हो चुकी थी और पांच हजार ठेकेदार से उधार ले चुके थे। लाकडाउन हटने के बाद जीवन को पटरी पर आने में थोड़ा और समय लगा। काम के बारे में ठेकेदार से पूछने पर पता चलता कि कोई काम नहीं है अभी। उसकी चिंताएं एक बार फिर उफान पर उफान मारने लगीं।
एक दोपहर वही लोन वाली लड़की एक और लड़की के साथ आईं। वह सूचना देने आई थी कि कल आम के बाग में तीनों किस्त की रकम, व्याज और लेट जमा करने के रकम ले कर आ जाइएगा। इतना कह कर दोनों ने पैडल पर पैर मारा और आगे निकल गई। गोपाल कहीं बाहर गया था। वह घर आया तो मुन्नी का उतरा हुआ चेहरा देख कर उससे पूछा तो उसने बताया कि लोग वाली लड़कियां आईं थीं। वह कल किस्त जमा करने के लिए कह कर गईं हैं। यह सुन कर गोपाल की मुखाकृति बदल गई। वह शून्य में चला गया फिर सिर को खुजलाते हुए वहीं पर बैठ गया। उसे समझ नहीं आ रहा है कि वह रूपए कहां से लाए। पहले ही ठेकेदार से उधार ले चुका है। ऊपर से काम भी नहीं मिल रहा है। क्या करे वह? मुन्नी उसके पास आई और उसका सिर सहलाने लगी।कहने लगी कि कल का कल देखा जाएगा। यह सुनते ही उसकी नसें फड़फड़ाने लगीं। क्या कल का कल देखा जाएगा। कल कहां से आ जाएंगे पैसे। पैसे क्या कोई पेड़ पर लगते हैं। मेरे बाप ने भी जीवन में चवन्नी भी नहीं कमाई। कहां से आएगा पैसा। आंखें उसकी आंसुओं के साथ गुस्से से भर गई। वह कोसने लगा उस दिन को जब बिना दहेज का पैसा लिए ही मुन्नी से शादी के लिए हां कर दिया था। वैसे भी उसे कोई दहेज नहीं मिलने जा रहा था वह कोई सरकारी नौकरी तो कर नहीं रहा था। उसे दो चीज़ में से क़ोई एक ही मिल सकती थी या तो सुंदर लड़की या दहेज। शादी भी क्या धूमधाम से की थी। पांच लाख रूपए ऊधार ले कर। आज वही उसके जी का जंजाल बन गया था।
दूसरे दिन मुन्नी किस्त का पैसा ले कर नहीं जा पाईं। अगले दिन सुबह-सुबह फिर वहीं दोनों लड़कियां हाजिर हो गईं। इस बार उनका स्वर बदला हुआ था। आते ही धमकाने लगीं। बोलीं कि मुन्नी तुम कल क्यूं नहीं आईं रूपए ले कर।
मुन्नी—"मेरे पास रूपए नहीं थे इसलिए नहीं ला पाईं" मुन्नी ने बिना लाग-लपेट के कहा।
लड़की—"अच्छा रूपये लेते समय तो बड़ा अच्छा लग रहा था अब देते समय क्यूं बुरा लग रहा है। कल हम फिर आएंगे इसी समय ठीक है। रूपए रखे रहना"।
मुन्नी—"देखिए मेरे पति के पास अभी कोई काम नहीं है। जब उन्हें काम मिल जाएगा तो हम आपकी पाई-पाई चुका देंगें।" उसने ऐसे कहा कि जैसे सही में रूपए चुका देगी।
लड़की—"देखो हमने लोन तुम्हें दे रखा। तो हम तुम्हीं से वसूल करेंगे। तुम्हारे पति को काम मिला कि नहीं, उससे हमें कोई मतलब नहीं। हमने तुम्हें व्यवसाय करने के लिए दिए थे, तुम्हारे पति को नहीं।" धमकी दे कर दोनों लड़कियां ने पैडल मारा और आगे बढ़ गईं।
