प्रचण्ड प्रवीर का आलेख ‘जजमेंट’ के समर्थन में'
किसी भी व्यक्ति को 'जज' करना आसान नहीं होता। समस्या यह है कि जज करते समय हम किन बातों को प्रमुखता दे रहे हैं और किसे उपेक्षित कर रहे हैं। इस तरह जज करना बहुत कुछ हमारे पूर्वाग्रह और दुराग्रह पर आधारित होता है। लेकिन यह स्वीकार करना भी आसान कहां? क्योंकि जज करने वाला व्यक्ति स्वयं को सर्व ज्ञानी मान कर ही चलता है। और ऐसी स्थिति में इस जजमेंट पर ही सवालिया निशान उठ खड़े होते हैं। आम तौर पर आज गंभीर बातों को हवा में उड़ा देने या उपेक्षित करने का चलन ही चल पड़ा है। प्रचण्ड प्रवीर ने इस जजमेंट के बारे में एक गम्भीर आलेख लिखा है। इसके लिए वे उन दार्शनिक विचारों और तथ्यों की तह में गए हैं जहां सामान्य के लिए जा पाना सम्भव ही नहीं। इस आलेख को पढ़ने के लिए पाठकों के भी गम्भीर होने की जरूरत पड़ेगी। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं प्रचण्ड प्रवीर का आलेख ‘जजमेंट’ के समर्थन में'।
‘जजमेंट’ के समर्थन में'
प्रचण्ड प्रवीर
इन दिनों यह बात फिल्मों, टी वी शो और अन्य मीडिया के माध्यम से जनमानस में बिठायी जा चुकी है कि हमें किसी को ‘जज’ नहीं करना चाहिए। ‘जजमेंट’ का अर्थ ‘निर्णय’, ‘अच्छे-बुरे का निर्धारण’, ’प्रलय के समय होने वाली ईश्वर के द्वारा दी गयी सजा या ईनाम’, ‘निर्णय के उपरान्त बर्ताव’ आदि आते हैं। यह बात और है कि कान्ट सौन्दर्य-बोध को भी ‘जजमेंट’ ही मानते हैं। उनकी पुस्तक ‘क्रिटिक आफ जजमेंट’ सौन्दर्य-बोध और उद्देश्यवाद (प्रयोजनवाद) के बारे में है। हालांकि पाश्चात्य दर्शन में अब इसका सर्वमान्य अर्थ सुदृढ विचार (डिफिनिट नॉलेज) के निश्चयन (डेटरमिनेशन) में है। वह निश्चयन इस प्रकार का है कि किसी प्रतिज्ञा-वाक्य (प्रोपोजिशन) की सत्यता की कोटि सत्य और असत्य (ट्रू और फाल्स) में निर्धारित की जा सके।
जो बात समस्याग्रस्त लगती है कि युवा पीढी अंग्रेजी के प्रभाव में बोलचाल की भाषा में कहेंगे कि आप ‘जज’ न कीजिए, या तुम बहुत ‘जजमेंटल’ हो। उनके कहने का अर्थ है कि हमें अच्छा-बुरा (विशेष रूप से बुरा) कदापि न ठहराया जाय, क्योंकि यह आपका पूर्वाग्रह ही होगा। दूसरे शब्दों में हम तो हैं ही अच्छे, पर आप इसको मेरी आदतों, मेरे विचारों या मेरी हरकतों से किसी भी तरह हमें दोषी न ठहराइए। हमें ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में भी किसी को किसी बात का दोषी न ठहराया जाए। 'जियो और जीने दो' के सिद्धान्त पर जीवन में खुलापन रहे। दरअसल इसके पीछे की तहरीर यह कहना चाहती है ‘तुम हमको गुड कहना, हम तुमको वेरी गुड कहेंगे।‘
