विनोद शाही का आलेख 'मिथक से इतिहास तक'
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डी. डी. कोसांबी |
इतिहास साक्ष्यों के आधार पर ही आगे बढ़ता है। लेकिन सवाल यह उठता है कि उस समय के इतिहास के बारे में कैसे जाना जाए, जिसके लिए कोई आधारभूत स्रोत ही उपलब्ध नहीं हैं। डी. डी. कोसांबी ने इसके लिए एक नई युक्ति निकाली और उन मिथकों के पास गए जिसकी हमारी भारतीय धार्मिक परम्परा में बहुतायत है। मिथकों का इतिहास की निर्मित के लिए इस्तेमाल करना खतरे से भरे राह पर चलने जैसा था लेकिन कोसांबी ने तार्किक व्याख्याओं के आधार पर इनका विश्लेषण करते हुए ऐतिहासिक स्रोत बना लिया। भारतीय इतिहास के क्षेत्र में यह सर्वथा नवीन प्रयोग था। वैसे भी मानव जाति के ज्ञात इतिहास से और पीछे की ओर झांकने के लिए मिथक से बेहतर कोई उपकरण नहीं। अपने इस विश्लेषण के आधार पर उन्होंने 'मिथक और यथार्थ' जैसी महत्त्वपूर्ण किताब लिखी। इस किताब को लिखने के लिए उन्हें एक लंबा वैचारिक सफर तय करना पड़ा। इतिहास लेखन के इस पक्ष को हम उनकी मृत्यु से 4 वर्ष पूर्व प्रकाशित जिस महत्वपूर्ण किताब में सर्वाधिक मुखर होता पाते हैं, वह यही किताब है। आज 31 जुलाई को डी. डी. कोसांबी के जन्मदिवस पर हम उनकी स्मृति को नमन करते हुए आलोचक विनोद शाही द्वारा लिखा विशेष आलेख प्रस्तुत कर रहे हैं। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं विनोद शाही का आलेख 'मिथक से इतिहास तक'।
'मिथक से इतिहास तक'
विनोद शाही
डी. डी. कोसांबी भारत के उन इतिहासकारों की अगली पांत में खड़े नजर आते हैं, जिन्होंने भारत के प्राचीन इतिहास की पुनर्रचना का काम ही नहीं किया, उसे जीवंत बना कर हमारे सामने ले आने में विशेष भूमिका भी निभाई। शेष इतिहासकारों की तरह वे भी गुफाओं के भित्ति-चित्रों, सिक्कों, शिलालेखों तथा इसी प्रकार की अन्य पुरातात्विक सामग्री के अतिरिक्त क्षेत्रीय सर्वेक्षणों की मदद से इतिहास को खोजने का काम करते रहे। तथापि उनका महत्व जिस क्षेत्र में अप्रतिम है वह उनकी मिथक संबंधी सोच और समझ से जुड़ा हुआ है।
वे मिथक को, अतीत की कुंजियों की तरह सावधानीपूर्वक पकड़ कर, बंद इतिहास के ताले को खोलते हैं। इसके लिए वे प्राचीन काल के अवशेषों के अध्ययन के साथ-साथ, तत्कालीन साहित्य को भी अपने विवेचन का आधार बनाते हैं। वैसे भी मानव जाति के ज्ञात इतिहास से और पीछे की ओर झांकने के लिए मिथक से बेहतर कोई उपकरण नहीं।
पुरातात्विक खोजों से मिली सामग्री के द्वारा वे इतिहास के धुंधले और अमूर्त रूपों के भीतर मौजूद जीवन की परछाई को किसी न किसी रूप में पकड़ने का भागीरथ प्रयास करते दिखाई दे सकते हैं। मिथक के निकट जाने का फायदा यह होता है कि उसकी कथाओं में मौजूद इतिहास, कहीं अधिक जीवंत रूप में हमें उपलब्ध हो सकता है। मिथक की मदद से हम वहां पीछे मौजूद इतिहास तक ही नहीं, उस दौर के जीवन को फिर से जीने की कोशिश करने की हद तक भी जा सकते हैं। प्रागैतिहासिक, पाषाणकालीन या आरण्यक काल का वह जो पीछे छूट गया इतिहास है, उसमें ठीक से प्रवेश करने के लिए सिवाए मिथक या साहित्य के, अन्य कोई ऐसी चीज नहीं है, जो हमें वहां सचमुच ले जा सके। उस दौर में जी रहे लोगों की इच्छाओं और सपनों को पहचान सके और उन्हें अपने साथ लिए आगे के दौर के लोगों के बीच लौट सके।
इतिहास कोई भी क्यों ना हो, अगर उसे गहरे में प्रवेश करना है, तो उसे मनुष्य के सामाजिक अथवा सत्ता संरचनाओं का इतिहास ही नहीं ज्ञात होना चाहिए, अपितु उसे इस बाहरी यथार्थ के मनोवैज्ञानिक अंतर्जगत में झांकने की कोशिश भी करनी चाहिए। परंतु ऐसा आमतौर पर देखा, समझा और स्वीकार नहीं किया जाता। मुख्य धारा का इतिहास आमतौर पर सत्ता की संरचनाओं के अलावा तत्कालीन व्यापार मार्गों और सामाजिक-सांस्कृतिक संस्थाओं को अपना आधार बनाता है।
डी. डी. कोसांबी ने अधिक कठिन रास्ता चुना। वे उसे मनो-सामाजिक संबंधों की संरचनाओं की जटिलता से जोड़ने वाले इतिहासकार के रूप में आगे आए। यहां तक पहुंचने के लिए उन्हें एक लंबा वैचारिक सफर तय करना पड़ा। उनके इतिहास लेखन के पक्ष को हम उनकी मृत्यु से 4 वर्ष पूर्व प्रकाशित जिस महत्वपूर्ण किताब में सर्वाधिक मुखर होता पाते हैं, वह है- 'मिथक और यथार्थ'। यह भारतीय संस्कृति के निर्माण से संबंधित अध्ययन है (1962)। आगे चल कर उन्होंने इसी दिशा में और गहन कार्य करले हुए जो किताब हमें दी, वह थी 'प्राचीन भारत की संस्कृति और सभ्यता की ऐतिहासिक रूपरेखा'' (1965)।
हालांकि इससे बहुत पहले ही वे अपनी कुछ अन्य किताबों की वजह से इतिहासकारों के बीच अपनी एक महत्वपूर्ण जगह बना चुके थे। इस संदर्भ में उनकी विशेष चर्चित किताबें हैं 'ऐन इंट्रोडक्शन टू द स्टडी ऑफ़ इंडियन हिस्ट्री (1956), 'एग्जैसपरेटिंग ऐस्सेज' (1957), 'कंबाइंड मैथडज इन इंडोलॉजी और अनसैटलिंग द पास्ट'।
