विनोद शाही का आलेख - 'हिन्द स्वराज : एक बेहतर सभ्यता की संभावना'




गाँधी का व्यक्तित्व ऐसा है कि न चाहने वाले भी उन्हें सीधे तौर पर नकारने का साहस नहीं दिखा पाते। अपनी किताब 'हिन्द स्वराज' में गाँधी जी ने अपने दर्शन को व्याख्यायित करने का प्रयास किया है। 1909 में लिखी गई यह किताब आज भी कई मायनों में प्रासंगिक है। कई विदेशी चिन्तकों और उनकी रचनाओं के हवाले से गाँधी जी अपने नए दर्शन की आधारभूमि रखते हैं। वस्तुतः 'हिन्द स्वराज' के जरिए हम गाँधी जी की मनोभूमि को बेहतर तरीके से जान समझ सकते हैं। कुछ लोगों ने तब 'हिन्द स्वराज' की धारणाओं की खिल्ली उड़ाते हुए इसे पूरी तरह खारिज कर दिया था। ऐसे लोगों (जिनमें गाँधी जी के राजनीतिक गुरु गोपाल कृष्ण गोखले भी थे) का मानना था कि समय के साथ खुद गाँधी जी को अपनी अवधारणाएं बदलनी पड़ेंगी। लेकिन हुआ इसका उल्टा। गाँधी जी का 'हिन्द स्वराज' की अपनी अवधारणाओं पर यकीन समय के साथ और पुख्ता होता चला गया। आज जब समूचा विश्व कोरोना महामारी से जूझ रहा है तब गाँधी के 'हिन्द स्वराज जनित दर्शन' की प्रासंगिकता कहीं और बढ़ी हुई नजर आ रही है। आलोचक विनोद शाही ने गाँधी के हिन्द स्वराज की गहन पड़ताल की है। आज पहली बार पर पढ़ते हैं विनोद शाही का आलेख 'हिन्द स्वराज : एक बेहतर सभ्यता की संभावना'।

 

हिंद स्वराज : एक बेहतर सभ्यता की संभावना

 

विनोद शाही

 

 

 

1. 'हिंद स्वराज' की पृष्ठभूमि     

      

1909 में प्रकाशित 'हिंद स्वराज' को पढ़ते हुए यह बात साफ हो जाती है कि भारत की आज़ादी की बात, गांधी की विराट परिकल्पना का एक छोटा सा हिस्सा भर है। यह वह वक्त है, जब भारत में अंग्रेजों के शासन से मुक्ति के प्रयास राजनीतिक रूप ले चुके थे। राजनीतिक प्रतिरोध नर्म और गर्म दलों में विभाजित हो रहा था। अनेक लोग राजनितिक संघर्ष को बहुत लंबे अर्से तक खिंच जाने की आशंका से भी भरे हुए थे। वे सशस्त्र प्रतिरोध का रास्ता पकड़ना चाहते थे। क्रांतिकारी चेतना भी समाजवादी और सांप्रदायिक विचारधाराओं के आधार पर कई दिशाओं में बह रही थी। समाज सुधार के अनेक आंदोलन अपने आंतरिक अंतर्विरोधों से निजात पाने का प्रयास कर रहे थे। नवजागरण के चिंतक आधुनिक भावबोध और पुनरुत्थान के बीच तालमेल बिठाते हुए भारत की सांस्कृतिक आत्मा की खोज में लगे थे। 1857 के पहले स्वतंत्रता संग्राम की असफलता ने सामंतीय नेतृत्व की असंगतियों को उभार दिया था, जिसने शिक्षित मध्यवर्ग के नयी तरह के नेतृत्व में भारत की उम्मीदें जगा दी थीं। गांधी, इन सब से कुछ सहमत, कुछ असहमत हो कर, अपने एक अलग रास्ते पर चलने के लिये प्रस्तुत हुए थे। 

     

 

यह रास्ता सांस्कृतिक आधार वाले प्रतिरोध को राजनीतिक आधारभूमि प्रदान करने का था। यहां तक पहुंचने के लिये गांधी ने तोल्स्तोय, थोरो और रस्किन के अलावा भी यूरोप के और बहुत से लोगों के चिंतन के साथ अपनी सहमति असहमति दर्ज की थी। इससे गांधी की जो सोच बनी और उससे वे जो चाहते थे, उसका संबंध था -  मानव जाति की कुदरती चेतना पर आधारित सभ्यतामूलक विकास से। 

     

 

वह एक बड़ी बात थी, भारत की संभावित आज़ादी से भी कहीं अधिक बड़ी। इसीलिए हम आज ये महसूस करते हैं कि 1947 में भारत औपनिवेशिक गुलामी से तो आज़ाद हुआ, परंतु हिंद को वह स्वराज अभी तक नहीं मिला, जिसके लिये गांधी ताउम्र संघर्ष करते रहे। 

     

 

हिंद के अपने वास्तविक  स्वराज तक पहुंचने के लक्ष्य आज भी अधूरे पड़े हैं। ऐसे में गांधी के 'हिंद स्वराज' का पुनर्पाठ  हमारे लिए बेहद प्रासंगिक हो उठता है। 

     

 

कुछ भी जो अतीत में महत्वपूर्ण होता है, न पूर्णतया अनुकरणीय होता है और न एकदम खारिज करने लायक। इस विचार सूत्र के साथ, आइए, गांधी के हिंद स्वराज के वैचारिक स्रोतों में उतरने का एक प्रयास करते हैं।

 


 

 

2.         'हिंद स्वराज का स्वरूप

 

     

महात्मा गांधी के लिये हिंद स्वराज, अंग्रेज़ी शासन से निजात पाने का नहीं, पश्चिमी सभ्यता की गुलामी से छूटने का पर्याय है। उनकी लड़ाई मूलतः सभ्यता की लड़ाई है, सत्ता का हस्तांतरण, जो पहले होमरूल की मांग की तरह आया, फिर पूर्ण स्वराज के जन्मसिद्ध अधिकार की तरह, वह उनके लिये दूसरे नंबर पर था। 

     

 

इसका मतलब है, उनके लिये हिंद स्वराज एक ऐसी व्यवस्था तक पहुंचने का नाम है, जो एक 'उच्चतर सभ्यता' के नियमों से परिचालित हो। 

    

 

उच्चतर सभ्यता से उनका अभिप्राय है, पृथ्वी पर 'बेहतर मनुष्यों' के हो सकने के लक्ष्य को अपना आदर्श मानने वाली सभ्यता। 

     

 

बेहतर मनुष्य से गांधी का अभिप्राय है, 'अधिकाधिक मानवीय चेतना को चरितार्थ' करने वाला मनुष्य। इसे वे 'नैतिक चेतना' से युक्त मनुष्य भी कहते हैं।  परंतु नैतिकता उनके लिये संकीर्ण धार्मिक मान्यताओं से संचालित वस्तु नहीं है। इसके उलट वे नैतिक आधार पर बेहतर मनुष्य होने के लक्षण उस व्यक्ति में देखते हैं, जो 'कुदरती जीवन शैली के मुताबिक जीने की कोशिश करता है। 

     

 

कुदरती जीवन शैली के मुताबिक जीना, गांधी के लिये 'सत्याचरण' का पर्याय है। वे सत्य को कुदरती तौर पर सभी मनुष्यों में उनकी 'अंतर्चेतना की तरह मौजूद मानते हैं। 

     

 

प्रकृति सभी को जीवन जीने लायक मान कर पृथ्वी पर पैदा करती है। इसलिए 'सत्य का आग्रह' करने वाला मनुष्य, अपने 'अहिंसक हो सकने की स्थिति और संभावना के अनुपात में 'मानवीय' होता है। 

     

 

इस तरह गांधी का स्वराज, खुद को सभ्यता की मानवीय परिकल्पना की कसौटी पर कसता है। इसे हम संपूर्ण मानव जाति के भविष्य की तरह देख सकते है।

 


 


3.         भारतीय और पश्चिमी सभ्यता की तुलना

      

गांधी 'भारतीय सभ्यता को अंग्रेज़ों के भारत आने से 'बहुत पहले से', पश्चिमी सभ्यता के मुकाबले, बेहतर व अधिक मानवीय मानते हैं। तुलनात्मक रूप में उन्हें पश्चिमी सभ्यता, बर्बर और अमानवीय लगती है। इसलिए वे पश्चिमी सभ्यता को  पिशाची सभ्यता' तक कह देते हैं। उसे वे भारत के सर्वनाश के लिये उपस्थित आपदा की तरह देखते हैं। उनके लिये यह सवाल अहम नहीं है कि अंग्रेज़ हमारे शासक क्यों हो गये हैं, इसकी बजाय उनकी चिंता का मूल कारण यह है कि अंग्रेज़ों की सत्ता के कारण भारत की बेहतर सभ्यता का विनाश हो रहा है और उसकी जगह पश्चिम की 'पिशाची सभ्यता' लोगों की जीवन शैली का हिस्सा होती जाती है। 

      

 

यहां सवाल यह पैदा होता है कि अगर हम एक बेहतर सभ्यता से ताल्लुक रखते थे, तो पराजित क्यों हो गये? इस संदर्भ में गांधी का विचार यह है कि बेहतर सभ्यता होना और विजयी सभ्यता होना, दो अलग बातें हैं। 

     

 

पश्चिम इतिहास बनाने निकल पड़ा है, जबकि हम मनुष्य को बचाने की बात करते रहे हैं। यह बात मानव जाति के व्यापक हित में होती, यदि हम पराजित न होते। तथापि इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि हम बेहतर होने के बावजूद, अनेक तरह के अंतर्विरोधों से ग्रस्त समाज में बदल गये हैं। जातिगत विभाजन की कट्टरता और अस्पृश्यता की मानसिकता हमारा मुख्य अंतर्विरोध है। इसने हमारे अग्रविकास को रोक रखा है और हमें भीतर से कमज़ोर कर दिया है। हमारी पराजय ने हमे सुधरने का एक अवसर दिया है। 

    

 

बेहतर होना, बेहतर बने रहना तभी हो सकता है, जब हम अपनी कमजोरियों और बीमारियों को स्वीकार करेंगे और उनसे मुक्त होने के प्रयास में जुट जायेंगे।

     

 

दूसरी बात जो इस संदर्भ में पूछने लायक मालूम पड़ती है वह यह है कि पश्चिमी सभ्यता में आखिर ऐसी क्या बुराई है, जो मानव जाति के बेहतर होने की सभ्यतामूलक संभावना के लिये घातक है

     

 

गांधी की दृष्टि में पश्चिमी सभ्यता की विकास और प्रगति की बुनियाद इस बात में है कि मानव जाति के दैहिक सुख को अधिकाधिक कैसे बढ़ाया जाये और उसके लिये भौतिक पदार्थों को अधिकाधिक उपभोग की वस्तुओं को कैसे जुटाया जाये? यह सोच पश्चिमी सभ्यता के भीतर जन्म लेने वाले मनुष्य को प्राकृतिक पदार्थों के अधिकाधिक दोहन शोषण की ओर ले जाती है। इससे विकास और प्रगति का मतलब यह हो जाता है कि उनका पृथ्वी की उपलब्ध प्राकृतिक संपदा पर कितना कब्ज़ा है। 

     

 

इसलिए पश्चिम विज्ञान की ओर गया। उससे उनकी यह क्षमता बढ़ गयी कि वे प्राकृतिक संसाधनों का बाकियों के मुकाबले अधिक कुशलता से पुनरुत्पादन कर सके। 

     

 