मुन्नी का दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगा। जैसे लगा कि उसके पैरो तले से जमीन खिसक गई। यही लड़की थी जो कितना मीठा बोलती थी जब लोन देना था। ऐसे बोलती थी जैसे उसके मुंह से फूल झर रहे हो और आज। आज तो लग रहा था कि देवी माई सवार हैं उस पर। धमकी ऐसी दे रही थी जैसे उसके बाप का राज हो। गोपाल खेतों की तरफ़ से लौटा। मुन्नी चूल्हा बुझा कर बैठी हुई थी. वह उसका बुझा हुआ चेहरा देख कर समझ गया कि कोई बात जरूर है। उसे पुचकारते हुए पूछा कि क्या हुआ ऐसे मुंह लटका कर क्यूं बैठी है वह। वह कुछ नहीं बोली। अनसुना कर दिया उसने। गोपाल ने जब दबाव डाला तो उसने अपना सिर ऊपर किया। उसकी आंखें आंसुओं से भींगी हुईं थीं। आंसुओं को आंखों में समेटते हुए उसने उलाहना वाली पूरी बात बताई। लड़कियां आईं थीं. वह धमकी दे रही हैं। कह रही हैं कि अगर पैसे नहीं दिए तो ठीक नहीं होगा।
गोपाल करे तो करे क्या। वह ठेकेदार से भी रूपए भी तो नहीं मांग सकता। अब कहां जाए। किससे मांगे रूपये। इस महामारी में किसी और के पास भी तो रूपए नहीं है। महामारी सब निगल गई। उसने अपना सिर पकड़ लिया। रात में जब सोने गया तो आंखों में नींद नहीं। मुन्नी की भी हालत कुछ ऐसी ही है। दोनों ने एक-दूसरे को देखा तक नहीं। अपनी-अपनी करवट सो कर सुबह का इंतजार करने लगे। सुबह दोनों लड़कियां फिर आईं—"मुन्नी, अरे वो मुन्नी सुनती हो।बाहर आओ। अरे कहां मर गई, निकल बाहर"। दोनों लड़कियां बाहर से धमकी देती रहीं जब तक कि मुन्नी बाहर नहीं आईं। उसने बाहर आते ही दोनों लड़कियों को लताड़ते हुए गाली दी कि—तुम्हें मना किया था न कि आना मत। चूल्हा देख रही हो उसी में झोंक दूंगी। समझी। भाग जाओ यहां से। बड़ी आई हो पैसा वसूलने। भागोगी कि बनाऊं तुम्हारी इज्जत का कबाड़। एक भी पैसा नही दूंगी जो करना है कर लो। दोनों लड़कियां सकपका गई लेकिन वह भी तो गाली देने की ट्रेनिंग ले कर आई थी। लेकिन मुन्नी तो थी ही ऐसी। तीनों आपस में झगड़ रहे थे, तभी गोपाल भी बाहर आ गया। गोपाल ने भी मुन्नी का पक्ष लिया कहा कि कौन गाली दे रहा था—हम सुन रहे हैं। ठीक है। मुन्नी सही कह रही थी। तुम दोनों यहां से चले जाओ। दोनों लड़कियों ने फिर धमकी दी कि तो तुम दोनों किस्त नही भरोगे। देखते हैं कि कैसे नहीं भरते हो। यह कह कर वह चाची के पास पहुंचीं और उन्हें भी धमकाया। किश्त भरने के लिए कह कर चली गई।
अगले दिन रात में मुन्नी के पिता का फोन आया। उन्होंने बताया कि बिटिया दो लड़कियां आईं थीं। उन्होंने बताया कि तुम लोगों ने लोन ले रखा है और किस्त नही जमा कर रहे हो। इन लड़कियों ने तुम्हें जो भी बोला उसमें इनका कोई दोष नहीं है। यह तो इनका काम ही ऐसा है। अगर वह तुमसे किस्त नही भरवा पाती हैं तो इनकी सैलरी कंपनी काट लेगी। यह भी अपने घर के लिए ही यह सब कर रही हैं। दोनों लड़कियां बहुत परेशान थीं। तुम दोनों इनकी किस्त भर दो। यह कल सुबह फिर तुम्हारे यहां जाएंगी। अगले दिन फिर दोनों दो और आदमियों के साथ लड़कियां हाजिर हो गईं। इस बार वह आर-पार के मूड में आईं हैं। इस बार उन्होंने हंगामा खड़ा कर दिया। वे गंदी-गंदी गालियां देने लगीं। पूरा मोहल्ला इकट्ठा हो गया। सब लोग खड़े तमाशा देख रहे थे। मुन्नी थोड़ी देर तो झगड़ा करती रही फिर अचानक से चिल्ला चिल्ला कर रोने लगी। आखिर कितनी देर वह टिकती उनके आगे। उसके रोने की आवाज़ गांव में दूर तक सुनाई देने लगी। दोनों लड़कियों पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा वह गालियां पर गालियां देती रहीं। उनके जाने के बाद भीड़ तितर-बितर हो गई। सब अपने घरों में चले गए। वह दोनों बदहवास हालत में जहां थे— वहीं पड़े रहे। यह रोजाना की दिनचर्या हो गई। वह आतीं। गालियां देती और धमका कर चली जातीं। अब दोनों ने इनसे बचना शुरू कर दिया। वह जैसे ही आतीं, वह छिप जाते। इस तरह एक महीना और गुजर गया। किस्त की रकम बढ़ती ही जा रही थी। ऊपर से व्याज अलग।
