नवमीत नव का आलेख "स्पेस टाइम" और बिग बैंग थियरी

 

एडविन हबल



मनुष्य के अन्दर जिज्ञासा की भावना ने उसके मन मस्तिष्क में सवाल पैदा किए। और इन सवालों के जवाब ढूढने में लगे हुए मनुष्य को तमाम ऐसी जानकारियां मिलीं जिसने अनेक नए सिद्धान्तों को जन्म दिया। ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के रहस्य को ढूंढने में लगे खगोलविदों को  बिग बैंग थियरी के बारे में पता चला। यह थियरी कपोल कल्पित नहीं बल्कि पुष्ट तथ्यों पर आधारित है। नवमीत नव सरल भाषा में विज्ञान, तकनीक और स्वास्थ्य विषयों पर लिखते रहते हैं। उन्होंने बड़े सरल तरीके से बिग बैंग थियरी को समझाने का प्रयास इस आलेख के जरिए किया है। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं नवमीत नव का आलेख "स्पेस टाइम" और बिग बैंग थियरी।



"स्पेस टाइम" और बिग बैंग थियरी


नवमीत नव


यह बात है 1929 की। खगोलशास्त्री एडविन हबल अपनी दूरबीन से अंतरिक्ष का अवलोकन कर रहे थे। हबल पहले वकील थे, लेकिन बाद में इनकी रूचि सितारों में हो गयी थी। तो यह अक्सर अपनी दूरबीन से सितारों को निहारते रहते और काम की चीजें नोट करते रहते। 


वैसे हमें भी अपनी रूचि अनुसार काम की चीजें नोट करके रख लेनी चाहिए। क्या पता कब क्या चीज काम आ जाये। जैसे हबल के साथ हुआ। एक दिन जब वह सितारों को, आकाशगंगाओं को अपनी दूरबीन से निहार रहे थे तो उन्हें भी कुछ काम की चीज मिली। उसे उन्होंने नोट कर लिया। 


पता है उन्होंने क्या नोट किया था? यही कि अंतरिक्ष में मौजूद आकाशगंगाएं एक जगह स्थिर नहीं हैं, बल्कि वे एक दूसरे से दूर जा रही हैं। 


यह उनको कैसे पता चला?


हबल से भी पहले एक अन्य खगोलशास्त्री वेस्टो मेलविन स्लाइफर ने नोट किया था कि दूर अंतरिक्ष में मौजूद पिंडों से आने वाले प्रकाश में रेड शिफ्ट हो रहा था। 


रेड शिफ्ट का क्या मतलब है? 


इसको यूँ समझो। यह तुमको पता है कि प्रकाश में अलग अलग रंग होते हैं जिनकी तरंग धैर्यता यानी वेवलेंथ अलग अलग होती है। रेड यानी लाल रंग की तरंग धैर्यता सबसे अधिक होती है। 


तो होता ये है कि जो वस्तु देखने वाले से जितनी दूर होगी उसके स्पेक्ट्रम की वेवलेंथ उतना ही लाल की तरफ़ शिफ्ट हो जायेगी। डॉपलर प्रभाव के अनुसार रेड शिफ्ट तब होती है जब कोई वस्तु देखने वाले से दूर जा रही होती है। तो इस आधार पर हबल ने नोट किया कि न केवल गैलेक्सियां हमसे दूर जा रही हैं बल्कि कोई गैलेक्सी हमसे जितना अधिक दूर है, उसके दूर जाने की गति भी उसी अनुपात में बढ़ती जा रही है। इसे हम हबल के नियम नाम से जानते हैं।


इसे समझने के लिये एक प्रयोग तुम भी कर सकते हो। एक गुब्बारा लो, जिसके ऊपर अलग रंग के धब्बे बने हों। जब तुम इस गुब्बारे को फुलाओगे तो ये धब्बे न केवल गुब्बारे के साथ बड़े होते जायेंगे बल्कि ये एक दूसरे से भी दूर जाते जायेंगे। 


