कालूलाल कुलमी की समीक्षा 'जला दो शाखों पर दीये अब चाँद पर एतबार खोने लगा है'

 



कविता जीवन से गहरे तौर पर जुड़ी होती है। इसीलिए अनुभव इसके मूल में होते हैं। यह अनुभव अपने आस पास के वातावरण, परिस्थितियों, व्यक्ति, विचार आदि से जुड़ा होता है इसलिए इसका संदर्भ व्यापक होता है। इसी क्रम में आपबीती जगबीती में तब्दील हो जाती है। कवि सुनील कुमार शर्मा का काव्य सन्दर्भ व्यापक है। हाल ही में इनका पहला कविता कविता संग्रह 'हद या अनहद' वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह की एक समीक्षा की है युवा आलोचक कालूलाल कुलमी ने। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं कवि सुनील कुमार शर्मा के कविता संग्रह 'हद या अनहद' पर कालू लाल कुलमी की समीक्षा 'जला दो शाखों पर दीए अब चांद पर एतबार खोने लगा है'।



'जला दो शाखों पर दीये अब चाँद पर एतबार खोने लगा है'

                                                           


कालूलाल कुलमी 


कोई भी अच्छा कवि किसी भी आलोचक की गिरफ़्त में पूरा नहीं आता।                                                     

विष्णु खरे


झरेंगे अंत तक 

प्रश्न ही झरेंगे यहाँ।

थोड़ी हवा, थोडा प्रकाश

थोड़ी उमस में कुछ जवाब 

भी उगेंगे यहाँ।

पर प्रश्न कुछ यक्ष बन 

खड़े रहेंगे यहाँ।



कविता की अपनी यात्रा में कवि अतीत की काव्य चेतना को आत्मसात करता चलता है। कवि  अपने समग्र बोध को एक साथ अभिव्यक्ति देते हुए उसके लिए भाषा और भावों का एक विराट लोक रचता चलता है। सवाल और उनके जवाब भी खोजता चलता है। बिम्ब के साथ कविता पाठकों के साथ संवाद करती चलती है। उसको हर कोमल स्वर अच्छा लगता है और उसका वही कोमल स्वर एक के बाद एक नया स्वर बन कर एक नई दुनिया रचता है। कवि दुनिया के दायरे से बाहर होता है। उसको वह सब अच्छा लगता है जो दुनियावी जन को अच्छा नहीं लगता है। इतना कुछ है इस जहाँ में, जिसको कवि देखता है, उसको समझता है, उसक मनोलोक में ऐसे कई विचार आते हैं और वही उसकी अनुभूति का हिस्सा होता है। यहाँ भी कुछ ऐसा ही है। कविता ने अतीत से, कबीर, मीर, से होती हुई आज तक की यात्रा तय किया है। कविता लय के शब्द का ताल-मेल और विधान है। सुनील कुमार को पढ़ते हुए कबीर, ग़ालिब, मीर सब कोई मन में आने लगते हैं। एक कवि जब काव्य विधान करता है तो उसके सामने और पीछे कई विचार, लोक, शब्द और उनके अर्थ दौड़ रहे होते हैं। कवि उनको अपने मन के सांचे में तोलता है और मोलता है फिर कविता करता है। जीवन की कई परते खोलता हुआ कवि हर बार पाठक को नए लोक की यात्रा कराता है।


प्रश्न पाषाण नहीं होते 

सजीव होते हैं 

प्राय यक्ष की तरह 

जीवन में आ खड़े होते हैं।



मनुष्य जिन सवालों से जी चुराता है वही उसके सामने खड़े हो जाते हैं और वही उसके लिए सबक बनते हैं। आदमी को लगता है वो किसी को धोखा दे रहा है लेकिन असल में वो अपने को ही इसका शिकार बना रहा होता है। इसका उसका अहसास होने तक उसका अपना जीवन और उसका सोचने का तरीका बदल चुका होता है। इतना सब होने पर भी कवि के मन में इस तरह का एक बोध है और उसका मर्म है कि वह इसको एक बहुत आशा के साथ देखता है।



