कार्तिकेय शुक्ल की कविताएं
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कार्तिकेय शुक्ल |
आज हम ऐसे समय में रह रहे हैं जिसमें हमारा अपना निजी कुछ भी नहीं है। हमारी वे बातें भी सार्वजनिक हैं जिन्हें निहायत निजी होना चाहिए। हर जगह सी सी टी वी कैमरे हम पर अपनी आँखें गड़ाए हुए हैं। हम जिस सोशल मीडिया से जुड़े हैं वह भी हमारी निजता में ऐसे सेंध लगाती है कि हमें इसका अहसास तक नहीं होता। हमसे बिना पूछे हमसे सम्बन्धित जानकारियां बेच कर सार्वजनिक कर दी जाती हैं। इस सार्वजनिकता ने हमसे बहुत कुछ छीन लिया है। मोबाइल के साथ साथ आधार कार्ड, पैन कार्ड जैसे कई दस्तावेज ऐसे हैं जिसके चलते जालसाज हमें हाउस अरेस्ट कर मनमानी कर सकते हैं। अब तो हम सरकार की नीतियों का विरोध भी नहीं कर सकते। अन्यथा उसके कोपभाजन के शिकार बन सकते हैं। कार्तिकेय अपनी कविता में लिखते हैं : 'अब सब के सब निगरानी में हैं/ मनुष्य ही नहीं मनुष्येतर भी/ जो आवाज़ उठाने की ज़हमत करते हैं/ उन्हें कोई किसी रोज़ कहीं/ नदी-नाले में बहता देखता है/ और दबी आवाज़ में कहता है/ सब पानी में हैं'। कार्तिकेय नवोदित कवि हैं। उनके पास लिखने के लिए बेहतर विषय हैं। कहन का तरीका है। कहा जा सकता है कि इस कवि में संभावनाएं हैं। कविता की दुनिया में कवि का स्वागत करते हुए आज हम प्रस्तुत कर रहे हैं कार्तिकेय शुक्ल की कुछ कविताएं।
कार्तिकेय शुक्ल की कविताएं
तथागत का गृह त्याग
मुक्ति नहीं देश छोड़ने में
और न ही देह।
और तुम तथागत,
महज़ बनने बुद्ध छोड़ गए युद्ध!
क्या कहे जाओगे इतिहास के पन्नों में
सोचा भी था?
आज तुम्हारे होने के ढाई हजार सालों बाद
कर रही हैं नई पीढ़ियाँ तुम पर बात
लेकिन पूछोगे नहीं तुम, क्या?
यों भाग खड़े हुए तुम
जैसे भाग खड़े होते हैं श्रृंगाल।
क्या पाए?
कौन - सा परम् सुख?
क्या हुआ आख़िर ज्ञात?
क्यों तथागत?
क्यों माना जाय तुम्हें निष्पाप?
पसंद
तुम, जानती हो क्या पसंद है मुझे?
गंगा, गंगा की लहरें और उन पर चलती नावें
घाट और घाट पर होती आरती।
पुरानी फ़िल्में और गाने
शेक्सपियर के नाटक, शरतचंद्र की कहानियां और अज्ञेय की कविताएं
चाय और कॉफ़ी की चुस्कियाँ।
और तुम्हारा इंतज़ार!
युद्ध
मैं नहीं चाहता युद्ध
इसलिए नहीं कि डर लगता है
इसलिए कि किसी के नींद में खलल न पड़े
गांव के किसानों को ज़्यादा मेहनत न करना पड़े
कारख़ानों में काम करने वाले मज़दूरों का और शोषण
साथ ही स्त्रियों का चरित्र हनन न हो
मुझे उस लड़के की नींद की कहीं अधिक फ़िक्र है
जिसकी माँ इलाज़ के अभाव में हाल ही में मरी है
जिसका बाप उसे सुला रहा है
उन वृद्ध लोगों की चिंता भी कम नहीं
जो दूसरों पर आश्रित हैं
युद्ध से जितना मिलता नहीं
उतना छीन जाता है
आत्मसात
जैसे कि इस दुनिया में
हरेक चीज़ की एक क़ीमत होती है...
मेरे दोस्त,
तुम्हारा प्यार के बारे में क्या नज़रिया है?
मैं डरता हूँ
कि कहीं मैं रह गया बेरोज़गार
जिसे लोग कहते हैं निकम्मा
तो तुम क्या करोगे?
