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कमाल सुरेया की कविता (अनुवाद- यादवेन्द्र)

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कमाल सुरेया स्त्रियों की स्थिति इस पूरी दुनिया में लगभग एक जैसी है. उनके साथ दोयम दर्जे का व्यवहार हर देश काल परिस्थिति में होता आ रहा है. कमाल सुरेया की कविता को पढ़ कर कुछ ऐसा ही लगता है.  'एक दिन स्त्री चल देती है चुपचाप दबे पाँव' कविता की आख़िरी पंक्तियाँ तो जैसे हमारे मन-मस्तिष्क को झकझोर ही देती हैं.  कमाल की कविता का कमाल का अनुवाद है यादवेन्द्र पाण्डेय का, जो पेशे से तो वैज्ञानिक हैं लेकिन मन से एक उम्दा साहित्यकार. यादवेन्द्र जी पहले भी अपने उम्दा अनुवाद के माध्यम से हमें विश्व-साहित्य से परिचित कराते रहे हैं. इसी क्रम में आज पहली बार पर प्रस्तुत है तुर्की के कवि कमाल सुरेया की यह बेजोड़ कविता। कमाल सुरेया ( 1931-1990) की कविता   एक दिन स्त्री चल देती   है चुपचाप ...  दबे पाँव   (अनुवाद - यादवेन्द्र)  कोई स्त्री रिश्तों को निभाने में सहती है बहुत कुछ .. . मुश्किलें   उसका दिमाग , दिल और रूह तक किसी का निष्ठापूर्वक साथ निभाने को   झेलता   है इतने आघात और ...