परंतु उत्पाद बढ़ाना एक बात है, उपभोग दूसरी बात। उपभोग की वस्तुओं के संदर्भ में पश्चिमी सभ्यता उस संयम की बात नहीं करती, जो भारतीय सभ्यता का बुनियादी लक्षण है। 

     

 

प्रकृति ने हमारी पृथ्वी को इतने प्रचुर संसाधन दिये हैं कि उनका विवेकपूर्ण संयमित इस्तेमाल सभी को जीने की बुनियादी सुविधा प्रदान कर सकता है। पर पश्चिमी सभ्यता अपने युद्धमूलक वैज्ञानिक विकास के बल पर पूरी दुनिया के प्राकृतिक संसाधनों पर एकाधिकार चाहती है। इसलिये वह विज्ञान को हमारे मानवीय सभ्यतामूलक विकास के लिये आज़ाद नहीं करती। इसके उलट वह विज्ञान का इस्तेमाल अपनी पुनरुत्पादनमूलक एवं युद्ध करने की सामर्थ्य को बढ़ाने में करती है। वह चाहती है कि प्राकृतिक संसाधनों के विविध रूपों पर उसका कब्ज़ा हो जाये। 

     

 

पश्चिम के विकास का यह पूरा ढ़ांचा गहरे में प्रकृति विरोधी है। इसके मानवीय हो सकने की संभावना बहुत कम है। 

     

 

मनुष्यता का संबंध उसके प्राकृतिक व नैसर्गिक जीवन व्यवहारों से होता है। प्रकृति का विनाश करके विकास करने का रास्ता मनुष्य के मनुष्य होने की संभावना को लगातार नष्ट करता है। 

 


 

 

4.         क्रांति का मतलब

      

 

ऐसा दावा किया जाता है कि पश्चिमी सभ्यता के अधिक विकसित होने की एक वजह वहां समय समय पर होने वाली क्रांतियां हैं। पश्चिम में जिन्हें क्रांतियां कहा जाता है, वे क्या हैं? क्रांति का इस सभ्यता के संदर्भ में अर्थ है, सत्ता परिवर्तन। 

     

 

वे प्रकृति और उसके संसाधनों पर कब्ज़ा करते हैं या दूसरे देशों के मूल निवासियों या अन्य नस्लों व जातियों पर, गहरे में बात एक ही है। उन्हें किसी 'अन्य को हटा कर, खुद को सत्ता के केंद्र में लाना होता है।  एक जन समूह या जाति की बजाय किसी अन्य जन समूह, जाति या देश की सत्ता की स्थापना से क्या हासिल होता है? इससे समाज अगर बुनियादी रूप में नहीं बदलता, मनुष्य की चेतना अगर अधिक मानवीय नहीं होती, सभ्यता अगर अधिक हितकारी होकर पहले से बेहतर नहीं होती, तो सत्ता परिवर्तन अपने आप में कोई महान परिघटना नहीं है। 

     

 

इसीलिए गांधी भारत में भी केवल सत्ता परिवर्तन के लक्ष्य पर केंद्रित क्रांति के पक्ष में खड़े नहीं हो पाते। उन्हें लगता है कि अंग्रेज़ों के यहां से विदा होने और भारतीयों के सत्ता में आ जाने भर से दुनिया बेहतर नहीं हो जायेगी। 

     

 

इसलिए वे उच्चतर नैतिक चेतना वाले संयमी लोगों को एकजुट कर के, उन्हें आज़ादी की लड़ाई लड़ने के लिये प्रयास करने को कहते हैं। 

    

 

 वे उन मनुष्यों को सत्ता के केंद्र में लाना चाहते हैं, जो मानव जाति  की चेतनामूलक ऊंचाई और मानवीय सरोकारों के दिये  पूरी पृथ्वी की खातिर एक मिसाल बन सकें।

 

British Parlamentary delegation meeting Mahatma Gandhi at Chennai (Madras)

 

 

5.         पश्चिमी क्रांतियों के असल सरोकार 

     

यदि आप गांधी के 'हिंद स्वराज' के स्रोतों में जायेंगे और गांधी के बुनियादी सरोकारों को पंक्तियों के बीच के अर्थ में उतरते हुए, पकड़ने की कोशिश करेंगे, तो पाएंगे कि गांधी वहां अगर किसी सत्ता परिवर्तन की बात करते हैं, तो वह इटली का आस्ट्रिया की दासता से मुक्ति का संघर्ष है। लेकिन वे न अमेरिका के 'वार औफ इंडिपेंडेंस की बात करते हैं, न उसके कुछ ही वर्ष बाद घटित फ्रांसीसी क्रांति की। इस बात के निहितार्थ क्या हैं?  

     

 

यूरोप व अमेरिका की विविध क्रांतियां, वहां के लिये ही नहीं, पूरी दुनिया के सभ्यतामूलक विकास के अगले पड़ावों के प्रस्तुत हो जाने की तरह देखी जाती हैं। गांधी पूछते हैं कि उनका मकसद क्या है? तीव्र आर्थिक विकास और उसकी वजह से मुमकिन होने वाला समाज-सांस्कृतिक विकास - ये दो उसके बुनियादी सरोकार हैं। पर गांधी को मनुष्य की फिक्र है। वे समझना चाहते हैं कि तीव्र आर्थिक विकास के द्वारा संभव होने वाले समाज-सांस्कृतिक विकास के केन्द्र में मनुष्य होता है या नहीं

     

 

गांधी की मूल चिंता मनुष्य की चेतना के मानवीय अंतर्विकास की है। वे पाते हैं कि पश्चिम जिस वैज्ञानिक प्रगति की वजह से तीव्र आर्थिक विकास कर पाने लायक हुआ है, वह प्रगति उल्टे मनुष्य को इस नयी सभ्यता में गैर ज़रूरी वना रही है। मनुष्य के दोहन शोषण की सामर्थ्य भी उतनी ही बढ़ गयी है, जितनी विकास की गति तीव्र हुई है। जो यंत्र तीव्र आर्थिक विकास का मूल कारक है, वह मनुष्य को एक यंत्र से अधिक अहमियत नहीं देता। तो गांधी के निशाने पर यंत्र क्रांति से जुड़ी वे तमाम चीज़ें आ जाती हैं, जो मनुष्य को प्राथमिक महत्व दे पाने में खुद को असमर्थ पाती हैं। 

     

 

इसे गांधी के विज्ञान विरोधी होने की तरह देखना, गांधी के चिंतन के वास्तविक अर्थों की उपेक्षा करना है। वे अगर विज्ञान विरोधी होते, तो छापेखाने का इस्तेमाल कर के अपने विचारों को लोगों तक नहीं ले जाते। वे विज्ञान, यंत्र, उद्योग, रेल, शहरीकरण आदि की जो आलोचना करते हैं, वह इस संदर्भ में करते है कि इन सब की मनुष्य के उच्चतर मूल्यों के हनन में क्या भूमिका है? अगर पश्चिम इन सबका इस्स्तेमाल बेहतर मनुष्य और मानवीय सभ्यता के नवनिर्माण के लिये कर रहा होता, तो गांधी के पास इनके विरोध के दिये कोई दलील नहीं होती। 

      

 

इस दिशा में अपने चिंतन को आगे बढ़ाते हुए वे औद्योगिक क्रांति के गर्भ से प्रकट हुई प्रजातांत्रिक क्रांतियों के भी आलोचक हो जाते हैं। इस संदर्भ में उनकी आलोचना के निशाने पर आ जाती हैं, प्रजातांत्रिक संस्थाओं की तरह भारत में प्रवेश करने वाली संसदीय सत्ता प्रणाली, कचहरियों की वकीलों की जिरह पर निर्भर न्याय व्यवस्था, मनुष्य की देह को रोग होने पर उसका उपचार करने वाली चिकित्सा व्यवस्था  तथा अंग्रेज़ी शिक्षा प्रणाली के द्वारा भारत की आत्मा को नष्ट करने वाली संस्कृति। 

     

 

यह आलोचना गहरे में पश्चिम में घटित प्रजातांत्रिक क्रान्तियों के उस वास्तविक चेहरे की आलोचना है, जिसका कुत्सित रूप यूरोप से बाहर उसके उपनिवेशों में प्रकट हुआ। 

    

 

बहुत से लोगों को यह बात परेशान करती है कि गांधी प्रजातंत्र जैसी महान यूरोपीय परिघटना के इतने कटु आलोचक कैसे हो सकते हैं? प्रजातांत्रिक क्रांति के महान मानवीय मूल्यों के रूप में समानता, स्वतंत्रता, न्याय और भाईचारे के जो आदर्श ज़मीनी हकीकत बन सके, उनसे सम्मोहित हुए लोग ऐसी आलोचना को कभी स्वीकार नहीं कर पाते। फिर इन्हीं का अंतर्विकास बाद में प्रकट होने वाली समाजवादी क्रांतियों में होता है। हालांकि समाजवादी क्रांतियां प्रजातांत्रिक व्यवस्था की बजाय जनकेंद्रित तानाशाही की ओर आगे बढ़ीं, परंतु मुनाफों के अधिक न्यायपूर्ण वितरण के  मामले में वे सामाजार्थिक न्याय, समानता और भाईचारे के प्रजातांत्रिक मूल्यों को ही ज़मीनी हकीकत बनाने की कोशिश करती हैं। 

     

 

परंतु गांधी अगर इन बातों को अधिक महत्व नहीं दे रहे हैं, तो हमें उनके मकसद और सरोकारों को उनके नज़रिये से देखने की ज़रूरत है। हम सवाल उठा सकते हैं कि कहीं उनका चिंतन गलत दिशा में तो नहीं चला गया

     

 

यहां जो बात लक्ष्य करने की है, वह यह है कि गांधी की दृष्टि के केंद्र में पूरी मानव जाति है। इसलिए वे उपनिवेशों के लोगों को भी उतनी ही अहमियत देते हैं, जितनी यूरोप के समाजों को। वे देख पा रहे थे कि पूंजी के विकास के लिहाज से पश्चिम दोहरे मानदंड अपनाता है। वहां हुई प्रजातांत्रिक क्रांतियां जिन महान मूल्यों की बात करती हैं, उनका संबंध उपनिवेशों के लोगों से नहीं है। 

     

 

स्वतंत्रता, समानता, न्याय और भाईचारे को चरितार्थ करने की बात अगर उपनिवेशों पर भी लागू होती, तो पश्चिम का भारत में प्रजातांत्रिक संसदीय प्रणाली को लागू करने का प्रयोजन यह होता कि वह भारत की 'प्रजातांत्रिक स्वतंत्रता' को स्वयंसिद्ध मानने लगता। वह 'समानता' के मूल्य को अपने आचरण में उतारता और शीर्ष नौकरियों में अंग्रेज़ों के वर्चस्व के संदर्भ में पक्षपात का परित्याग कर देता। फिर वह संसाधनों की लूट का चलन तत्काल बंद कर देता, क्योंकि उसे ऐसी लूट 'न्याय और भाईचारे' के प्रजातांत्रिक मूल्यों के विरोध में जाती दिखाई देने लगती। हम सब जानते हैं कि वास्तविकता इसके उलट थी। पश्चिम की क्रांतियां पश्चिम के विकास और प्रगति तक सीमित थी। उन्हें उपनिवेशों के विकास से कुछ खास लेना देना नहीं था।

 


 

 

6.         पश्चिमी क्रांतियों की शल्यक्रिया

     

 

1775-83 वाली अमरीका की 'आज़ादी की लड़ाई' का मकसद था, वहां विजयी हो गये आक्रांता अंग्रेज़ों को ब्रिटेन से अलहदा हो कर स्वतंत्र राष्ट्र हो सकने लायक बनाना। वह मूल निवासियों की सामूहिक हत्या कर के अमरीका के खुद शासक होने के लिये आवाज़ उठाने वाले हमलावरों की अपने लिये पायी गयी आज़ादी थी।