शेष है अभी आशा,

बच्चों में बचपन शेष है 

और इंसानियत भी।

इसलिए संघर्ष नाद होने दो

अभिलाषा को गगन में गूंजने दो

पतझड़ आता है यदि हर माह तो आने दो 

पर सपनों को आँखों में सजने दो


जीवन की स्पंदन को इस तरह कोई कवि कहता है तो उसका मतलब है कि उसके पास ऐसा बहुत  कुछ है जो उसके लिए जीवन का गान है, जीवन की लय है। जीवन की यही लय कविता की लय है और इसका बना रहना जीवन में राग और रंग भरता है। जीवन के तमाम उतार चढाव के बावजूद कवि का मन कहता है कि सपने देखना सबसे जरूरी है। सपनों के साथ ही जीवन अपने उत्कर्ष को प्राप्त करता है। अपने सम्पूर्ण का दोहन करता है। इसलिए इसको जानना समझना और जीना ही जीवन को जीना है। उसे किसी बात की कोई कमी नहीं है उसे अपने होने और अपने करने पर यकीन है इसलिए वो बेबाक कहता है।


जिन्दगी की जड़ों को खुशियों से सींचने वाला बात-बात पर उदास होने लगा है।

कहता है जला दो शाखों पर दीये अब चाँद पर एतबार खोने लगा है।


जीवन की गति में ऐसे कई मोड़ आते हैं जब ऐसा कुछ होता है और उसका परिणाम होता है कि आदमी का एतबार खोने लगता है। आदमी अपने को फिर से रचने लगता है। आदमी अपने भीतर के प्रकाश को ऐसे ही चमक देता है और उसका परिणाम है कि वो अपने खुद के एतबार को यकीनन मजबूत करने लगता है। लेकिन फिर भी ज़माने की हवा का कुछ मोड़ ही ऐसा है कि उसको यह सब करते हुए भी उदासी की हवा लगती है। जीवन के अर्थ और संदर्भ समय के साथ बदलते हैं। समाज बदलता है तो सब कुछ में परिवर्तन अपने आप होने लगता है। परिवार का मतलब और उसकी भूमिका में भी ऐसे ही कुछ न कुछ होने लगता है। जीवन अपने को ऐसे ही समय के साथ बदलता रहा है। गाँव शहर और महानगर सब कुछ बदल रहे हैं उसका होने का बोध इसी तरह बदल रहा है और ये सब नियति की तरह है हम इसमें जैसे कुछ कर सकते हैं लेकिन कुछ भी नहीं कर पा रहे हैं। परिवर्तन जीवन का ऐसा नियम है जिसको कोई भी बदल नहीं सकता। जीवन में जो कुछ है उसको स्वीकार करना जरुरी है।


सुनील कुमार शर्मा


अज्ञेय कहते हैं न कि जो कुछ था जीवन में उसको मैंने स्वीकार किया और इसी लिए मुझे कोई पछतावा नहीं है। मैं जो है उसके साथ जीना चाहता हूँ किसी तरह के मलाल के साथ नहीं। हम अक्सर इस सत्य को ख़ारिज कर आगे निकलने की जल्दी में रहते हैं और उसका परिणाम यह होता है कि जीवन और उसके गहन अनुभव से बाहर कई दूर निकल जाते हैं और खुद को अंदर ही अंदर कुछ अलग ही तरह से रचने लगते हैं लेकिन अन्दर कुछ रह जाता है और उसका परिणाम कुछ ऐसे ही उम्र के हर मोड़ पर हमें परेशान करता रहता है। जीवन की कोई एक परिभाषा संभव नहीं है। जीवन किसी एक सांचे में आता भी नहीं है। जीवन अपना रंग ढंग खुद बनाता है और खुद ही उसको कई रूपों के साथ अभिव्यक्त करता है। इसलिए हर तरह से उसको देखना जरुरी है। कवि ऐसे ही अनुभव के साथ अपनी कविता में आता है। आज का जीवन यांत्रिक हो रहा है। आज का जीवन आगे भी जा रहा है। ऐसा हर युग में होता है। लेकिन आज के जीवन में जो है वो आज तक का सर्वोतम है। ऐसा बाद में भी होता रहेगा, पहले भी होता रहा है। इसलिए हम उन्नत अनुभव और विचार के साथ आगे का रास्ता तय करे तो सबसे सही है। अपने आत्म को विस्तार करते हुए| बाकि तो सब जीवन का अंग है।