लड़कियों ने एक दिन उसे पकड़ ही लिया जब वह खेत की तरफ़ जा रही थी। वह घात लगा कर उसे ढूंढ रहीं थीं। वहां तो लड़कियों ने मुन्नी को हड़काते हुए कहा कि—"हम जा तो रही हैं। कल फिर आएंगी। अब तुम्हारे बाप की भी यही गति होगी। देखते हैं कि तुम कितनी बेइज्जती सह पाती हो।"
6
गोपाल के पिता कभी भी दोनों के बीच नहीं आते। कोई मतलब भी नहीं रखते। बस अपने काम से काम। वह दोनों से अलग एक झोपड़ी में रहते थे। ऐसा नहीं था कि वह बहुत ईमानदार आदमी थे। एक जमाना था जब वह बदमाशियों और बेईमानी के लिए कुख्यात रहे थे।लोग उनका नाम लेते ही कहते कि अरे उस बेईमान की बात न कीजिए। जवानी भर बस यहां-वहां मुंह मार कर जीवन गुजार दिया। जब बुढ़ापा घेरने लगा तब गंगा नहाने जाने लगे इस आशा में कि गंगा मइया उनके पापों को धुल देंगी। वहीं एक दिन उन्हें सरयू के किनारे एक साधु मिले जो अयोध्या से आ रहे थे। साधु ने उन्हें अपना शिष्य बना लिया। एक-दो बार उनके साथ घर भी आए। एक दिन वह साधु कहीं और चलें गए।
“रमता जोगी, बहता पानी”
अब वह क्या करते। बाज़ार में एक जड़ी बूटियों का औषधालय था—जो बबूल के फल खरीदता था। दो पैसे के जुगाड़ के लिए एक दिन एक बबूल के पेड़ से वह उसका फल तोड़ रहे थे। तोड़ते हुए थक गए तो वहीं बैठ गए। अचानक उन्हें नींद आ गई। सपना देखा कि वह साधु बन गए हैं और चारों ओर उनकी जय-जयकार हो रही है। चेले-चपाटों की कोई कमी नहीं है। वह इलाहाबाद में लगने वाले कुंभ मेले में शाही स्नान करने गए हैं। संगम में डुबकी मारने ही वाले थे कि एक गिरगिट उनके ऊपर से हो कर भागा। उन्हें लगा कि सांप है। वह उठ कर भागे जैसे ठेला मारने पर कुत्ता भागता है। भागते ही उनकी नजर गिरगिट पर गई। उसे देखते ही वह आगबबूला हो गए।डंडा उठाया और उसे वहीं धराशाई कर दिया।
सपने के बारे में सोच कर वह प्रफुल्लित घर लौटे। नीयत दिन वह सरयू नहाने गए। फिर महीनों तक गायब रहे। गांव लौटे। उनकी दाढ़ी सीने के नीचे और बाल में जटा उग आई थी। गांव वाले उनका यह रूप देख हतप्रभ थे। उन्होंने यह मानने से भी इंकार कर दिया कि उनका नाम शिवराम है। वह अपना नाम बाबा अवधेशानंद बताते। जहां जाते लोगों को उपदेश देने लगते। धीरे-धीरे लोग उनको देख कर भागने लगे। भागते ही वह लोगों को दौड़ा लेते। कोई गलती से पकड़ में आ जाता तो वह उन्हें बैठा कर वही कहानियां सुनाते—जिसे पहले वाले साधु से उन्होंने सीखा था। वह समझ गए कि कोई उनकी सुनने वाला नहीं है। फिर वह अपनी पत्नी को बैठा कर दिन भर ज्ञान की बातें बताने लगे। एक दिन आजिज आ कर वह नैहर चलीं गई। अब उन्हें कोई भी सुनने वाला नहीं था। वह एक बार फिर सरयू नदी की तरफ़ प्रस्थान किए। इस बार वह श्मशान के औघड़ से मिले