अनुज पाण्डेय की कविताएं
अनुज पाण्डेय |
एक समय था जब लेखक/ कवि अपनी रचनाएँ/ कविताएँ पत्र पत्रिकाओं को भेजा करते थे तब सम्पादक गुण दोष के आधार पर रचनाओं का निर्णय किया करते थे। इस क्रम में अस्वीकृत रचनाएँ वापस कर दी जाती थीं। रचनाओं के लौटने से लेखक या कवि निराश नहीं होता था बल्कि अपनी रचना को और बेहतर बनाने में जुट जाता था। तब लगता था कि रचनाएँ भी अपने लिए लेखक से समय और परिश्रम चाहती हैं। अब समय बदल गया है। इतनी पत्र पत्रिकाएँ, ब्लॉग्स, ई मैगजींस हैं कि रचनाओं के लौटने का खतरा अब नहीं रहा। कुछ नहीं तो कवि या रचनाकार अपनी फेसबुक वॉल पर ही कविताएँ दे कर वाह वाही बटोर लेते हैं। यह दौर किसी को निराश करने का दौर नहीं है। वाह, उम्दा, मानीखेज़, जबरदस्त, क्या कहने, बेहतरीन जैसी उपमाएँ और अधिकतम लाइक्स किसी को भी डिरेल्ड करने के लिए काफी है। अगर किसी को कुछ सुझाव दिया भी, तो वह खुद अपने को श्रेष्ठ समझते हुए पीठ पीछे संपादक की खिल्ली उड़ाने लगता है। ऐसे परिदृश्य में बेहतर रचनाएँ खोजना भूसे के ढेर में सुई खोजने जैसा है। अनुज पाण्डेय ने अपनी एक कविता का विषय रचना वापस लौटने को ही बनाया है। अनुज अभी आठवीं के छात्र हैं और कविताई करना शुरू किए हैं। अनुज के पास विषय है और विषय को कथ्य के साथ बरतने का हुनर भी है। यह एक कवि के रचनाएँ रचने का प्रारंभिक दौर है। एक कवि के तौर पर अनुज में काफी संभावनाएं हैं। वे अपने लिखने के प्रति सजग भी हैं और प्रतिबद्ध भी। युवतर कवि का कविता की दुनिया में स्वागत है। उनके प्रति शुभकामनाएं व्यक्त करते हुए हम आज प्रस्तुत कर रहे हैं अनुज पाण्डेय की कुछ कविताएँ।
अनुज पाण्डेय की कविताएं
हम समझते थे
बनाने धरती को सुंदर
हम चल पड़े
विकास की राह पर।
ऊँची इमारतें बनाना
काट कर वृक्षों को
पाट कर पोखरों को
हम समझते थे
धरती को सुंदर बनाना।
इसी प्रक्रिया में
हम भूल गए पूर्णतः
धरती का सौंदर्य
जो था सबसे ज़रूरी।
चाँदनी रात में
चमकना जुगनू का
सुहाने सावन में
पेड़ों का हरा होना
कड़ाके की ठंड में
सूर्य की हल्की ऊष्मा
मई की आँधी में
गिरना कच्चे आमों का
सब भूल गए हम
जो कि था वास्तविक सौंदर्य।
नहीं किसी के पास
पल भर की फुर्सत
देखने इस सौंदर्य को
एक अजब रुचि के साथ।
एक अशांत मन
चौराहों पर,
गलियों में हरवक्त
सड़कों पर
बस अड्डों पर
घूमता रहता है
एक अशांत मन
रोटी की तलाश में।
अनाज के घड़ों में
भरी होती है निराशा
अनाज की जगह।
भूखे बच्चों को
सोना पड़ता है अक्सर
रोटी के बिन।
न्याय और सम्मान
उसकी खातिर हमेशा
रहता है शून्य।
गाँवों से शहर
शहरों से गाँव
आना और जाना
होती है उसकी विवशता
ना कि कोई सैर
और न ही कोई शौक।
समाज की आबोहवा
पिता होते हैं
उस पेड़ के जैसे
जिसके तले हम
करते हैं एहसास
हल्की बारिश का
तेज़ बारिश में,
हल्की ऊष्मा का
चिलचिलाती धूप में।
उसी पेड़ के तले
हो पाता है
हमें अंदाज़
कड़कती धूप का,
आँधी - तूफ़ान का,
सिहराती बारिशों का।
उन्हीं की बदौलत
जान पाते हैं हम
समाज- दुनिया की
आबोहवा को।
एकटक ताकतीं हैं आँखें
ठप्पा वाली पर्ची को
बाॅक्स में डालने के बाद
या फ़िर
लम्बी श्रृंखला की बटनों में
कोई एक बटन
दबा लेने के बाद,
आँखें
प्रारंभ करती हैं ताकना
लाभकारी योजनाओं की ओर
और ताकतीं हैं एकटक
निराश हो कर लौटने तक।
चोटें पाने के बाद
लेकर धुँधली आशाए़ँ
भागी जातीं हैं वे आँखें
वर्दी की ओर
करते हुए गुज़ारिशें,
और एकटक ताकतीं हैं
दस्तावेज़ो के भठने और
आशाओं के दम तोड़ने तक।
हमारी काबिलियत
जबसे हमने शुरू किया
ध्वस्त करना वनों को
और खत्म करना
पूरी बेरहमी के साथ
वन्यजीवों के आशियाने
उसी समय से
ख़त्म होने लगी
हमारी काबिलियत
खुद को मानव कहने की।
हमने किया
किस प्रकार का उत्थान
जिसमें ध्वस्त हो गई
हमारी मानवता
और काबिलियत
खुद को आदमी कहने की?
