सुभाष राय का आलेख 'आंडाल, एक विलक्षण कवि'
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सुभाष राय |
मध्य काल में भक्ति काव्य का अपना विशिष्ट स्थान है। इन संतों के काव्य में मूलतः भक्ति की प्रमुखता है। कहा जा सकता है कि यह काव्य भक्ति भावना से पूरी तरह आप्लावित है। लेकिन आंडाल के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता। सुभाष राय लिखते हैं 'आंडाल इसी चैतन्य भूमि पर खड़ी हो कर सारी दुनिया से स्वयं को एकमेक महसूस करती हैं। उन्हें एक महान संत के रूप में स्वीकार किया गया और प्रायः यह समझा गया कि संत होने से ही उनका कवि होना संभव हुआ होगा। यह पूरा सच नहीं है। उनकी काव्य प्रतिभा भक्ति के अधीन नहीं है। वह अपना स्वातंत्र्य प्रमाणित करती है। कई बार उनके कवि के आगे उनका भक्त पराजित दिखता है, विष्णु भी नतमस्तक नजर आता है।' सुभाष राय इन दिनों आंडाल पर विशिष्ट शोध कार्य में जुटे हुए हैं। इसके पूर्व अक्क महादेवी पर उनकी एक शोधपरक किताब प्रकाशित हो चुकी है। हाल ही में 'पक्षधर' का 38वें अंक में उनका एक महत्त्वपूर्ण आलेख 'आंडाल, एक विलक्षण कवि' प्रकाशित हुआ है। आज पहली बार पर हम इस आलेख को प्रस्तुत कर रहे हैं। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं सुभाष राय का आलेख 'आंडाल, एक विलक्षण कवि'।
'आंडाल, एक विलक्षण कवि'
सुभाष राय
'लाल चोली में ढंके स्तन किसी नश्वर पुरुष को'
देख मारे शरम के निज नयन करते बंद,
वे न जाएंगे किसी के पास प्रभु के सिवा,
उन्हें तो देखना है सिर्फ प्यारे चक्रधर का मुख
यहाँ पल भर न रह सकती, मुझे यमुना किनारे ले चलो
-----आंडाल
आंडाल ने समय की सत्ता पर राज किया। उनका विष्णु ही समय की सत्ता है। वह समय भी है और समयातीत भी। वह व्यक्ति चैतन्य का प्रतीक भी है और महाचैतन्य का भी। आंडाल उससे प्रेम में हैं यानी वे स्वयं से प्रेम में हैं। यह प्रेम करुणा और दर्द से उपजा हुआ है। यही संवेदना की प्रखर भूमि है। आंडाल इसी चैतन्य भूमि पर खड़ी हो कर सारी दुनिया से स्वयं को एकमेक महसूस करती हैं। उन्हें एक महान संत के रूप में स्वीकार किया गया और प्रायः यह समझा गया कि संत होने से ही उनका कवि होना संभव हुआ होगा। यह पूरा सच नहीं है। उनकी काव्य प्रतिभा भक्ति के अधीन नहीं है। वह अपना स्वातंत्र्य प्रमाणित करती है। कई बार उनके कवि के आगे उनका भक्त पराजित दिखता है, विष्णु भी नतमस्तक नजर आता है।
आंडाल विष्णु के पीछे नहीं चलती, विष्णु ही उनके पीछे चलता है। वे अपने दाहक प्रेम से उसे जीत लेती हैं। भक्ति में ऐसा नहीं होता। भक्ति के शब्दार्थ में ही आराध्य का महान और अभूतपूर्व होना सन्निहित है। ऐसे में भक्त के सामने केवल प्रार्थना का विकल्प रह जाता है। वह अपने आराध्य की न आलोचना कर सकता है, न ही उसकी आलोचना सुन सकता है। कवि का व्यक्तित्व भक्त से इसलिए भिन्न होता है कि वह किसी की भी आलोचना कर सकता है, ईश्वर की भी। आंडाल ऐसा करते हुए अचंभित करती हैं। वे कृष्ण से प्रेम करती हैं लेकिन प्रेम करते हुए वे उन्हें अनालोच्य नहीं बनाती। वे एक प्रेमी की तरह उसकी अद्वितीयता को गाती हैं लेकिन उसके कल्मष पर भी नजर रखती हैं। कोई भक्त इस भाषा में भगवान से बात नहीं कर सकता। यह काम एक कवि ही कर सकता है। इसी अर्थ में वे एक महान कवि पहले हैं और भक्त या संत बाद में।
सरोवर में खिले कमल के फूलों के
कांटेदार तने हमारे पांवों में चुभ रहे हैं
बिच्छू के दंश जैसी जलन हो रही है, हमारी वेदना त्रासद है
जल-घट के साथ नृत्य करने वाले
हे ! चतुर स्वामी, अपनी शर्मनाक शरारतें
बंद करो, हमारे वस्त्र लौटा दो।'1
कला और कविता
कविता जीवन की अंतरंग भाषा है। मनुष्य ने अपने मनोभावों की अभिव्यक्ति के लिए पहले मुद्राओं और भंगिमाओं का सहारा लिया होगा, फिर चित्र और नृत्य की भाषा सीखी होगी। इन सबके बाद आएं होंगे शब्द, फिर भाषा। भाषा में ही कविता संभव हो सकती है इसलिए कविता भाषा के बाद की कथा है। कविता में मनुष्य के अनुभव-चित्र आएं होंगे, उसकी स्मृति में संग्रहीत दृश्य और बिंब आये होंगे, कलात्मक विधान आये होंगे। बाद में उनमें अन्तर्निहित सौंदर्य और सूक्ष्मता विधान को कला के सिद्धांतों के रूप में प्रतिष्ठा मिली होगी। कविता का कला विधान बेशक अभ्यास और अनुभव का परिणाम होता है लेकिन एक 16 वर्ष के कवि का क्या अनुभव हो सकता है? उसके जीवन में कितना अभ्यास संभव है? ऐसे में आंडाल के कवि को काव्य-शास्त्र और कला सिद्धांतों की सघन भूल-भुलैया में खोजना कठिन होगा। उनके लिए यह कहना ज्यादा सही होगा कि वे एक विलक्षण कवि मेधा के साथ जन्मी ही थीं। उन्हें जो भी कलाएं मिलीं, वे उनके पिता द्वारा सुनायी गयी पुरा कथाओं से मिलीं होंगी। अगर कहा जाय कि कविताएं सुनते-सुनते वे कवि बन गयीं तो बहुत गलत नहीं होगा। प्रकृति से उनका अनुराग उनके कवित्व को उत्कर्ष प्रदान करता है। उनका जन्म जिस प्रदेश में हुआ, वह वन प्रदेश था। जंगल का अपना संगीत होता है। वहां की जैव-विविधता का सौंदर्य, अनगिन रंग, नृत्य, सुर-सरगम आंडाल के प्रत्यक्ष अनुभव का हिस्सा थे, जो उनकी कविताओं में बार-बार आते हैं और उनकी कलात्मक छटा में अनहद सौंदर्य भर देते हैं।