इन किताबों के आधार पर 'सामाजिक इतिहासकार' के रूप में अनेक इतिहासकारों के द्वारा उनकी भरपूर प्रशंसा की गई है। मसलन इरफान हबीब मानते हैं कि "डी. डी. कोसंबी और आर. एस. शर्मा ने डैनियल थॉर्नर के साथ मिल कर पहली बार किसानों को भारतीय इतिहास के अध्ययन में शामिल किया।" और फिर उन्हीं की तर्ज पर ए. जे. सैयद ने कोसांबी की सामाजिक इतिहास लेखन की विरासत को आगे बढ़ाने वालों में अनेक महत्वपूर्ण इतिहासकारों का नाम लेते हुए कहा है कि "पिछले दो दशकों में आर. एस. शर्मा, इरफान हबीब, रोमिला थापर, बी. एन. एस. यादव और डी. पी. चट्टोपाध्याय जैसे प्रख्यात विद्वानों द्वारा प्राचीन और मध्यकालीन भारत के सामाजिक-आर्थिक इतिहास पर उत्कृष्ट कार्य सामने आए हैं।" इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि अधिकतर इतिहासकारों की निगाह उनके इतिहास लेखन के समाजार्थिक पक्ष पर ही अधिक टिकी है।
तथापि इस संदर्भ में जिस बात की ओर आमतौर पर ध्यान नहीं जाता, वह यह है कि जब भी कोई इतिहासकार मिथक और साहित्य को अपने विवेचन का आधार बनाते हैं, तो सामाजिक इतिहास वाले पक्ष का एक हद तक अतिक्रमण भी करने लगते हैं। मिथक कथाओं की व्याख्या करते हुए वे प्रागैतिहासिक दौर के मनुष्य के जीवन में सीधे प्रवेश करने का जैसे ही प्रयास करते हैं, वे अनायास उनकी आकांक्षाओं और सपनों तक के सहभागी होने की दिशा में आगे बढ़ने लगते हैं। यह काम आमतौर पर साहित्यकार लोगों के द्वारा ही किया जाता रहा है। इतिहासकार के लिए इतना रचनात्मक होना कठिन बात है। लेकिन कोसांबी के लिए यह काम अकस्मात सहज रूप में मुमकिन हो जाता है। इतिहासकारों का ध्यान उनके विवेचन के इस पक्ष की ओर कम ही गया है। तथापि यहां हम देखने का प्रयास करेंगे कि उनका मिथकों के माध्यम से अपने प्रागैतिहासिक काल में प्रवेश का जो प्रयास है, वह किस हद तक रचनात्मक हो सका है। इतिहास लिखते-लिखते वे गोया, कभी-कभार कोई उपन्यास लिखने की दहलीज तक पहुंच गए व्यक्ति मालूम पड़ने लगते हैं।
दूसरी बात जो समझने लायक है, वह यह है कि भारत अपने प्रागैतिहासिक काल में भी, अनेक मामलों में बहुत समृद्ध प्रतीत होता है। खासतौर पर विकसित सांस्कृतिक चेतना की दृष्टि से। ऐसा प्रतीत होने की एक वजह यह है कि कोसांबी जब मिथक को खोलते हुए उसके साक्ष्य खोजने का प्रयास करते हैं, तो वे मंदिरों के अवशेषों के रूप में थोड़ी बहुत बची रह गई हमारी उस दौर की सांस्कृतिक विरासत को इतिहास का उपकरण बनाने लगते हैं। इस तरह वहां पीछे लौटने का रास्ता अगर मिथक के दिशा निर्देशों की वजह से मिलता है, तो उन रास्तों की पहचान और थोड़ी बहुत यात्रा, मंदिरों के भग्नावशेषों के रूप में मिलने वाले मील पत्थरों के द्वारा संभव होती है।
तथापि इस संदर्भ में उनके इस सामाजिक इतिहास के तहत, तुलनात्मक रूप में सांस्कृतिक इतिहास के अधिक नुमायां हो जाने की बात को हम उनके अध्ययन की सीमा नहीं मान सकते। जहां तक संस्कृति का प्रश्न है, वह सामाजिक संबंधों के सार के रूप में ही हमें उपलब्ध होती है। बेशक सार से वस्तु तक पहुंचना, और खासतौर पर उस वस्तु तक पहुंचना, जो खो गई हो, बेहद कठिन होता है। लेकिन डी. डी. कोसांबी इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए एक रास्ता ज़रूर बनाते है, एक ऐसा रास्ता, जो भारत के अन्य किसी इतिहासकार के बस की बात प्रतीत नहीं होता। बेशक इस रास्ते पर चलने की अपनी दिक्कतें और समस्याएं हैं। इसमें बहुत कुछ अनुमानाश्रित हो सकता है। इस वजह से वह इतिहास जैसा होने की गवाही दे कर भी तथ्यपरक इतिहास होने कहलाने से चूक सकता है। लेकिन इस संदर्भ में एक सुविधा भी इतिहासकार को स्वतः हासिल हो जाती है। वह यह है कि संस्कृति की दुनिया सामाजिक संबंधों तथा सत्ता समीकरणों की तुलना में कहीं अधिक टिकाऊ होती है। वहां परिवर्तन की गति अपेक्षाकृत काफी धीमी होती है। इस वजह से संस्कृति के मामले में यह दावा पेश किया जाता रहा है कि वह शाश्वत या सनातन होती है। अभिव्यक्ति रूपों में आने वाली तब्दीलियों के बावजूद, अपनी अंतर्वस्तु के तल पर संस्कृति, व्यापक युग परिवेश के संक्रमण के दबाव में ही बदलने के लिए तैयार होती है। कोसांबी के अध्ययन इस बात पर मोहर लगाते हुए दिखाई दे सकते हैं।
वैदिक पूर्व नवपाषाण काल का जो ताम्र युग वाला चरण है, उसे हम मुख्यतया मातृसत्तात्मक आरण्यक काल कह सकते हैं। तथापि उस दौर में पूजी जाने वाली मातृ देवियों की उपस्थिति, बाद के पितृसत्तात्मक वैदिक काल में भी दिखाई देती रहती है। डी. डी. कोसांबी का ध्यान इस ओर गया है कि मातृ देवियों के मंदिर, उनसे जुड़े अनुष्ठानों एवं पूजा पद्धतियों के अध्ययन हमें किस रूप में उस पीछे के दौर की सटीक जानकारी दे सकते हैं।
