अरुण शीतांश के कविता संग्रह 'एक अनागरिक का दुःख' पर मीरा श्रीवास्तव की समीक्षा 'विस्मृति के गह्वर से गंवई देशज शब्दों को बाहर निकालने की कवि की जिद'।




            
सार्वभौम होने के लिए स्थानीय होना पड़ता है। इसे यूं भी कहा जा सकता है कि बिना स्थानीय हुए सार्वभौम नहीं हुआ जा सकता। यह स्थानीयता अपने आप में मौलिक और विविधवर्णी होती है। अरुण शीतांश हिन्दी के ऐसे ही कवि हैं जो गहरे तौर पर स्थानीय हैं। इसीलिए उनकी कविताएं बात करती हुई नजर आती हैं। वाणी प्रकाशन से उनका हालिया कविता संग्रह 'एक अनागरिक का दुःख' प्रकाशित हुआ है। मीरा श्रीवास्तव ने इस संग्रह की पड़ताल करते हुए समीक्षा लिखी है। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं अरुण शीतांश के कविता संग्रह  'एक अनागरिक का दुःख' पर मीरा श्रीवास्तव की समीक्षा 'विस्मृति के गह्वर से गंवई देशज शब्दों को बाहर निकालने की कवि की जिद'।




विस्मृति के गह्वर से गंवई देशज शब्दों को बाहर निकालने की कवि की जिद  
("एक अनागरिक का दुःख")


मीरा श्रीवास्तव 


सर्वसम्मत तथ्य है कि तमाम नाउम्मीदियों के हाशिए से ही कविता जन्म लेती है! गहन चुप्पी जब कान को फाड़ने वाले शोर में तब्दील हो जाती है और हम एकबारगी अपने अपने हिस्से के सच से खाली होते चले जाते हैं तो कविता का अनहद नाद उसी रिक्तता से उठता है। कविता में संवेदनहीनता की निर्जीवता को बेध संवेदना को जगाने की अचूक ताकत है। किसी वायवीय संसार कोली बिसरी ध्वनियों को पकड़ने की कोशिश  रचना कविता का श्रेय नहीं होता, वह इसी संसार की आपाधापी, उठापटक के बीच सृजन का आकार लेती है क्योंकि कविता का सर्जक कवि सामाजिक सरोकारों के बीच से ही अपनी अभिव्यक्ति के लिए शब्द चुनता है।



शीतांश का सामाजिक सरोकारों से गहरा जुड़ाव, उनकी व्यापक जन पक्षधरता और उनकी स्थानीयता 'एक अनागरिक का दुःख', कविता संग्रह की लगभग सारी कविताओं में दीख पड़ती है। केवल स्थानीयता के दृश्य ही नहीं दिखते बल्कि अपनी जड़ों से उनका इस हद तक लगाव है कि कविताओं के माध्यम से यह लगाव उनकी सबसे बड़ी चिंता के रूप में उभरती है। वैयक्तिकता की हद तक होने के बावजूद कवि की यह चिंता स्वार्थ के भाव से मुक्त है।
                       


कहीं न कहीं और किसी न किसी रूप में कवि इस बात को ले कर आश्वस्त है कि अपने गाँव विष्णुपुरा के प्रति उसकी जो भी चिंताएं हैं वह सार्वजनीन हो जाए तो एक उनका विष्णुपुरा ही नहीं, सारे विष्णुपुरा बदशक्ल होने से बच जाएंगे।
                         


शीतांश की कविताओं के निहितार्थ में सबसे ज्यादा प्रभावित करने वाली जो बात है, वह है इनका भाषा चमत्कार एवं शब्दों को जबरन तोड़ने मरोड़ने की प्रवृति से सर्वथा मोहमुक्त होना। कविताएं सहजता के साथ में प्रवहमान दीखती हैं, कोई छद्म नहीं, कोई अवरोध नहीं। एक ओर तो इन कविताओं में लोक जीवन और नगर बोध के अन्तर्द्न्द्व से जूझते आम नागरिक की त्रासदी का चित्रण है तो दूसरी ओर नागर जीवन की आधुनिकता बोध की विडंबनाएं भी कवि के सूक्ष्म और व्यापक जीवन दृष्टि से छूट नहीं पाती।