अब सोचो कि हमारा यूनिवर्स ऐसा ही एक गुब्बारा है जो फूलता जा रहा है और उसी अनुपात में उसके धब्बे यानी गैलेक्सियां व सितारे भी न केवल फैल रहे हैं बल्कि एक दूसरे से भी दूर जा रहे हैं। सिर्फ गैलेक्सी या सितारे नहीं फैल रहे बल्कि स्वयं "स्पेस टाइम" ही स्ट्रेच हो रहा है यानी खिंच रहा है।


यह 'स्पेस टाइम' खिंचने का क्या मतलब है? 


आइंस्टाइन ने बताया था कि स्पेस यानी जगह और समय अलग-अलग नहीं हैं, बल्कि दोनों मिल कर एक चार आयामी ताना बाना बनाते हैं जिसे "स्पेस टाइम" कहते हैं। 


तो जब हम कहते हैं कि 'स्पेस टाइम' स्ट्रेच हो रहा है, तो इसका मतलब यह है कि गैलेक्सियाँ खाली जगह में एम दूसरे से दूर नहीं भाग रहीं, बल्कि उनके बीच की "खाली जगह" खुद ही खिंच कर बड़ी होती जा रही है। अब चूंकि समय स्पेस से अलग नहीं है तो जब स्पेस खिंचता है तक समय भी उसी के साथ खिंच जाता है। 


जैसे तुम्हारा गुब्बारा था। मानो कि यह गुब्बारा स्पेस है। और जब इसे फुलाओगे तो यह खिंच कर बड़ा होगा, तो इसकी सतह पर बने धब्बे (जिन्हें हम गैलेक्सी मान लें) भी गुब्बारे के फैलने से एक दूसरे से दूर होते चले जायेंगे हैं। वैसे ही जब स्पेस खिंचता है तो उसमें मौजूद गैलेक्सियाँ भी दूर जाती हुई दिखती हैं। जितनी दूर गैलेक्सी होगी, उतनी तेज़ी से वह और दूर “भागती” नज़र आएगी, लेकिन यह गैलेक्सी का भागना नहीं बल्कि 'स्पेस टाइम' का फैलना है। 


तो हबल के नियम से यह तो साबित हुआ कि यूनिवर्स यानी स्पेस टाइम व इसमें मौजूद गैलेक्सियाँ फैल रहे है। और हर दिशा में ऐसा हो रहा है। लेकिन अगर हम इसमें रिवर्स गियर लगा दें तो? जैसे गुब्बारे की हवा निकाल देते हैं तो वह वापस उसी छोटे से रूप में आ जाता है जिसमें वह फुलाये जाने से पहले था। ऐसे ही यह प्रक्रिया रिवर्स करके देखें तो पाएंगे कि गैलेक्सियां एक दूसरे के नजदीक आती चली जायेंगी, जब तक कि पूरा 'स्पेस टाइम' एक ही जगह न पहुंच जाये, जिसे हम 'सिंगुलैरिटी' यानी एकलता कहते हैं। इसी सिंगुलैरिटी से 'बिग बैंग' जैसी घटना हुई।


तो यह तो हमें पता चल गया कि यूनिवर्स फैल रहा है। लेकिन 'बिग बैंग' हुआ था, यह कैसे पता चला?


बिग बैंग की काल्पनिक तस्वीर



जब 'बिग बैंग' हुआ तो उस समय वह बहुत अधिक गर्म और अपारदर्शी था। अभी इसमें परमाणुओं का भी निर्माण नहीं हुआ था। लेकिन फिर 'बिग बैंग' के बाद 3,80,000 वर्ष तक फैलाव के बाद यह पर्याप्त ठंडा हो गया तो इसमें मौजूद सब एटॉमिक कण यानी इलेक्ट्रॉन्स व प्रोटोंस एक दूसरे के पास आ कर एटम्स यानी परमाणुओं का निर्माण करने लगे। अब यूनिवर्स पारदर्शी हो गया था और फोटोन्स यानी प्रकाश को यात्रा करने का रास्ता मिल गया। उस समय का यह प्रकाश आज तक अनवरत यात्रा कर रहा है।