तो आइये, इस सफर पर हम उनकी 'मिथक और यथार्थ' वाली किताब की मार्फत जानने का प्रयास करते हैं। इस किताब की भूमिका में वह कुछ महत्वपूर्ण बातें कहते हैं जिनका आकलन और विवेचन ज़रूरी लगता है। इस संदर्भ में नीचे उनकी इस किताब की भूमिका के कुछ महत्त्वपूर्ण अंश दिए जा रहे हैं
डी. डी. कोसांबी के मुताबिक "इन मिथक आधारित विवेचनों में वे साहित्यिक साक्ष्य के साथ 'फील्ड वर्क' के मिलान की पद्धति को अपनाया गया हैं।" तथापि उनका मानना है कि "ऐतिहासिक विकास की प्रक्रिया को भारत में पहले से मौजूद दार्शनिक प्रणालियों के अध्ययन मात्र से नहीं समझा जा सकता है। "महान शंकर, उनसे पहले के बौद्ध और उनके बाद के वैष्णव, आस्था के निचले स्तर से उच्चतर स्तर को अलग करने में कामयाब रहे। आम समाज अपने दिन-प्रतिदिन के अनुष्ठानों में लिप्त हुआ, जीवन के निचले स्तर पर ही अधिक मौजूद दिखाई देता रहे सकता है।"
यहां कोसांबी ने भारतीय दर्शनों तथा सामान्य लोगों के जीवन व्यवहार के बीच की खाई को चिन्हित किया है। उन्हें लगता है कि भारतीय दर्शन सामान्य सामाजिक आधार से बहुत परे निकल गए थे। इसलिए भारत के वास्तविक इतिहास को खोजने के लिए इन दोनों के बीच के रिश्ते को देखना समझना ज़रूरी होगा। अपनी मार्क्सवादी विचारधारा के तहत उन्हें लगता है कि सामान्य लोगों के लिए सबसे बड़ा मसला भोजन और उसे प्राप्त करने से जुड़े किसी व्यवसाय से संबंधित होता है। वे अपने इसी नुक्ते-निगाह से भारतीय दर्शनों के आदर्श पक्ष की एक तरह की आलोचना करते हुए कहते हैं:
'आदिम तत्व लोगों के साझे धार्मिक विश्वासों में जीवित रहते हैं। जैसे की यह प्रार्थना है कि "हमें हमारी रोजमर्रा की ज़रूरत के मुताबिक रोटी मिलनी चाहिए"। पर इस सोच की उत्पति पाषाण काल के अंत से पहले नहीं हुई हो सकती थी, क्योंकि पहले रोटी जैसी कोई चीज ज्ञात नहीं थी। परमपिता परमेश्वर से प्रार्थना करने का विचार भी पशुपालन के युग से पहले नहीं सोचा जा सकता था। तब तक भोजन-संग्रह के संदर्भ में कोई परम पिता नहीं, मातृ देवी प्रमुख थीं।"
इस तरह हम देख सकते हैं कि कोसांबी किस तरह एक रास्ता बना कर भारतीय दर्शनों और मिथकों के भीतर से, पीछे के उस दौर में छलांग लगाते हैं, जिसे हम मातृसत्तात्मक आरण्यक काल कह सकते हैं। उनके इस निष्कर्ष को हम वैदिक ऋचाओं में मौजूद अन्न की ज़रूरत और उसके लिए की गई उपासनाओं के रूप में पुष्ट होता देख सकते हैं। आगे चल कर तो उपनिषद 'अन्नम् ब्रह्म' कह कर, उसका दर्जा सर्वोपरि ही बना देते हैं। दूसरी बात जो इससे स्पष्ट होती है वह यह है कि कोसांबी का ध्यान उन मिथकों की ओर अधिक जाता है, जिनकी मदद से वे वैदिक पूर्व मातृसत्तात्मक काल में प्रवेश करने के लिए कोई गौरतलब सूत्र खोज पाते हैं। इस संदर्भ में वे स्पष्ट करते हैं :
"हमारा वर्तमान कार्य कुछ भारतीय मिथकों और अनुष्ठानों की आदिम जड़ों का पता लगाना है, जो सभ्यता की शुरुआत से बची रहीं और वास्तव में आज तक बची हुई हैं। इस तरह के विश्लेषण की उपेक्षा भारतीय इतिहास की हास्यास्पद विकृति और भारतीय संस्कृति की गलतफहमी की ओर ले जाती है, जिसकी भरपाई अमूर्त धर्मशास्त्र या घोर भौतिकवाद से ऊपर उठने के दावों से नहीं की जा सकती।"
कोसांबी का यह मत कुछ लोगों को मार्क्सवाद विरोधी तक लग सकता है। तथापि यहां वे एक तरह के मौलिक इतिहास चिंतन को प्रस्तुत करते हुए हमारे सामने आते हैं। वे संस्कृति के उस पक्ष पर ध्यान देते हैं जिससे आमतौर पर सनातन या शाश्वत कहा जाता है। तथापि वे दूसरे मार्क्सवादी इतिहासकारों की तरह उसका सरलीकरण नहीं करते। इस तरह के सरलीकरण संस्कृति को आर्थिक संबंधों के आधार पर व्याख्यायित करने की कोशिश करते हैं। इसके उलट कौशांबी संस्कृति की व्याख्या के लिए आर्थिक संबंधों के आधार को स्वीकृति देने के बावजूद यह दिखाते हैं कि नीचे से ऊपर की ओर विकास करती हुई संस्कृति अनेक विश्वासों और अनुष्ठानों को अपना लेती है। फिर वे अनुष्ठान, बात के समय में भी इस तरह सक्रिय रहते हैं जैसे कि वे ही एक नये तरह का यथार्थ हों। इस तरह विविध धार्मिक विश्वास और अनुष्ठान बात के समय में पीछे छूट गए सभ्यता चरण की खबर देने वाले हो जाते हैं। उनकी व्याख्या हम यथार्थ विरोधी धारणाओं की तरह नहीं कर सकते। जबकि सतही समझ रखने वाले मार्क्सवादी उन्हें अंधविश्वास मान कर खारिज कर देने की हद तक चले जाते हैं। अपने इस तरह के मौलिक दृष्टिकोण के कारण वे अल्थूसे और एडोनों के करीब मालूम पड़ते हैं। उनकी इस दृष्टि से की गई प्राचीन इतिहास संबंधी व्याख्याएं, इसीलिए उन्हें अन्य इतिहासकारों से अलग करती है। आगे चल कर वे कहते हैं:
"भारत में विभिन्न मानव समूहों के धार्मिक अनुष्ठान, विशेष रूप से वे जो सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक पैमाने पर सबसे निचले स्तर पर हैं, मोटे तौर पर उस क्रम को दर्शाते हैं जिसमें विशेष समूह एक बड़े. उत्पादक समाज में शामिल हुए थे। सामान्य तौर पर, यह कई उच्च स्तरों के लिए भी सच है। आदिम अनुष्ठानों के जीवाश्म और स्तरीकृत अवशेष, जाति और धर्म के साथ मिल कर एक विशेष समूह को एक साथ रखते हैं। अनुष्ठानों ने एक अत्यधिक समग्र समाज के भीतर दूसरों के सापेक्ष सुसंगत समूह को भी स्थापित किया। आर्थिक स्थिति में परिवर्तन जाति में कुछ संगत परिवर्तन के माध्यम से परिलक्षित होता है, और हाल ही तक कार्य करता रहा है; कभी-कभी संप्रदाय में भी परिवर्तन के माध्यम से। यहां विचारणीय मुख्य समस्याओं में से एक यह है: कभी-कभी पंथों-संप्रदायों का विलय क्यों संभव होता है और अन्य अवसरों पर पंथ हठपूर्वक विलय करने से क्यों इनकार करते हैं? स्वाभाविक रूप से, इस प्रश्न का उत्तर शंकर और रामानुज के दार्शनिक किस्म के "उच्चतम स्तर" की मदद से नहीं दिया जा सकता, क्योंकि यह उस स्तर पर मौजूद ही नहीं है। पंथ अपने आप में संघर्ष नहीं करते। पंथों का पालन करने वाले लोग ही उनमें सामंजस्य बिठाना असंभव पाते हैं। शंकर और रामानुज के अनुयायी सांसारिक स्तर पर भयंकर रूप से झगड़ते थे। यह बहुत ही संदिग्ध है कि वे अपनी दो प्रणालियों के बीच सूक्ष्म धार्मिक मतभेदों के आधार पर शारीरिक हिंसा को उचित ठहरा सकते थे। दोनों संप्रदायों को अलग करने वाली धार्मिक सूक्ष्मताएँ इतनी कठिन हैं कि वे किसी भी तरह के सिरदर्द का कारण बन सकती हैं। लेकिन ऐसा लगता है कि दोनों चिंतन प्रणालियों में ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसके कारण सिर फोड़ने की नौबत आनी चाहिए।"
यहां कौसांबी उस झूठ के ऊपर से पर्दा उठा देते हैं जिसके तहत संस्कृति को शाश्वत सनातन कहने की परंपरा भारत में चल निकली है। उसकी वजह से उनकी निगाह भारत की सांस्कृतिक विविधता-बहुलता मूलक सामंजस्य पर ही नहीं, उसकी वजह से जन्म लेने वाले सांप्रदायिक विवादों और संघर्षों पर भी टिकती है। वे यह देख पाए कि भारत में शैवो-वैष्णवों तथा अद्वैत और दवैतवादियों के बीच कितने उग्र विभेद रहे हैं, जिन्हें शास्त्रार्थों की मदद से ही नहीं, एक दूसरे के विरुद्ध हिंसा के प्रदर्शन के द्वारा भी सुलझाने की कोशिश होती रही है। वे कहते हैं कि इनमें से अनेक पंथ और संप्रदाय बाद के समय में करीब-करीब गायब हो गए। तथापि वे यह सलाह देते हैं कि किन्हीं पंथों-संप्रदायों की लोकप्रियता के कम होने की वजह उनके दर्शनों में नहीं है और ना ही वहां उसे खोजा जाना चाहिए। इसके उलट हमें यह देखना चाहिए कि उनका संबंध उन्हें मानने वाले किस तरह के लोगों के साथ था? कौन सी सत्ता संरचनाएं उनका पोषण कर रही थी? और बाद में किन कारणों से उन्हें संरक्षण मिलना बंद हो गया?
भारत के प्रागैतिहासिक काल में प्रवेश के लिए कोसांबी ऐसे मिथको का सहारा लेते हैं जिनका संबंध उनकी नजर में बाद के पितृसत्तात्मक दौर के साथ हो सकता है। इस संदर्भ में उनकी निगाह खास तौर पर शिव पार्वती के मिथक की ओर जाती है। वे कहते हैं:
"शिव आदिम देवता के रूप में हमारे सामने है। बाद में वे कई समानांतर पंथों-संप्रदायों के रूप में विकसित हुए। वे कुछ लोगों के लिए एक उदात्त सर्वोच्च देवता बन गए। एक समय पर उनके अनेक समकक्ष भी प्रकट हुए और वे विभिन्न मातृ-देवियों के साथ एक हद तक हिंसक संघर्ष में आ गये।
आधुनिक मोहनजोदड़ो की मुहरों पर हमें नग्न तीन मुख वाले देवता मिलते हैं, जो आसानी से आधुनिक शिव का एक प्रारूप हो सकते हैं। लेकिन वह देवता अपने सिर पर भैंस के सींग पहनते हैं। यह महज संयोग नहीं हो सकता कि चरवाहे भैंस-देवता म्हसोबा की तुलना महिषासुर से भी की जाती है। देवी पार्वती ने महिषासुर मर्दिनी के रूप में उसका मर्दन किया था। हम यहां देखेंगे कि योगेश्वरी के रूप में पार्वती का विवाह कहीं-कहीं म्हसोबा के समकक्ष व्यक्ति से होता है। बाद में वह शिव-भैरव के रूप जैसा दिखने लगता है। यह तथ्य कालीघाट पेंटिंग और अन्य चिह्नों पर कुछ प्रकाश डाल सकता है। वहां काली के रूप में पार्वती शिव के शरीर को रौंदती दिखाई देती हैं। एक चित्र में पार्वती जैसे किसी मृत सागर को रौंदती हैं। बेशक यही शिव, विवाह के माध्यम से पार्वती के साथ संयुक्त होने में सफल रहे। हालांकि यह भी माना जाता है कि उसने बाद में पांसों के खेल में शिव से सब कुछ छीन लिया था। उनके एक चित्र में पवित्र बैल नंदी, कोबरा, विभिन्न प्रकार के भूत, हाथी के सिर वाला एक बेटा गणेश और छह सिर वाला (स्कंद) है। इस बात पर ध्यान दिया जा सकता है कि पार्वती के बेटे का शरीर, शिव से संबंधित नहीं था। फिर शिव ने उस बच्चे का सिर काट दिया, जिसे बाद में मिथक में हाथी के सिर से बदल दिया गया। दूसरी ओर, स्कंद शिव के बीज से पैदा हुए थे, लेकिन पार्वती के गर्भ से नहीं। इस जटिल प्रतीकात्मकता और हास्यास्पद रूप से जटिल मिथक को, शिव से संबंधित किसी अमूर्त सिद्धांत द्वारा समझाया नहीं जा सकता है।