      

 

1789  की फ्रांस की महान मानी जाने वाली प्रजातांत्रिक क्रांति ने इसी अमरीकी स्वतंत्रता संग्राम से प्रेरणा ली थी। फ्रांस का मध्य वर्ग अनेक देशों में अपने उपनिवेश बनाने में कामयाब हो चुका था। अब वहां के नवधनाढ्य हो रहे साम्राज्यवादी मानसिकता वाले लुटेरों को अपनी लूट पर मिल्कियत की आज़ादी चाहिए थी। आप फ्रांसीसी क्रांति के चिंतकों को, रूसो और वेल्तेयर जैसे लोगों को मूल रूप में पढ़ेंगे, तो पायेंगे कि वे 'संपत्ति पर निजी मिल्कीयत के अधिकार' को मुद्दा बना कर क्रांति का आह्वान कर रहे थे। साम्राज्यवाद ने यूरोप में समांतर सत्ताओं के इतने रूप खड़े कर दिये थे कि वहां के सामंतीय शासकों के लिये उन्हें नियंत्रण में रखना कठिन हो गया था। तो प्रजातांतिक व्यवस्था लायी गयी। सत्ता के विकेंद्रीकरण का रास्ता खुला। तो जिसे प्रजातंत्र कहते हैं, वह दरअसल नव धनाढ्य वर्ग के द्वारा खोजा गयासत्ता मे सीधा हस्तक्षेप करने का, नया इंतज़ाम था।

      

 

दो फरवरी 1848 को जारी हुए 'कम्युनिस्ट घोषणापत्र' को यदि समाजवादी क्रांतियों का सूत्रपात करने वाली घटना मानें, तो कह सकते हैं कि  इसने पश्चिमी क्रांतियों के इस पूर्व परिदृश्य में बस इतनी तबदीली की कि वहां का पूंजीपति, वहां के श्रमिकों का दोहन शोषण उतनी निर्दयता  से न करे, जितना वह उपनिवेशों के संदर्भ में करने का आदी हो गया था। अफ्रीका और एशिया के दास श्रमिकों तथा भारत जैसे देशों के गिरमिटिये मज़दूरों के समान अधिकारों की बात यूरोप व अमेरिका में कभी बड़ा विचारधारात्मक मुद्दा नहीं बनती। समाजवादी चिंतन में जब विश्व के मज़दूरों के समान अधिकारों की बात उठती है, तो बड़े-बड़े समाजवादी विचारक भी 'लुंपेन' की एक अलग कोटि बना कर उपनिधेशों की शोषित श्रम संपदा के मानवीय अधिकारों की बात को ही अप्रासंगिक बना देते हैं। बाद में इन देशों में जब बात दास प्रथा के उन्मूलन तक पहुंची, तब भी सभी श्रमिकों के लिये समान अधिकार पाने का रास्ता एकदम से नहीं खुला। अमरीका में तो  'वाम' शब्द ही धीरे धीरे एक राजनीतिक गाली का पर्याय होता गया। वहां के अफ्रीकी मूल के अनेक बेरोज़गार युवक अभी तक गुज़र बसर के लिये अक्सर नशे व हथियारों की तस्करी करते पाये जाते हैं और ऐसा करते करते वे खुद नशई हो कर 'लुंपेन' की कोटि में धकेल दिये जाने की स्थिति में आ जाते हैं। यह तो अब कहीं जा कर अश्वेत फ्रांसीसी मनोविश्लेषक फ्रैंज़ फेनन जैसे लोगों ने यह सवाल उठाना शुरू किया है कि 'लुंपेन' को जन्म देने की ज़िम्मेवारी किसकी हैक्या वह खुद उन साम्राज्यवादी लुटेरों की ही अपनी ज़िम्मेवारी नहीं, जिन्होंने उनका अमानवीय और अनैतिक शोषण कर के उन्हें नरपशुओं में वदल दियावे इधर उधर के बहाने बना कर अपने दूसरों के खून से रंगे  हाथ धो नहीं सकते। क्या उपनिवेशों के श्रमिकों के एक बड़े हिस्से के 'आपराधिक होने के कारण, जिसे उन्होंने ही अपराधी होने के लिये विवश कियाउनके 'समान अधिकारों की बात न्यायोचित नहीं रह जाती? लेकिन वात अपराधवृत्ति वाले श्रमिकों की ही नहीं है, वह एक सामान्य नियम की तरह बाकियों पर भी लागू होती है। 

     

 

आज के दौर की बहुराष्ट्रीय कंपनियां भी उसी इतिहास प्रणीत अन्याय के नये संस्करण तैयार कर रही हैं। समान काम करने वाले भारतीय एशियायी 'टेक्नोक्रैट', अपने यूरो अमरीकी साथियों के मुकाबले में बहुत कम 'सेलरी' पाते हैं। अदायगी जब एक को रुपये में और दूसरे को यूरो में होती है, तो ज़मीन आसमान का फर्क पड़ जाता है।

 


 

 

7.         क्रांति नहीं, नैतिक अर्थतंत्र

      

 

गांधी के समय तक प्रजातांत्रिक और समाजवादी क्रांतियों के इस तरह के अंतर्विरोध अभी स्पष्ट नहीं हुए थे, परंतु उनका प्रजातंत्र के आलोची के रूप में सामने आना एकदम गैरवाजिब भी नहीं लगता। वे समाजवाद के प्रशंसक नहीं हो सके। इसकी एक वजह यह लगती है कि वे उस अर्थतंत्र की ओर देखते थे, जो नैतिक सरोकारों से ओत प्रोत हो। 

     

 

यही वजह थी कि वे प्रजातांत्रिक या समाजवादी क्रांतियों की ओर रुख करने की बजाय जौन रस्किन जैसे चिंतक के नैतिक अर्थतंत्र की ओर मुड़े। उनकी किताब 'अनटू दिस दास्ट' के दर्शन को उन्होंने अपने 'अंत्योदय' की धारणा की तरह आत्मसात किया। 

 

    

'अनटू दिस लास्ट' की प्रेरणा रस्किन को बाईबिल के एक  'सर्मनसे मिली थी। उस में कहा गया है कि वे जो सबसे आगे होंगे, पीछे धकेल दिये जाएंगे और वे जो सब से पीछे होंगे, उन्हें सबसे आगे होने का हक मिलेगा। गांधी ने इस विचार को अपने लिये प्रेरक तो माना, पर वे इससे संतुष्ट नहीं हुए। इसलिए  उन्होंने अपने इस विचार का अंतर्विकास किया। उनका इस संदर्भ में किया गया मौलिक चिंतन उन्हें आखिरकार 'सर्वोदय' तक ले गया। 

      

 

गांधी के रस्किन के साथ खड़े होने का मतलब था, समाजवादी विचारधारा को नैतिक चेतना से परिपुष्ट करते हुए आत्मसात करना। वे समाज की सबसे निचली पायदान के व्यक्ति के साथ खड़े थे, परंतु क्रांतिकारियों की तरह 'अन्य' को दुश्मन मान कर, उसे हटाते हुए ऐसा करने की बात से वे कभी सहमत नहीं हो पाये। हम यह भी कह सकते हैं कि वे मनुष्य मात्र की चेतना के रूपांतर के जिस विराट संकल्प से बंधे थे, वह काम संपूर्ण क्रांति करने जैसा था। वे आधी अधूरी किस्म की क्रांतियां करने में अपनी शक्ति गंवाना नहीं चाहते थे। 

 


 

 

8.         स्वराज की भूमिका और इटली

     

 

यूरोपीय क्रांतियों के अंतर्विरोधों की उन्होंने सीधी स्पष्ट व्याख्या नहीं की। वे उन्हें पश्चिमी सभ्यता की पैशाचिक वृत्तियों से संचालित मान कर उनकी आलोचना करते हैं। तथापि मैज़िनी की प्रशंसा करते हुए उन्होंने इटली के स्वतंत्रता संग्राम को अवश्य याद किया और उसे हिंद स्वराज की प्राप्ति के लिये प्रेरक के रूप में देखा। 

    

 

मैज़िनी ने इटली के लोगों की एकजुटता को महत्व दिया था। वे उन्हें अपने आंतरिक मतभेदों को भुला कर एक मज़बूत राष्ट्र की तरह सामने आने को कह रहे थे। हम जानते हैं कि तत्कालीन यूरोप, ईसाई और यहूदी समाज में विभक्त था। अनेक देश, ईसाई वर्चस्व और यहूदियों से समाज के जातीय शोधन (एथनिक क्लींज़िंग) की बात करने लगे थे। मैज़िनी इटली के लोगों को, मनुष्यमात्र की तरह एकजुट होने को कह रहा था। गांधी इसे एक बेहतर मानव समाज बनाने की भूमिका की तरह देखते हैं। 

     

 

गांधी की नज़र उस दौर के बहुत से यूरोपीय चिंतकों पर पड़ती है, जो पश्चिमी सभ्यता के मानव विरोधी होने से जुड़े अंतर्विरोधों को पहचान कर उसकी आलोचना कर रहे थे और बेहतर सभ्यता की तलाश के लिए अपनी खोज को आगे बढ़ा रहे थे। गांधी उनकी सुर में सुर मिला कर पश्चिमी सभ्यता की आलोचना करते हैं और भारतीय सभ्यता के उन पक्षों की ओर पश्चिम का ध्यान खींचते हैं, जो मानव जाति के बेहतर भविष्य के लिये ग्राह्य हो सकें। 

     

 

मैज़िनी को वे समाज-राजनीतिक कारणों से महत्व देते हैं, पर उनकी विचारधारा के केन्द्र में सभ्यतामूलक सवाल हैं। 

 

 


 

9.         बीमार सभ्यता को चाहिये एक वैद

     

 

पश्चिमी सभ्यता के प्रति आलोचनात्मक दृष्टि का विकास करने के संदर्भ में गांधी ने जिस यूरोपीय चिंतक की स्थापनाओं को  विचारणीय माना, वे हैं - एडवर्ड कारपेंटर। उनकी एक किताब 'civilisation: it's cause and cure, 1889' में यह सवाल उठाया गया कि विज्ञान की अभूतपूर्व तरक्की के बावजूद, खुद को महान कहने वाली पश्चिमी सभ्यता और अधिक बीमार क्यों हो रही थीउन्हों ने इंग्लैंड के चिकित्सा क्षेत्र का बहुत बारीकी से जायज़ा लिया। वे पूछते हैं कि वहां बाईस हज़ार से अधिक 'रजिस्टर्ड मैडिकल पैक्टीशनर्ज़' होने के बावजूद रोग क्यों बढ़ रहे हैं? क्या डौक्टरों की तादाद बढ़ने का रोगों में वृद्धि के साथ कोई रिश्ता है?