क्या तब भी तुम मेरे साथ रहोगे?
नहीं न!
मत रहना।
मैं खुद नहीं चाहूँगा
कि तब भी तुम साथ रहो।
जाओ, मैं अभी तुम्हें आज़ाद करता हूँ
और जिस बात को ले कर तुम्हें संशय है
उसे आत्मसात करता हूँ।
वह लड़की
वह लड़की अभी भी है दूर
जिसके छू देने मात्र से हो जाना है पेड़
लद जाना है फलों से और झुका देनी है डालियाँ
वह लड़की अभी भी बोलने को है बाक़ी
जिसके सुनने से हो जाना है
रोज़ सर पे मंडराते युद्धों के इस दौर में शांत
वह लड़की अभी भी है अनदेखी
जिसके देखे जाने से
वर्षों की प्यासी इन आँखों को होना है तृप्त
चुप
जैसे कि सब चुप हैं
लोग चाहते हैं मुझसे
मैं भी रहूँ चुप
सिर्फ़ चाहते ही कहाँ हैं
जताते भी तो रहते हैं
जैसे इतिहास में मुँह बंद कराए गए थे
कुछ उसी लहजे में धमकाते भी रहते हैं
लेकिन मैं हो जाता हूँ चुप
तो साँसें रुक जाती हैं
दम फूल जाता है
आँखें लाल हो जाती हैं
बिन खाए कुछ दिन
बिन पानी पिए कुछ घंटे
बिन साँस लिए कुछ सेकंड रह सकता हूँ
लेकिन बिन कुछ बोले
मुझसे रहा न जाता
लगता है कि जीवन हाथ से छूटा जाता
धर्म से बड़ा होता है धंधा
कुछ लोग इतने तहज़ीब पसंद होते हैं
कि वे खाना तक ख़ुद से नहीं खाते
कुछ को चम्मच की ज़रूरत पड़ती है
तो कुछेक को चमचों की
मेरी नज़र अभी खाने पर नहीं है
मैं अभी धंधे में लगा हूँ
धर्म से बड़ा होता है धंधा
मैं एक नया धंधा विकसित करने को सोच रहा हूँ
ताकि रोप सकूँ कुछ ऐसे पौधे
जो छोटे - छोटे कीट पतिंगों के साथ ही
खा सकें आदमी के भी बच्चे
अब सबके सब निगरानी में हैं
आ जाएंगे सब के सब
एक ही फ्रेम में
भले ही देश के नक्शे में
आएं या न आएं
देश की दीवारें
इतनी ऊंची हो चुकी हैं
कि बाहर जाना तो है ही मुश्किल
अन्दर आना भी कम नहीं है कठिन
पंक्षी
जो पहले इधर से उधर आ जा सकते थे
अब नहीं आ - जा सकते
अब सब के सब निगरानी में हैं
मनुष्य ही नहीं मनुष्येतर भी
जो आवाज़ उठाने की ज़हमत करते हैं
उन्हें कोई किसी रोज़ कहीं
नदी - नाले में बहता देखता है
और दबी आवाज़ में कहता है
सब पानी में हैं
प्रेम
प्रेम इसलिए न करो
कि कोई चाहिए
वरन् इसलिए करो
कि दिन भर की दौड़-भाग,
उठक-पटक, चिंता
और तनाव से परेशान हो
तो कोई ऐसा रहे पास
जो प्यार से पूछे,
पुचकारे और करे बात
प्रेम इसलिए करो
कि दुनिया चाहे जो भी हो जाए
कोई छोड़े न कभी साथ
दो अलग दुनियाओं के ख़्वाब
उम्र के एक पड़ाव को पार करने के उपरांत
चीज़ें होने लगती हैं आहिस्ते-आहिस्ते अस्थायी
मिलने की इच्छा होने लगती है कम
कम होने लगती है एक दूसरे की चिंता
होते हुए भी एक साथ
दो लोग
दो अलग दुनियाओं का पालने लगते हैं ख़्वाब
जैसे पर निकलते ही पक्षियों के बच्चे
छोड़ने लगते हैं माँ का साथ
कुछ ऐसे ही दो प्रेमी
हो कर भी एक-दूसरे के पास
नहीं रह पाते एक-दूसरे के साथ
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
सम्पर्क
कार्तिकेय शुक्ल
शोध छात्र, हिन्दी
हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय
तेलंगाना
मोबाइल : 6388366322
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