विद्या निवास मिश्र का ललित निबन्ध 'पानी बिन सब सून'
बरसात अपने साथ हरियाली लाती है। गर्मी और उमस के मौसम से हमें निजात दिलाती है। चारो तरफ पानी ही पानी दिखाई पड़ता है। यह बारिश अपने साथ बाढ़ भी लाती है जिसकी विनाश लीला हमें भयाक्रांत कर देती है। इसकी वजह से तमाम लोगों को विस्थापित होना पड़ता है। नदियों ने तो बहना ही सीखा है। आखिर वे खुद को कैसे रोकें और कहां कहां रोकें। यह ठीक है कि नदी किनारे ही दुनिया कि तमाम सभ्यताएं विकसित हुईं। लेकिन हमने भी तो हद कर दिया। हमने नदियों के पाट तक को नहीं छोड़ा और उनके किनारों को अतिक्रमित करते हुए घर ही नहीं मुहल्ले भी बसा लिए। इस बारिश, पानी और नदी को ले कर मनुष्य ने कई ऐसे शब्द गढ़े जो अब उसकी सांस्कृतिक सम्पदा हैं।
विद्यानिवास मिश्र के ललित निबन्ध पढ़ते हुए हर बार अपनी जमीन की याद आती है। उनके निबंधों में प्रयुक्त देशज शब्द कई बार चौंकाते हैं। ऐसे शब्द जिन्हें हमने कभी न कभी जरूर सुन रखा है, कई बार तो उनका इस्तेमाल भी किया है। लेकिन अब वे हमसे भी छूटते जा रहे हैं। आगे आने वाली पीढ़ी से इस बारे में हम क्या उम्मीद करें। 'हिन्दी की शब्द सम्पदा' जैसी उनकी किताब इस मामले में अनूठी है। ओम थानवी ने अपनी फेसबुक वाल पर इस किताब का जिक्र करते हुए दो आलेख साझा किए थे। उनमें से एक आलेख आज हम प्रस्तुत कर रहे हैं। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं विद्या निवास मिश्र का रोचक ललित निबन्ध 'पानी बिन सब सून'।
'पानी बिन सब सून'
विद्या निवास मिश्र
हमारी चिन्तन-परम्परा में सुष्टि का आरम्भ ही जल से हुआ है; जल विस्तार, गहराई, अनंत इन सब का प्रतीक है। हमारी वाणी का नाम ही सरस्वती है। राष्ट्र की कल्पना में सात नदियों, गंगा, यमुना, गोदावरी, सरस्वती, सिन्धु, कावेरी, नर्मदा का महत्त्वपूर्ण योगदान है। तीर्थ का अर्थ ही पानी का घाट है और पानी ही इसलिए तीर्थम् है। पानी के स्रोत हमारे देश में मुख्यतः देव और नदी है। वैसे पृथ्वीगर्भ जल-स्रोत भी है और कृत्रिम जलप्रणालियां एवं कूप-तड़ागादि भी प्राचीन काल से हैं, सिचाई के साधन बहुत प्राचीन है। हमारे देश में सिन्धु, ब्रह्मपुत्र और शोणभद्र (सोन) नद है, गंगा, नर्मदा, ताप्ती, महानदी, गोदावरी, कृष्णा और कावेरी बड़ी नदियाँ है, शेष इन की सहायक नदियाँ और उनकी शाखाएँ है या छोटी नदियाँ है। इनके अलावा पहाड़ी नाले हैं, बरसाती नाले है, सोते हैं, झरने है, प्राकृतिक कुंड है, झीलें है, खारी और मीठी, ताल हैं, तलैया है, तालाब है, कुंड है, तड़ाग है, दह (हृद) हैं, पोखर (पुष्कर) हैं, गड़हियाँ हैं, कुएँ हैं, चूहड़ (जोहड़) हैं, बावड़ी (वापी) हैं, चोआ हैं, नहरें हैं, कूला (कुल्या) हैं, नालियां हैं। और सब से ऊपर बादल हैं, वे प्रसन्न न हों तो पृथ्वी का अन्तस्तल सूख जाता है, जैसी कि आज स्थिति हुई है।