सामान्यत: इस जजमेंट के दायरे में ‘मोरल पोलिसिंग’ को निशाना बनाया जाता है। इसका उदाहरण टकसाली निर्णय (स्टिरियोटाइप) पूर्वाग्रह की तरह हैं, मसलन शराब पीने वाले बुरे आदमी होते हैं या शार्ट्स पहनने वाली लड़कियाँ प्रणय के लिए आसानी से उपलब्ध हैं वगैरह, वगैरह। लेकिन यह ध्यान देने वाली बात है कि इसे अंग्रेजी में भी यह नहीं कहा जा रहा है कि हे भले मानुष! तुम ‘प्रिज्युडिस्ड’ (पूर्वाग्रही) मत होना। ऐसा इसलिए क्योंकि पूर्वाग्रह (पूर्व-निर्णय) की शर्तें यहाँ लागू नहीं होती।
इस तरह का निर्णय कुछ हद तक ‘अनुमान’ के अन्दर आता है। बातों को समझने के लिए हम न्याय दर्शन का सहारा ले रहे हैं। न्याय में प्रमा (शुद्ध ज्ञान) के चार करण अथवा चार प्रमाण बताए गए हैं – प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द। अलग-अलग दर्शनों में प्रमाणों की संख्या दो, तीन, पाँच और छह भी है, किन्तु वह अभी हमारा विवेच्य नहीं है। न्याय दर्शन में अनुमान के पाँच अवयव माने गए हैं - प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन। जिस वाक्य से पक्ष के साथ साध्य के सम्बन्ध का ज्ञान हो उसे "प्रतिज्ञा", जिस वाक्य से हेतु में साध्य की ज्ञापकता अवगत हो उसे "हेतु", जिस वाक्य से हेतु में साध्य की व्याप्ति बताई जाए उसे "उदाहरण", जिस वाक्य से पक्ष में साध्यवाक्य हेतु का संबंध बोधित हो उसे "उपनय" और जिस वाक्य के हेतु का अबाधि-तत्व एवं असत्प्रतिपक्षि-तत्व बताते हुए हेतु के सामर्थ्य से पक्ष में साध्य के संबंध का उपसंहार किया जाए उसे "निगमन" कहा जाता है। उनके उदाहरण क्रम में इस प्रकार हैं : पहाड़ पर धुआँ दिख रहा है, अवश्य ही वहाँ आग लगी होगी।
1. "पहाड़ पर आग लगी है" – प्रतिज्ञा
2. "धुआँ है" – हेतु
3. "जहाँ जहाँ धुआँ होता है वहाँ आग जरूर होता है" – उदाहरण
4. “और यहाँ भी है” - उपनय'
5. “इसलिए आग लगी हुई है” - निगमन
अब हम पूर्वोक्त वाक्य को इस कसौटी पर कसते हैं कि शराब पीने वाले व्यक्ति बुरे होते हैं। यहाँ ‘शराब पीता है’ हेतु है। इससे सम्बन्धित उदाहरण यह होगा कि ‘जो आदमी शराब पीता है, वह बुरा होता है।‘ अब इस उदाहरण की व्याप्ति नहीं है। मतलब यह हमेशा सत्य नहीं है कि शराब पीने वाला आदमी बुरा ही होगा। यह सत्य अवश्य है कि आमतौर पर निषेध मादक पदार्थ का सेवन जैसे शराब पीने का दोष कहा जा सकता है, किन्तु इससे उस आदमी का हिंसक, आततायी, भ्रष्टाचारी, व्यभिचारी, कपटी, मक्कार, धूर्त होना सिद्ध नहीं होते।
इस तरह यह कहा जा सकता है कि जजमेंट के निषेध से उनका आशय ऐसे अनुमानों से है जिसकी व्याप्ति (pervasion) नहीं ठहरती। लेकिन यह जजमेंट की प्रक्रिया का दोष नहीं, बल्कि असावधान या गलत अनुमान का दोष है।
यहाँ एक और प्रमाण माना जा सकता है, वह है शब्द प्रमाण (टेस्टिमोनी)। वह यह कि लोक में यह बात प्रसिद्ध है कि शराब पीना बुरी बात है।‘ इसका निगमन इस तरह किया जा रहा है कि शराब पीना बुरी बात है, आप बुरा काम करते हैं इसलिए बुरे हैं। देखा जाय तो लोक में यह प्रसिद्ध नहीं है कि सभी शराब पीने वाले बुरे हैं, बल्कि यह प्रसिद्ध है कि शराब पीना बुरी बात है।