दुनिया भर के आचार्यों ने कविता के सहस्त्रों रंग महसूस करने की कोशिश की है लेकिन उसकी कोई सर्वसम्मत परिभाषा नहीं दे सके। वर्ड्सवर्थ ने इसे 'भावों का शक्तिशाली और स्वतःस्फूर्त प्रकटीकरण' कहा। आधुनिक आचार्य रामचंद्र शुक्ल कहते हैं, 'जिस तरह आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञानदशा कहलाती है, उसी प्रकार हृदय की मुक्तावस्था रसदशा कहलाती है। हृदय की इसी मुक्ति की साधना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द विधान करती आयी है, उसे कविता कहते हैं।'2 कविता की बहुत सारी परिभाषाएं गढ़ी गयीं लेकिन वह कभी बनी-बनाई परिभाषाओं के पीछे नहीं चली। जब भी उसे भाष्यार्थ के किसी बंधन में जकड़ने की कोशिश की गयी, वह उसे तोड़ कर किसी नए रास्ते पर आगे निकल गयी। आंडाल को पढ़ते हुए यह महसूस किया जा सकता है। वैष्णव विद्वान उनकी प्रेम कविताओं को रहस्यवाद की अज्ञात सरहदों की और खींच ले जाते हैं। कहते हैं कि मनुष्य देह में जन्म ले कर आत्मा परमात्मा से बिछड़ गयी। अब वह पुनर्मिलन की पुकार लगा रही है। कुछ इसे 'ब्राइडल मिस्टिसिज्म' जैसी भारी-भरकम शब्दावली में लपेट कर प्रस्तुत करते हैं।3 कहते हैं, आत्मा रूपी दुल्हन परमात्मा से शादी रचाने चली है। आंडाल खुद अपनी कविताओं की अनेकविध व्याख्या का मौका देतीं हैं। एक बड़ा कवि अभिधा में बात नहीं करता है। वह शब्दों में नहीं उसकी ध्वनियों में रहता है। उसका मंतव्य समझने के लिए उसके बोलने की भंगिमा और वक्रता को भी समझना होता है।
विलक्षण काव्य मेधा
आंडाल कई मामलों में आधुनिक कवियों के समानांतर खड़ी दिखाई पड़ती हैं। भक्त द्वैत चाहता है। वह ईश्वर के समीप रहना चाहता है। लेकिन आंडाल को भक्त बने रहना स्वीकार नहीं। द्वैत उनकी सबसे बड़ी पीड़ा है। वे अपने प्रियतम को पा लेना चाहती हैं। इस तरह वे द्वैत का अतिक्रमण करती हैं। वे भक्ति के पवित्रतावादी मानकों की भी अवज्ञा करती हैं। आम तौर पर भगवान को संकल्पित कोई वस्तु उन्हें अर्पित किये जाने के पूर्व इस्तेमाल में नहीं ली जा सकती लेकिन विष्णु के लिए तैयार की गयी माला उन्हें अर्पित किये जाने के पहले वे स्वयं पहन लेती हैं। उनका विष्णु भी शास्त्रीयता के इस उल्लंघन से नाराज नहीं होता। वह आंडाल की पहनी हुई माला पहन कर प्रसन्न होता है यानी वह आंडाल की अधीनता स्वीकार करता है। हमारे समाज में आज भी मंदिरों, मठों में वही पुरानी मान्यता है। प्रसाद पहले भगवान को, फिर किसी अन्य को। आंडाल ने सैकड़ों वर्ष पूर्व जब इस मान्यता का उल्लंघन किया होगा तो वैष्णव भक्तों और आचार्यों का क्या हाल हुआ होगा, इसकी केवल कल्पना भर की जा सकती है। उन्हें अपने पिता की भारी फटकार सुननी पड़ी थी।4
उनका प्रेम भी बंद समाज के लिए एक चुनौती की तरह ही आता है। भगवान अशरीरी है इसलिए माना जाता है कि उसे आत्मा के स्तर पर ही प्रेम संभव है। आंडाल के पहले संत परंपरा में प्रेम हमेशा आत्मिक और दिव्य प्रेम की तरह ही आया है। आंडाल इस परंपरा पर भी कठोर आघात करती हैं। वे विष्णु को ग्वाला बना देती हैं और अपने प्रेम को देह तक ले जाती हैं।
हम अपनी गायों के साथ जंगल चले जाते हैं
उन्हीं के पास बैठ कर खाते हैं, उन्हीं के साथ घूमते हैं
यद्यपि हम साधारण ग्वाले हैं, कम बुद्धि वाले
लेकिन हम धन्य हैं जो तुम हमारे वंश में पैदा हुए।'5
दैहिक प्रेम की छवियां उनकी कविताओं में खुल कर आती हैं। एक भक्त से ऐसी उम्मीद नहीं की जा सकती, वह ऐसा दुस्साहस कर भी नहीं सकता लेकिन आंडाल निर्भय हो कर प्रेम में पड़ी एक स्त्री की शारीरिक बेचैनी का बयान करती हैं,
'अब मैं सुंदर कंधों वाले स्वामी के जाल में फँस गयी हूँ
क्या मैं यहां से जीवित निकल सकती हूँ।'6
उनकी आँखों, उनके होठों, उनकी त्वचा और उनके स्तनों की हलचलें उनकी कविता में देखी जा सकती हैं। क्या ऐसा करके उन्होंने कोई मर्यादा भंग किया था? शायद नहीं। वे स्पष्ट हैं कि उन्होंने अपना अधिकार समझ कर प्रेम किया है। वे शायद यह भी कहना चाहती थीं कि हर स्त्री प्रेम कर सकती है, यह उसका अधिकार है। भक्ति की सीमाओं के प्रति यह अवज्ञा एक भक्त के बूते की बात नहीं, यह कोई महान कवि ही कर सकता है। इसीलिए आंडाल को एक संत या एक भक्त की तरह देखने की जगह एक विलक्षण और मेधावी कवि की तरह ही देखा जाना चाहिए। तिरुप्पावै में आंडाल कृष्ण को तीर्थ के पवित्र जल की तरह कल्पित करती हैं और उसमें गहरे उतरना चाहतीं है। यह अपनी ही धवल चेतना में नहाना है, स्वयं से स्वयं का मिलन है।
क्या तुम्हें चिड़ियों का चहचहाना सुनायी नहीं पड़ रहा
गोकुल की सुगंधित केशों वाली
आभूषणों के जिंगल बजाती लड़कियो!