शिव और उनके परिवार के बारे में 18वीं शताब्दी की पेशवाकालीन एक पेंटिंग है। उसमें मुख्य आकृतियाँ शिव, गणेश, पार्वती और स्कंद से संबंधित हैं। परिचारक, जो मूल रूप से भूत थे, अब दरबारी बन गए हैं। सीढ़ियों पर शिव का बैल नंदी और गणेश का चूहा है। स्कंद का वाहन, मोर, दर्शाया नहीं गया है। एक अन्य चित्र में हम देखते हैं कि शिव एक ब्रह्मांडीय नर्तक हैं। पर यहां उनका नृत्य आदिवासी वैद्य या जादूगर द्वारा किया जाने वाला आदिम अनुष्ठान अधिक लगता है। इस रूप में उसकी आवश्यकता अभी तक बची हुई प्रतीत होती है।
कोसांबी के द्वारा की गई शिव पार्वती के मिथक की यह व्याख्या, इतिहास के विविध चरणों के साथ अंतर्विकास करती हुई हमारे सामने आती है। इतिहास के हर चरण पर शिव और पार्वती का रूप बदल जाता है। इसका मतलब साफ है। मिथक के तल पर हमें जो परिवर्तन दिखाई देते हैं, वे गहरे में युग के परिवर्तन की सूचना देते हैं। इस तरह हम अपने समाज और संस्कृति के बदलते हुए रूपों को एक मिथक के माध्यम से अपने सामने खुलता हुआ पाते हैं। अपने आदिम रूप में शिव स्पष्ट रूप में मातृसत्तात्मक आरण्यक काल और बाद की पितृसत्तात्मक व्यवस्था में उसके संक्रमण के बीच की एक कड़ी मालूम पड़ते हैं। वे आगे और पीछे दोनों इतिहास चरणों को स्पष्ट करते हुए जैसे लगातार अपना अतिक्रमण करते चले जाते हैं।
वैदिक पूर्व मोहनजोदड़ो काल के शिव नग्न हैं, परंतु उनके तीन सर आधुनिक प्रतीकात्मकता के लिए भी आधार बन सकते हैं। सिर पर धारण किए गए भैंस के सींग उन्हें पशुपालन के दौर से जोड़ते हैं। कालिका और पीछे के प्रागैतिहासिक दौर की मातृ देवी है। वह इतिहास के अगले चरण पर ज़रूरी हो गए पशुपालन को प्रचारित करने वाले महिषासुर का वध कर देती है। आदिम शिव के सिर पर भी भैंस के सींग हैं और फिर थोड़े बाद के समय में वे एक बैल को भी अपने वाहन के रूप में अपने साथ लिए घूमते दिखाई देते हैं। यहां पशुपालकों की इसमें सभ्यता के साथ, मातृ देवियों के आरण्यक समाज की दुश्मनी दिखाई देती है। हालांकि आरंभिक दुश्मनी बाद के समय में इन दोनों के बीच वैवाहिक संबंध का रूप भी लेती है। इसे हम एक युग से दूसरे युग में संक्रमण की प्रक्रिया की तरह देख सकते हैं।
कोसांबी ने इतिहास के इस अंतर्विकास की ओर इशारा तो किया है, परंतु वह थोड़ी और व्याख्या की मांग करता है। एक सवाल अनुत्तरित छूट जाता है कि ऐसा आखिर क्यों हुआ होगा?
यहां हम इस तथ्य पर ध्यान केंद्रित कर सकते हैं कि कालिका अपने दुर्गा वाले रूप में सिंह पर सवार क्यों दिखाई देती है? सिंह मातृसत्तात्मक समाज की शक्ति संरचना का पर्याय है। आरण्यक समाज में सिंह जैसे पशु तभी जीवित रह सकते हैं जब उन्हें अपने आहार के लिए उचित मात्रा में दूसरे पशु उपलब्ध हों। बाद में पशुपालक समाज के प्रकट हो जाने के बाद शिकार पर निर्भर पशुओं के लिए संकट के हालात पैदा हो जाते हैं। इससे आरण्यक सभ्यता का आंतरिक संतुलन बिगड़ जाता है। चरवाहा काल के भैंसों के देवता उल्टे इन्हीं हिंसक पशुओं का शिकार कर के अपने भविष्य को उनसे बचाते हुए दिखाई देते हैं। म्हसोवा या महिषासुर के रूप में ऐसे पशुपालकों की आज तक अनेक आदिवासी इलाकों में एक देवता के रूप में पूजा होती है। महिष देवता को महिषासुर के रूप में प्रचारित करने का काम भी बाद के समय में हुआ प्रतीत होता है। यह महिष देवता बाद में महेश के रूप में हमारे सामने प्रकट हुआ होगा।
आरण्यक सभ्यता का संरक्षण करने वाली मातृ देवियों से ऐसे नए पशुपालक देवताओं के संघर्ष की कथा, इस मिथक के जरिए हमारे सामने प्रकट होती है। तथापि वह जो आरण्यक दौर का संघर्ष है, वह बाद के समय में इन दोनों के बीच गठबंधन के नए दौर के रूप में हमारे सामने आने लगता है। यह वह समय रहा होगा जब आरण्यक सभ्यता के द्वारा अपनी पराजय को एक हद तक स्वीकार कर लिया गया होगा और चरवाहा काल के साथ-साथ कृषि सभ्यता वाले अगले विकास चरण को समाज ने अपने विकास और प्रगति के लिए जरूरी मान लिया होगा। यहां हम यह भी देख सकते हैं की मातृ देवी के रूप में कालिका या दुर्गा के नए रूप पार्वती का महेश यानी शिव से विवाह तो हो जाता है, परंतु इन दोनों के बीच एक दूसरे को पराजित करने का आंतरिक संघर्ष फिर भी बदस्तूर जारी रहता है। सभ्यता के एक चरण से दूसरे चरण में प्रवेश की प्रक्रिया के देर तक जारी रहने के संबंध में यह मिथक हमें बहुत कुछ बताता प्रतीत होता है।