देखा जाए तो ‘जजमेंट’ का मोटा अर्थ निर्णय करना है। भारतीय दर्शनों से अगर समझें तो यह मन, बुद्धि, अहंकार - अंत:करण के घटकों द्वारा किया जाता है। बुद्धि का काम ही निश्चयन है। दिन भर में हम कोई भी कार्य करने के लिए निश्चयन करना ही पड़ता है जैसे कि जमीन फिसलन भरी तो नहीं है, सीढ़ी से उतरते समय हम गिर तो नहीं जाएँगे, सामने पेड़ पर कौआ बैठा है या तोता। इस तरह की उपयोगिता मूलक ज्ञान और प्रमा के बिना हमारा काम चल ही नहीं सकता।
किन्तु समस्या प्रतिपक्षी को इस तरह के ‘निश्चयन’ में नहीं है। मुख्य समस्या मूल्य-निर्धारण को ले कर है। क्योंकि ‘लम्बा-चौड़ा’, ‘प्रिय-अप्रिय’, ‘उपयोगी-अनुपयोगी’ आदि शब्द युग्म ‘अच्छा-बुरा’ से अलग हैं। ‘लम्बा-चौड़ा’ यह बाह्य वस्तु के प्रत्यक्ष ज्ञान का विषय है। ‘प्रिय-अप्रिय’ मानस के रागात्मक व्यवहार से जुड़ा है। ‘उपयोगी-अनुपयोगी’ बुद्धि का विषय है। ‘अच्छा-बुरा’ मूल्य निर्धारण का विषय है। मूल्य के दो आयाम है – आप क्या चाहते हैं और क्या ‘सही’ है।
क्या सही है और क्या नहीं – अनुशंसा और निषेध के आयाम की चर्चा करने से पहले हम कुछ मूलभूत बात पर आते हैं।
कुछ दार्शनिकों का मानना है कि सभी कर्म-निर्देशों में साध्य नित्य-व्यवस्थित रहता है। प्रत्येक व्यक्ति का सहज स्वार्थ ही वह साध्य है। जब एक व्यक्ति या समाज दूसरे की अपने स्वार्थ को सिद्ध करना चाहता है तो उसे सभी नीति कहते हैं। जब व्यक्तियों की सहज और अपरिहार्य स्वार्थ प्रवृत्तियों के संघर्ष को एक सामुदायिक संवाद में बदलना होता है तो उपयुक्त नीति कानून और नैतिकता का रूप धारण करती है। स्वार्थ जीवन का सहज साध्य है, नीति उसकी प्राप्ति का बुद्धि से सुचिन्तित उपाय है। व्यक्ति संघर्ष को कुछ हद तक रोक कर सामुदायिक जीवन को जन्म देने वाली नीति ही केवल लोकापवाद के भय से समर्थित होने पर सामाजिक रूढ़ि या प्रथा, राजदण्ड से समर्थित होने पर कानून, ईश्वरीय दण्ड के भय से पालनीय होने पर ‘धर्म’ और अहेतुक आन्तरिक बाध्यता के भाव से समर्थित होने पर ‘नैतिकता’ कही जाती है।
मूल्य किसी पदार्थ (शब्द के अर्थ) की ऐसी विशेषता जिसका ठीक पता उसे परखने पर चलता है और जिसका पता चलने पर चेतना उसकी ओर एक प्रशंसनीयता के भाव से आकृष्ट होती है और उसकी यथायोग्य प्राप्ति को उचित मानती है, विशेषत: यदि वह विषय एक सम्भावना हो तो उसे वास्तविक रूप देना या सिद्ध करना उचित समझ आता है। इसलिए सभी अपने समर्थित मूल्यों की पैरवी करते हुए नज़र आते हैं।
अब हम पुरानी बात पर वापस लौटते हैं। हम पुराने उदाहरण को लेते हैं – शराब पीना बुरी बात है। यह एक तरह का मूल्य है क्योंकि इसमें किसी का निषेध किया गया है। इस व्यावाहारिक मूल्य का उद्देश्य यह हो सकता है – स्वास्थ्य के प्रति सजग रहना और सेवन करने वाले व्यक्ति को उसकी अनदेखी का दोषी पाना। साथ ही, सेवन के पश्चात उपद्रव की सम्भावना का परिहार। इसके विपक्ष में यह तर्क दिए जा सकते हैं कि कुछ मनुष्य फिर भी स्वस्थ रहते हैं और शराब पीने के बाद उपद्रव नहीं करते।