स्थानीयता और वैश्विकता के बीच संतुलन और सामंजस्य कवि का निहितार्थ है।
                        


संबंधों पर आधृत कविताएं कवि की गहन संवेदनशीलता के साथ, संबंधों के तंतुओं का तारतम्य बनाए रखने की नौस्टेलजिया की परिणिति है। इसी वजह से कविता की माँ को कवि चिड़िया की शक्ल में दीखती है, जिसे पिंजरे में बंद होने के बावजूद रामचरितमानस और भगवद्गीता कंठस्थ थे, यानि रूढ़ियों की तमाम बंदिशों के बीच भी वैचारिक स्वातंत्र्य को बेड़ियों में जकड़ा नहीं जा सका था। यह दशकों पुरानी बात है और आज अनागरिकता ही कवि के मानसिक त्रास का करण है जो इंसान को अपनी अस्मिता के प्रति आश्वस्त नहीं कर पाती।



संग्रह की कविताओं में जीवन के हर छोटी बड़ी घटनाओं के ऐसे सुष्ठु चित्रण हुए है जो एक साथ पाठकों को उत्प्रेरित, चौंकाते हैं तो प्रतिकार के लिए भी पर्याप्त छूट देती सी लगती हैं। आज जब वैचारिक चेतना को स्वार्थपरता के घने कुहासे ने मूँद सा दिया है, ये कविताएं हमारी संवेदना को नई दृष्टि तथा विवेक को आकार प्रदान करने की भरपूर क्षमता रखती हैं।



हमारी व्यक्तिगत पीड़ा को जब कविता बाँटते दीखे या हमारे अव्यक्त आक्रोश की झंझा को शांत करने की कोशिश में संलग्न दीखे तो वही कविता वैयक्तिकता से मुक्त हो सार्वजनीन हो उठती है और संग्रह की अधिकाधिक कविताएं इसमें प्रयासरत दीखती हैं।

                 






कुछ कविताओं में स्थानीयता का मोह उनके गाँव गँवई के देशज शब्दों का अत्यधिक प्रयोग के माध्यम से रचनात्मक भाव बोध की सहजता को बाधित करता है या कवि की ध्वनियों को पकड़ने की जिद भी कविता के प्रवाह में व्यतिरेक उत्पन्न करती है -- "किच-किच, किच -चीक, चीक, चीक, चीक फिर चाँएँएएएएँ ...... , गाय तू मत बोल आँय आँय आँय....बकरियाँ बह्ह्ह्ह् में में में बोल रहा है।


दूसरी तरफ कई देशज शब्दों का प्रयोग कविताओं को अलंकृत करता है, सौंदर्य वैचित्र्य के रुप में नहीं, सहज रूप से -- साग खोंटती हुई लड़कियाँ आ रही हैं टाल से होकर घर!



कवि की अपनी माटी और उसके सोंधी खुशबू को दिल से दिमाग तक एक झटके से नहीं बल्कि आहिस्ते आहिस्ते उतारता चला जाता है।


"लफेदर लगा बच्चे सी इमारत मत बेचो"।    
      


भोजपुरी से मेरा भी वास्ता काफी गहरा है। इस कविता को पढ़ने तक एप्रेन के लिए भोजपुरी शब्द 'लफेदर' होता है, यह मेरे लिए अज्ञात तथ्य ही था, जबकि मेरी सासु माँ खाँटी भोजपुरी में ही संवाद करती थीं लेकिन इस शब्द विशेष से हमारा परिचय आज के पहले तक नहीं था, आश्चर्य! मानना पड़ेगा कि शीतांश की भाषा निखालिस गंवई भोजपुरी शब्दों से अति समृद्ध हैं।
                 