तुम इस तरह घरों में पड़ी कैसे रह सकती हो?'7
आंडाल के कहने का ढंग, उनकी शैली, उनका शिल्प, उनकी कलाप्रियता आश्चर्य में डालती है। भाषा और शब्दों पर उनकी पकड़ इतनी सधी हुई है कि कई बार कई-कई शब्द अपनी अनेकविध अर्थस्तरीयता के कारण उनकी कविता में अनोखी चमक पैदा करते हैं। कला से केवल सौंदर्य और विस्मय पैदा करना ही उनका उद्देश्य नहीं है, वे भाव और विचार की गहन संपदा भी साथ ले कर आती हैं। कविता की पक्षधरता भी उनके यहाँ बहुत स्पष्ट दिखाई पड़ती है। उनकी कविताओं में उनके कला संसार की एक अद्भुत खिड़की खुलती है, जिससे झाँकना विस्मित करने वाले अनुभव की तरह सामने आता है।
सांवले रंग वाला, सूरज और चंद्रमा जैसे मुख वाला
वह नारायण ही हमें ढोल दे सकता है
आओ व्रत में शामिल होओ
सारी दुनिया प्रसन्न होगी।'8
पावै का अर्थ वैभव
'तिरुप्पावै' आंडाल की पहली रचना है। पावै आंडाल की पूर्व काव्य परंपरा का भी हिस्सा रहा है लेकिन वे एक महाकवि की तरह इसके अर्थों से खेलती दिखायी पड़ती हैं। पावै शब्द स्त्रियों के एक व्रत के अलावा गुड़िया और लड़की के अर्थ में भी आता है। अपनी रचनाओं में आंडाल इसका ऐसा चमत्कारिक प्रयोग करती हैं कि वह अपने तीनों अर्थों को खोल देता है। वह व्रत करने वाली लड़कियों को इसी शब्द से संबोधित करती हैं, व्रत के लिए और देवी यानी कृष्णप्रिया नप्पिनै के लिए भी इसका उपयोग करती हैं।9
तिरुप्पावै की पहली कविता में तमिल शब्द 'निरत' का कवि ने अलंकारिक प्रयोग किया है। निरत का शाब्दिक अर्थ है उल्लास के साथ स्नान करना। इसके अलावा इसमें प्रियतम के अलगाव से उत्पन्न हुए ताप को शीतल जल से शांत करने का भाव भी निहित है। टीकाकारों ने इसे कृष्ण चेतना से एकमेक होने के अर्थ में भी व्याख्यायित किया है।10 नंदगोप और यशोदा का चित्र खींचते हुए आंडाल नंदगोप को 'तीक्ष्ण भाला धारण करने वाला' और यशोदा को 'भाले जैसी अतुलनीय आँखों वाली' कहती हैं। इसमें भी शब्दार्थ से इतर लक्ष्यार्थ है। नंदगोप बाहरी शत्रुओं से कृष्ण की रक्षा के लिए सन्नद्ध रहते हैं और यशोदा हर शुभाशुभ से अपने पुत्र को बचाये रखने के लिए हर क्षण उस पर अपनी नजरें टिकाये रखतीं हैं। स्नान के लिए सभी लड़कियों को जगाने की कोशिश भी अपनी असाधारण व्यंजना के साथ सामने आती है। प्रियतम से अलगाव तो 'सूली ऊपर सेज हमारी' जैसी स्थिति है। ऐसे में नींद आखिर कैसे आ सकती है? नींद वस्तुतः प्रेम के अनुभव के विरुद्ध है। फिर कृष्ण को पति के रूप में पाने की इच्छा रखने वाली गोपियाँ आखिर कैसे सो सकती हैं?
क्या वह बहरी है जो हमारे बुलावे का जवाब नहीं दे सकती
क्या वह गूंगी है जो हमारी आवाज नहीं सुन पा रही
या वह कृष्ण के दिव्य नाम स्मरण में खो गयी है?11
पावै नोंबू का व्रत तमिल के मार्गलि माह में किया जाता है, जो कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण है। यह महीना दिसंबर-जनवरी में पड़ता है। विष्णु को भी यह बहुत प्रिय है। वे गीता में कहते हैं कि महीनों में मैं मार्गशीर्ष हूँ।12 तमिल मार्गलि उत्तर के मार्गशीर्ष से इस मामले में भिन्न है कि इस महीने में दक्षिण की प्रकृति बसंत के उल्लास से भर जाती है, फूलों की सुगंध चारों ओर पसरने लगती है। मौसम की प्रकृति से विष्णु की प्रकृति मेल खाती है। उनका जिक्र करते हुए आंडाल कहती हैं, वे न तो बहुत शीतल हैं, न ही बहुत गर्म। आंडाल उनकी मुखभंगिमा में दोहरी कांति की कल्पना करती हैं। उनके मुख में वे गर्म सूर्य और शीतल चंद्रमा, दोनों को देखती हैं।13. टीकाकारों के अनुसार विष्णु अपने शत्रुओं के लिए सूर्य की तरह है, उन्हें नष्ट कर देने वाला लेकिन अपने भक्तों के लिए वह चंद्रमा की तरह है, उन्हें शीतलता प्रदान करने वाला। आंडाल के पावै गीत अपनी परंपरा से भिन्न है। यहाँ स्नान बिंब एक नए अर्थ के साथ प्रस्तुत होता है। आंडाल लड़कियों को स्नान के लिए जगाती तो हैं, लेकिन वे जल में स्नान के लिए नहीं जातीं। तिरुप्पावै में कहीं भी किसी तालाब, नदी या ताल में स्नान का उल्लेख नहीं है। लड़कियां इकठ्ठा होकर नंदगोप के महल चली जाती हैं। कृष्ण को जगाने का प्रयास करती हैं और उनसे निवेदन करती हैं कि 'वे सबको नहलाएं।' आंडाल के पावै गीतों में आलवार का अर्थ यानी 'प्रिय में डूब जाना' उद्भाषित हो उठता है। आंडाल की यह दृष्टिसंपन्नता सातवीं सदी के महान शैव संत अप्पार के एक गीत में देखी जा सकती है,
'हे ! सुखद, शीतल, ताजे जल के अनंत देव
मैंने तुममें डूब कर तुम्हें पा लिया।'14
संगमकालीन शैली
आंडाल अपनी परंपरा से भी सीखती हैं। ए. के. रामानुजन कहते हैं, 'कवि महान परंपरा के बारे में सोचता नहीं, वह परंपरा के भीतर चिंतन करता है। इस अर्थ में परंपरा कवि को न केवल सामग्री और माध्यम प्रदान करती है बल्कि उसे अपनी दुनिया के निर्माण का स्फुलिंग भी प्रदान करती है।' आंडाल की कविताओं पर यह कथन पूरी तरह लागू होता है। वे संगमकालीन कविता की 'अहम' और 'पुरम' दोनों शैलियों का संपूर्ण वैभव के साथ उपयोग करती हैं। अहम शैली ज्यादातर प्रेम कविताओं में इस्तेमाल होती रही है जबकि पुरम बाहरी दुनिया के प्रसंगों के चित्रण में काम आती रही है। कृष्ण से प्रेम आतंरिक मामला है। यह अहम शैली है लेकिन उनके दरवाजे पर खड़े हो कर भीतर प्रवेश की इजाजत मांगना सामूहिक प्रयास की तरह कविता में आता है। यहाँ कविता पुरम शैली अख्तियार करती नजर आती है।