उपरोक्त प्रतिज्ञा के सही-गलत होने का मूल्य-निर्धारण हमारा इष्ट नहीं है। मेरी समझ से यह विधि (राजदण्ड के समर्थित होने पर कानून) का विषय अधिक है जो कि सांस्कृतिक और राजनैतिक परिवेश देख कर निर्धारित की जाती और बदली जाती रही है।
समस्या यह है कि किसी तरह का व्यवहार जो दूसरे की दृष्टि में (आस्था में या रूढ़ि में) सही नहीं है, वह जब तक अपने मूल्य नहीं बदलता, अपने समझ के अनुसार गलत ही समझेगा। जजमेंट को सस्पेंड (निलम्बित) करने का आग्रह ऐसा है कि हमारे नए मूल्य हैं जो आपके मूल्य से नहीं मिलते इसलिए आप मूल्य-निर्धारण ही न करें। दूसरे शब्दों में यह कहा जा रहा है कि मैं विलक्षण हूँ, मेरी विलक्षणता को आप किसी भी खाके में नहीं रख सकते हैं। अत: मेरा मूल्यांकन न करें।
यह वाद नया नहीं है कि बल्कि ग्रीक स्टोइक दर्शन के ‘सिटियम के जेनो’ के विचारों में इसकी अनुगूँज मिलती है जिसके लिए साधु जीवन उत्कृष्ट है ओर साथ ही नैतिक उदासीनता (एडियाफोरा - adiaphora) का अपना मूल्य है, जो कि आत्मरक्षा में मदद करता है।
एक दृष्टि से यह एक तरह का पलायनवाद है। यह न तो मूल्यों का संघर्ष है, न ही किसी तरह का विवेचना या संवाद। यह एक पार्टी पर दूसरी पार्टी का आरोप है कि वह या तो पूर्वाग्रही है या उसके अनुमान की व्याप्ति नहीं है या उसके शब्द प्रमाण ठीक नहीं हैं या उसके मूल्य हमारे मूल्य से नहीं मिलते और कभी मिलेंगे भी नहीं। दूसरी पार्टी पर पहली पार्टी का आरोप यह है कि आप के मूल्य बिगड़े हुए हैं, या दूसरे शब्दों में मूल्य हैं ही नहीं।
यहाँ ‘जजमेंट’ के समर्थन से मेरा तात्पर्य इतना है कि मूल्य आविष्कृत नहीं होते बल्कि अन्वेष्य होते हैं, खोजे जाते हैं। अन्तत: सारे मूल्य सत्य, स्वातन्त्र्य और भाव में समाहित हो जाते हैं।
अत: कोई आपके मूल्यों को गलत कहता है तो यह सम्भव है कि वह अंधकार में है या फिर हमारे मूल्य ठीक नहीं हैं। अगर वह अंधकार में है और जब तक वह हिंसा नहीं करता, हमारे हित के विपरीत नहीं जाता – उस स्थिति में उसके पूर्वाग्रह से किसी को भयभीत नहीं होना। यह बड़े साहस का काम है कि किसी को अपने मूल्यों को समझाना। उदाहरण के लिए महात्मा गाँधी को जीवनपर्यन्त सत्य के लिए संघर्ष करना पड़ा। उन्होंने लोकोपवाद के भय से छुआछूत का अंध-अनुकरण नहीं किया बल्कि अपनी निर्भीक बातों से समाज में परिवर्तन लाने का श्रम किया।
उसी तरह जिन्हें यह लगता है कि मद्यपान करके वह व्यक्ति का स्वातंत्र्य की सुरक्षा कर रहे हैं, उन्हें भी प्रतिवाद के अवसर पर निर्भीक हो कर अपनी बात रखनी चाहिए न कि किसी से ‘जजमेंट सस्पेंड’ करने की कायर याचना करनी चाहिए।
