गोविन्द निषाद का संस्मरण 'साधू'

 

गोविन्द निषाद


पिता पुत्र का सम्बन्ध निरापद होता है। पिता अपने पुत्र को दुनिया की सारी खुशियां दे देना चाहता है। इसके लिए वह दिन रात एक भी कर देता है। दूसरी तरफ पुत्र के लिए पिता हमेशा एक आश्वस्ति की तरह होता है। पीठ पर पिता का हाथ वह सम्बल देता है, जो हमें कहीं और से मिल ही नहीं सकता। लेकिन समय के प्रवाह को कौन रोक पाया है भला। समय ऐसा भी आता है जब पिता अचानक अतीत हो जाते हैं और पुत्र सहसा खुद को निराश्रित महसूस करने लगता है। युवा रचनाकार गोविन्द निषाद के पिता का हाल ही में निधन हो गया। पिता की स्मृति पर गोविन्द ने एक संस्मरण लिखा है। इस संस्मरण इसलिए भी उम्दा है कि गोविन्द ने बेबाकी से इसे लिखा है। कहा जा सकता है कि किसी भी बनावट से दूर खांटी अंदाज में लिखा है। ईमानदारी और सादगी ही इस संस्मरण को और संस्मरणों से अलग और बेजोड़ बना देती है। इस संस्मरण में वह पिता सहज ही दिख जाते हैं जो प्रायः हमारे बचपन के बादशाह हुआ करते हैं। पिता की स्मृतियों को नमन करते हुए आज हम आपको गोविन्द का एक तरोताजा संस्मरण पढ़वाते हैं। 



'साधू'


गोविन्द निषाद


पिता जी को गुजरे महीने हो गये। इस बीच वह बार-बार याद आते रहे। इनकी जीवन स्मृतियाँ पुनरुत्पादित होती रहीं। मेरे इधर पिता को आमतौर पर लोग गांव में बाऊ या बाबू जी कहते हैं लेकिन हमने उन्हें कभी बाऊ या बाबू जी नही कहा। हम उन्हें “साधू” कहते थे। परिवार ही नही बल्कि पूरा क्षेत्र उन्हें इसी नाम से बुलाता था “मन्ता साधू”। मेरे पिता चार भाई थे जिसमे दो लोगो को साधू ही कहते हैं। बचपन में बड़े होते हुए हमने उन्हें इसी संबोधन से बुलाए जाते हुए सुना। माँ, भाई, बहन, गांव, रिश्तेदार और उनके दोस्त सभी उन्हें इसी नाम से बुलाते थे। मैंने भी उन्हें इसी नाम से बुलाया “साधू”। पिता में वैसे साधू के गुणों का कोई आरोपण नही था न ही वह कभी साधू हुए थे। फिर भी उनका वह संबोधन क्यूँ और कैसे पड़ा, यह मेरे लिए आज भी एक गुत्थी है। उनके होते हुए कभी पूछा भी तो उन्होंने हंस कर और कभी-कभी गुस्से से टाल दिया। हाँ, एक गुण था उनमे साधू जैसा वह था उनका मस्तमौला और फक्कड़ अंदाज। हमेशा अपने में मस्त रहते उन्हें देखा। साधुओं की संगत उन्हें बहुत प्रिय थी। हमारे गांव एक साधू आते थे। वे जब भी आते गांव में रुकते। मेरी स्मृति में जो चित्र है वह यह है कि साधु अपने साथ हाथी भी लाते थे। वह साईकिल से चलते थे। घाघरा के किनारे रहते थे। कुछ दिनों के लिए इधर आ जाते थे। साथ में अपने एक हारमोनियम लेकर चलते थे। वह गाना बहुत अच्छा गाते थे। मैंने बहुत बार उन्हें गाते हुए सुना है। वह भजन गाते थे जिसे लोग निरगुन कहते। इसमें कबीर, राम,  सूरदास, तुलसीदास और संत कवियों की छबियां बार-बार आतीं। पूरा केवटहिया उन्हें सुनने के लिए आता। एक निरगुन वह बहुत मन से गाते जो मुझे अभी भी याद है, 