तिरुप्पावै में आंडाल का प्रेम आतंरिक जगत का प्रतिनिधित्व करता है लेकिन इन्हीं कविताओं में वे कृष्ण को एक न्यायप्रिय नरेश की तरह भी देखती हैं।15 यहाँ अहम और पुरम शैलियों का सुंदर समवाय दिखाई पड़ता है। अंतिम गीतों में कृष्ण जागते हैं और नप्पिनै के आलिंगन से निकल कर बाहर की सार्वजनिक दुनिया में दाखिल होते हैं। आंडाल उनके इस अंदाज की तुलना नींद से उठते सिंह से करती हैं और अपना भविष्य सुरक्षित करने के लिए उनसे प्रार्थना करती हैं। आंडाल और उनकी संगी गोपिकाएं राजा कृष्ण से प्रशस्ति के बदले प्रतीकात्मक ढोल और सेवा का अवसर मांगती हैं। आंडाल राम, विष्णु और कृष्ण जैसे नामों का प्रयोग चेतना की परम अभिव्यक्ति के लिए एक ही अर्थ में करती हैं। यह सब एक स्पष्ट वैचारिकी के साथ होता है। यह विचार उनकी कविता के कलात्मक सौंदर्य में एक नयी दीप्ति पैदा कर देता है।
हम तुमसे नाराज नहीं हो सकते
केशव! दोहरे चेहरे वाले माधव
तुम्हारी नजर हमारे रेतमहलों पर लगी रहती है
हम तुम्हारी चतुराई समझ नहीं पाते
हे! सागर पार कर लंका का नाश करने वाले स्वामी
हमें और तकलीफ मत दो।'16
परै (ढोल)
आंडाल अपनी पूर्व परंपरा से लिए गए तमाम मिथ, प्रतीक और बिंबों को कविता का सौंदर्य बढ़ाने में तो इस्तेमाल करती ही हैं, उनकी अर्थजनित बहुस्तरीयता से कविता को समृद्ध भी करती हैं। वे 'परै' (ढोल) के अर्थ से खेलती नजर आतीं हैं। 'परै' संगम साहित्य में भी आया है लेकिन अपने पारंपरिक अर्थ में।17 तत्कालीन युद्ध कविताओं में विभिन्न प्रकार के ढोल के उपयोग की चर्चा है। कहा जाता है कि 'परै' बजाने से शत्रुओं की पराजय निश्चित हो जाती है।18 परै का शाब्दिक अर्थ होता है ढोल लेकिन वैष्णव आचार्य इसके कई अर्थ करते हैं। मसलन पुरुषार्थ यानी जीवन का लक्ष्य, कैंकर्य यानी प्रेमपूर्ण सेवा। परै को पवित्र शक्ति, पवित्र समय से भी जोड़ कर देखा जाता है। प्राचीन काल से ही उत्सव मनाने के लिए इसका उपयोग किया जाता रहा है। आंडाल ढोल और उत्सव के संदर्भ को विश्व की कल्याण कामना से जोड़ देती हैं।
इरिक जे. लाट ने लिखा है कि यह ढोल छोटी इच्छाओं का प्रतीक है।'19 लड़कियों को ढोल नहीं बल्कि कृष्ण का संग-साथ चाहिए। लाट आगे कहते हैं, 'वैष्णव भक्त जीवन की छोटी-छोटी आकाँक्षाओं को बुरा नहीं मानते लेकिन जीवन में उस लक्ष्य की ओर बढ़ना चाहिए, जिसमें सब कुछ शामिल हो।' तिरुप्पावै की 29वीं कविता में लड़कियां ढोल की मांग छोड़ देती हैं और चाहती हैं कि उन्हें बस कृष्ण का साथ मिला रहे।20 साधारण स्थूल अर्थ से परे अगर कृष्ण को केवल चेतना के अर्थ में लिया जाय तो आंडाल यहाँ स्त्रियों के कल्याण की, उनके सुखद भविष्य की बात करती हुई दिखती हैं।
हमारी प्रार्थना सुनो, समझो
तुम हम जैसे साधारण लोगों के बीच पैदा हुए हो, जो गायें चराते हैं
तुम हमारी सेवाओं से इंकार नहीं कर सकते
गोविंदा! समझो, हम यहाँ ढोल के लिए नहीं आये हैं
हम सिर्फ तुम्हारे हैं, हम केवल तुम्हारी सेवा करते हैं
हर समय, इस जन्म में और आगे के जन्मों में भी
हमारी सारी इच्छाएं अपनी ओर मोड़ दो।21
नाच्चियार तिरुमोलि का सौंदर्य
नाच्चियार तिरुमोलि में अनेक बिंब और प्रतीक बहुस्तरीय हो कर आते हैं। मिथ, विश्वास और लोककथाएं इसे गहन और अर्थसंपन्न बनातीं हैं। आंडाल को पढ़ते हुए पंक्ति-पंक्ति में शाब्दिक अर्थों में उलझने के खतरे हैं। वे एक समर्थ कवि की तरह शब्द की लक्षणा और व्यंजना शक्तियों का पूरी दक्षता से प्रयोग करती हैं। तिरुमोलि में उनका यह कला वैभव अपनी विराट सामर्थ्य के साथ प्रकट हुआ है। इस कविता में दैहिक अभिव्यक्तियों को देह तक सीमित करके पढ़ने से कोई भी उनके गहरे मंतव्य से छूट सकता है। जब वे कहती हैं कि 'प्रियतम ने सब कुछ छीन लिया है और मेरे पास कुछ नहीं बचा है' तो वे अपनी वंचना की बात नहीं करतीं। दर असल वे कहना चाहतीं हैं कि वे अब पूरी तरह रिक्त हो गयी हैं और प्रियतम आकर उस रिक्ति को भर सकता है। वे अपनी मामूली संपदा यानी चूड़ियों के चुरा लिए जाने की बात करती हैं लेकिन वे कहना चाहती हैं कि 'मेरे पास अब कुछ नहीं है। अगर कुछ हो भी तो कृष्ण के बिना वह व्यर्थ है।' वे अपने भीतर ऐसा शून्य महसूस करती हैं, जिसे कृष्ण ही भर सकता है।22 तिरुमोलि की 12वीं कविता में आंडाल अपने प्रियतम के सौंदर्य के बरक्स अपनी मार्मिक रुग्णता को प्रस्तुत कर जिस काव्य सौंदर्य की सृष्टि करती हैं, वह उनकी पीड़ा को और गहरा बना देता है। नाच्चियार की तमाम कविताओं में वे अपने इस कौशल का प्रयोग करती हैं और इस तरह दर्द को अपने लक्ष्य तक पहुँचने के लिए पुल की तरह इस्तेमाल करती हैं।