यह बात व्यावहारिक रूप से सत्य है कि आस-पास अनेक तरह के पूर्वाग्रह दिखते हैं जैसे जाति की श्रेष्ठता, धर्म की श्रेष्ठता आदि। सवाल यह उठता है कि आप किसी के स्वयं को श्रेष्ठ समझ जाने से आहत हैं या उनके द्वारा खुद को निम्न समझे जाने से आहत हैं। मेरी दृष्टि में दोनों ही परिस्थितियों में आहत न होना ही श्रेष्ठ है। यह सम्भव है दूसरी अवस्था अपमानजनक हो, उस स्थिति में हमें प्रतिकार करना चाहिए आहत हुए बगैर। लेकिन यह प्रतिकार उनके अशुद्ध ज्ञान अथवा गलत अनुमान (व्याप्ति न होने) के कारण है या फिर बाधित आप्त वचन के कारण।
जजमेंट के विरुद्ध यह बात कही जाती है कि ‘जज’ किए जा रहे व्यक्ति की पूरी पृष्ठभूमि हमें नहीं पता होती है। हम यह नहीं जानते कि कौन किस परिस्थिति से गुजर रहा है। किन्तु इससे बस इतना ही होगा कि हमारा ‘जजमेंट’ पूरे सन्दर्भ को न जानते हुए उसके प्रति उदार न होगा।
परिष्कृत अर्थों में पूर्वपक्ष का यह कहना है कि जजमेंट इसलिए नहीं करना चाहिए, क्योंकि हर एक मनुष्य विलक्षण है और जिसका मूल्य निर्धारण असम्भव है, कुछ और नहीं बल्कि स्वछन्दता था, जो कि अराजकता और अनाचार की जननी है।
प्रतिवादी शायद यह भी सोचते हैं कि अच्छे के साथ अच्छा और बुरे के साथ बुरा व्यवहार करना चाहिए। किन्तु यह सही नहीं है। हमें बुरे के साथ भी अच्छा ही व्यवहार करना चाहिए और यदि वह हमारे लिए हानिकारक हो रहा हो तो उससे बचना चाहिए। प्रतिवादी यह नहीं कहते कि वो बुराई करें, हम भलाई भरे, न हो बदले की हो भावना। क्योंकि इस मानदण्ड के लिए प्रतिवादी भी तैयार नहीं है। वह बस इतनी छूट चाहता है कि उसके बुरे कर्मों को देख-सुन कर कोई कुछ न कहे।
यह प्रश्न स्वाभाविक है कि ‘जजमेंट सस्पेंड करने की याचना’ में क्या समस्या है?
सरल अर्थों में यह समस्या कुछ हद तक सांस्कृतिक है। जजमेंट मत देना, कहने का अर्थ अब्राह्मिक धर्मों की अवधारणा है कि अंतत: हमें बुरा कह के दोजख मत भेजना। हमारे पापों के लिए ईश्वर का पुत्र ‘ईसा मसीह’ पहले ही मर चुका है। ‘जजमेंट’ को हम सामाजिक यंत्रणा कह कर उससे मुक्ति पाना चाहते हैं या दूसरों को अपनी अवधारणा से किसी भी तरह की यंत्रणा से मुक्त रखना चाहते हैं।
पहली स्थिति में हम सम्भवतया अविवेकी मनुष्य की यंत्रणा से बचना चाहते हैं। पर वह तो उसे अनदेखा करने से या महत्त्व न देने से भी सिद्ध हो सकता है। दूसरी स्थिति में हम स्वयं को त्रासक नहीं देखना चाहते भले ही वह हमारी दृष्टि से अविवेकी क्यों न हो। इस दूसरी स्थिति हमारे मूल्य सुदृढ़ नहीं है कि हम उसे दूसरों के लिए अनुकरणीय या लाभप्रद मानें। या फिर हम किसी के जीवनचर्या में उसके स्वीकार्यता के विपरीत दखल नहीं देना चाहते। या सम्भव है हम यह समझते हों कि सभी के अलग-अलग मूल्य हो सकते हैं, जो मेरे लिए सही है वह दूसरों के लिए नहीं। यह बात कुछ हद तक ठीक है कि धर्म ऐकान्तिक नहीं होता (धर्म कर्त्तव्य के अर्थ में, जो मूल्य निर्धारण करता है) और वह कर्ता, कर्म, देश, काल आदि से निर्धरित हो कर बदलता है। इस विकल्प में हम किसी को यंत्रणा नहीं देते बल्कि उसे समझते हैं कि वह ऐसा क्यों कर रहा है।