लेकिन इतने समय और इतनी दूरी तक यात्रा करने के साथ इसकी फ्रीक्वेंसी माइक्रोवेव की तरफ रेडशिफ्ट हो गई। मतलब यह विकिरण इतने लम्बे समय में इतना खिंच गया कि अब यह माइक्रोवेव के रूप बदल गया है। उस समय पैदा हुए प्रकाश के ये माइक्रोवेव विकिरण रूपी अवशेष आज पूरे ब्रह्मांड में हर जगह मौजूद हैं। इसका मतलब है कि यह बहुत लंबे समय से चल रही है और सबसे पुराने स्रोत से आ रही है। 


सबसे पुराना बोले तो? बिग बैंग यानि महाविस्फोट के तुरंत बाद का कालखंड। इन विकिरणों को हम कॉस्मिक माइक्रोवेव बैकग्राउंड रेडिएशन (CMBR) यानी ब्रह्मांडीय माइक्रोवेव पार्श्व विकिरण कहते हैं।


अब इसकी खोज का भी एक मजेदार किस्सा है। 

Arno Allan Penzias



हुआ यूँ कि 20वीं सदी के मध्य में न्यू जर्सी में दो भौतिकविद Arno Penzias और Robert Wilson एक रेडियो टेलीस्कोप पर काम कर रहे थे। उन्हें एक निम्न स्तरीय आवाज हर दिशा से आती हुई महसूस हुई। उनका टेलीस्कोप जिस जगह था वहां कबूतरों की भरमार थी। उन्होंने सोचा कि इस आवाज का कारण यही कबूतर हैं जो उनके टेलीस्कोप पर बीट कर रहे हैं। उन्होंने टेलीस्कोप से बीट को अच्छे से साफ किया लेकिन आवाज फिर भी आ रही थी।


काफ़ी दिन माथापच्ची के बाद उनको अहसास हुआ कि ये माइक्रोवेव विकिरण हैं जो हर जगह मौजूद हैं। इन्हीं से हमें आईडिया मिला कि जन्म के तुरंत बाद यूनिवर्स rapid expansion यानि तीव्र फैलाव की प्रक्रिया से गुजरा था। इस प्रक्रिया को हम Cosmic inflation कहते हैं।


लेकिन सीएमबीआर यानी ब्रह्मांडीय माइक्रोवेव पार्श्व विकिरण बिग बैंग को कैसे साबित करती है?  


सबसे पहली बात तो यह कि सीएमबीआर हर जगह पर हर दिशा में समान रूप से फैला हुआ है। यह तभी हो सकता है जबकि इसका जन्म एक ही जगह से एक ही बार में हुआ हो जोकि बिग बैंग है। इसका तापमान बिलकुल वही है जो वैज्ञानिकों ने अनुमान लगाया था कि अगर यूनिवर्स एक अत्यधिक गर्म बिंदू से शुरू हो कर लगातार ठंडा होता रहा हो। इसके तापमान में बहुत छोटे छोटे fluctuations मिलते हैं जो यूनिवर्स में आज के समय मौजूद सितारों और गैलेक्सीज की वजह से हैं।


इसके अलावा बिग बैंग थियरी के अनुसार अनुमान लगाया गया था कि उस समय पैदा हुए विकिरण का तापमान आज के समय बहुत ही कम होगा। यानी परम शून्य तापमान यानी जीरो डिग्री कैल्विन से कुछ ही डिग्री अधिक। सीएमबीआर का तापमान 2.7 डिग्री कैल्विन है जोकि पूरी तरह से उस अनुमान से मैच करता है। सीएमबीआर का स्पेक्ट्रम लगभग परफेक्ट ब्लैक बॉडी स्पेक्ट्रम के जैसा है। वैज्ञानिकों का अनुमान था कि अगर बिग बैंग हुआ होगा तो उससे पैदा हुई विकिरण का स्पेक्ट्रम परफेक्ट ब्लैक बॉडी जैसा होना चाहिए।