मैं भस्मवर्ण हो गयी हूँ, हताश हूँ
मैंने शर्म भी खो दी है, मेरे होठ पीले पड़ गए हैं
मैं खा नहीं सकती, मेरा मन कमजोर हो गया है
शरीर बहुत दुबला हो गया है
एक ही है, गहरे नीले समुद्र की तरह
सांवरा सलोना, उसकी शीतल सुंदर तुलसीमाल ले आओ
उसमें मुझे लपेट दो, मुझे शीतलता प्रदान करो 23
आंडाल का तोता
'तोता' आंडाल का प्रिय प्रतीक है। एक जगह वे कहतीं हैं,
'हे कोयल! अगर तुम मेरे प्रिय को मेरे पास बुला दो
तो मैं अपने तोते से तुम्हारी दोस्ती करा दूंगी।' 24
प्राचीन भारतीय कविता में तोते के लगातार बोलने, टर्राने की तुलना प्रेमी से प्रेमिका के अनवरत निवेदन के साथ की गयी है, जैसे वह प्रियतम को पुकार रहा हो। आंडाल इसका उपयोग करती हैं लेकिन उसी तरह नहीं जैसे उनके पुरखों, पुरखिनों ने किया था। उनके यहाँ तोता प्रिया और प्रियतम के बीच रिश्ते की गोपनीयता का रहस्योद्घाटन करता हुआ दिखता है। वह केवल एक उद्दीपक की तरह नहीं आता है, बल्कि वह प्रेम की तरलता का हिस्सा बन जाता है।
पिंजरे में तोता अविरल आवाज लगाता है
गोविंदा, गोविंदा!, अगर मैं उसे दंडित करती हूँ
उसका खाना रोकती हूँ तो वह चीख कर बोलता है
'उसने धरती एक डग में नाप ली थी'
मित्रों जगहंसाई मोल मत लो
अपनी प्रतिष्ठा मत गिराओ
सिर शर्म से मत झुकाओ, मुझे द्वारका ले चलो।'25
आंडाल का तोता प्रिया के मन की बात छिपाता नहीं, वह 'गोविंदा' का नाम ले कर उसके हृदय के बंद पट खोल देता है। इससे प्रेमिका के मन में अपने प्रियतम को खोजने की उत्कंठा बढ़ जाती है। यह कोई पालतू पक्षी नहीं बल्कि उसके हृदय पिंजर में बंद तोता है। यह कवि से अलग कोई सत्ता भी नहीं है, यह स्वयं कवि ही है। प्रेमिका को भूख नहीं लगती, उसकी प्यास भी मर गयी है। वह निरंतर अपने प्रिय की महिमा और शौर्य को याद करती हुई दुख में भी अंदर के आनंद से आप्लावित हो उठती है। वह तोता प्रिया के हृदय में बसा हुआ केवल तोता या कवि नहीं रह जाता, वह प्रियतम का ही रूप ले लेता है। वह प्रिय और प्रिया दोनों का प्रतिनिधित्व करने लगता है। आंडाल की काव्यात्मक कल्पना भूमि पर वे दोनों एक हो जाते हैं।26 फ़्रेडहेल्म हार्डी कहते हैं कि आंडाल की कविताओं में तोता एक ऐसा प्रतीक है, जहाँ भौतिक जगत प्रियतम की देह में बदल जाता है। आंडाल श्रीधर को तोते की तरह संबोधित करती हैं।
हरे तोते की तरह सुंदर श्रीधर के जाल में फँस गयी हूँ
भ्रमरों के मधुर गान से भरे पुष्पवन में रहने वाली हे कोयल!
सुनो और ध्यान से सुनो, अगर तुम यहाँ रहना चाहती हो
तो शंख, चक्र धारण करने वाले भगवान को
बुलाने के लिए गाओ या उन्हें अपना स्वर्ण कंगन
मुझे देने के लिए विवश कर दो।'27
शंख और चूड़ियां
तिरुप्पावै के 'ढोल' की तरह 'शंख' नाच्चियार तिरुमोलि में एक केंद्रीय बिंब की तरह आता है जो समूची कविता को एकसूत्रता प्रदान करता है। लंबी कविता के पहले ही खंड में शंख आता है, जहाँ आंडाल किसी भी नश्वर पुरुष को स्वीकार करने से इंकार कर देती हैं और शंख, चक्र धारण करने वाले सर्वातिशायी विष्णु को अपने पति के रूप में चुनने का संकेत देती हैं, 'मैंने बचपन से ही अपने बड़े स्तन द्वारका के स्वामी को देने का वचन दे रखा है, हे, कामदेव! मुझे उनसे मिला दो।28
आंडाल विष्णु के शंख के साथ अपनी शंख की चूड़ियों का भी जिक्र करती हैं, जो प्रियतम ने चुरा ली हैं। इस वंचना ने उन्हें अकेला कर दिया है,
'क्या यह उचित है
कि नीलम की तरह श्याम
मणियों का ताज पहने
सुंदर और ख्यात माधव के प्रेम में
मुझे अपनी शंख की चूड़ियां खोनी पड़ें?'29
आंडाल उलाहना देती हैं कि विष्णु को शंख इतना प्रिय है कि वे मुझे भूल गए हैं। समूची नाच्चियार तिरुमोलि शंख के दोहरे अर्थ के सौंदर्य से भरी है। संगम काल से ही कांकू यानी शंख शब्द चूड़ियों के अर्थ में लिया जाता रहा है। चूड़ियां शंख से बनाई जाती रहीं हैं। चूड़ियां ही स्त्रियों की आम आकाँक्षाओं का प्रतिनिधित्व करती रही हैं। विष्णु जैसे प्रेमी ने क्रूरतापूर्वक चूड़ियां चुराकर आंडाल को हताशा और अकेलेपन में धकेल दिया है। यहाँ आंडाल ने मिथ और संसार को एक दूसरे में इस तरह पिरो दिया है कि शंख साधारण और असाधारण के बीच एक खिड़की की तरह उद्भासित हो उठता है।30 इस खिड़की को खोलने के लिए आंडाल विष्णु से शंख के सामीप्य के प्रति ईर्ष्या व्यक्त करती हैं। वे विष्णु पर संग्रह का आरोप लगाती हैं,
'शंख तो उनके पास है ही
मेरी चूड़ियां भी उन्होंने चुरा ली हैं
मेरे पास वही एक संपत्ति थी
वह भी अब मेरी नहीं रही।31
नाच्चियार तिरुमोलि में 'शंख का गीत' नाम से एक लंबी कविता केवल शंख को समर्पित है। आंडाल विष्णु की महत्ता प्रतिपादित करते हुए बताती हैं कि किस तरह एक साधारण शंख उनके संपर्क में आ कर असाधारण हो जाता है। शंख से वालमपुरी या पांचजन्य हो जाता है। तिरुमोलि की सातवीं कविता इस तरह शुरू होती है।
क्या वे कपूर की तरह सुगंधित हैं या कमल की तरह?