"का करबा राई-राई पाई-पाई जोड़ के

उड़ि जइहै सुगनवा एक दिन पिजड़वा के छोड़ के।" 


सुन कर लोग मुग्ध रह जाते। वह प्रतिवर्ष आते। निरगुन सुनाते, सिद्धा लेते और वापस चले जाते। मेरे पिता उनका बहुत आदर और सेवा करते। तो एक साधुआना मिजाज तो था उनमें। धीरे-धीरे साधु बूढ़े होते गए। आवाज कमजोर होती गई। उन्हें सुनने वालों की संख्या कम होती गई। अब वह जब भी आते हमारे घर टिकते और पिता उनकी सेवा में मशगूल हो जाते। जब तक वह आते रहे पिता उनकी आवभगत के लिए तैयार मिले। 


पिता की दिनचर्या स्नान के साथ शुरू होती। वह किताबें नही पढ़ सकते थे लेकिन उन्हें रामचरित मानस की कुछ चौपाईयां याद थीं जिसे वह नहाने समय गुनगुनाते। वह कभी इलाहाबाद संगम नहाने नहीं गए जबकि मां प्रतिवर्ष आती हैं। वह अगर कभी किसी तीर्थ पर गए तो अयोध्या गए। कार्तिक पूर्णिमा का स्नान करने घाघरा नदी के स्थित कम्हरिया घाट या बलुआ घाट जाते।‌ इस दिन यहां मेला लगता। अपनी अंतिम यात्रा पर वह कम्हरिया घाट पर ही लाए गए। उन्होंने हमेशा घाघरा नदी को गंगा मइया कहा। घर‌ पर स्नान करते समय वह गुनगुनाते, “होइहै वही जो राम रचि राखा/ जस करनी वस फल चाखा, गंगा बड़ी न गोदावरी तीरथ बडौ न प्रयाग/ सबसे बड़ी अयोद्धा नगरी जहाँ राम लिए अवतार।” और भी कई चौपाईयां वह गुनगुनाते। वह धार्मिक व्यक्ति थे। हमेशा राम नाम लेते लेकिन कभी वह किसी मंदिर नहीं गए। मैंने कभी उन्हें किसी मंदिर में दर्शन करने जाते हुए नहीं देखा। न ही कभी घर पर किसी देवी-देवता की तस्वीर लगाई। वह हमेशा स्मरण करते हुए निर्गुण रूपी भगवान को याद करते। राजनीति को लेकर कभी-कभी उनसे कुछ पूछता तो वह चौधरी चरण सिंह का नाम लेते और उस समय प्रचलित कुछ नारे मुझे बताते। जैसे - बनिहै मुख्यमंत्री चरण चौधरी प्रधनवा/ बिधानवा अबकी बदलै के पड़ी; उज्जर धोती करिआ कोट/ केहू न देहै मार्कंडे के वोट।