कितनी बार आस-पास में 

शाम के ताम्बई उजास में

तितलियों की बसंती आस में 

कभी झरने में बहती हुई प्यास में

कविताओं को ढूढ़ते मिल गये कुछ रंग।

तो कभी उलझनों की जेबों में

निकल आये कुछ रंग

और मैं रात भर ढूढता रह गया

चाँद में अपना रंग।



कलाकार के लिए ऐसे ही शामें आती हैं। कलाकार के लिए ऐसे ही प्यास का अनुभव आता है और उसके लिए और भी कितना कुछ आता है। कवि के साथ भी कुछ ऐसा ही है। कवि अपने को चाँद और सितारों में और उससे आगे कई लोक में खोजता है। इसी कारण उसके पास ऐसी ही दुनिया बनती चलती है। कवि अपने आग्रहों के मुक्त रहते हुए भीतर के लोक में अपने को डुबोता हुआ एक के बाद एक रंग खोजता चलता है। उसके लिए कुछ भी सरल नहीं है। उसके लिए सरल होना ही सबसे कठिन उपक्रम है।



रंग बोलता है

रंग झरता है

रंग फैलता भी है 

किसान जानता है फसलों के पकने का रंग

पहचानता है मल्लाह

नदी की गहराई का रंग 



हर किसी को अपने रंग का पता है और उसका ये रंग ही उसके जीवन का असली अंग और अनुभव का हिस्सा भी होता है। इससे परे कोई भी रंग और अनुभव उसके पास नहीं है। किसान, मजदूर, और वह हर कोई जो इसको समझता है उसका नाम कुछ ऐसा ही है। उसको जीवन के बदरंग के साथ जोड़ने में और समझने में किसी तरह की कोई कमी नहीं आएगी। कवि अपने को इस हद से बाहर ले जाता है। कवि अपने को इस तरह कविता में अभिव्यक्त करता है।



सुनील कुमार की कविताएँ कुछ इसी तरह के संसार को हमारे सामने रचती है। उसमें ऐसा कोई भी भाव नहीं है जो कोई मुगालता पालता हो, कोशिश पूरी है, बेहतर करने की, उसको सही रास्ता दिखाने की, अन्यथा जीवन की अपनी गति है, जीवन का अपना उजास है, जीवन का अपना लय है, ताल है, विराग है, रस है, रास है, जिसको कोई भी अपने रंग नहीं रंग सकता| इसीलिए ये उजास की कविताएँ हैं। जीवन के राग और रंग की कविताएँ हैं। जिनको ऐसे ही समझना और अनुभव का हिस्सा बनाना- अपने भीतर देखना है। हद और उससे परे जाने का उपक्रम ऐसे ही चलता रहता है। कबीर की उलटबासी और जीवन की हकीकत का कुछ वैसे ही फ़साना है। कवि इस फ़साने में ऐसे ही अपने को रचता है। कविता का मर्म ऐसे ही मन को छूता है।



ख्वाइशों का भी हक़ है मुझ पर 

मचलने दो अगर मचलती है।

बंदिशे भी तो हमसे

पूरी-पूरी कहाँ सम्बलती हैं।

सुनने दो, मीरा के गीतों की गूंज

मन में जब गूंजती है।

चढ़ती है खुमारी सधे पांव

उलटबासिया ढाई आखर तक ले पहुँचती हैं



हद या अनहद (कविता संग्रह)

वाणी प्रकाशन, मूल्य – रू 299

कवि - डॉ सुनील कुमार शर्मा




कालू लाल कुलमी

सम्पर्क 

कालूलाल कुलमी, 

सिटी कॉलेज, जय नगर, फोर्थ ब्लॉक, 

बंगलुरु, कर्नाटक, 


Mob - 9340964101

ई मेल - paati.kalu@gmail.com

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