 

     

 

इस स्थिति को वे एक सभ्यतामूलक रोग के लक्षण की तरह देखते हैं। वे कहते हैं कि विज्ञान मनुष्य की देह को एक संपूर्ण इकाई की तरह नहीं देखता। वह उसका समग्रता में उपचार करने से इसीलिए चूक जाता है। मनुष्य को अंगों प्रत्यंगों के जोड़ की तरह देखने से, अंग प्रत्यंग तो ठीक हो जाते हैं, पर मनुष्य अपनी समग्रता में और अधिक बीमार होता जाता है। यह बात विज्ञान के विकास के अन्य क्षेत्रों पर भी लागू होती है। इस वजह से पश्चिमी सभ्यता का मौजूदा दौर, बीमार लोगों की बीमार मानसिकता का दौर हो गया है। चिकित्सा हमें ठीक करने में मदद नहीं करती, वह सभ्यता पर भार बन गई है। पूरी सभ्यता का ताना-बाना बीमार है। इसलिए मानव जाति को सभ्यता के वैद की ज़रूरत है।

     

 

बीमार सभ्यता से पैदा हुए विक्षिप्त लोग पूरी दुनिया में मानव जाति के बड़े समुदायों का सामूहिक नरसंहार करने से भी हिचकिचाते नहीं हैं। जैसे उत्तरी अमेरिका में बर्बर हो गये इंग्लैंड के लोग, वहां के मूल निवासियों का सफाया करने को, सभ्यताकरण के नये दौर को आरंभ करने का पर्याय मान रहे हैं। जबकि यह एक तरह के उग्रतर बर्बरता के दौर को आरंभ करने जैसा लगता है। 

     

 

कारपैंटर अपनी जिस मनुष्य केंद्रित सोच के आधार पर पश्चिमी सभ्यता के रोगग्रस्त हो जाने की वस्तुस्थिति को उदघाटित करते हैं, उसके संदर्भ में यह सवाल पूछने लायक हो जाता है कि फिर वह कौन सी जीवन पद्धति है, जो मनुष्य को एक समग्र इकाई की तरह देखती है और क्या उससे किसी स्वस्थ सभ्यता मूलक जीवन दर्शन तक पहुंचा जा सकता है या नहीं? इस संदर्भ में कारपैंटर की निगाह चीन की ताईची और भारत के प्राणायाम की पद्धति पर पड़ती है। वह कहता है कि विजयी होने के गर्व में हमें पराजित या गौण देशों के सभ्यतामूलक अवदान की उपेक्षा नहीं करनी चाहिये। 

    

 गांधी अपने 'हिंद स्वराज' में भारत की परंपरागत प्रकृतिमूलक सभ्यता को एक विकल्प के रूप में सामने रखते हैं। 

     

यह एक बेहतर विकल्प है, क्योंकि यहां  मनुष्य देह को एक समग्र इकाई की तरह देखा गया है। 

     

 

कारपैंटर से सहमत हो कर वे कहते हैं कि आधुनिक सभ्यता बीमार होने पर मनुष्य देह को टुकड़ों में तोड़ती है, जिससे बीमारी के वास्तविक निदान का रास्ता बंद हो जाता है। डॉक्टर की चिकित्सा मनुष्य को अपनी देह पर संयम रख कर खुद ठीक होने से रोकती है, क्योंकि वह गलत जीवन शैली को बनाए रखने के लिए, बीमारी का इलाज करती है। गांधी उस संयमित जीवन शैली की वकालत करते हैं, जो दैहिक व मानसिक वृत्तियों के दमन से एकदम भिन्न वस्तु है। 

 

Mahatma-Gandhi-and-Jawaharlal-Nehru

 

 

 10. प्रकृति, स्वस्थ (स्व में स्थित) होने का द्वार है

     

मनुष्य पर वैज्ञानिक रूप में विचार करने वाले लोग, चित्तवृत्तियों की व्याख्या, उन्हें दमन और अभिव्यक्ति के दो ध्रुवों में विभाजित रूप में करते हैं। ठीक से मनुष्य केंद्रित न होने की वजह से  विज्ञान, अभी तक 'स्वेच्छा से किये गये संयम' के मनोविज्ञान और सभ्यतामूलक अंतर्विकास की संभावनाओं की उपेक्षा करता रहा है। ऐसा संयम भारतीय सभ्यता के श्रेष्ठ मानवीय मूल्य की तरह, उच्चतर चेतना वाले मनुष्यों की जीवन शैली बनता आया है। 

      

 

मनुष्य के स्वभाव को उसकी आंतरिक प्रकृति कहा जाता है। जैसे प्रकृति संतुलन को साधते हुई विकास करती है, उसी तरह मनुष्य का स्वभाव संयम में रहने से आत्मोद्घाटन करता है। पर आधुनिक काल में पश्चिम के असर से संयम की उपेक्षा होने लग पड़ी है। उसकी  उपेक्षा का एक कारण उसका आध्यात्मीकरण भी है, जो संयम को एक अमूर्त्त रहस्यवादी धारणा बना देता है। पर गांधी उसे मनुष्य के सामाजिक व्यवहार का हिस्सा मान कर चलते हैं। 

     

 

गांधी संयम को व्यवहार की एक नैतिक कसौटी की तरह प्रस्तुत करते हैं। ऐसा करने से उनका संयम, अपरिग्रह तक फैलता हुआ, तत्कालीन पूंजीवादी उपभोक्तावाद और भोगवाद की आलोचना बन जाता है। 

     

 

वे भारतीय सभ्यता के उस रूप को मनुष्य केंद्रित मानते हैं, जो मूलतः प्रकृति केंद्रित है। 

     

 

संयम का अर्थ है मनुष्य की उस आंतलिक प्रकृति को समझना, जिसका तालमेल बाहर की प्रकृति से बैठ सके। बाहर जो उपभोग वस्तुएं हैं, वे प्रकृति की बुनियादी व्यवसअथा को नष्ट किये बिना भी उपलब्ध हो सकती हैं। उनका उपभोग इस रूप में करना कि वे आंतरिक प्रकृति की नैसर्गिक ज़रूरतों के विरोध में न जायें, संयम है। 

     

न अधिक, न कम, अपितु संतुलित उपभोग संयम है। 

     

अपनी वास्तविक प्रकृति या स्वभाव को समझते हुए उपभोग करना संयम है। 

      

संयम, अहिंसक अभिव्यक्ति का विज्ञान है। जबकि दमन, उसके उलट, अभिव्यक्ति की हत्या करने में प्रवृत्त हिंसा है।  

      

दमन  छद्म ज़रूरतों की छाया का अंधकार लोक है। वह असंयमित भूख मिटाने के लिये बाहरी प्रकृति का तदनुरूप दोहन न कर पाने की छटपटाहट को छिपाने का पर्याय हैं। 

     

 

पश्चिमी सभ्यता ने अभिव्यक्ति के सहज और कुदरती रूपों पर बल देने की बजाय, अधिक सुख सुविधा जुटाने की अंधी दौड़ दिखाई देती है।  सुविधा व्यापार के लिये वह जिस बाज़ार को खड़ा करती है, वह संयम को दमन कहता है और केवल अपनी मुनाफाखोरी के प्रयोजन की सिद्धि करता है। उससे जिस मानव सभ्यता का निर्माण हो रहा है, वह स्वेच्छा से रोगग्रस्त होने के आत्मघाती मार्ग पर चल पड़ती है। 

      

 

मनुष्य की भूख की कोई सीमा नहीं है। उसे ज़रूरत से ज़्यादा बढ़ा दिया जाये, तो वह प्रकृति को तबाह करने की हद तक जा सकती है और संयमित रहे, तो पाती है कि प्रकृति के भंडार में सदैव इतना बचा रहता है कि सब की भूख को शांत कर सके।

     

 

पश्चिमी सभ्यता मानवजाति को जिस असंयमित भूख का दास बना रही है, उसे गान्धी उस दौर मे 'दास वृत्ति' के नये रूपों के प्रकट हो जाने की तरह देखते हैं।

 


 

 

11.  अपनी भूख का दास है विश्व विजयी पश्चिम 

     

पश्चिम की असंयमित भूख की निर्मम आलोचना करने वाली जिस किताब का संदर्भ 'हिंद स्वराज' में आया है, उसे उस दौर के अंग्रेज़ विचारक 'रौबर्ट शेरार्ड' ने लिखा है। किताब का नाम है- 'द व्हाइट स्लेव्ज़ औफ इंगलैंड' (1897)। इसमें वे बताते हैं कि दुनिया भर को दास बनाने वाला इंग्लैंड उस दौर में खुद किस तरह अपनी असंयमित भूख का दास हो रहा था। बङ़े पैमाने पर मानव तस्करी की जा रही थी, ताकि मुनाफे को बेतरह बढ़ाया जा सके। मानव तस्करी की छाया की तरह जो बुराई इंग्लैंड के नव धनाढ्य वर्ग को अपनी गिरफ्त में वे रही थी, वह थी वेश्यावृत्ति। इस तरह दूसरों को दास बनाने वाले लोग, खुद अपनी वृत्तियों के दास हो रहे थे। 

     

 

यह किताब उस दौर के हालात बयान करती है। आज हम जानते हैं कि ऐसे हालात ने मानव जाति के सभ्यतामूलक ताने-बाने को छिन्न भिन्न करने में कितनी बड़ी भूमिका निभायी थी। जो लोग फिलीपीन्स और कंबोडिया जैसे देशों की असल हकीकत जानते हैं, उन्हें पता है कि मध्य एशिया पर अपना नियंत्रण करने वाली यूरोपीय फौजों ने अपनी स्थायी तैनाती के दौरान कुछ मुल्कों को किस तरह पूरा का पूरा वेश्यावृत्ति के ऐशगाहों में बदल दिया था। दुनिया के सभ्यताकरण का एजेंडा ले कर निकला यूरोप, अपने साम्राज्यवादी दौर में दुनिया को पतनशील सभ्यताओं के तोहफे बांटने का काम ही अधिक कर रहा था। 

    

 

गांधी इस वस्तुस्थिति के ऊपर से पर्दा हटाने के लिये यूरोप के ही उन चिंतकों का सहारा ले रहे थे, जिन्हें हम पश्चिमी सभ्यता के आलोचकों  की कोटि में रख सकते हैं। इन बातों पर गौर करेंगे, तो गांधी को पश्चिम का अवैज्ञानिक विरोध करने वाला साबित करना संभव नहीं रह जायेगा। वैज्ञानिक तरीके से सोचने वाले पश्चिमी विद्वान भी उस दौर में खुद को नैतिक और अनैतिक मूल्यों के भंवर में फंसा पा रहे थे। वे तय पहीं कर पा रहे थे कि उन्हें दरअसल क्या चाहिये? समृद्ध होने का मतलब क्या अपनी अतिशय बढ़ती भूख को अमर्यादित तरीके से शांत करने के लिये प्रयोगशील होना होता है? प्रवृत्तियों की अभिव्यक्ति का प्राकृतिक रूप क्या होता है और प्रयोगशाला को किस हद तक ग्रहण करना चाहिए? सवाल उठ रहा था कि कहीं ऐसी प्रयोगशीलता हमें खेल खेल में अपना दास तो नहीं बना रही

     

 

गांधी इस संदर्भ में जब संयम की मर्यादा का नैतिक सवाल उठाते हैं, तो वह भारतीय सभ्यता को बेहतर साबित करने के लिये, उसका यथार्थ पर आरोप करना नहीं था। वह वास्तविक सवालों के रूबरू खड़े हो कर, अपनी परंपरागत रूप में अर्जित बुद्धिमत्ता को खंगालने जैसी बात थी, ताकि जाना जा सके कि उसे इस्तेमाल में लाने की प्रासंगिकता और ज़रूरत थी भी कि नहीं।

 

Mahatma Gandhi with Lord Listowel, Secretary of State for Burma, at Government House, New Delhi. Their meeting took place shortly after Gandhi's fast, taken in protest to violent disturbances in Calcutta

 

 

12. यह वह नवजागरण है जो पुनरुत्थान नहीं

     