मूल्य और धर्म का स्वरूप समझना सब के लिए हितकार होता है। लेकिन ‘जजमेंट सस्पेंड’ करना दरअसल अपने दायित्व से पल्ला छुड़ाना है और एक तरह संसार से प्रति गैर-जिम्मेदाराना भाव भी है।
‘ब्रदर्स कारामाजोव’ दोस्तोयेवस्की के उद्घोष कि ‘हम सभी, सभी कुछ के लिए सबके सामने दोषी हैं’ (“each of us is guilty of everything against all) अस्तित्ववाद (एक्जिस्टेंसियलिज्म) के बीज हैं। भारतीय अवधारणा में हम प्रारब्ध भोगने के लिए जन्म लेते हैं और अपने ही कर्मों का फल भुगतते हैं। देखा जाय तो दोनों ही अवधारणा में हमें अधिक उदार होने कहा जाता रहा है। यह भी विचारणीय है कि किन्तु पापी कहने का या कर्मों के फल भोगने का निषेध किसी धार्मिक विचार में नहीं है। ईसाई मत में भी पापियों से प्रेम बरतने को कहा गया है, पापी न कहने को नहीं कहा गया है।
‘जजमेंट सस्पेंड’ करने की याचना दरअसल दुख परिहार और सुख-संवेदन (केवल सुख की नहीं) की खोज की अभिव्यक्ति है जिसे सांस्कृतिक रूप से हेय माना जाता है। यहाँ हम ‘सिटियम के जेनो’ की नैतिक उदासीनता का खण्डन करते हैं। जीवन का अर्थ उत्कृष्ट मूल्य निर्वाहण में हैं और सुखैषणा में सुख-संवेदन एक सतही प्रवृत्ति है।
एक गहरी समस्या स्वयं के प्रति ‘जजमेंटल’ होने के बारे में है। इसका सीधा अर्थ है अप्रिय परिस्थिति में अपने आप को कोसना। यहाँ मनुष्य स्वयं के प्रति कठोर हो कर कभी-कभी अन्याय कर बैठता है। यह भी चिन्तन का दोष है।
सम्भवत: आने वाले दिनों में समाज वैसा हो जाए जिसकी आशंका एक विदेशी फिल्म में कल्पित की गयी थी कि मनुष्य का मूल्य सोशल मीडिया पर उसकी रेटिंग से तय होगा। जिसके कम नम्बर होंगे उससे कम लोग मित्रता करेंगे या किसी तरह का व्यवहार न रखेंगे। ‘जजमेंट’ के समर्थन में ऐसी कृत्रिम और भयावह स्थिति का मैं समर्थन नहीं करता, क्योंकि यह मूल में अविवेकी मनुष्यों के अशुद्ध अनुमान का पुख्तीकरण है। सवाल यह उठता है कि आप ‘जजमेंट’ से करना क्या चाहते हैं? आप मनुष्य के स्वरूप का निर्धारण करना चाहते हैं। क्या हर मनुष्य केवल उसके कर्मों का, उसके विचारों का, उसकी पृष्ठभूमि का लेखा-जोखा है? यह विचारणीय प्रश्न है, जो इस आलेख में विवेच्य नहीं है।
हमें यह सोचना चाहिए कि क्या मनुष्य मात्र हमारे संवेदना, करुणा या मैत्री का पात्र नहीं? यदि है तो वह हमारे निश्चयन (जजमेंट) के उपरान्त भी बना रहना चाहिए और उसका दायरा स्व से पर तक विस्तृत हो। मनुष्यता इसी में निहित है।
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
अच्छा लिखा गया है!
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