कवि का इच्छित है पारिस्थितिकी संतुलन लेकिन चिंता भी गहन है कि इस संतुलन के लिए जो फलदार, फूलदार पौधों वाला बागीचा चाहिए, वह तो भौतिकवादी की आवश्यकताओं और गगनचुंबी इमारतों की भेंट चढ़ते जा रहे, फिर यह संतुलन कैसे संभव हो?
                  


वर्तमान केयोटिक सिचुएशन और इसमें जिंदगी को मशक्कत के साथ जीता इंसान एक भयानक अन्तर्द्वन्द्व से जूझ रहा है। संघर्ष और समस्याएं - सामाजिक, राजनीतिक, वैयक्तिक एवं वैश्विक स्तर पर एकजुट हो इंसान की जिंदगी को मकड़जाल में उलझाती जा रही हैं। संकीर्ण सोच के साथ स्वार्थ के गह्वर में निरंतर गिरता मनुष्य संवेदनशून्य हो गया है।



वर्तमान राजनीतिक परिप्रेक्ष्य को ले कर व्यंग्योक्ति का सम्यक प्रयोग कवि ने "बैलगाड़ी" कविता में किया है --


"अब कैसे फेंकी जाएगी 
देशी खाद गढ्ढे से उठा कर खेतों में 
आलू को पाला मार गया है 
पाला देश को भी मारे हुए है 
तीन साल कैसे बीतेंगे भाई?"
                 


"एक रात नींद नहीं आई गाँव में" कवि किसान की चिंता को अपनी चिंता के समानांतर रखता हुआ बिंब का प्रयोग प्रयोगात्मक रूप में बिंब को प्रस्तुत करता दीखता है  -


"आज नींद है 
सब कुछ है 
इसीलिए नींद नहीं आई"।
                

एक ओर अपने गाँव विष्णुपुरा से कवि का लगाव जिस उत्कटता से भिन्न-भिन्न रुपों में -- कभी मानवीकरण के माध्यम से, कभी अपने बचपन की भिन्न-भिन्न स्मृतियों को जीते हुए  कई कई कविताओं में दीखता है तो दूसरी तरह वही अपनत्व, वही जुड़ाव और लगाव कवि का अपनी माँ से है जो स्वाभाविक है, साथ ही निश्छल, वात्सल्यपूर्ण, अपेक्षाओं की संकीर्णता से मुक्त! अपेक्षा यदि कोई है तो मात्र अबोध, संकोचमुक्त स्नेह का आदान-प्रदान - जहाँ बहत्तर साल की माँ को प्रौढ़ हो चले बेटे से ब्लाउज में सेफ्टी पिन लगवाने में कोई संकोच नहीं होता बल्कि बेटे के मना करने पर बेटे की अपने प्रति प्रेम की कमी की आशंका से दुःख में डूब जाती है 



बहत्तर साल की माँ को 
आज भी लगाया हूँ सेफ्टी पिन 
ट्रेन और प्लेन पकड़ने से पहले 
हे माँ तुम अरूण शीतांश की माँ ही रहना!"
                 

"एक नागरिक का दुःख" अपनी सार्वजनीनता में दुनिया भर के अनजाने, बिन पहचाने, अस्मिताविहीन नागरिकों का दुःख बन जाता है तो विष्णुपुरा का सुख-दुःख, उसकी हर छोटी बड़ी समस्याएं, विष्णुपुरा की माटी के सौंधेपन से पनपे और पटे कवि के जीवन के कैनवास पर उत्कीर्ण चित्र कवि की वैयक्तिक पीड़ा और हर्ष के रंगों से रचे हैं!





                   


सम्पर्क 

ई मेल : meera3011@gmail.com



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