क्या उनके मूंगे जैसे लाल होठ स्वाद में मीठे हैं?
मैं माधव के अधरों का स्वाद और उनकी गंध जानना चाहती हूँ
हे! गहरे सागर के श्वेत शंख! हाथी के दांत तोड़ने
वाले प्रभु के बारे में मुझे बताओ। 32
आंडाल इस कविता में शंख से विष्णु के बारे में जानना चाहती हैं। वह हमेशा उनके अधरों पर रहता है इसलिए उसे सब पता होगा। वे सिर्फ जानना ही नहीं चाहतीं बल्कि उन्हें महसूस करना चाहती हैं। कविता धीरे-धीरे समूचे संवेदन प्रवाह से खुद को जोड़ती हुई आगे बढ़ती है। क्या वे सुगंधित हैं? इस प्रश्न के साथ नासिका जुड़ जाती है। फिर वह दृश्य की ओर बढ़ती है। मूंगे जैसे लाल अधर कहते हुए वह आँखों को भी भगवान से जोड़ देती है। हाथी के दांत तोड़ने की क्रिया में स्पर्श का भाव शामिल हो जाता है। और अंत में जैसे ही कविता कहती है, हे! शंख, मुझे सब कुछ बताओ, इस प्रक्रिया में ध्वनि भी उपस्थित हो जाती है। उत्तरोत्तर आंडाल शंख के जीवन का विस्तार करती हैं। कविता में जैसे ही शंख के जन्म का कथा-रहस्य खुलता है, वे उसे नामवाची संज्ञा से पुकारने लगती हैं। राक्षस पंचजन की मृत्यु से पैदा होने के कारण एक को पांचजन्य और दुर्लभ दक्षिणमुख (वालम) होने के कारण दूसरे को वालमपुरी कहती हैं। शंख में ही विष्णु के विरोधी ने आश्रय लिया था,33 इसलिए शंख का स्वरूप भी अपनी मूल संरचना में विष्णु विरोधी है। वे उलाहना देती हैं कि अपने शत्रु को तो उन्होंने अधरों पर रखा हुआ है और प्रेम करने वाली लड़की को भूल गए हैं। इस तरह वे अपना दावा मजबूत कर लेती हैं।
'चूड़ियों के गीत' में आंडाल की मंशा स्पष्ट दिखाई पड़ती है।
जो शंख वे अपने होठों पर रखते हैं, वह उन्हें प्रिय है
क्या मेरी शंख की चूड़ियां मुझे प्रिय नहीं हैं?34
आंडाल की चूड़ियां विष्णु के महत्तम शंख की याद दिलाती हैं। पहले तो आंडाल विष्णु का सामीप्य हासिल होने के कारण शंख से ईर्ष्या करती हैं लेकिन बाद में वे शंख को आरोपमुक्त कर सारा दोष विष्णु पर मढ़ देती हैं क्योंकि उन्होंने ही एक साधारण शंख को हमेशा अपने पास रहने का अवसर उपलब्ध कराया है। वे कहती हैं कि उन्होंने पंचजन की खोल में छिपे राक्षस को मार कर शंख को तो अपना लिया, लेकिन वे मुझे अपनाने की जगह मेरी चूड़ियां चुरा कर मेरे लिए प्राणों का संकट पैदा कर रहे हैं।35
आंडाल यहाँ 'खो देना' और 'ढीला पड़ना' दोनों अर्थों में तमिल शब्द 'कलाल' का प्रयोग करती हैं। 'कलाल' विजेता के विजय चिह्न का भी द्योतक है। वे कहती हैं कि विष्णु ने उनकी पहले से ही ढीली पड़ गयी चूड़ियां चुरा कर उन्हें विजय चिह्न के रूप में 'कंगन' की तरह धारण कर लिया।36 तमिल और संस्कृत कविता में कलाई से सरकती चूड़ियों का रूपांकन प्रेमिका की मनस्थिति प्रकट करने के लिए किया जाता है।37 नायिका प्रेम में इतनी उन्मत्त हो जाती है कि उसकी कलाइयां चूड़ियों को संभाल नहीं पाती हैं। आंडाल इसका अपनी कविताओं में कई जगह इस्तेमाल करती हैं। कविता में ऐसे बहुस्तरीय कलात्मक प्रयोग उत्कट और अपरिमेय काव्य मेधा के बिना संभव नहीं।
प्रकृति का संग
नाच्चियार तिरुमोलि में वे अपने दर्द को ही अपना साधन बना लेती हैं। तिरुमोलि की दूसरी कविता में इस तरह की ध्वनि सुनी जा सकती है
'हजारों नामों से पुकारे जाने वाले
यशोदा के घर मनुष्य रूप में जन्मे नारायण
तुमने हमें जो दर्द दिया है
उससे हम बच नहीं सकते।'38
तिरुमोलि को पढ़ते हुए इस बात का सुखद अहसास होता है कि वे अपनी पूर्ववर्ती साहित्यिक परंपराओं को बखूबी जानती थीं। संगम कवियों की तरह वे 'तेनराल' यानी दक्खिनी हवाओं और 'टिंकाल' यानी चंद्रमा का प्रयोग वियोग के दुख को अभिव्यक्ति देने के लिए करती हैं।39 'दक्खिनी हवाएं' भी उन्हें परेशान करती हैं। वे आम तौर पर बहुत ठंडी नहीं होतीं। थोड़ी गर्म और सुखकर होती हैं लेकिन प्रेम की पीड़ा में वे भी आंडाल को दुख देने वाली बन जाती हैं। एल40 इस तरह वे चंद्रमा और दक्खिनी हवाओं में विष्णु को ही देखती हैं। उसका मुख चंद्रमा की तरह है। उसका स्वभाव दक्खिनी हवाओं की तरह न ज्यादा गर्म है, न ज्यादा शीतल। इन प्रतीकों के जरिये वे कहना चाहतीं हैं कि विष्णु उन्हें लगातार दर्द दे रहे हैं।