निराशा की चिट्ठी
तुमने लगा दिए थे
अपने रात-दिन
मेहनत से की गई
रचनाओं के
प्रेषण के लिए।
तुमने किया था ख़र्च
मेहनत से
कमाए गए पैसों को
डाक सेवाओं में,
ताकि तुम्हारी रचनाएँ
पहुँच सकें गंतव्य तक
जल्द से जल्द।
तुमने गुजारे थे
आशाएँ लेकर
दिन-ओ-रात
अपनी रचनाओं के
स्वीकृति के लिए।
पर एक दिन जब
आ पहुँची एक चिट्ठी
लेकर सूचना
तुम्हारी रचनाओं के
अस्वीकृति की,
तुम निराश थे,
जकड़ लिया था तुम्हें
आशाहीनता ने।
लेकिन मित्र!
वह अस्वीकृति की चिट्ठी
बिल्कुल नहीं आई थी
तुम्हें निराश करने
वह आई थी कहने
मेहनत से
की गई रचनाओं पर
थोड़ा और
मेहनत करने के लिए।
वह लेकर आई थी
एक अवसर
रचनाओं में थोड़ा और
निखार लाने के लिए।
उदास है ज़मीन
नाग पंचमी पर प्रतिवर्ष
आते थे बच्चे
लेकर रंगीन डंडे
और पीटा करते थे
बहनों द्वारा बनाई गुड़िया।
होता था अक्सर जहाँ
उन बच्चों का नहान
बन चुकी हैं आज
ऊँची- ऊँची इमारतें
पाटकर उस पोखर को।
पाकर अपने ऊपर
ऊँची - ऊँची इमारतें
जलाशय के स्थान पर
उदास है वो ज़मीन
जैसे उसने
खो दिए हों अपने प्राण।
तुम फिर खड़े हो गए
तुम फिर खड़े हो गए
भीड़ का हिस्सा बन कर
पतलें डंडों में चिपकाए गए
छोटे-छोटे पोस्टर ले कर।
उठाने लगे आवाज़ें
भीड़ के साथ-साथ
दरिंदों के विरोध में।
तुम फिर खड़े हो गए
लेकर निरर्थक आशाएँ,
यह जानते हुए भी
कि कुछ नहीं बदलने वाला,
जानते हुए भी
केवल आशाहीनता भरे
परिणामों के बारे में।
"आशहीनता को त्यागो
अपने भीतर का भय त्यागो
धैर्यवान और साहसी बनो
जब भी गिरो, फिर उठो"
ऐसी बड़ी-बड़ी बातें
कविताएँ कहा करती हैं
दार्शनिक कहा करते हैं,
निकाल फेंको दिलो-दिमाग से
कविताओं और दार्शनिकों की
ऐसी बड़ी-बड़ी बातें।
स्थितियाँ नहीं कहती हैं
तुम्हें धैर्यवान और
साहसी बनने के लिए।
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
इतने बड़े मंच पर खुद की कविताएँ देखकर खुशी से गदगद हूँ।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया अदागिरी के लिए मेरे पास शब्द कम हैं।
आदरणीय संतोष चतुर्वेदी जी ने इतने स्नेह के साथ मुझे स्थान दिया,, मैं आपका ऋणी रहूँगा।🙏🙏🙏🙏
लगे रहो भाई, ऎसे ही अपनी कविताओं से अपनी संस्कृति को संरक्षित करो।
जवाब देंहटाएंलाजवाब
जवाब देंहटाएंशानदार।
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