युग संक्रमण के संबंध में इस मिथक से जुड़ी एक अन्य बात भी अर्थपूर्ण प्रतीत होती है। उसका संबंध दुर्गा के आठ या नौ अवतारों से है। नवरात्रि में उन सभी नौ देवियों का एक ही देवी के अनेक रूपों की तरह स्मरण किया जाता है। शिव से उन सभी को संबंधित मानने के संदर्भ में कोसांबी के इस कथन को देखा जा सकता है कि शिव के अनेक रुप या प्रतिरूप बात के समयों में प्रकट होते रहे हैं, परंतु अब उन्हें एक ही देवता के विविध रूपों या आयामों की तरह देखा जाने लगा है।
कोसांबी ने शिव पार्वती के पुत्रों के जन्म की कथा को इस कदर जटिल माना है कि उसकी सहज रूप में व्याख्या उन्हें संभव दिखाई नहीं देती। तथापि इस बारे में भी कुछ बातें जोडी जा सकती हैं। गणेश की उत्पत्ति पार्वती की देह के मल या मैल से हुई बताई जाती है। इसके यौनिक एवं संभोगजनित संकेत स्पष्ट हैं। तथापि उसका संबंध शिव से नहीं माना जाता, क्योंकि पार्वती आदिम मातृ देवी के रूप में स्वच्छंद आचरण करने वाली स्त्री रही होगी। कबीलाई समाज संरचना में संतानों के नाम माता के नाम से जुड़े रहते हैं, क्योंकि उनके पिता के संबंध में निश्चित रूप से कुछ भी कहना संभव नहीं होता। बाद के चरवाहा काल तथा कृषि सभ्यता वाले काल में जब पितृसतात्मक परिवार समाज के केंद्र में आ गए, तब कभी लाई स्त्रियों का स्वच्छंद व्यवहार अनैतिक माना जाने लग पड़ा होगा। महिषासुर की एक देवता के रूप में पूजा करने वाले कबीलों में पार्वती को एक वेश्या की तरह याद किया जाता है। कबीलाई स्त्रियों के स्वच्छंद आचरण को इस रूप में देखने का काम, बाद के चरवाहा और कृषि काल की उपज मालूम पड़ता है। म्हसोबा, जिसे बाद में महिषासुर कहा गया, मूलतः चरवाहा संस्कृति का देवता प्रतीत होता है। गणेश कबीलाई दौर के मातृ सत्तात्मक समाज संरचना की उपज प्रतीत होते हैं। शिव गणेश के पिता होने से इनकार कर देते हैं और उसका सिर काट देते हैं। इस पर पार्वती जिद कर के उसका सर दोबारा लगाने के लिए कहती है। तब आरण्यक सभ्यता संस्कृति के एक केंद्रीय प्रतीक के रूप में एक हाथी का सर उन्हें लगा दिया जाता है। यह अतीत की आरण्यक संस्कृति को पुनर्जीवित करने से जुड़ी बात प्रतीत होती है।
दूसरी और स्कंद शिव के पुत्र है, परंतु पार्वती के गर्भ से उत्पन्न नहीं होते। इसका अर्थ स्पष्ट है। शिव का संबंध किसी अन्य स्त्री से रहा होगा। अनेक स्त्रियों से संबंध की बात पितृ सत्तात्मक समाज के आरंभिक चरण में असामान्य नहीं मानी जा सकती। तथापि अबा के नौ रूपों में से किसी को भी स्कंद की माता के रूप में नहीं देखा जाता है। इस रहस्य के ऊपर से पर्दा तब उठा, जब कुछ वर्ष पहले मैं केरल गया हुआ था, वहां कालडी में मुझे एक मंदिर मिला जिसमें स्कंद की मूर्ति प्रतिष्ठित थी। वहां स्कंद की उत्पत्ति के संबंध में मुझे यह कथा बताई गई कि उसका जन्म शिव और विष्णु के मोहिनी रूप के संयोग से हुआ था। हम जानते हैं कि विष्णु ने समुद्र मंथन की कथा में अपने मोहिनी रूप को प्रकट किया था। विष्णु बहुत बाद की पितृसत्तात्मक संस्कृति के देवता के रूप में प्रतिष्ठित होते हैं। शिव और विष्णु का यह संयोजन भी बहुत बात का प्रतीत होता है। इसके बाद शिव के दो संस्कृतियों के बीच पुल होने की स्थिति करीब करीब समाप्त हो जाती है। स्कंद उस संक्रमण कालीन विरासत का अंत करने वाले देवों के नए सेनापति की तरह हमारे सामने आते हैं। इस विरासत के अंत को भी शिव के मिथक में संकेत रूप में मौजूद देखा जा सकता है। शिव के गले में लटके हुए सांप उनके अतीत कालीन नाग संस्कृति के साथ संबंध को बताते हैं। जबकि स्कंद का वाहन मोर है, जो सांपों को अपना भोजन बनाता है। एक वाहन के रूप में गणेश का चूहा भी कई तरह के संकेतों से युक्त प्रतीत होता है। पहली नजर में यह हास्यास्पद है। कोसांबी की निगाह भी इस तरफ गयी है। पर यह सवाल अव्याख्यायित छूट गया है कि चूहे जैसे प्राणी को हाथी के सिर वाले भारी भरकम गणेश का वाहन होने का गौरव किस कारण दिया गया हो सकता है। एक संभावना यह हो सकती है कि इसके पीछे मातृसत्तात्मक समाज की वह मानसिकता काम कर रही होगी जो कृषि सभ्यता का जैसे भी मुमकिन हो, विनाश देखना चाहती होगी। किसान इस बात से भली भांति परिचित हैं कि उनकी खेती के सबसे बड़े दुश्मन चूहे ही होते हैं। चूहों की संख्या अधिक हो जाए तो उन्हें मारने के व्यापक अभियान तक चलाए जाते हैं। यहां तक कि कुछ समूह इस काम की विशेषज्ञता रखने वाले लोगों के रूप में भी सामने आए, जो बात में चूहों को खाने के लिए भी मशहूर हो गए। हालांकि बहुत बात के समय में मुसहर लोगों के समूह अकालग्रस्त हालत में भुखमरी की वजह से इस ओर रुख करने वाले लोगों की तरह भी हमारे सामने आते हैं।