जहां तक भारत की सांस्कृतिक विरासत को इस संदर्भ में खंगालने का सवाल है, हम देख सकते हैं कि उपनिषद के कुछ ऋषि काम में प्रयोगशील होने की बात करते हैं। पर पाते हैं कि काम ईंधन की तरह आग को और भड़काने का काम करता है, उसे शांत नहीं करता। तो यह प्रयोगशील होने से निकाला गया अनुभव का सार था। तंत्र साधना की प्रयोगशीलता तो भारत में अपने चरमोत्कर्ष तक पहुंची थी। स्वयं गांधी काम संबंधी प्रयोगशीलता के द्वारा अपने ब्रह्मचर्यमूलक संयम की अपने जीवन के अंतिम दौर तक परीक्षा लेते रहे। 

     

 

संयम की बात गांधी की अव्यावहारिक नैतिकता का आरोप मात्र होती, तो उसे खारिज होने में ज़्यादा वक्त नहीं लगता। पर ऐसा नहीं हुआ। 'हिंद स्वराज' अपने लिखे जाने के समय से ले कर आज तक पुनर्विचारणीय बना हुआ है।  इसका उद्देश्य भारतीय सभ्यता और जीवन शैली को अतार्किक रूप में महान बना कर पश्चिम के सामने परोसना नहीं है। गांधी जब अपनी सभ्यता की परंपराओं के भीतर से किन्हीं वैकल्पिक मूल्यों को प्रस्तावित करते हैं, तो वे आत्मालोचन करना नहीं भूलते। वे बताते  चलते हैं कि हमने खुद अपने इन महान नैतिक मूल्यों को खो दिया है। अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिये हम खुद को पश्चिम के रंग में रंगते जा रहे हैं। संयम की बात पाखंड से भरे आचरण में बदल गयी है। तथापि वे अपनी इन धारणाओं को सामने रखते हुए भविष्य के मनुष्य की नयी परिकल्पना को गढ़ने की कोशिश करते हैं। वह अतीत में लौटने जैसी बात नहीं है।

      

 

ऐसी कोई भारतीय सभ्यता कभी नहीं रही, जिसे हम ज्यों का त्यों अपने भविष्य के नक्शे बनाने के लिये इस्तेमाल में ला सकें। परंतु वहां ऐसा कुछ ज़रूर है, जिसका हम अपने समय की ज़रूरतों को देखते हुए  नववविकास कर सकते हैं। गांधी उसी दिशा में आगे बढ़े। 

    

 

 वे हमारे नवजागरण के चिंतकों से यहीं अलग हो कर खड़े हो जाते हैं। नवजागरण के हमारे महानायक अपनी सभ्यता और संस्कृति का गौरव गान कुछ इस तरह करते हैं कि कम अज़ कम अध्यात्म के क्षेत्र में हम खुद को विश्वगुरु साबित कर सकें। 

     

दयानंद सरस्वती वेदों के सामने दुनिया भर के अन्य तमाम धर्मग्रंथों को हीन साबित करने की दिशा में आगे बढ़े। 

    

विवेकानंद ने अमेरिका में यह साबित करने का प्रयास किया कि अध्यात्म के क्षेत्र में हमारे सामने और कोई ठहर ही नहीं सकता।  

     

 

इनकी तुलना में गांधी धर्म और अध्यात्म के मामले में अधिक तर्कशील मालूम पड़ते हैं। यह बात उनकी बाद में 1928 में प्रकाशित 'भगवद्गीता' की व्याख्या से स्पष्ट हो जाती है। वे जहां तक हो सके, गीता के कर्मयोग की तर्कपूर्ण व्याख्या करने का प्रयास करते हैं। परंतु जब बात कर्मफल को ईश्वर को समर्पित करने की आती है, वे ईश्वर को ही उच्चतर नैतिक चेतना के सार की तरह देखने दिखाने लगते हैं। 

     

 

वे नैतिक मूल्यों के स्रोत के रूप में ईश्वर को देखने की अपनी आस्था की तर्कपूर्ण  व्याख्या न कर के, उसे अपनी संस्कार चेतना कह कर और गहराई में जाने से खुद को बचा लेते हैं। 

     

रामनाम को भी वे इसी तरह अपनी संस्कार-मूल स्मृति से जोड़ कर अपने पूर्वाग्रह के लिये कोई तर्क नहीं देते। 

     

लेकिन उनकी संस्कारगत चेतना, व्यवहार में मानवीय व उदार बनी रहती है, जिससे वह कट्टर नहीं होती और इसीलिए प्रश्नों के घेरे में नहीं आती। अपने संस्कारजनित आग्रहों के बावजूद, वे अपने ईश्वर और अल्लाह को तात्विक रूप में एक मानने का धर्मनिरपेक्ष और तर्कपूर्ण संकल्प कर पाते हैं। 

     

 

अन्य नवजागरण के चिंतकों की तुलना में वे अपनी हिंदू धर्म वाली संस्कार भूमि के बावजूद, पूरी मानवजाति की सांझी धर्म-चेतना के पैरोकार बन कर सामने आते हैं। 

     

 

इस संदर्भ में उन्हें जिन लोगों से प्रेरणा मिलती है, उनमें से एक है श्रीमद् राजचंद्र, जिनके बारे में कहा जाता है कि उन्हें 1890 में आत्मसिद्धि प्राप्त हुई थी। गांधी उनसे न केवल मिले ही थे, उनके साथ अध्यात्म चर्चा हेतु, तब तक पत्राचार भी करते रहे, जब तक कि 1901 में उनका निर्वाण नहीं हो गया। उन्हें गांधी का आध्यात्मिक गुरू भी कहा जाता है। वे मूलतः जैन थे, जो बाद में वैष्णव हो गये। उन्होंने आत्मसिद्धि हेतु अपनी काया को उपवास से लगभग सुखा लिया था। बहुत संभव है कि गांधी के उपवास और मौन से संबंधित आचार, उनसे प्रेरित रहे हों। 

     

 

परंतु एक फर्क भी है, गांधी ने आत्मसाधना को राजचंद्र की तरह अपना एकमात्र लक्ष्य नहीं बनाया। गांधी के लिये आत्मशुद्धि भी एक सम्यक माध्यम भर है, जिसका लक्ष्य है भारत की सामूहिक चेतना की शुद्धि और मानवीयकरण। 

      

 

भारतीय नवजागरण के अन्य मनीषियों की तुलना में, अपनी अलग धारणाओं के लिहाज से गांधी, भारत की परंपरागत सांस्कृतिक आस्थाओं को, जितना स्वीकार करते हैं, उससे अधिक कटघरे में खड़ा करते हैं। वे निर्वाण या आत्मसिद्धि को जीवन के परम लक्ष्य की तरह स्थापित नहीं करते। गांधी के लिये आत्मसिद्धि भी तभी अर्थपूर्ण है, यदि वह सर्वहितकारी या सर्वोदयी सरोकारों वाली हो। 

     

 

ऐसा करते हुए गांधी उन पश्चिमी चिंतकों को भी जवाब देते प्रतीत होते हैं, जो भारतीय अध्यात्म को जगत विरोधी, यथार्थ विरोधी और इसीलिए मानव विरोधी तक सिद्ध करते हैं और उसका उपहास उड़ाते हैं। इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है।

     

 

फ्रेडरिक श्लेगल  हीगल ने भारत के वेदांत दर्शन की विस्तृत आलोचना की है। गहन अध्ययन के बाद उसने यह निष्कर्ष निकाला कि जगत के मिथ्यात्व को बोध का विषय बनाता हुआ यह दर्शन, यथार्थ के पतनशील रूपों का 'निषेध' तो करता है, पर 'निषेध का निषेध' ( निगेशन औफ द निगेशन) कर पाने में असमर्थ रह जाता है। इस वजह से जागतिक यथार्थ में वापसी करके, समाज के काम का होने से चूक जाता है। 

     

 

गांधी जब अपने उपवास और मौन को तोड़ कर पुनः सक्रिय राजनीति में वापसी करते हैं, तो वे दरअसल 'निषेध का निषेध' करते हुए अपने अध्यात्म चिंतन को जीवन व्यवहार में उतर पाने लायक बना रहे होते हैं। 

     

 

इस तरह वे पश्चिमी सभ्यता की खामियों के ही नहीं, भारतीय सभ्यता और संस्कृति के अंतर्विरोधों को भी दूर करने का यथा संभव प्रयास कर रहे होते हैं। 

     

 

वे भारतीय सभ्यता और संस्कृति में आंतरिक सुधारों के पक्षधर हैं। वे मानते हैं कि हम में अनेक कमजोरियां आ गयी हैं, परंतु वे यह भी मानते हैं कि उन्हें सुधारा जा सकता है। 

    

पर इस की तुलना में वे जब पश्चिमी सभ्यता की ओर देखते हैं, तो पाते हैं कि उसकी खामियां उसके भीतर बद्धमूल हैं, इसलिए उन्हें सुधारना नहीं, त्यागना ज़रूरी है। मनुष्य की लालसाओं से जुड़ी भूख को बढ़ाते जाना और उसे शांत करने के लिये प्रकृति का अनवरत विनाश करते जाना, पश्चिमी सभ्यता का वह बुनियादी लक्षण है, जिसके अभाव में वह प्रगति और विकास की व्याख्या कर पाने लायक नहीं रह जाती। इसलिए गांधी को वह सभ्यता पैशाचिक लगती है। वह विश्व वर्चस्वी हो कर ही ज़िंदा रह पाती है। इसलिये शेष मानव जाति का विनाश, उसके होने की शर्त बन जाता है। 

     

 

अपनी आलोचना के द्वारा गांधी, पश्चिमी समाज को भी, अपनी सभ्यतामूलक सलीब पर खुद को टांगे रखने की मानसिकता से उबरने की सलाह देते हैं। परंतु अन्य भारतीय नवजागरण के चिंतकों की तरह पश्चिमी सभ्यता की उनकी आलोचना उन्हें प्रतिक्रियावादी नहीं बनाती। इसकी वजह यह है कि पश्चिमी सभ्यता की बाबत अपनी इस तरह की धारणाओं को, गांधी ने यूरोप के अपने अध्ययन से तथा यूरोपीय सभ्यता की बाबत वहीं के चिंतकों के विवेचनों के आधार पर सुनिश्चित किया। 

 

 


 

 

13. प्रकृतिमूलक क्रूसेड या धर्मयुद्ध की ज़रूरत

 

     