वह मजदूरी की तलाश में कई शहरों में गये लेकिन अपने फक्कड़ अंदाज के कारण कभी किसी शहर में टिक नहीं पाए। ये मेरे जन्म से पहले की बातें हैं। मैंने अपनी आँखों से उन्हें रिक्शा चलाते हुए देखा। मेरी सबसे सुन्दर और पुरानी स्मृति अपने पिता की है वह है रिक्शा पर बैठ कर उनके अपने ससुराल और मेरे ननिहाल जाने की। मेरा ननिहाल घाघरा दियारा में स्थित है। घाघरा कछार को लोग “देवारा” कहते हैं। यह दियारा का ही तद्भव रूप है। हालाँकि गांव नदी से दूर था। मैंने इस गांव को झोपड़ियों के गांव के रूप में देखा है जहाँ सिर्फ एक घर को छोड़ कर झोपड़ियाँ होती थी। उन झोपड़ियों पर मछली मारने के विभिन्न साधन पड़े रहते। साथ में उनके पास जो थोड़ी बहुत जमीन होती उस पर गन्ना की खेती करते। गांव एक ताल के किनारे था। ताल क्या पूरी झील थी वह। यह इस गांव की जीवनरेखा थी। गाँव जाने के लिए पिता ताल के किनारे का एक पूरा चक्कर लगाते थे। यह ताल के किनारे का सफर अब तक का मेरा  सुरम्य और रोमांचक सफ़र है। वह रास्ते में पड़ने वाले गांवों का नाम मुझे बताते। उन्हें पता होता कि मुझे वह नाम याद नही होंगे फिर भी वह रिक्शा खीचते हुए अपनी थकान से ध्यान हटाने के लिए मुझे बताते। एक गांव का नाम वह विशेष रूप से बताते ‘बढई का पूरा’। वह वह इसलिए बताते कि गांव के एक व्यक्ति की यहाँ ससुराल थी।  मुझे उस गांव का नाम याद हो गया था।‌ वहां पहुंच कर वह मेरी ओर मुखातिब होकर कहते "इ ह बढई क पूरा, उ जवन घर लौकत बा ओनकर ससुरार बा।" मेरी उत्सुकता बढ़ जाती और मै नजरें उठा कर उसे देखने लगता लेकिन वह घर मुझे दिखाई नहीं देता। यहां से ढलान शुरू होती जो ताल के किनारे तक लुढ़कती जाती। पिता पैडल मारे बिना ही ताल तक आ जाते। यहां से शुरू होती चढ़ाई-उतराई। ताल के किनारे का रास्ता बहुत उबड़-खाबड़ था।‌ वह मुझे आवाज लगाते, "देख ठीक से पकड़े रहिहे।" ताल के किनारे एक जगह महुआ के वृक्षों की कतारें थी। वहां लोग बैठते, ताल में नहाते, अपनी भैंसों को नहलाते। मेरे मानस पटल पर वह दृश्य आज भी किसी कलाकृति की भांति अंकित हो गया है जिसमें‌ यह लोग हैं और मैं पिता के रिक्शे पर बैठ कर जा रहा हूं। जो दृश्य मैं अपनी स्मृति में निर्मित करता हूं वह बहुत ही मनोहारी होता है। अगर मैं कलाकार होता तो यह मेरी सबसे अच्छी पेंटिंग होती। 


पिता मादक पदार्थ के शौकीन थे। वह बचपन से ही इनका सेवन करते थे।‌ यह एक सामाजिकता के तहत उन्हें मिला था जहां हर कोई कुछ न कुछ सेवन करता ही था। केवट जाति तो इसके लिए बदनाम है ही। हालांकि मुझे याद है पिता ने गांव में हो रहे एक यज्ञ को साक्षी मान कर शराब पीना छोड़ दिया। एक बार तय किया तो उन्होंने कभी फिर दोबारा शराब को हाथ भी नहीं लगाया। हां, वह और चीजों का सेवन करते रहे जो उनकी संगति के कारण कभी नहीं छूट पाई। जब वह बहुत बीमार पड़े तो बहुत कहने पर गांजा छोड़ा लेकिन बीड़ी पीते रहे। अंतिम दिनों में जब बीमार हुए तो उन्हें किसी भी तरह का तंबाकू लेने से मना किया गया लेकिन वह चोरी छिपे सुरती खाते रहे। यह आगे चल कर यह सब उनके लिए ख़तरनाक साबित हुआ। पिता गुस्से वाले आदमी थे। जब कभी गुस्सा होते हठ कर बैठते। इसके बाद वह किसी की नहीं सुनते। लेकिन घर के बाहर उन्होंने कभी ऐसा नहीं किया। वह जो भी करते, घर वालों के साथ घर पर ही करते। 