अब नदी की आँकी-बाँकी रेखाओं से शुरू करें। नदी का बलुहा किनारा जो पानी की सतह से लगभग बराबर होता है (संस्कृत में पुलिन) रेती कहलाता है, ऊंचा किनारा कगार। नदी का बहाव जहाँ संलक्ष्य हो, वही धार, उसके ठीक बीच में मझधार है। नदी के बीच में उभरी हुई जमीन चाकी कहलाती है। इस पार से उस पार (अवार/आर) तक, आर-पार के बीच को नदी का पाट कहते हैं। बरसात के अलावा नदी का वास्तविक विस्तार, नदी का पेट है, उससे पानी उपटता है तो नदी में बाढ़ या बहिया या सैलाब आना कहा जाता है और बाढ़ उतरती है तो नदी पेट में समा जाती है, किनारे पाँक छोड़ देती है या उसकी धार बड़ी कड़खा (तेज) हुई तो मिट्टी खोद कर कर्करा बालू पाट कर खेत बरबाद कर देती है। मोड़ों पर नदी बहुत काट भरती है और अड़ार ढाहती चलती है। कभी-कभी बाढ़ आने पर नदी धारा बदलती है तो पुरानी धारा टूट जाती है और उसके मथार पर पानी सूख कर नदी को छोड़न या दोहर कुछ दिनों तक बनी रहती है। बाढ़ में यकायक पानी का ढल आता है, हिमपोषित नदियों में जेठ-वैसाख में ही गेरुए पानी का पहला ढल आता है। उसके बाद नदी का जल गंदला हो जाता है, वर्षा में और मटमैला और फेनिल हो जाता है। शरद् की धूप में फिर पानी निथरता है, तब निघट कर निर्मल नीर बन जाता है। वैसे तो बहता पानी निर्मला, बहना ही नदी की सतत पवित्र होने की प्रक्रिया है।
नदी का जल थिर तो रहता नहीं, वह हमेशा चंचल है, यही है कि कभी कम और कभी ज्यादा। कभी तो उसमें बुलबुले उठते हैं और फिर बुल्ले उठते हैं, फिर हल्की-सी हिलोर उठती है, फिर यकायक लहर झूमने लगती है। ये लहरें हवा का रुख पाते ही भेड़िया बन जाती है और नदी लपेटा मारने लगती है। और बाढ़ की उफान में तो कहीं-कहीं आवर्त, चक्रावर्त या भंवर बन कर बड़ी-बड़ी नावों को आफ़त में डाल देती है। जहाँ धार मन्द होती है वहाँ नदी अगम अथाह होती है, भंवर की जगह प्रायः ओंड़ा कुंड (अवट) या चन्द्र होती है। उथले या छिछले पानी में नाव जमीन पकड़ लेती है, फिर उसे धक्का या टहोका देना पड़ता है। दो धाराओं की टक्कर की जगह बहुत खतरनाक होती है, वहाँ सिल पड़ जाती है, और नाव फट जाने का डर रहता है। अगर आर-पार छिछला पानी हो तो उस जगह बिना पैरे, हल कर नदी पार किया जा सकता है, ऐसी जगह हलान कहलाती है और सीधे इस पार से उस पार तक नाव से पार करने की जगह सोझघट्टी और सोते-सोतियों से हो कर नदी को छोटी बड़ी सभी धाराओं को पार कराने वाला घाट लमता कहलाता है। नदी पार करने का दूसरा साधन है पुल । पीपों का या नावों का या पटरों का पुल वर्षा में तोड़ दिया जाता है, पठारी नदियों के ऊपर वर्षा के सिवा आठ महीने काम देने वाला पक्का पुल रपटा (अंग्रेजी में जिसे 'आयरिश विज' कहते हैं) कहलाता है, खम्भों या पायों वाला पुल या मेहराबों वाला बड़ा पुल, बारहों महीने काम में आता है। पहाड़ी नदियों पर बांस और रस्से के पुल (झूलना पुल, झूला) बनाते हैं।
पानी के थाह की माप फिल्लीडुबान, घुटनाडुबान, धोतीबचाव, कमरभर, छातीभर, डुबान या भरपोरसा, हाथीहुबान जैसे वर्णनात्मक विशेषणों से की जाती है। पैरने की स्थिति आने पर पानी वैराह कहा जाता है। जहाँ पैरना भी सम्भव न हो, उसे औड़र पानी कहते हैं। पानी का रंग निथराने पर ही निखरता है। गहरा पानी जामुनी, पहाड़ी नदियों का पानी झलमल और पारदर्शी, गेरू घुल कर मिलने से गेरुई और सूर्य या चन्द्र की किरणों से मिल कर झिलमिल, प्रखर धूप में झलमल और बादलों की घटाओं के साये में कालाभंवर, साँझ की लाली में लाल।