आंडाल प्रकृति के प्रति भी पूरी तरह सचेष्ट दिखती हैं जो संगम कविताओं की विशिष्टता मानी गयी है। संगम कविताओं में मानवीय रिश्तों को व्यक्त करने के लिए सैकड़ों फूलों और पौधों को माध्यम बनाया गया है। आंडाल इन माध्यमों का प्रयोग सीधी अपील के लिए करती हैं। प्रियतम को पाने की उद्दाम आकांक्षा में वे जूही, कोवै, लिली, कमल, भ्रमर, बादल, समुद्र आदि को अपना प्रेम प्रदर्शित करने का माध्यम बनाती हैं। चिड़ियों के प्रतीकों का भी उन्होंने पूरी कलात्मक सामर्थ्य के साथ इस्तेमाल किया है। इन प्रतीकों के बहुस्तरीय प्रयोग से वे एक आकर्षक और श्लिष्ट सौंदर्य का सृजन करती हैं। 'कोयल का गीत' कविता में वे प्रियतम से विछोह को अभिव्यक्त करने के लिए तमिल संगम कविता से अनेक प्रतीक ग्रहण कर लेती हैं। पक्षियों को प्रिय से बतियाने, उन्हें संदेश भेजने का माध्यम बनाना ऐसा ही प्रयोग है। कोयल आंडाल के करीब है, उनका दर्द समझती है और अपने श्याम वर्ण के कारण वह विष्णु के भी करीब है। आंडाल को लगता है कि वह उनका संदेश प्रियतम तक पहुंचा सकती है। वे कोयल से कहती हैं कि 'एक बार उन्हें मेरे पास बुला लाओ फिर देखो मैं क्या करती हूँ।'41
प्रसिद्ध विद्वान पेरियावाच्चान पिल्लै अनुमान लगाते हैं कि आंडाल के मन में बदले का भाव है। वे सोचती हैं कि एक बार अगर वे सामने आ जाएँ तो इतनी देर लगाने के लिए वे उन्हें माफ़ नहीं करेंगी, उनका प्रस्ताव ठुकरा देंगीं।42. आंडाल कोयल, मोर, कुरुवै फूल, बिलबेरी और श्याम काया पुष्प को फटकार भी लगाती हैं,
'माचिरुंचोलै के सघन सुंदर
वन में रहने वाले तुम पांच पापियों
तुमने मेरे प्रियतम का श्याम रंग
धारण क्यों किया?'43
मोर का रंग भी कृष्ण की तरह है। वे मोर से कहती हैं कि 'प्रियतम ने ही इतना दर्द दिया है कि अब तुम उनका रंग धारण कर मुझे और तकलीफ नहीं दे सकते।' 44
काव्य शिल्प
'वाचाप्रवाहनिहवेपि सरस्वती त्वं' यानी तुम ज्ञान की देवी हो। तुम्हारे गान अनुपमेय हैं। तुम अपनी वाणी से मनुष्य को नया जीवन देती हो। तुम्हारी रचनाएं छंद और नाद के मधुर ऐश्वर्य से भरी हैं', यह बात आंडाल के चार सौ वर्ष बाद आचार्य वेदांतदेशिक ने कही थी।45 आंडाल की कविताओं को तमिल छंदशास्त्र पर कसना भी बहुत दिलचस्प है। वहां भी वे एक महान कवि की क्षमताओं से भरी नजर आती हैं। उनकी रचनाएँ जिस छंद यानी 'यप्पू' का इस्तेमाल करती हैं, उसमें काव्य सौंदर्य की वृद्धि के लिए वर्णों के अनेक युग्म प्रस्तुत किये जा सकते हैं, जो अलग-अलग छंद रचने की क्षमता रखते हैं। आंडाल नाच्चियार तिरुमोलि की 14 लंबी कविताओं में पांच प्रकार के छंदों का प्रयोग करती हैं, जो अपने पृथक-पृथक पदबंधों के कारण सांगीतिक लय पैदा करते हैं। वे प्राचीन तमिल भाषा का प्रयोग करती हैं। नाच्चियार तिरुमोलि की पहली कविता में वे अपनी भाषा को 'मधुर तमिल' और तिरुप्पावै 30 में 'संगम तमिल' बतातीं हैं। उनकी काव्य भाषा में कहीं-कहीं मंडल, तोरण जैसे संस्कृत शब्द भी आते हैं लेकिन उनकी संख्या बहुत कम है। आंडाल की रचनाएँ यद्यपि स्वतःस्फूर्त हैं लेकिन उनमें अभिनव छांदस सौंदर्य दिखाई पड़ता है। अनेक कविताओं में वे एक अलग तरह की लय का इस्तेमाल करती हैं, जहाँ राइमिंग काव्य पंक्तियों के अंत में नहीं बल्कि प्रारंभ में दिखाई पड़ती है। एक उदाहरण देखिये।
पोयतीर्त माट्टादे निनरपु नारमरुतम
कैतीर्तान कैतलत्ते एरिक्कु टिक्कोंडु
सेयतीर्त मायनिन्र सेंगनन्माल तन्नुडैय
वायतीर्तम पैंतड वल्लाय्नु लंपुरिये
(वालमपुरी ! तुम्हें पवित्र जल ढूंढने
की जरूरत नहीं/ तुम तो स्वामी के हाथों
में रहते हो, जो पवित्रतम जगह है/
तुम उनके अधरों के अमृत का पान
करते रहते हो)46
आंडाल की वाक्य संरचना, शब्दों का चयन और उनकी प्रस्तुति का मोहक अंदाज पाठक को भाषा कौशल और काव्यालोक की एक नयी दुनिया में उड़ा ले जाने की अपरिमित सामर्थ्य रखता है। भाषा के साथ खेलना और साधारण शब्दों को अपनी कविता संरचना में चमकते मोतियों की तरह ढाल देना जैसे आंडाल के लिए सहज, सुगम और स्वायत्त हो। उनके कलात्मक प्रयोग अचंभित करते हैं। 'सांप के फन की तरह नितंब', 'बैगनी अधरों पर खिलती हुई सुबह','बंद होती श्याम पंखड़ियों पर उतरती रात', 'ताम्रघट जैसे गोल स्तन', 'सूर्य और चंद्रमा जैसी तुम्हारी दो ऑंखें,' 'दुख के समुद्र में डूबती हुई मेरी भाले जैसी दो आँखें,' 'ताजे कमल पुष्पों से शहद चूसते हुए हंसों की तरह शंख' जैसे सम्मोहक प्रयोग उनके यहाँ बहुतायत में उपलब्ध हैं। उनकी रचनाएं शब्द, भाषा और अलंकार की ऐसी अनगिनत उक्तियों से भरी पड़ी हैं। यह एक भक्त की कविताएं नहीं, एक महान और विलक्षण कवि की सर्जनात्मक प्रतिभा से उपजी रचनाएँ हैं।