वह स्वयं के द्वारा सहेजी गई चीजों के प्रति बहुत स्नेह रखते और सजग रहते कि कही वह इधर-उधर न हो जाए। अगर किसी कारणवश वह चीज़ उन्हें नहीं मिलती तो वह‌ पूरा घर सिर पर उठा लेते। कुछ भी हो जाय उन्हें सबसे ज्यादा चिंता अपने सामान की होती। एक वाकया है कि पिता ने सब्जी बेचते हुए ढ़ेर सारे जूट के बोरे इकट्ठा कर लिए थे। वह इन्हें घर के एक कोने में रखते। सोचा था कि जब 100-200 हो जाएंगे तो  बेच दूंगा। एक दिन मैं कुछ खाना बना रहा था। खाना बनाते समय उपला(गोइठा) मैंने जो चूल्हे में लगाया था। खाना पकने के बाद देखा कि उपला आधा जला है आधा बाकी है। तो मैंने उसे बाहर निकाल कर रख दिया। मेरे दिमाग़ में पता नहीं कहां से आया कि इसे अंदर रख दूं। मैंने उसे वह जगह रख दिया जहां उपले रखे जाते हैं। उस उपले में भीतर आग थी। वह‌ धीरे-धीरे पूरे उपले में फैल गई। आधी रात को देखा कि पूरा कमरा लाल है।‌ मैं डर गया। जोर से चिल्लाया। सब लोग दौड़ते हुए आएं। देखा कि आग लगी हुई है। पिता का सब बोरा भी इसमें जल गया। आग बुझ गई। पिता उस दिन घर नहीं थे। मां को डर था कि पिता को पता चलने पर वह बहुत गुस्सा होंगे। इसलिए नहीं कि आग लगी और सामान जल गए बल्कि इसलिए ज्यादा गुस्सा होते कि उनका बोरा जल गया। मां ने तय किया कि उन्हें बतायेंगे ही नहीं कि आग लगी थी और उसमें सब बोरा जल गया। यह बात पिता को  कभी पता नहीं चली। वह जब भी पूछते मां कहतीं कि बेच दिया। वहीं दूसरी ओर अगर वह कोई गलती करते जिसका उन्हें एहसास होता कि गलती तो मैंने की हैं। मां या घर का कोई अन्य सदस्य इसके लिए उन्हें डांटता तो बहुत शालीन भाव से उसे मुस्कुराते हुए स्वीकार कर लेते। वह कहते, "अरे हम समझि ना पवनि कि एसन होई जाई।" एक बार का वाकया और है। मैं छोटा था। पिता ने मुझे ताड़ी पिला दी। मुझे यह बहुत चढ़ गई। उतर ही नहीं रही थी। मैं होशो-हवास से बाहर हो गया था। घर वालों ने उन्हें खूब खरी-खोटी सुनाई थी। उसके बाद से उन्होंने फिर कभी ऐसा नहीं किया। ऐसी छोटी-छोटी कई स्मृतियां हैं जो मुझे याद हैं। 





