जितेन्द्र श्रीवास्तव के काव्य-संग्रह ‘काल मृग की पीठ पर’ की यतीश कुमार की समीक्षा

 

जितेन्द्र श्रीवास्तव


जितेन्द्र श्रीवास्तव हमारे समय के सुपरिचित कवि हैं। हाल ही में वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली से उनका नया कविता संग्रह  ‘काल मृग की पीठ पर’ प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह पर कवि यतीश कुमार ने एक पारखी नजर डाली है। आज कवि जितेन्द्र श्रीवास्तव का जन्मदिन है। उनके जन्मदिन पर पहली बार परिवार की तरफ से हार्दिक बधाई एवम शुभकामनाएं। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं जितेन्द्र श्रीवास्तव के काव्य-संग्रह ‘काल मृग की पीठ पर’ की यतीश कुमार द्वारा समीक्षा।



आत्म-विवेक को संवेदित करती हैं ‘काल मृग की पीठ पर’ की कविताएँ



यतीश कुमार



“काल के मृग की पीठ पर

चुपचाप बैठा भग्न-हृदय

पर हारा नहीं

चिंतित हूँ, विचलित हूँ

पर बेचारा नहीं।"

 

काव्य-संग्रह ‘काल मृग की पीठ पर’ से गुजरते हुए यही लगा कि कवि अपनी पूरी सकारात्मकता के साथ इस संग्रह में उपस्थित है। वह स्मृतियों के कुएँ से रह-रह कर बाल्टी भर पानी निकालता है और उसी पानी से वृत्तचित्र बनाता है। चित्र अपनी छाप पाठकों के दिल पर छोड़ते हैं। उन चित्रों में दृष्टि, द्रष्टा और दृश्य तीनों एकमय हो कर पाठक से मिलता है। उसी दृश्य में रह-रह कर कभी एक पिता अपनी बेटी को जीवन का सच्चा सुख, सही मार्ग समझाता मिलेगा तो कभी सकारात्मकता के दीप जलाता एक सजग नागरिक मिलेगा। कुछ कविताएँ प्रार्थना-सी मिलेंगी। नींद में बुदबुदाती प्रार्थना। जैसे कविता ‘भोर की मिट्टी’ या ‘काया कमनीय हवा की’ या कविता ‘प्रार्थना’ ख़ुद। यह इसलिए भी कि कवि नींद में भी सबके लिए उतना ही विचलित है और गढ़ रहा है ‘नींद’ कविता।

 


इस संग्रह में अक्सर रात में अचानक उठ जाने का बोध या रात की बेचैनी का ज़िक्र आता रहता है। पढ़ते हुए जरा आगे बढ़ने पर यूँ लगेगा जैसे उसी बेचैनी को शांत करने वाली कविताएँ भी इसी संग्रह में गढ़ी गई हैं। जीवन का तर्क इसी कविता श्रृंखला का एक हिस्सा है। कवि समाज, रिश्तों और समय सबके लिए इतना ही चिंतित है और यही बेचैनी उसे खाये जा रही है और यूँ उनकी कविताओं में 'पुतलियाँ' शब्द ठहर-ठहर कर उसकी बेचैनी को शांत करने के लिए आता है। इसी शब्द को केंद्र में रख कर लिखी गई है कविता ‘पुतलियाँ पृथ्वी का सबसे पुराना एलबम हैं।’ यह कविता दृष्टि, द्रष्टा और दृश्य इन तीनों चीजों की जुगलबंदी है, जहाँ जो घट रहा है उसे अपने मन में हम भला कितना उतार पाते हैं, यह उसकी दास्तान ही तो है। 


यहाँ एक बुजुर्ग के मन के भीतर झाँकने की कोशिश लिए कविता, प्यारी स्मृतियों की लोरी की तरह आती है।



कविता यहाँ एक छोटी सी फ़िल्म बन कर भी आती है, जिसमें निहित होता है बड़ा संदेश। कविता में, दर्शन भरा संदेश छुपा है कि आपकी जैसी पात्रता होगी, ग्रहण करने की क्षमता भी उतनी ही होगी। इसलिए पहले अपनी पात्रता बढ़ाइए फिर और बड़े सपने देखिए।


बतौर पाठक, ‘पुतलियाँ पृथ्वी का सबसे बड़ा एलबम है’ कविता से आगे बढ़ जाने के बावजूद भी नज़र ‘पुतलियाँ’ शब्द पर टिकी रह जाती है। अहा! एक शब्द के कितने दुर्लभ प्रयोग संभव हैं वह इस किताब से पता चलता है। यह शब्द जैसे इस संग्रह की प्राप्ति है मेरे लिए। ‘पुतलियाँ’ शब्द को बार-बार, अलग-अलग रूप, अलग-अलग बिंबों में प्रयोग किया गया है, जो आपको सुखद आश्चर्य से भर देगा कि एक शब्द के आख़िर इतने रूप कैसे संभव है। 


एक जगह कवि लिखता है :-


“मन की बेचैनी पहचानती हैं पुतलियाँ 

लेकिन पुतलियों का सूनापन कौन पहचानेगा”


आगे फिर यह शब्द इस तरह से लौटता है- 


‘घंटों बाद पुतलियों के कानों में बज उठता है सुबह का संगीत’

 

एक और जगह लिखा है-



‘यह तस्वीर है उस पल की 

पुतलियों के एलबम में सबसे ऊपर सबसे ताज़ी 

इसमें कोई चित्रकारी नहीं है मेरी’


एक अन्य कविता में यह शब्द बहुत ही मार्मिक पंक्ति का हिस्सा है जहां कवि 'बेटी' और 'पुतलियों को यूं जोड़ते हैं कि मन भींग जाए- ‘बेटियाँ आत्मा की पुतलियों में रहती हैं’।