पश्चिमी सभ्यता की आलोचना संबंधी अपनी धारणाओं की पुष्टि के लिये गांधी एक यूरोपीय किंतक 'गौडफ्रे ब्लाउंट' की किताब 'अ न्यू क्रूसेड: ऐन अपील' (1903) का उल्लेख करते हैं। 'हिंद स्वराज' के उन्नीसवीं अध्याय में गांधी ने ईसाई मिशनरियों की तुलना सांपों की मां से की है। वे ईसाईयों को बुरा नहीं समझते, पर मिशनरियों की मार्फत ईसाइयत के उस प्रचार को मानव जाति के लिये खतरनाक मानते हैं, जिसका उद्देश्य साम्राज्यवादी पूंजीवाद के एजेंडे से ताल्लुक रखता है। वह धर्म की आड़ में पश्चिमी सभ्यता का पूरी दुनिया में प्रसार करना है। गौडफ्रे ब्लाउंट ने इस विस्तारवाद की आलोचना की और चर्च को उसकी स्थानीय व ग्राम केंद्रित भूमिका में लौटाने को 'एक नया क्रूसेड' या धर्मयुद्ध कहा। चर्च के साम्राज्यवादी विस्तार को उन्होंने मध्यकालीन क्रूसेडों की कड़ी में प्रकट हुआ उसका आधुनिक रूप कहा। मध्यकाल में क्रूसेड के कारण लाखों लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी थी, आधुनिक काल में पश्चिम के द्वारा औपनिवेशिक दुनिया के सभ्यताकरण ने कई उपमहाद्वीपों के मूल निवासियों का सफाया ही कर दिया है और चर्च इस विस्तारवाद में सहयोगी बना हुआ है। ईसाई मिशनरी इस सच को जानते बूझते हुए भी साम्राज्यवाद के इस छद्म सभ्यताकरण में, ईसाईयत के प्रति वफादारी की आड़ में, मानव जाति की पीड़ा से मुंह फेर कर चल रहे हैं। गौडफ्रे को लगता है कि ऐसा करने की बजाय चर्च को इसके विकल्प खोजने चाहिए। इस दिशा में प्रयास करते हुए उन्होंने अलग तरह के 'कंट्रीसाइड चर्च' की स्थापना की। लोगों को ग्रामीण जीवन में लौटने, सादा रहन सहन और उच्च विचार अपनाने को कहा। हस्तशिल्प के उत्पादों को नये आर्थिक मौडल का आधार बनाने के लिये प्रोत्साहित किया। प्रकृति को जड़ न समझ कर, उसे अतिप्राकृति या दैवी अस्तित्व की तरह देखने का आग्रह किया। उन्हें लग रहा था कि औद्योगिक क्रांति के घोड़े पर सवार साम्राज्यवादी पूंजीवाद के निशाने पर दुनिया भर के पारंपरिक शिल्प एवं हस्त उद्योग आ गये हैं। वे दुनिया के उन बहुसंख्यक लोगों की, जिनकी वे सीधी हत्या नहीं कर पाते हैं, आर्थिक धरातल पर जैसे कमर ही तोड़ देते हैं। औद्योगिक क्रांति का दायित्व क्या यह नहीं बनता, कि उसके कारण जिन पारंपरिक उद्योगों की तबाही हुई है, उससे बेरोज़गार हुए लोगों को वैकल्पिक विकास योजनाओं का हिस्सा बनाये? ब्लाउंट ने इस उद्देश्य को सामने रखते हुए इंग्लैंड में तबाह हो रहे हस्तकरघा उद्योग को बचाने के गंभीर प्रयास किये। उसने वहां बने हस्तकला उत्पादों के नये बाज़ार के लिये केंद्र बनाये और श्रम के उस रूप को बचाने की कोशिश की, जो मानवदेह और उत्पादों के बीच सीधे रिश्ते पर आधारित था। 

    

 

गांधी ब्लाउंट के इन विचारों से सहमत थे, इसलिए वे 'हिंद स्वराज' के अपने आर्थिक मौडल में हस्त शिल्प और उद्योग की, समांतर ही नहीं, मजबूत आत्मनिर्भर भूमिका पर ज़ोर देते रहे।

 

Members of the Indian National Congress on the dais at Haripura. Seth Jamnalal Bajaj, Darbar Gopoldas Dasai, Mahatma Gandhi (Mohandas Karamchand Gandhi) and Subhas Chandra Bose

 

 

14. विकल्प के सभ्यतामूलक हाशिये

     

पश्चिमी सभ्यता के अमानवीय एवं परभक्षी रूप का प्रमाण यह है कि वह एशिया को छोड़ कर अन्य सभी उपमहाद्वीप की पारंपरिक सभ्यताओं का खात्मा करने में कामयाब हो जाती है। 

     

पश्चिमी ढंग की दुनिया के सभ्यताकरण के रास्ते में अगर कोई रुकावट बनता है, तो वह भारत समेत एशिया के अनेक देशों में प्रकट हुआ सभ्यता संस्कृति मूलक प्रतिरोध है। 

     

 

हमारे यहां पश्चिम के साथ सभ्यता और संस्कृति के सवालों पर व्यापक बहसें हुई हैं। वजह यह है कि इस संदर्भ में हम पश्चिम के मुकाबले कहीं अधिक गहरे जा चुके थे। उस सब को असभ्य लोगो के अविकसित मस्तिष्क की अभिव्यक्ति कह कर खारिज कर देना कठिन था। हालांकि पश्चिमी विद्वानों ने हमारे वेदों तक को 'गडरियों के गीत कह कर महत्वहीन साबित करने की कोशिशें अवश्य कीं। पर वे सफल नहीं हुए। 

     

 

दयानंद सरस्वती जैसे प्रखर तार्किकों के समक्ष पोप तक की दलीलें हल्की साबित हो गयीं। इतना ही नहीं, ईसाई मिशनरियों के प्रचार को 'झूठ की लीला' कहा जाने लगा, जो बाद में 'पोपलीला' की तरह लोगों के उपहास का विषय हो गयी। 

     

 

गांधी ने सभ्यतामूलक सवालों को, सांस्कृतिक धरातल पर हो रहे शास्त्रार्थ के मुकाबले, अधिक व्यापक अर्थ में ग्रहण किया। उन्होंने इस बात को दोहराया कि हमारे यहां जब जब किसी विदेशी सभ्यता और संस्कृति का हमला हुआ, हमने उसके साथ हर स्तर पर संवाद करने का प्रयास किया। नतीजतन हमारी सभ्यता में तमाम विदेशी सभ्यताएं आत्मसात हो कर आखिरकार 'हमारी अपनी' हो गयीं। 

     

 

यहां गांधी यह स्पष्ट करना नहीं भूलते कि हमारी सभ्यता संस्कृति में इस्लाम और उसे मानने वाले मुसलमान का भी भारतीयकरण हो गया।

     

 

गांधी कहते हैं कि वह जो हमारा हो जाता है, हम भी उसे अपना मान लेते हैं। इस आधार पर वे कहते हैं कि हम अंग्रेज़ को नहीं, उसकी पश्चिमी सभ्यता को अपना दुश्मन मानते हैं। इसलिए अगर अंग्रेज़ खुद को भारतीय मानने को  तैयार होंगे, तो हम उन्हें भी अपना मान लेंगे। लेकिन गांधी यह संशय भी ज़ाहिर करते हैं कि अंग्रेज़ों की पश्चिमी सभ्यता जिस गहराई में उतर कर, उन्हें पकड़ कर बैठी हुई है, उनके लिये भारतीयकरण दूर की कौड़ी जैसा लगता है। इसलिए यह उन पर निर्भर करता है कि वे भारतीय होना चाहेंगे, या एक दिन भारत को छोड़ कर जाना पसंद करेंगे। 

 

      

 

अगर अंग्रेज़ भारतीय हो जाते, तो उसका मतलब यह होता कि भारत के संसाधन और संपदा भारत में रहती और हमारे यहां अंग्रेज़ अमेरिका के अंग्रेज़ों की तरह ब्रिटेन से अपना नाता तोड़ लेते। गांधी को यह बात भारत में संभव होती नहीं लगी। उन्होंने इसकी व्याख्या नहीं की, पर उनका निष्कर्ष सही लगता है। अमेरिका में उन्होंने ऐसा करने के बारे में इसलिए सोचा, क्योंकि वहां उन्हें 'इंडियनाइज़' ( मूल निवासी कृत) होने की कोई ज़रूरत नहीं रह गयी थी। उन्होंने वहा के इंडियंस का लाखों करोड़ों की तादाद में नरसंहार करके सफाया कर दिया था। पर भारत में ऐसा संभव नहीं हुआ। हालांकि उन्होंने हमारे यहां प्लेग और अकाल आदि की बदइंतजामी की नीति का सहारा लेते हुए, हमारे लाखों लोगों को उसी तरह मर जाने दिया, जैसे कि वे आस्ट्रेलिया के इंडियंस के खात्मे के लिये वहां कर चुके थे। पर यहां वे इंडियंस की बहुत बड़ी तादाद के रूबरू थे। फिर देशी राजाओं और हमारे जगत सेठों की स्थिति ऐसी थी कि वे उनके साथ समझौते कर के ही यहां टिके रह पाने के बारे में सोच पाते थे। इन हालात ने भारत की सभ्यता और संस्कृति को पूरी तरह नष्ट हो जाने से बचा लिया। 

     

 

 

दूसरी बात जिस में हम पश्चिमी सभ्यता से बहुत आगे थे, यह थी कि सदियों के अंतराल में विदेशी सभ्यताओं के आत्मसातीकरण ने हमें बहुलतावादी सांस्कृतिक परिदृश्य प्रदान किया था। इसका अंतर्विभाजन तो संभव था और वही अंग्रेज़ों ने किया भी, परंतु इससे उसमें जो गहराई आ गयी थी, उसे महत्वहीन व अप्रासंगिक बना देना कतई संभव नहीं था। अपनी इस विशिष्टता के कारण भारतीय सभ्यता बची रह सकी और समांतर रूप में मौजूद यूनान, मिस्र और रोम की सभ्यताएं नष्ट हो गयीं। 

     

 

हालांकि मौजूदा दौर में मुखर हुआ हिंदू पुनरुत्थान इस बहुलता को भारतीय सभ्यता और संस्कृति के लिये अभिशाप की तरह देखता है, लेकिन समय इस बात को साबित कर देगा कि इसी में हमारे कालजयी होने का रहस्य छिपा है। 

     

 

बहुलता को अपनाने की यह बात अब धीरे-धीरे पश्चिमी सभ्यता को गहराई प्रदान करने के लिये उसकी नयी ज़रूरत बन गयी है। पश्चिम इसका आत्मसातीकरण कर सका, तो उसकी सभ्यता का मौजूदा दौर पैशाचिक नहीं रह जायेगा, जैसा कि गांधी को उस दौर के हालात के मद्देनज़र लगा था। हम सदियों से 'अतिथि देवो भव' की नीति का अनुसरण करते हुए बहुलतावादी चरित्र वाले हो गये थे। 

    

 

हमारा बहुलतावाद पहले भी सभ्यतामूलक था, आज भी वह वैसा ही है। पर पश्चिमी सभ्यता में जो नयी तरह का बहुलतावाद प्रकट हो रहा है, वह मूलतः आर्थिक है। यह प्रक्रिया वहां औपनिवेशिक  दौर में आरंभ हुई। दास श्रमिकों को अफ्रीका से और गिरमिटियो को एशिया से पश्चिमी देशों में लाया जाता था, ताकि वहां के आर्थिक विकास में तेज़ी लाई जा सके। अब इन देशों के लोग वहां स्वेच्छा से जाते हैं, ताकि बेहतर नौकरी पा सकें। इससे पश्चिमी देशों में अब प्रवासी लोगों की सभ्यतामूलक दखल होने लगी है। अभी यह गौण रूप में है। पर पश्चिम इसे अपनी तरह के बहुलतावाद की मदद से आत्मसात करने में लगा है। 

    

 

भारत इसके उलट चल पड़ा है। हम नव पुननरुत्थान की गिरफ्त में आ गये हैं, जो पहले से आत्मसात हुए सामाजिक समूहों को भी 'परायों की तरह' देखने लगा है। इससे समाज की अनेकायामी विकास संभावनाओं के खुलने के रास्ते बंद होने लगते हैं। 

     

 

अब यदि भारत को वैश्विक आधार वाले विकास की राह पकड़नी है, तो उसे गांधी के हिंद स्वराज के निहितार्थ को समझते हुए अपने सभ्यतामूलक बहुलतावाद की ओर पुनः लौटना होगा। 

     

 