पिता का रिक्शा हमारे घर के जीविकोपार्जन का एक मात्र साधन था। शुरूआत में जब कई गांवों को मिला कर एकाध आटो रिक्शा होते थे तब पिता के रिक्शे की बहुत मांग होती थी। हर दिन कोई न कोई बयाना देने या बताने आता कि कल आप हमारे घर आ जाइएगा। पिता का रिक्शा हमेशा कहीं न कहीं चलता रहता। जब कभी वह विदाई में जाते तो उन्हें झपिया (मिठाई का डिब्बा), दौरी और कभी कभी कपड़ा विदाई में मिलता था। इसमें रूपए भी अच्छे खासे मिल जाया करते। ‌विदाई के मौसम में पिता बहुत खुश रहते और वह खुश तो हम लोग भी खुश। धीरे-धीरे गांव बदला। गांव में आटो रिक्शा बढ़ते चले गए। अब रिक्शा को लोग कम पूछते। विदाई कराने का काम भी ठीक से आना कम होता गया। एक दिन आया जब गांव में रिक्शा चलाने की कोई जगह न रह गई। दिन भर में एकाध सवारी ही मिलती। पिता ने तय किया कि वह शहर जा कर रिक्शा चलाएंगे। वह आजमगढ़ गए। वहां रिक्शा चलाया। जब मैं इलाहाबाद आया तो देखा कि कैसे रिक्शा चालक अपनी जिंदगी शहरों में बसर करते हैं। फिर मुझे बार-बार अपने पिता की याद आती कि वह भी इसी तरह शहर के किसी फुटपाथ पर सोया करते रहे होंगे। पिता रिक्शा चलाने से उबने लगे। वह‌ वापस गांव लौटे। रिक्शे पर भट्ठे के लिए ईंट ढोने लगे। एक दिन कुछ ऐसा हुआ कि उनकी मंडली के एक आदमी ने जिनकी जमीन बाजार में थी उन्हें चाय की दुकान खोलने की बात कहीं। वह‌ मान गए। उन्होंने हलवाई की दुकान खोली। दुकान मेरे स्कूल के पास ही थी तो मैं आराम से पढ़ाई के बाद दुकान पर आ जाता। दुकान से बस इतना हो जाता कि घर किसी तरह चल रहा था। पिता का फक्कड़ाना स्वभाव यहां भी उन्हें टिकने नहीं दिया। दुकान कभी-कभी घाटे में चली जाती। सबसे मंहगा होता कोयला खरीदना। पिता गुणवत्ता से कभी समझौता नहीं करते जिसके कारण लागत ज्यादा हो जाती। एक दिन यह दुकान बंद हो गई। पिता ने फिर से भट्टे के लिए कच्ची ईंट बनाने का काम करना तय किया। इस काम में मेहनत बहुत होती। इस काम में उनका हाथ हम लोग भी बंटाते। पिता के सहयोगी बनने के लिए हम भाइयों ने भट्टे पर कोयला फोड़ना और जले हुए कोयले को निकालने का काम करने लगे। इसमें अच्छी ख़ासी आमदनी हो जाती। हमने कोयला बेचा नहीं, इकट्ठा करना शुरू कर दिया। जब एक सीजन में अच्छा खासा कोयला इकट्ठा हो गया तो पिता ने एक बार फिर दुकान खोलने का विचार किया। इस बार दुकान को उन्होंने घर पर ही खोला। घर मुख्य सड़क के किनारे पर ही है तो कोई ज्यादा समस्या नहीं हुई। यह बाजार से बस थोड़ी ही दूर पर था। इस बार यह दुकान मेरे छोटे-छोटे सपनों को पूरा करने का माध्यम बन गई। आज मैं जो कुछ भी हूं इसकी जड़ें दुकान तक जाती हैं। पिता ने मुझे सभी चीजों में पारंगत कर दिया। मैं अच्छी चाय, समोसा, टिकिया और मिठाई के एक दो किस्में बनाना सीख गया। अब दुकान मैं ही संभालता। पिता इसमें सहयोगी होते। चूंकि दुकान घर के पास थी तो मां और मेरा छोटा भाई भी इसमें सहयोगी होते। इसका भी हश्र कुछ वैसा ही हुआ। जैसे-जैसे कोयला खत्म होता गया वैसे-वैसे लागत बढ़ती गई और एक दिन यह दुकान भी बंद हो गई। इसके बाद पिता खाली ही रहे। शरीर ने भी साथ देना कम कर दिया था। रिक्शे की कोई उपयोगिता न देख कर उन्होंने उसे ठेले में परिवर्तित करवा दिया। कुछ दिन ठेला भी खीचा लेकिन शरीर में दम नहीं था। बीच के कुछ दिनों में जरूर उन्होंने सब्जी बेचीं ठेले पर घूम कर लेकिन फिर वही। वह यहां भी टिक नहीं पाए।