विद्यानिवास मिश्र के साथ ओम थानवी
पानी की आवाजें भी विलक्षण है, वह कलकल करता है, छलछल करता है, नाव के नीचे पड़ कर थपथप करता है, कोई चीज यकायक गिरती है तो छपाक ध्वनि होती है, जरा-सा हवा ने लहकारा तो पानी छपछप करने लगता है और अगर धारा भी तोड़ मारने लगी तो पानी घरघराने लगता है और जहाँ धाराओं की टक्कर हुई वहाँ पानी लड़ते समय दहाड़ने या गरजने लगता है। चोर की तरह पानी जब किसी छेद में से निकलता है तो सुरसुराता निकल जाता है और उस छेद की मुहानी पर केवल भुल्भुल् करता रहता है। कभी-कभी तो बाढ़ में पानी रेंगते-रेंगते पैठता है, फिर भर जाता है, यकायक सारी फसल बोर देता है, फिर बाढ़ उतरते ही सर से निकल जाता है और कभी-कभी पानी तेजी से बढ़ता हुआ आता है और दहाता-बहाता चला जाता है। पहाड़ी नदियों में ऐसी ही बाढ़ प्रायः आती है जो घंटे दो घंटे में ही उतर जाती है।
पानी के कृत्रिम साधनों में नहर या कूला सबसे अधिक प्रमुख है। नदी से बड़ी नहर निकलती है, फिर शाखा नहरें, इन नहरों से पइन, पइन से नाली और नाली से क्यारी में पानी पहुंचाया जाता है। जहाँ से पानी लिया जाता है वह जगह मथार कहलाती है, वहाँ सिलटी बराबर जमा होती रहती है और उसे बराबर काटना पड़ता है, पइन भी सिलटी से पटती रहती है, उसे झारना पड़ता है। गर्मी के महीने में दिया गया पानी गरमा और बाक़ी महीनों में दिया गया पानी नरमा कहलाता है। नहर के अलावा कभी-कभी छोटे नाले को बाँध कर पानी रोक लिया जाता है। पहाड़ी या पठारी खित्तों में पहाड़ी की ढाल की ओर तीन ऊँची बंधी बाँध कर बरसात का पानी रोक लिया जाता है, यह पानी जरूरत के मुताबिक़ छोटे-छोटे फाटकों से बाहर निकाल दिया जाता है। देवमातृक खित्तों में रहट, पुर और ढेकुल के द्वारा कुओं से सिचाई होती है। चमड़े के थैले को ही पुर या चरस कहते हैं और जितने पुर जिस कुएँ पर चलें, उसके हिसाब से कुएँ एकपैरे, दुपैरे, चौपैरे या अठपैरे कहे जाते हैं। पुर घिर्रियों पर चलते हैं। पैरे कुएँ पर जो लकड़ी का ठाठ रखा रहता है उसे ओखर-पोखर कहते है, कुएँ के चारों ओर का चबूतरा जगत कहलाता है। कुएँ का घेरा जमुवट कहलाता है। जहाँ पानी ऊपर पहुँचाना होता है, वहाँ परोहे के द्वारा पानी नीचे से ऊपर किसी खोह में पहुँचाया जाता है, इसी को बोदर (पूरब में) और नांदा (पच्छिम में) कहा जाता है। पूरब में परोहे के बदले बाँस के छींटे काम में आते हैं। दो-दो आदमी एक-एक धरातल पर लगते हैं। छोटे-छोटे खेतों की भराई ढेंकुली या ढेंकी से की जाती है, इसके लिए कच्चे कुएँ भी पर्याप्त होते हैं। और फिर आज-कल पम्पिंग सैट (उलीचन यन्त्र) है, ट्यूबवैल (नलकूप) हैं, सरकार के भरोसे पर, यन्त्र तन्त्र के भरोसे पर।
जिस साल पानी नहीं बरसता, नदियाँ, ताल तलैयाँ सब सूख जाते हैं, उस साल वत्सला धरती के जैसे थन सूख जाते हैं और तब रहीम की उक्ति याद आती है।
रहिमन पानी राखिए पानी बिन सब सून।
पानी गये न ऊबरै मोती मानुस चून।।
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