पश्चिम अपने समाजार्थिक बहुलतावाद के रास्ते में आ रहे दक्षिणपंथी अवरोधों को हटा सका, तो ही वहां सभ्यतामूलक बहुलतावाद के पनप सकने के हालात प्रकट हो सकेंगे। भारत इस मामले में दुनिया की अगुवाई कर सकता था, परंतु वह भी अपने हिंद को, वास्तव में स्वराज बनाने के लक्ष्य को आधा अधूरा पाने के बावजूद, रास्ते में अटक भटक गया है। उसे अपने हिंदू पूनरुत्थान से, पश्चिम को अपने दक्षिणपंथी राष्ट्रवाद से, निजात मिल सकी, तो ही दुनिया बेहतर सभ्यता वाले अगले विकसित चरण में प्रवेश करने लायक हो सकेगी।

     

 

अब हम यह देख सकते हैं कि गांधी के समय वाली पश्चिमी सभ्यता के पैशाचिक रूप में समय ने कितनी बड़ी सेंध लगाई है। तब से ले कर अब तक एक सदी से अधिक वक्त बीत चुका है। अपने अलावा अन्य सभी पर वर्चस्व कायम करने के इरादे से जो पश्चिम अन्य मानव जातियों को असभ्य, पिछड़ा हुआ, बर्बर और विकास विरोधी मान कर उनका सफाया करने को सभ्यताकरण कहता था, वही पश्चिम आज अपने नव साम्राज्यवादी बाज़ारवाद की ज़रूरतों से, विवश भाव से ही सही, पर आया तो बहुलतावाद की ओर ही है। 

     

 

उसकी स्वचालनमूलक उच्च तकनीकी अब 'आर्टिफिशल इंटेलिजेंस वाले अगले चरण में दाखिल हो रही है। इसका उद्देश्य सस्ते श्रम पर अर्थतंत्र की उस निर्भरता को कम से कम करना है, जिसकी वजह से उसे वहुलतावाली 'सहभागी संस्कृति' (शेयर्ड कल्चर) को विवशता में अपनी सभ्यता के सरोकारों में जगह देनी पड़ रही है। वह यह काम तब तक करता रहेगा, जब तक प्रवासी सभ्यताएं उसके वर्चस्व के लिये खतरा नहीं बन जातीं। इसका मतलब है कि पश्चिमी सभ्यता का मौजूदा रूप पहले की तुलना में थोड़ा अधिक मानवीय है, परंतु बुनियादी मानसिकता में कोई बड़ी तब्दीली नहीं आई है। ऐसे में हम भारत के सभ्यतामूलक धिकल्प को और अधिक मानवीय बना कर मानव जाति के बेहतर भविष्य की उम्मीदें कायम रख सकते हैं। 

    

 

हम जब आज ऐसा करने की बाबत सोचे, तो हमें गांधी के उस दौर के यूरोप व अमेरिका के विवेचनों को, भूलना नहीं चाहिये, क्योंकि उनका लक्ष्य है, मानवजाति को उसके सभ्यतामूलक अंतर्विकास की सही दिशा के बोध से युक्त करना। यहां हम गांधी के अमेरिका संबंधी विवेचन को अपने लिये आज भी प्रासंगिक मान सकते हैं। इस ओर देखना आज पहले से अधिक ज़रूरी इसलिए है, क्योंकि आज हम अपने हिंदू पुनरुत्थान वाले दौर को, अमेरिका में प्रकट हुए दक्षिणपंथी संकीर्ण राष्ट्रवाद के करीब जाता देख रहे हैं। इसीलिए दोनों देशों की नीतियों में भी आज कुछ साम्य दिखाई दे रहा है। 

 

 

January 1922 Indian nationalist leader and organizer of the Indian National Congress's campaign of passive non-cooperation, Mahatma Gandhi with his wife, shortly before his arrest for conspiracy

 

 

15. अमरीका, थोरो और प्रशांत भूषण

     

गांधी के हिंद स्वराज को पंक्तियों के बीच की इबारतों में पढ़ने की कोशिश करेंगे तो एक सवाल उठेगा कि गांधी ने अमेरिका के 1775-83 वाले स्वतंत्रता संग्राम की कोई बात नहीं की, परंतु उसके सात दशक बाद वहां पैदा हुए चिंतक हेनरी डेविड थोरो की कई किताबों को हिंद स्वराज की अनेक धारणाओं का आधार बनाया। थोरो ने 1849 में 'सविनय अवज्ञा' ( सिविल डिसओबीडिएंस) संबंधी अपने विचारों को चार निबंधों की शक्ल में प्रकाशित करवाया, जो बाद में पुस्तक के रूप में सामने आये। गांधी ने उनकी दो किताबों 'द ड्यूटी औफ सिविल डिसओबीडिएह' तथा 'लाइफ विदाउट प्रिंसिपल' का उल्लेख किया है। उनका इन किताबों से परिचय दक्षिण अफ्रीका में हेनरी साल्ट की मार्फत हुआ। बाद में 1907 में उन्होने इनका गुजराती में अनुवाद भी प्रकाशित करवाया। 

 

 

     

थोरो एक विरल अमरीकी चिंतक थे। 1783 में ब्रिटेन से अलहदा हुए वहां के अंग्रेज़ शासक, अभी तक बरकरार नस्लभेद और दासप्रथा के द्वारा, श्रम का शोषण करने की नीतियों पर अमल कर रहे थे। थोरो ने इन नीतियों से जुड़े उनके विस्तारवाद का विरोध किया। 1849 में उत्तरी अमेरिका ने अपने इन्हीं सरोकारों के तहत मेक्सिको पर धावा बोला हुआ था। थोरो ने सरकार की ऐसी निरंकुश और जनविरोधी नीतियों के खिलाफ एक 'व्यक्ति के प्रतिरोध' की आवाज़ को बुलंद किया और उसे व्यक्ति की स्वतंत्र अभिव्यक्ति के अधिकार की तरह सामने रखा। 

      

थोरो की दलील थी कि सरकार वहां के व्यक्तियों की कमाई पर लगे आयकर से चलती है, इसलिये उसे यह अधिकार नहीं कि वह इस धन का इस्तेमाल विस्तारवादी एवं जन विरोधी उद्देश्यों की पूर्ति के लिये करे। सरकार का विरोध करने का 'सिविल' तरीका उन्होंने यह निकाला कि व्यक्तिगत रूप में सरकार को आयकर देना बंद कर दिया और जेल जाना पसंद किया। 

      

गांधी ने 1935 में कोदंड राणा को लिखे पत्र में स्पष्ट किया  कि उनका अहिंसक सत्याग्रह हूबहू 'सविनय अवज्ञा' नहीं है। अवज्ञा की बजाय उन्होंने सत्य पर आग्रह को तरजीह दी और सविनय भाव की बजाय अहिंसा को। 

      

गांधी ने थोरो के विचारों का अपने तरीके से अंतर्विकास किया, परंतु अमरीका के स्वतंत्रता संग्राम की कोई बात नहीं की। उस सथग्राम से जो 'स्वतंत्रता' निकली, वह आक्रांताओं की अपने खुद के लिये हासिल की गयी सीमित स्वतंत्रता थी, जबकि थोरो का चिंतन पूरी मानव जाति को एक बड़े नैतिक साहस से युक्त करता था। वह व्यक्ति को सरकारों के निरंकुश और अनैतिक कार्यों के खिलाफ खड़े हो सकने के लिये तैयार करने वाला चिंतन था। 

      

गांधी इसी आधार पर न्यायालयों में निर्भीक भाव से यह कह पाये कि वे सत्य को सरकार की सत्ता से ऊपर रखते हैं। थोरो और गांधी इस आधार पर जब जेल भी जाते हैं, तो वह बात पूरे समाज को सरकारों की अनैतिक नीतियों के खिलाफ खड़े होने के लिये प्रेरित करती है। 

      

यहां हम प्रसंगवश हाल ही में भारत के उच्चतम न्यायालय के समक्ष अवमानना के दोषी पाये गये प्रशांत भूषण के अहिंसक सत्याग्रह को याद कर सकते हैं। यह घटना हमें यह आश्वस्ति देने के लिये पर्याप्त है कि थोरो और गांधी की परंपरा में सत्याग्रह आज भी हमारी शक्ति हो सकता है। 

     

 

 

तो क्या यह माना जाये कि हिंद स्वराज के अधूरे रह गये लक्ष्यों की पूर्ति के लिये हमारी संघर्ष यात्रा अभी तक अनवरत जारी है? इसके केंद्र में सत्ता का विरोध नहीं है, अपितु अहिंसा और सत्य के महान मानवीय मूल्यों को ले कर चलने का आग्रह है। इसका लक्ष्य है मनुष्य की चेतना को बदलना, ताकि हम एक बेहतर सभ्यता का निर्माण कर सकें। इसलिये गांधी अमरीका के स्वतंत्रता संग्राम की नहीं, थोरो के नेतिक साहस की बात उठाते हैं और उसका अंतर्विकास करते हैं।

 

In this June 9, 1939 image, Mahatma Gandhi waiting for a car outside Bifla House, Bombay, on his return from Rajkoy. Amongst the group with him are Pandit Nehru and Vallabhai Patel.

 
 

16. सभ्यता का इतिहास और आपराधिक मानवविज्ञान

     

गांधी, अमरीका के स्वतंत्रता संग्राम से प्रेरित फ्रांसीसी क्रांति, जो उसके पांच वर्ष बाद यानी 1789  में सामने आती है, को भी यदि अपने स्वराज चिंतन के लिये प्रेरक नहीं मानते, तो उसकी एक वजह यह हो सकती है कि वह भी दुनिया से साम्राज्यवाद के खात्मे की और वैश्विक प्रजातंत्र की बात नही करती। उसका मूल सरोकार है औपनिवेशिक लूट से अमीर हुए वहां के मध्यवर्ग को ऐसा प्रजातंत्र देना, जो उनकी उपनिवेशों की लूट से बेशुमार हो गयी निजी संपत्ति का स्वामित्व ऊन्हें दे सके। रूसो और वोल्तेयर जैसे चिंतक भी समानता, स्वतंत्रता, न्याय और भाईचारे जैसे मूल्यों से अनुप्राणित नयी प्रजातांत्रिक चेतना को उपनिवेशों की हकीकत बनाने के लिये कुछ नहीं कहते। उनकी बजाय गांधी उन यूरोपीय चिंतकों की ओर जाते हैं, जो पूरी मानव जाति के विकास के लिये फिक्रमंद होते हैं। 

     

 

गांधी के सामने मुख्य सवाल है पूरी मानव जाति के सभ्यतामूलक विकास का। वे पश्चिमी सभ्यता के गर्भ से पैदा हुए अंग्रेज़ों की तरह इतिहास को बदलने या नया इतिहास बनाने की दलील से सहमत नहीं होते। वे पूछते हैं कि इतिहास रचने का क्या मतलब है? क्या किसी समाज पर आपकी विजय इतिहास के बदलने का सुबूत है

     

 

सत्ता पर काबिज होने के बहुत से तरीके हो सकते हैं। आप अनैतिक साधनों से सत्ता हथिया सकते हैं। परंतु वह मानव सभ्यता के विकास के इतिहास के काले अध्याय से अधिक नहीं है। सत्ता के दांवपेंचों के इतिहास, मानव जाति के सामान्य इतिहास का एक प्रतिशत भी नहीं हैं। जब कोई किसी की हत्या कर देता है, तो वह खबर इतिहास हो जाती है। पर जो लोग दुश्मनी भूल कर आपसदारी के साथ जीते हैं और विकास करते हैं, उसे इतिहास में जगह नहीं मिलती। 

     

दुनिया का असल इतिहास इसी आपसदारी का है। 

     