 

जैसे-जैसे पन्ने पलटता हूं, यह शब्द एक नए बिंब के साथ हाजिर होता है औऱ पाठक मन थोड़ी देर के लिए ठहर जाता है। उदाहरण के लिए एक लंबी कविता से यह पंक्ति-



‘जिसके प्राणों में चमक है पके धान-सी

जिसकी पुतलियों में हँसी है 

गेहूँ के बालियों की’



सब कुछ होने और गुजरने के बाद भी कभी पुतलियों को नहीं भूलता कवि, ख़ुद के वजूद को नहीं भूलता, ख़ुद का होना नहीं भूलता जिसे याद दिलाती है उसकी अंतर्दृष्टि। यकीन मानिए अंतर्दृष्टि की भी पुतलियाँ होती हैं। यहाँ दर्शन अपने पूरे वितान के साथ उपस्थित मिलेगा। सूक्ष्म में ब्रह्म और ब्रह्म में सूक्ष्म एक साथ मिलेंगे। 



कवि ने उन्माद या त्वरित सुख को ‘नया सुख’ का नाम दिया है। यहाँ भी एक साधक द्रष्टा बन कर बोल रहा है। पढ़ते हुए बार-बार कृष्ण नाथ याद आते हैं, जो देखने पर यक़ीन करने के लिए कहते हैं और यहाँ देखने को रचा जा रहा है। दर्शन के घूँट-घूँट पीने के बाद और यूँ इन कविताओं में रुक-रुक कर दर्शन भाव प्रगाढ़ रूप में उपस्थित मिलेगा।


जैसे एक पंक्ति है-



‘समय की करवट

और उसके एक ओर रंग दूसरी ओर दाग़’

 

जीवन और समय के आपसी संतुलन की करवट तो नहीं है ये। क्योंकि अंत में लिखते हैं।


‘भूलना मत याद रखना बेटियों

समय की तरह जीवन भी सिर्फ़ एक करवट नहीं सोता!’


संग्रह की अमूमन सभी कविताओं में यह देखना बतौर पाठक संतोष से भरता है कि कविताओं में उनका प्रयास दिखने में जितना सरल है, अभिव्यक्ति की बारीकियों में उतना ही कठिन। दर्शन, दृष्टि और दृश्य तीनों को साधते हुए कवि का टीस उभरता है-


‘साधो

रक्त वही नहीं है जो बहा दिया जाता है सड़कों पर

रक्त वह भी है

जो आँख से टपक पड़ता है 

यहाँ आँसू ज़िंदा होने का सबूत है कविता में’

 

पढ़ते हुए बहुत सामान्य सी लगती पंक्तियां जब नजर को दोबारा खींचती हैं तो पंक्तियों का विस्तृत अर्थ खुलता है। जैसे कि इस पंक्ति में महसूस हुआ-



‘कभी पूरी नहीं होती कोई भी यात्रा 

अधूरेपन में ही जीवित रहते हैं स्वप्न’


एक और जगह भी कुछ ऐसा ही लिखा मिला- ‘था को है और है को था बनाने में लगी रहती है दुनिया की बड़ी आबादी’, आगे इसी था औऱ है के बीच की दूरी को बताते हुए लिखते हैं- ‘था और है के बीच होती है दूरी अलंघ्य- सी’।

 

इसीलिए कहता हूँ कि यहाँ पॉज़िटिविटी है। जीवन दर्शन में सकारात्मकता को ज़िंदा रखने का एक कौतूहल हमेशा कवि की हूक बनी दिखेगी। संग्रह में ‘हूक’ नाम से ही एक कविता भी है, जहां लिखा है किसी स्वप्न की कोर में जगे सपनों के बारे में, जिसे नींद नहीं आती है और जो सब कुछ ख़त्म होने के बाद भी आँखें मिचियाता बचा रहता है। जीने की इस ललक को कवि बार-बार शब्दों के दीये दिखाता है और कहता है :-



“फिर देखना 

बदल जाएगा सब कुछ

महसूस होगा

जैसे पृथ्वी से उठ रही है 

मौसम की पहली बारिश के बाद की गन्ध।"

 


यही बची हुई गन्ध, अजर गन्ध का लोबान प्राप्ति है। इस संग्रह की कुछ कविताएँ कोरोना द्वारा दिखाया गया सच है, जिसे कवि यहाँ प्रतिबिंबित कर रहे हैं। बड़ा ही सुखद संयोग है कि ‘अन्तस की खुरचन’ में विडम्बना शीर्षक की एक पूरी सीरीज है और यहाँ इस संग्रह में भी विडम्बना नाम से कविताओं की पठनीय शृंखला है। वहीं से एक टुकड़ा कुछ यूं है-


“सब कुछ जिसके नाम पर हुआ

कुछ भी

उसके नाम न हुआ”


दरअसल एक सृजक, एक दृष्टा, विडम्बनाओं से भरी इस दुनिया में भला और क्या कर सकता है। शब्दों से उस खाई को पाटने की कोशिश के सिवाय जिसे समय और समाज ने मिल कर रचा है। इस संग्रह का स्वर सकारात्मकता लिए है। यहाँ पीड़ा के अंधियारे में भी एक दीप पुंज दिखेगा, जो कहेगा कि हर रात की कोख में एक सुबह ज़रूर होती है। उस सुबह को औऱ इस संग्रह में संकलित ऐसे कई सकारात्मक संदेशों को, इसमें लिखी प्रार्थनाओं को, इसमें रचे-बसे प्रेम को बचाना पाठकों की जिम्मेदारी है।



‘काल मृग की पीठ पर’

जितेन्द्र श्रीवास्तव

वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली 




यतीश कुमार 


संपर्क


मोबाइल : 08420637209

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