प्रसिद्ध विद्वान ए. के. रामानुजन ने 'न्यू पोएटिक्स' में तमिल भक्ति कविता की चर्चा करते हुए कहा है कि संस्कृत कविताओं में कवि और कविता का पात्र, दोनों अलग-अलग दिखते हैं। कालिदास के मेघदूत में बादल के जरिये प्रेम का संदेश भेजने वाले स्वयं कालिदास नहीं, निर्वासित यक्ष है। इसके विपरीत भक्ति कविता में ये दोनों व्यक्तित्व एक-दूसरे में समाहित हो जाते हैं।'47 आंडाल स्वयं अपनी प्रत्येक कविता में नेरेटर या वक्ता के रूप में मौजूद रहती हैं। वे या तो अपने प्रियतम से बोलती हैं, या मित्रों से या अपने जीवन की पीड़ा के साक्षी फूलों, पक्षियों से। पूर्व के कवि अपनी कविता की सौंदर्य वृद्धि के लिए श्रम करते नजर आते हैं जबकि भक्ति कविता में सहजता और स्वतःस्फूर्ति का अद्भुत तालमेल दिखाई पड़ता है। आंडाल की कविताओं में इसे लक्षित किया जा सकता है।
आंडाल की काव्यगत सहजता अपने लक्ष्य के प्रति उनकी गहरी अनन्यता के कारण है। वे अपनी कविताओं में एक सघन संवेदना और उच्चतर सजगता से लैस महान कवि की तरह उपस्थित होती हैं। शैली, सूक्ष्मता, संरचना, छंद और भाषा के साथ ही तमाम अलंकारों का प्रयोग करती हुईं वे एक प्रखर आत्मचेतस कवि की भूमिका में हमारे सामने आती हैं। भाषा और शब्दों से खेलती हुईं। गीतों में काव्य-वीणा के अनेक सुर बजाती हुईं। छंदों को अपनी लय-ताल पर नचाती हुईं। जगत को और जगत से परे को भी, सुलभ को और दुर्लभ को भी अपनी उड़ान में शामिल करती हुईं। अपने प्रखर स्त्रीत्व से ईश्वर को भी अपने कदमों में झुकाती हुईं।
संदर्भ
1. नाच्चियार तिरुमोलि 3/6 (Abandon Your shameful mischief/ please return our clothes )
2. आचार्य रामचंद्र शुक्ल ग्रंथावली -3, 'कविता क्या है' निबंध
3. फिलॉसोफी एंड थिस्टिक मिस्टीसिज्म आव आलवार्स /एस एम एस चारी -पेज 199
4. लव आव गाड/ संध्या मूलचंदानी-पेज 18
5. तिरुप्पावै, 28
6. नाच्चियार तिरुमोलि 9/1 ( I am caught in the net of the Lord /with beautiful shoulders / can I escape alive ?)
7. तिरुप्पावै, 7
8. तिरुप्पावै, 1 (Narayan alone can grant us the parai drum /undertake the vow /the world will rejoice )
9. द सेक्रेड गारलैंड / अर्चना वेंकटेशन -पेज 13
10. वही -पेज 154 (the word 'nirata' is used to signify both a literal bath and a figurative one. commentators interpret nirata to mean union, specifically sexual union, in the theological terms krishn anubhacam)
11. वही-पेज 156
12. लाइफ एंड फिलॉसोफी आव आंडाल / सी वासुदेवन -12
13. तिरुप्पावै 1 (Dark hued and lotus eyed /His face the sun and moon )
14. आंडाल एंड हर पाथ आव लव/ विद्या दहेजिया-पेज 19
15. द सेक्रेड गारलैंड/ अर्चना वेंकटेशन -पेज 159
16. नाच्चियार तिरुमोलि 2/ 5-6
17. आंडाल एंड हर पाथ आव लव/ विद्या दहेजिया- पेज 17
18. द सेक्रेड गारलैंड/ अर्चना वेंकटेशन -पेज 15
19. आंडाल एंड अक्क महादेवी/ अलका त्यागी -पेज 72
20. द सेक्रेड गारलैंड/ अर्चना वेंकटेशन -पेज 15
21. तिरुप्पावै 29 (We have not come here /for the parai drum /we are Yours alone /we serve only You)
22. आंडाल एंड हर पाथ आव लव/ विद्या दहेजिया-पेज 152
23. नाच्चियार तिरुमोलि, 12 /7
24. वही- 5/5
25. वही- 12/ 9
26. द सेक्रेड गारलैंड/ अर्चना वेंकटेशन -पेज 31
27. नाच्चियार तिरुमोलि 5 /9
28. वही- 1/ 4
29. वही-11/2
30. द सेक्रेड गारलैंड/ अर्चना वेंकटेशन -पेज 36
31. नाच्चियार तिरुमोलि -11/5 (He has deprived me of my bangles/ He has stolen my smallest wealth )
32. वही 7 /1
33. वही-7 /2
34. वही-11 / 1
35. वही-11 /6
36. द सेक्रेड गारलैंड/ अर्चना वेंकटेशन -पेज 144 (He loosened my already loose bangles/ I have lost them to Him forever 11 /2 : Andal puns on the word 'kalal' and uses it to mean both 'to loose' as well as 'loosened'. kalal also refers to a warrior's victory anklets. she says that vishnu has taken her loose lost bangles and turned them into his victory anklets)
37. आंडाल एंड हर पाथ आव लव/ विद्या दहेजिया- पेज 143
38. नाच्चियार तिरुमोलि- 2 /1
39. आंडाल एंड अक्क महादेवी/ अल्का त्यागी-पेज 76 (Andal speaks of tenral and tinkal adding to sorrows of love-nachchiyar tirumoli 5 /10 )
40. आंडाल एंड हर पाथ आव लव/ विद्या दहेजिया- पेज 148
41. नाच्चियार तिरुमोलि 5/8 (Make Him return to me quickly/then you will witness what I do to Him)
42. द सेक्रेड गारलैंड/ अर्चना वेंकटेशन -पेज 182
43. आंडाल एंड हर पाथ आव लव/ विद्या दहेजिया - पेज 23
44. नाच्चियार तिरुमोलि 10/7
45. गोदा स्तुति/ वेदांतदेशिक- पद 5, 6, 7, 9
46. आंडाल एंड हर पाथ आव लव/ विद्या दहेजिया-पेज 31
47. वही - पेज 27
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
सम्पर्क
मोबाइल : 9455081894
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