इस तरह नाग, मोर और चूहे को हम भारत में सभ्यता के विकास के विविध चरणों से जुड़े हुए प्रतीक प्राणियों की तरह देख सकते हैं। भारतीय उपमहाद्वीप में नाग जाति के लोगों की उपस्थिति प्रागैतिहासिक काल से संबंधित मानी जाती है। इस तरह के पहले निवासी संभवतः आदिवासी रहे होंगे। उन्हें पूर्वोत्तर में नाग, पूर्वी भारत में संथाल, मध्य भारत में भील और गौड तथा दक्षिण भारत में टोडा कहां जाता है। इन्हें आर्यों और द्रविड़ों के भारत में अपनी केंद्रीय उपस्थिति दर्ज कराने से पहले के माना जाता है। शिव का संबंध इस पहले और बात के दोनों सभ्यता मूलक विकास चरणों के साथ दिखाई देता है। लेकिन फिर धीरे-धीरे विष्णु और उसके विरासत से जुड़े देवता अधिक महत्वपूर्ण होते चले जाते हैं। हालांकि शिव की मौजूदगी भी, एक हद तक बाद के समय में भी दिखाई देती रहती है।
शिव के इस मिथक में भैंस और हाथी के सिर वाले देवता हैं और वे सिंह, बैल, मोर और चूहे जैसे प्राणियों पर सवारी करते हैं। मनुष्य और पशु की इस आपसदारी का संबंध आरण्यक काल की जातीय स्मृतियों के साथ मालूम पड़ता है। उस दौर में मनुष्य के पशुओं के साथ करीबी रिश्ते रहे होंगे, जिन्हें बाद में मिथक कथाओं के रूप में सुरक्षित कर लिया गया। इस संदर्भ में कौसांबी स्पष्ट करते हैं कि इस तरह की आपसदारी विश्व के लगभग सभी मिथक कथाओं में किसी न किसी रूप में मौजूद दिखाई देती है। इस तरह उन्हें अतीत कालीन सभ्यता के पीछे छूट गए चरणों में पुनर्प्रवेश के द्वार खोलने के कारकों की तरह देखा जा सकता है। तुलना के रूप में कोसांबी अनेक अन्य देशों के इसी तरह के कुछ अन्य मिथकों की ओर हमारा ध्यान खींचते हैं:
* हिमयुग के चामोइस-मुखौटाधारी नर्तक और पाषाण युग की फ्रांसीसी 'डायब्लोटिन्स' की तुलना, मध्ययुगीन नृत्य करने वाले नटराज और भैंस-मुख वाले सिंधु शिव से करनी अर्थपूर्ण हो सकती है। हाथी के सिर वाले गणेश भी कभी-कभी एक नर्तक, 'नेट्टा-गणेश' के रूप में दिखाई देते हैं। क्या उनका यूरोपीय हिमयुग के उस नर्तक से कोई संबंध नहीं है, जो सिर पर एक विशालकाय मुखौटा पहनता है, और अपनी भुजाओं से किसी विशालकाय प्राणी के कार्यों की नकल करता है? क्या ऐसे नर्तक इस तथ्य की व्याख्या नहीं करेंगे कि गणेश के पास केवल एक दाँत माना जाता है। भारतीय आदिवासी नर्तक की दो भुजाएँ, सूंड और दोनों दाँतों की एक साथ नकल करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं। बंदर के चेहरे वाले हनुमान, जिन्हें एक हाथ में पहाड़ उठाए दिखाया गया है, किसी भी जोरदार नृत्य करने वाले जंगली की तरह उछलते हैं। हनुमत का अर्थ है "ठोड़ी वाला"। पर यह एक ऐसी दैहिक विशेषता है, जो किसी भी पुरुष के पास नहीं है। हनुमान नर्तक जो दिव्य प्रेरणा के तहत ऊंची छलांग लगाते हैं, वे अभी भी दक्षिण कोंकण हली वसंत त्योहारों की एक विशेषता हैं।
दुनिया के कई अन्य हिस्सों में समानांतर मिथकों की मौजूदगी दिखाई देती है। इसमें यूरोप और विजय-पूर्व अमेरिका शामिल हैं। समकालीन अफ्रीका भी ऐसी कई मान्यताओं को संरक्षित करता दिखाई देता है। ये मिथक भारतीय अतीत को एक वैश्विक भू-संरचना में पुनर्स्थापित करते हैं।"
यहां सवाल उठता है कि दुनिया भर के अनेक अलग-अलग भू-भागों में प्रकट होने वाले मिथकों में इस तरह की समानता के पीछे असल कारण क्या है? क्या इसका मतलब यह है कि मानव जाति के अलग-अलग समयों का विकास, जिन ऐतिहासिक चरणों के रूप में हमारे सामने आता है, उसमें समय क्रम की भिन्नता के बावजूद कोई
एकरूपता अवश्य है? हालांकि कुछ लोग इसे मानव समाजों की उत्पत्ति के नस्लीय वंशानुगत रूपों के समीकरणों और एक दूसरे समाज में उनकी आवाजाही को भी एक कारण की तरह देखते हैं। कोसांबी इस संबंध में जो राय रखते हैं वह इस प्रकार है:
"यूरोपीय हिमयुग के चित्रों और कुछ देवताओं के आधुनिक भारतीय चित्रों के बीच समानताओं का सीधा अर्थ, दोनों सभ्यताओं के बीच वंश आधारित संबंध नहीं है। मिट्टी पर समुद्र की मुहर लगाना मूल रूप से कुछ धार्मिक महत्व रखता था। मेसोपोटामिया में सिलेंडर-नुमा मुहरों की खोज की गई है। इस तरह के चित्र यह स्पष्ट करते हैं कि विभिन्न कुलदेवताओं के साथ मानव समूहों के विलय से उन्हें एक अतिरिक्त प्रोत्साहन अवश्य मिला होगा। एक सिंधु मुहर पर सिंह-मानव की आकृति है। उसे हम विष्णु के नरसिंह अवतार का तार्किक पूर्वज कह सकते हैं। हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की मुहरों में ऐसे कई संकर चित्र हैं। इसलिए कहा जा सकता है कि पशु और मानव के प्रतीकात्मक तालमेल के विचार से समाज काफी पहले से परिचित था। दक्षिण भारत हाथी-सिंह के संयोजन से संबंधित ऐसे प्राचीन चित्रात्मक संकरण से अधिक जुड़ा है!