जैसे-जैसे मैं बड़ा होता गया वैसे-वैसे पिता से बात करना कम होता गया। पिता नहीं चाहते थे कि मैं पढ़ूं। वह‌ चाहते थे हम लोग कमाने जाए। इसके लिए मैं उन्हें दोष नहीं दूंगा। ऐसा बिल्कुल नहीं था कि वह मुझे पढ़ने देना नहीं चाहते थे बल्कि उन्हें डर था कि यह पढ़ कर लिख कर करेगा क्या। जब तक पढ़ेगा तब तक‌ बहुत रूपया कमा लेगा। उस समय का यही माहौल था तो मेरे पिता भी यही सोचते थे। हां उन्होंने कभी भी स्कूल फीस देने, किताब-कॉपी खरीदने या स्कूल के लिए कपड़ा लेने से मना नहीं किया। हम कम बात करते लेकिन जब भी मैं इलाहाबाद से घर जाता तो बड़े प्यार से कहते, "अरे बाउ आ गयल" फिर कहते, "ठीक से रहला न, अबै कबले नौकरियां मिली।" उन्हें नहीं पता था कि पी-एच. डी. क्या होती है इसलिए वह कभी समझ नहीं पाए कि मैं क्या करता हूं।‌ वह पढ़ाई की योग्यता को संख्या क्रम में समझ पाते।‌ जब भी वह पूछते, "करे बाउ अबै केतना में पढ़त हवा।" मैं उन्हें समझा नहीं पाता।‌ मैंने उन्हें समझाने की एक तरकीब निकाली। मैंने कहा कि, "अरे केहू पूछे कि तोहार लड़िकवा काव पढ़त बा त कहिया कि सबसे बड़का पढ़ाई करत बा।" जब कभी मां के पास बैठे होते तो कहते, "करे बाउ तोहार बरवा बहुत बड़ा होई गयल ह कटवा दा जाके।" मां उन्हें कहतीं, "अरे तू का ओकरे बरवा के पीछे पड़ल रहै ला।" हम फोन पर बहुत कम बात करते। महीने में एकाध बार। वह फोन पर भी बस इतना बोलते, "और बाउ ठीक हवा ना"। मै इधर से हां कहता। फिर वह फोन मां को पकड़ा देते। दरअसल वह फोन पर बात करने को ले कर कभी भी सहज नहीं रहें। वह किसी भी आधुनिक तकनीक को लेकर सहज नहीं थे। वह‌ अंतिम दिनों में पीड़ा से गुज़रे। एक बार उन्हें दर्द हो रहा था। मैं हास्पिटल ले गया। डाक्टर ने एक थेरेपी की। दर्द कम हो गया। जब वह दर्द से उबरे तो बहुत खुश थे। उनकी वैसी खुशी फिर कभी नहीं देख पाया। वह उदास हो रहे थे। हमारी कोशिश जारी थी कि उनकी खुशी हम वापस लाएं लेकिन.....। 


पिता की अंतिम मुस्कराती तस्वीर मैंने बीती दीपावली में खींची थी। वह उनकी अंतिम तस्वीर हमारे पास है। अफसोस कि मैं कितनी फोटो इधर-उधर खीचता हूं लेकिन मां-पिता को साथ बिठा कर कभी कोई फोटो नहीं ली। उनकी जोड़ी में कोई तस्वीर नहीं है मेरे पास। पिता छोड़ कर चले गए अब उनकी स्मृतियां ही हमारे साथ रहेंगी। पिता के जाने के बाद कितनी बार उन्हें स्मृतियों में टटोला हूं। उन्हें पुनर्जीवित किया हूं। अगर सक्षम रहा तो फिर कभी भविष्य में इसको लिखूंगा। पिता ऐसे ही हमारी स्मृतियों में हमेशा जीवित रहेंगे।



सम्पर्क 


मोबाइल : 9140730916

टिप्पणियाँ

  1. बेहद मार्मिक एवम उन सभी मध्यमवर्गीय युवाओं जो शहरों में स्वस्थ जीवन की तलाश में हैं, के हिस्से का संवाद जो उनका पिता के साथ है।

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  2. बहुत सुंदर। संग्रहणीय संस्मरण।

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