जिसने बताया कि अगर वह रात के बारह बजे नंगे हो कर बिना डरे श्मशान में उसके दिए मंत्रों का जाप करें तो वह वशीकरण मंत्र जगा सकते हैं। फिर तो उनके करोड़ों भक्त होंगे। उन्होंने तय किया कि वह करेंगे। पूर्णिमा की चांदनी रात में वह सारा टोटके का सामान ले कर वहां पहुंचे। रात में नंगे हो कर वह बैठे ही थे कि उन्हें कुछ आता हुआ महसूस हुआ। देखा तो सियारों का एक झुंड उनकी तरफ़ आ रहा है। उन्हें देखते ही वह खरगोश की तरह भाग खड़े हुए।
इस बार गांव लौटे तो दाढ़ी-मूंछ सफाचट और बाल साफ। अब वह गांव वालों को नहीं दौड़ाते। सारा दिन घर में रहते। उनके घर से हमेशा धुआं निकलता रहता। उसमें अजवाइन और धूप की बदबू आती रहती। एक दिन वह बाहर सड़क पर आए। उनका चेहरा तमतमाया हुआ था। तब गोपाल बहुत छोटा था। वह उसे पकड़ कर उसके सिर पर कपूर जलाने लगे। फिर जलता कपूर उसके मुंह में ठूंसने लगे। उन्हें ऐसा करता देख लोगो की भीड़ जमा हो जाया करती। धीरे-धीरे उनकी हिम्मत इतनी बढ़ गयी कि आते-जाते लोगों के साथ भी उन्होंने यहीं करने की कोशिश की। अब उधर से किसी की गुजरने की हिम्मत नहीं होती। गांव वाले समझ गए कि शिवराम पगला गए हैं। एक दिन गांव वालों ने उन्हें योजना बना कर पकड़ लिया जब वह डब्बा ले कर खेत की तरफ जा रहे थे। रस्सी में बांधा और ले गए पागलों के एक डाक्टर के पास जो फैजाबाद में रहता था। वहां दो महीने तक उनका इलाज हुआ। इलाज के बाद वह बिल्कुल ही बदल गए। ऐसा लगता कि किसी शेर को जादू मार कर मेमना बना दिया गया हो। साल भर ऐसे ही घर बैठे गुजर गए तो उन्होंने एक साइकिल बनाने की दुकान खोल दी। अब वह साइकिल बनाते. बदले में इतना कमा लेते कि जीवन ठीक-ठाक चल जाता। परोपकार उनके मन में इस कदर भर गया कि वह किसी से पंचर का पैसा नहीं मांगते जो जितना दे दिया रख लेते। स्कूली बच्चों के पंचर वह मुफ्त में जोड़ देते। ऐसा करते हुए वर्षों गुजर गए और लोग भी उनके पुराने कर्मो को भूल गए। उन्हें याद था तो पंचर बनाता और उनसे अपना सुख-दुख बतियाता शिवराम।
लोगो की निगाह में खटक रहे थे मुन्नी और गोपाल। लाकडाउन में जिस तरह उन्होंने ऐश से गुजारा वह लोगो को रास नहीं आ रहा था। लोगों का क्या है। उन्हें तो बहाना चाहिए था तो मिल गया। वह गुजरते हुए उन्हें ताने मारते। ऐसे-ऐसे ताने कि उनका जी सुलग जाता था। गांव वाले तो गांव वाले एजेंट वाली लड़कियों की गालियां उनके स्वाभिमान को ज्यादा चोट कर रही थीं। गांव के लोग ताने देते और हंसते कि— बड़ी आईं थी लोन लेने। पूरा लाकडाउन खूब गुलछर्रे उड़ाए। अब भरे पैसा। उनका बाहर निकलना मुश्किल हो गया। वह इसका कोई प्रतिकार भी नहीं कर पा रहे थे। एक दिन उनका आत्मसम्मान गालियों के फंदे में बिंध गया। उनकी लाश उसी बबूल के पेड़ से लटकती पाई गई—जहां उन्होंने गिरगिट को मारा था।
7