एच. फ्रैंकफोर्ट द्वारा जामदत नस्र की मुहर पर बैल-हाथी की शंकर प्रजाति चिमेरा का उल्लेख किया गया है। यह मेसोपोटामिया और सिंधु संस्कृतियों के बीच बहुत पहले के समय में घनिष्ठ संपर्क का महत्वपूर्ण सबूत है। मेरे विचार में हो सकता है कि अर्ध-नारीश्वर का चित्र भी दो देवताओं को मिलाने के लिए संकरण की इस तकनीक का उदाहरण हो। ताकि एक साथ दोनों को श्रद्धा अर्पित की जा सके। शिव का पार्वती से विवाह, निस्संदेह एक बाद की घटना थी। तब की जब मानव विवाह विशेष समाज में एक स्वीकृत सांस्कृतिक समारोह बन गया था और विवाह के जोड़ों को आम तौर पर मान्यता दे दी गई थी। इस प्रकार की व्याख्या यूहेमेरिस्टिक तर्कसंगतता के साथ-साथ रहस्यवाद या धर्मशास्त्र के द्वारा उद्घाटित सत्य के भी विरोध में नहीं जाती।"
कोसांबी का यह जो मत है वह हमें आदिम समाजों की आरण्यक संस्कृति की खबर देता है। इससे हम यह अनुमान लगा सकते हैं कि प्रागैतिहासिक मातृसत्तात्मक समाजों में मानव और पशु के बीच की आपसदारी के रूप अलग-अलग भू-भागों में अलग-अलग तरह के थे। इससे हम भारत और व्यापक रूप में विश्व समाजों की संस्कृतियों में आरंभिक काल में ही बहुलता की मौजूदगी के बारे में अवगत हो सकते हैं। इसका अर्थ स्पष्ट है। सांस्कृतिक बहुलता मानव समाजों की एक सामान्य और अनिवार्य पहचान है। तथापि यह भी सच है कि बाद के ऐतिहासिक विकास के चरणों में इस तरह की बहुलताओं को नियंत्रित और व्यवस्थित करने का काम भी दिखाई देने लगता है। विविध संप्रदाय, पंथ, धर्म और विचारधाराएं बात के समयों में संस्कृति का अपने-अपने दृष्टिकोण से सरलीकरण कर के, उसका अपने पक्ष में विलयन करती हैं। तथापि उसकी व्याख्या हम उसके स्रोतों में मौजूद विविधताओं की ओर लौटते हुए इस रूप में कर सकते हैं कि वहां तक पहुंचने के ऐतिहासिक अंतर्विकास का क्रम स्पष्ट हो सके। कोसांबी इसी तरह के इतिहास बोध को विकसित करने के लिए तथ्यपरक और तर्कसंगत रूप में हमारी सहायता करते हैं। लेकिन इस संदर्भ में यह कहां जा सकता हैं कि भारत में इतिहासकारों और आलोचकों के विवेचनों में, इस तरह के इतिहास बोध की कितनी कमी है। यह देखते हुए वे कहते हैं:
"भारतीय धर्म दर्शन के आदिम स्रोतों तथा सीक्रेट आस्थाओं का सामना करने की अनिच्छा, हमारे बुद्धिजीवियों की पहचान हो गई है। वह दमित औपनिवेशिक जीवन के लंबे अपमान के प्रति सामान्य प्रतिक्रिया की तरह उत्पन्न हुई है। वह अभी भी स्पष्ट रूप से बनी हुई है। उसे वे अपनी अप्रिय स्मृति की तरह देखते हैं। हालाँकि, असली कठिनाई इस बात को समझने की विफलता से संबंधित है कि आदिम अनुष्ठानों ने उन परिस्थितियों में एक पूरी तरह से अलग उद्देश्य की पूर्ति की है।"
अब हम पूछ सकते हैं कि हम अपने समय में प्रागैतिहासिक मिथकों के सरलीकरणों से उपजे धार्मिक अनुष्ठानों, उत्सवों और कर्मकांडों के भीतर प्रवेश करके, उनके स्रोतों में वापसी के लिए क्या कर सकते हैं? बेशक जैसा कि कोसांबी ने लक्ष्य किया इसके लिए हमें सबसे पहले अपनी औपनिवेशिक कंठा को दरकिनार करने का प्रयास करना होगा। यह समझना होगा कि हमारे धार्मिक अनुष्ठान अंधविश्वास पूर्ण पाखंड मात्र नहीं हैं। जब तक हम उनके वास्तविक मूल्य को ठीक से देख पहचान कर स्वीकार करने की स्थिति में नहीं आते हैं उनके स्रोतों में वापसी का रास्ता भी खुल नहीं सकता है। फिर वह रास्ता, जिसे कोसांबी ने पकड़ा, उसकी ओर देखा जा सकता है। वह खो गए इतिहास के पुनर्निर्माण के लिए अंतर अनुशासनात्मक पद्धति के इस्तेमाल का तरीका है। अपनी इस पद्धति का अनुसरण करते हुए कोसांबी ने हमारे यहां प्रचलित होली जैसे उत्सवों के प्रागैतिहासिक स्रोतों की खोज से संबंधित जो पुनर्व्याख्या की है, कुछ लोगों को थोड़ी हतप्रभ भी कर सकती है।
"होली का वसंतोत्सव, जिसे अब कानून और जनमत द्वारा अश्लील, अनैतिक और भ्रष्ट माना जाता है, का असल मतलब पीछे छूट गई जंगली सभ्यता के चिन्हों से लगाया जा सकता है। उस समय जब भोजन इकट्ठा करना आदर्श था, भोजन की सबसे अनिश्चित आपूर्ति और अल्प आहार के साथ साथ, प्रजनन के लिए अतिरिक्त उत्तेजना आवश्यक थी। तब प्रजाति को बचाए रखने के लिए इस तरह की अश्लीलता आवश्यक थी। लेकिन मूल चर्या कभी भी भ्रष्ट नहीं थी। क्योंकि यह तब अपरिहार्य हो गई थी। फिर जब कृषि का मतलब भारी श्रम के साथ-साथ नियमित पोषण हो गया, तब उसके साथ मनुष्य की भूख और यौन क्रिया में भी बदलाव आया।"
अपनी इस तरह की पुनर्व्याख्याओं के अटपटेपन को ले कर कोसांबी आत्म-सजक दिखाई देते हैं। परंतु इसके लिए वे कोई क्षमा याचना नहीं करते। बस अपने गहन क्षेत्र सर्वेक्षण की मदद से ऐसे तथ्यों को उजागर करने में लग जाते हैं जिनकी आमतौर पर सामान्य जन के द्वारा ही नहीं, इतिहासकारों के द्वारा भी उपेक्षा की जाती रही है। हनुमान के प्रति भक्ति भाव से भरे लोग उनकी इस व्याख्या को ले कर परेशान हो सकते हैं कि हनुमान का नृत्य, बंदरों की नकल करने वाले आदिवासियों की हास्यास्पद उछल-कूद का दैवीकरण ही अधिक है। समाज के इस तरह के आक्षेपों की परवाह न करते हुए वे कुछ आदिवासी समाजों के उस तरह के आचरणों की ओर देखने की सलाह देते हैं। वे कहते हैं:
जो लोग टोटेमिक वानर-नर्तक हनुमान की मेरी व्याख्या को नापसंद करते हैं, वे 10वीं-12वीं शताब्दियों के कुछ कनारिस सरदारों के वंशजों के दावों पर विचार कर सकते हैं। हालाँकि परुनार से कोई भी प्रमाणिक वंशावली नहीं मिल सकती थी, लेकिन इन महानुभावों ने रामायण के बंदर-राजा बाली से वंशज होने का दावा करने पर जोर दिया है। यकीनन आदिम अंधविश्वास एक आधुनिक समृद्ध समाज के आर्थिक दर्शन से बहुत ज्यादा बुरा नहीं है। यह दर्शन भूख से पीड़ित दुनिया में अधिशेष अनाज और आलू को नष्ट करने की वजह बनता है। या वह ऐसा राजनीतिक दर्शन हो जाता है जो अंतिम थर्मोन्यूक्लियर निवारकों का महिमामंडन करता है। यहां मेरा उद्देश्य न्याय करना नहीं है, बल्कि एक हद तक विश्लेषण करना है।"
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विनोद शाही |
संपर्क:
मोबाइल : 9814658098
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