बिग बैंग थियरी के अनुसार बिग बैंग के कुछ ही मिनट्स के बाद यूनिवर्स का तापमान इतना अधिक था कि प्रोटोन्स और न्यूरॉन्स आपस में फ्यूज होने लगे और हाइड्रोजन, हीलियम व कुछ मात्रा में लिथियम जैसे सबसे हल्के तत्वों के नाभिक बनने लगे। आज यूनिवर्स में मौजूद हाइड्रोजन, हीलियम और लिथियम की मात्रा लगभग उतनी ही है जितनी कि बिग बैंग थियरी द्वारा अनुमानित है। यह कोई तुक्का नहीं है बल्कि गणनाओं पर आधारित है।


इन सबके आधार पर हम कह सकते हैं कि बिग बैंग महज एक कयास नहीं है। बल्कि यह गणनाओं व साक्ष्यों पर आधारित थियरी है जो हमारे आज तक की वैज्ञानिक जानकारी के खांचे में फिट बैठती है। हमारे आज के भौतिक विज्ञान की सीमाओं में यह सबसे बेहतर थियरी है। हो सकता है कि आने वाले समय में जब हमारा ज्ञान और अधिक परिष्कृत हो जायेगा तो इस थियरी में भी सुधार आ जायें या फिर कोई और इससे बेहतर थियरी का विकास हो।


ज्ञान व जानकारी का विकास हमारे समय व समाज व्यवस्था की सीमाओं से आगे नहीं जा सकता। अरस्तू और टॉलेमी के समय और व्यवस्था के अनुसार पृथ्वी को ब्रह्मांड का केंद्र बताने वाली थियरी मान्य थी। कॉपरनिकस और गैलीलियो के बाद पृथ्वी ब्रह्मांड का केंद्र नहीं रही। फिर 20वीं सदी में हमें "मिल्की वे" से भी आगे दूसरी आकाशगंगाओं की जानकारी मिली। फिर हमें पता चला कि आकाशगंगा एक दूसरे से दूर जा रही हैं। यह भी कि न केवल आकाशगंगाएं बल्कि स्वयं स्पेस टाइम का ही फैलाव हो रहा है।


यह विज्ञान की खूबसूरती है कि यहाँ न तो प्रश्न कभी खत्म होते हैं और न ही उनके उत्तर पाने की कोशिश। विज्ञान कभी आखिरी जवाब देने का दावा नहीं करता। हर सवाल का जवाब अगले नये सवाल को जन्म देता है। हबल ने देखा कि गैलेक्सियाँ दूर जा रही हैं, तो अगला सवाल आया कि गैलेक्सियों के दूर जाने की शुरुआत कहाँ से हुई थी? पेंजियस और विल्सन ने माइक्रोवेव बैकग्राउंड रेडियेशन की खोज की तो बिग बैंग का सबूत मिला। और आज जबकि हम बिग बैंग को थोड़ा बहुत समझने लगे हैं, तो अब सवाल खड़ा होता है कि क्या बिग बैंग से पहले भी कुछ था? 


हम जितना जान जाते हैं उतना ही हमें पता चलता है कि अभी हमने कितना कुछ और जानना है। हर नयी खोज और हर नये जवाब के साथ हमारी समझ और जिज्ञासा दोनों ही ऐसे ही बढ़ती जाती है जैसे स्पेस टाइम फ़ैल रहा है।


सवाल और जवाब का यह द्वंद्व उतना ही पुराना है जितना स्वयं मनुष्य। और उतने ही अनंत हैं प्रकृति को जानने की उसकी जिज्ञासा व उसके प्रयास!

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

हर्षिता त्रिपाठी की कविताएं