गोपाल भीतर से टूट गया। उसके पास इतने भी पैसे नहीं थे कि वह पिता का क्रियाकर्म ढंग से कर पाता। गांव वालों ने चंदा लगा कर उनका अंतिम संस्कार सरयू नदी के किनारे कम्हरिया घाट पर किया। चंदे से ही उसकी तेरहवीं हुईं। गांव वालों ने यह सब शिवराम के व्यवहार पर किया था—जो उन्होंने अपने अंतिम दिनों में कमाएं थे। वह पिता को मुखाग्नि दे कर घर लौटा। घर पर वही लड़कियां बैठी हुई थीं। कंपनी ने उन्हें कह रखा था कि वह या तो रिकवरी कराए या स्वयं रूपये लौटाने के लिए तैयार रहें। दोनों तरफ़ जीने-मरने का प्रश्न था। उधर दोनों लड़कियाँ रो रही थीं—इधर यह दोनों। आज उन्होंने कोई गाली नहीं दी। वे निरीह आंखो से आसमान की तरफ़ देखती रहीं।गोपाल और मुन्नी की आँखें ज़मीन में धँसती जा रही थीं। चारों आसमान और ज़मीन से कोई जवाब चाह रहे थे। अचानक हवा चली। नीम की डालियां हिलने लगीं। इनकी हिलने से सूर्य के प्रकाश को वह जगह मिल गई जिसका वह इंतेज़ार कर रहा था। वह बिना एक क्षण गवाएं आ कर लड़की के ऊपर गिरा. उसका गिरना था कि उसने अपनी निगाह मुन्नी की तरफ़ फेरी। उसकी आंखों में अपनापन झलकने लगा— जहां एक सांत्वना भरी आह थी। वह कंपनी की एजेंट से एक लड़की में बदल गई थी जिसे पता था कि दुःख क्या होता है। वह धीरे-धीरे मुन्नी के पास आई। उसके कंधे पर अपने हाथों को रख दिया। उसके आंसू आंख से टपक कर मुन्नी के सिर पर गिरने लगे। मुन्नी ने आंखें ऊपर उठाईं। दोनों की आंखें एक-दूसरे से ऐसे मिली जैसे चुंबक के दो विपरीत ध्रुव। लग रहा था आज दोनों अपने अपने दुखों को एक-दूसरे से बांट देना चाहती हैं। मुन्नी उठ कर खड़ी हो गई। लड़की ने मुन्नी को गले लगाते हुए कान में फुसफुसाया कि—तुम दोनों यहां से कहीं दूर भाग जाओ। इतना दूर कि हमें लगे कि तुम दोनों मर गए। इतना कह कर वह अलग हो गई। अपनी साइकिल उठाई और चली गईं।
8
दोनों सधे कदमों से चले जा रहे हैं। मुन्नी के पैर सड़क पर चल रहे हैं तो दिमाग अभी भी घर की दुनिया में खोया है। अचानक वह एक पत्थर से टकराईं और गिर गई तब उसे अपने यहां होने का एहसास हुआ। दोनों धीरे-धीरे मुख्य सड़क पर आ गए। बस का इंतजार करने लगे जो आजमगढ़ से होते हुए उन्हें अकबरपुर रेलवे स्टेशन पर छोड़ने वाली है। रात का धुंधलका छंटने लगा। सूरज की लालिमा बिखरने वाली है। दूर बस आती देख कर दोनों सड़क के किनारे खड़े हो गए। बस आती है. दोनों सवार होते हैं और दिन निकलने से पहले ही गांव की परछाई को भी छोड़ देते हैं।
सुबह गांव वालों ने देखा कि गोपाल के घर में ताला लगा है। पूरे गांव में अफवाह उड़ गई कि दोनों घर छोड़ कर भाग गए। बस में बैठी मुन्नी गांव से जितना ही दूर जा रही है—उतना ही मरती जा रही है। स्टेशन तक पहुंचते-पहुंचते ऐसा लगा कि वह मर चुकी है। एकदम बदहवास। जैसे ही ट्रेन आई उसमें एक जादू सा हो गया। उसके पैरों में जान वापस आ गई। इस बार स्टेशन पर मुन्नी को कोई परेशानी नहीं हुई। वह यात्रियों के पैरों को कुचलते और लोगों को धकेलते हुए डिब्बे के भीतर चली गई। डिब्बे में भीतर कहीं से आवाज आ रही है— "रहना नहि देस बेगाना है।”
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
सम्पर्क
मोबाइल : 9140730916
ठीक सी कहानी किंतु लंबी खिंची हुई l साथ ही कोई ठेकेदार अपने घर जाने वाले मजदूर को पांच लाख का कर्जा नहीं देता और न ही माइक्रो फाइनैस वाले इस तरह लोन देते
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