गांधी इस नज़रिये से सभ्यतामूलक इतिहास को लोगों की चेतना का हिस्सा बनाना चाहते थे। गांधी की यह बात मौजूदा भारतीय परिदृश्य में नुमाया हो गयी सत्ता हथियाने की राजनीतिक दलों की अनैतिकता को कटघरे मे खड़ा करती है। 

     

 

सत्ता पर काबिज होने से ही इतिहास नहीं बनता, इस सोच के सहारे ही, हमारा या किसी भी समाज का विकास हो सकता है। गांधी यहां हमें अपने मौजूदा परिदृश्य के अंतर्विरोधों को समझने की अंतर्दृष्टि प्रदान करते हैं। वे हमें इतिहास के लक्ष्य को देखने दिखाने की ओर ले चलना चाहते हैं। 

     

 

यह सवाल हमें सबको पूछना चाहिए कि इतिहास करता क्या है? क्या मानव जाति अपना इतिहास इसलिये नही लिखती कि मनुष्य का विकास हो सके? अगर ऐसा है तो मनुष्य का वह वास्तविक इतिहास कहां है? वह अगर अभी तक अलिखित पड़ा है, तो हमें उसे ही लिखना चाहिए और उसे ही अपना इतिहास कहना व मानना चाहिए। जो इतिहास इस वक्त हमारे पास है, वह तो मात्र बर्बरता का इतिहास है। हमें यह कहना बंद करना चाहिए कि वह हमारा, मानव जाति का इतिहास है। 

     

 

इसीलिए गांधी फ्रांसीसी क्रांति की बात नहीं करते। पर वे वहां हुए एक आस्ट्रिया हंगरी मूल के चिंतक की बात ज़रूर करते हैं। ठीक उसी तरह, जैसे वे अमरीकी स्वतंत्रता संग्राम की नहीं, उसके काफी बाद वहां हुए थोरो की चर्चा करते हैं। उस फ्रांसीसी चिंतक का नाम है मैक्स नौर्दू।

     

 

मैक्स नौर्दू एक यहूदी थे और तत्कालीन ईसाई सभ्यता और संस्कृति के प्रखर आलोचकों में से एक थे। उन्होंने  जो किताबें लिखीं, उनका संबंध  'आधुनिक सभ्यता की पतनशीलता और विरोधाभासों (डीजैनरेशन  औफ मौडर्न सिविलाईज़ेशन तथा पैराडौक्सिज़ औफ मौडर्न सिविलाईज़ेशन : 1892) से था। 

     

 

नौर्दू पश्चिमी सभ्यता के मिथकों का वैज्ञानिक अध्ययन करके इस नतीजे पर पहुंचे थे कि इस सभ्यता की जड़ें 'अपराध वृत्ति' में हैं। अधिकांश पश्चिमी मिथक 'हिंसा का दैवीकरण' करते हैं। इससे साबित होता है कि पश्चिम के आदमी की मानसिकता का निर्माण 'आपराधिक मानव विज्ञान' (क्रिमिनल एंथ्रोपौलोजी) के सभ्यता का रूप लेने की प्रक्रिया से हुआ है। 

     

 

 

नौर्दू की इन स्थापनाओं ने पश्चिमी समाज में एक तरह का हड़कंप पैदा कर दिया था। उनके मुताबिक ईसाईयों का यहूदी विद्वेष और जातीय नरसंहारों की वारदातों के पीछे उनकी यही अपराध वृत्ति को दैवी बनाने की मानसिकता ज़िम्मेवार है। इस वजह से वे यहूदियों के लिये अलग राज्य की मांग करने वाले पहले 'जियोनिस्ट' संगठन के प्रवर्त्तकों में से एक हो गये थे। इस संगठन के प्रयासों ने बाद में यहूदियों के नाज़ीवादी नरसंहार के बाद उन्हें इज़राईल मे बसाने की भूमिका तैयार की थी। नौर्दू की इन किताबों को बाद में प्रतिबंधित कर दिया गया, जिसके बाद वे आज तक लगभग अप्राप्य कोटि में बनी हुई हैं। 

     

गांधी ने पश्चिमी सभ्यता के इस मनोविज्ञान को नौर्दू की मार्फत आत्मसात किया और वे उसकी आपराधिक एवं हिंसक ज़मीन के सभ्यतामूलक प्रसार को दुनिया के लिये खतरा मानते हुए, अपनी उस भारतीय सभ्यता को एक विकल्प के रूप में प्रस्तुत करते हैं, जिसके मूल में 'अहिंसा' है। 

      

 

पश्चिमी सभ्यता की बर्बर प्रकृति के उदाहरण के रूप में वे उनके यहूदियों से किये गये व्यवहार को आधार बनाते हैं। यहूदी तो पश्चिमी समाज का ही एक अंग हैं, परंतु पश्चिमी सभ्यता की बर्बरता का यह प्रमाण है कि वे जिसे अपने से अलहदा मानते हैं, चाहे वह यहूदियों की तरह उन्हीं के समाज की उपज क्यों नही हो, उससे वे अवसर आने पर निजात पाने की कोशिश करने लगते हैं। इसे देख कर गांधी समझ गये थे कि पश्चिमी सभ्यता के भीतर से पैदा हुए अंग्रेज़, भारतीयता को आत्मसात करने को राज़ी नहीं होंगे। 

     

 

इसीलिए हमारे यहां अंग्रेज़ों का भारतीयकयण नहीं हुआ, और इसके उलट वे हमारे शासक होते ही भारत का व्यापक रूप में पश्चिमीकरण करने में जुट गये। किसी अंग्रेज़ का भारतीयकरण हुआ हो, तो उसके बहुत कम उंगलियों पर गिने जाने लायक उदाहरण ही मिलेंगे। गांधी इस बात को समझ रहे थे, इसलिए  उन्होंने भारत के अंग्रेज़ों के भारतीयकरण की मुहिम पहीं चलाई। वे बस उन पश्चिमी विचारकों को खोज लाये, जो पश्चिमी सभ्यता और संस्कृति के अंतर्विरोधों को समझते थे और उनकी खुल कर आलोचना कर रहे थे।  ऐसा कर के वे अपने भारतीय सभ्यता वाले विमर्श को पश्चिम में सुने जाने लायक स्थिति तक ले गये। इससे उनकी बात की उपेक्षा करना पश्चिम के लिये कठिन हो गया। 

 

Mahatma Gandhi meets the Viceroy of India Lord Mountbatten and his wife, at the Viceroy's House in New Delhi

 

 

17. तौल्स्तौय और ईश्वर का राज्य

        

ईसाइयत की साहसिक पुनर्व्याख्या के आधार पर पश्चिमी सभ्यता की आलोचना के संदर्भ में गांधी को सब से अधिक मदद मिली, लियो तौलस्तोय से। उनकी किताब 'द किंगडम औफ गौड इज़ विदिन यू' का उल्लेख गांधी ने 'हिंद स्वराज' में विशेष तौर पर किया है। 1894 में इसके प्रकाशन के तुरंत बाद रूसी सरकार ने इसे ईसाई विरोधी किताब मान कर, इस पर प्रतिबंध लगा दिया था। इसलिए यह किताब पहले यूरोप की कुछ अन्य भाषाओं में अनूदित हो कर अपने पाठकों तक पहुंची। गांधी ने भी इस किताब का गुजराती में अनुवाद कर इसे प्रकाशित कराया। 

     

 

इस किताब की प्रेरणा का स्रोत  बाइबिल के ' गोस्पेल औन द माउंटेन' का दसवां 'कमांडेंट-  यानी ईश्वर का निर्देश है। इसमें कहा गया है- 'तुम किसी की हत्या नहीं करोगे' ( दाऊ शैल्ट पौट मर्डर)। तोल्स्तौय कहते हैं कि साम्राज्यवादी पूंजी की विश्व विजय तो हुई है, पर उसने पश्चिमी सभ्यता को मानव जाति के इतिहास की अब तक की महानतम हत्यारी सभ्यता में बदल दिया है। इसका अर्थ यह है कि पन्चिमी सभ्यता अब ईसाईयत विरोधी सभ्यता में बदल गयी है। वह पूरी दुनिया में अपने साम्राज्य का विस्तार तो कर रही है, पर भूल गयी है कि ईश्वर का साम्राज्य मनुष्य के भीतर होता है। 

     

 

ईसाइयत की आड़ में तौल्स्तौय ने पश्चिमी सभ्यता और उसके साम्राज्यवादी विस्तारवाद की जो कड़ी आलोचना की थी, उसे पश्चिम सहन नहीं कर पा रहा था। पर यह बात गांधी के लिये सत्य में आस्था जगाने धाली ऐसी बात थी, जो एक बेहतर व मानवीय सभ्यता की तलाश में निकलने के लिये पूरी मानव जाति को आमंत्रण दे रही थी। गांधी पश्चिमी सभ्यता की इस आलोचना को भारतीय सभ्यता के गौरव गान के लिये नहीं, आत्मालोचन के लिते ज़रूरी मान कर चले थे। 

     

 

1888-89 के बीच गांधी का तौल्स्तोय से पत्राचार भी हुआ था। इस बीच दक्षिण अफ्रीका में अपने संघर्ष को गति देने के लिये उन्होंने जो आश्रम वहां बनाया था, उसे उन्होंने 'तौल्सतोय फार्म' का नाम तक दे डाला था। वे तौल्स्तोय की इस दलील से सहमत थे कि भारत जैसा इतना बड़ा देश मुट्ठी भर अंग्रेज़ों से कैसे पराजित हो सकता था, यदि वह स्वयं किसी अन्य का गुलाम बनने के लिये खुद राज़ी न हो। इसलिए गांधी ने कहा कि अंग्रेज़ों ने भारत को नहीं जीता, हमने खुद अपने देश उन्हें सौंप दिया था। इसलिए वे आत्मालोचन करके अपनी कमियों को दूर करने की बात करते दिखाई देते हैं। 

     

 

इस संदर्भ में वे इस बात की ओर इशारा करते हैं कि हमारे पुनरुत्थानवादी, भारतीय सभ्यता को आलोचना से परे मान कर, असहनशील हो रहे हैं। वे हिंदू और मुसलमान की तरह सोचने लगे हैं और अपनी आलोचना को ले कर असहनशील हो जाते हैं। इसे वे पश्चिमी सभ्यता की ऐसी बुराई की तरह देखते हैं, जो अब भारतीय समाज की मानसिकता का भी हिस्सा हो रही है। 

 

Mahatma Gandhi and politician Sarojini Naidu, with a garland, during the Salt March protesting against the government monopoly on salt production.

 

 

18. हमारा पश्चिमीकरण और समकालीन नव-पुनरुत्थान

      

 

गांधी की इन धारणाओं के आधार पर अब हम कह सकते हैं कि उस दौर में पश्चिमी सभ्यता आत्मालोचन के प्रति असहनशील थी, इसलिए नौर्दू तथा तौल्स्तोय जेसे चिंतकों की ईसाइयत पर टिप्पणियों से पश्चिम आहत हो गया और वहां ये किताबें प्रतिबंधित कर दी गयीं। जबकि तुलनात्मक रूप में तत्कालीन भारत में अभी अनेक लोग सभ्यता और संस्कृति के क्षेत्र में दूसरों की आलोचना कर पाने की स्थिति मे थे। हालांकि गांधी दयानंद सरस्वती की बात नहीं करते, पर हमारे यहां अन्य थर्मो  की अनेक धर्मों का खुल कर खंडन करने वाली उनकी किताब 'सत्यार्थ प्रकाश' पर प्रतिबंध नहीं लगा। सनातन धर्म, इस्लाम, ईसाई और सिख धर्मों के लोगों से उनके शास्त्रार्थ हुए, लोग व्यक्तिगत तौर पर असहनशील भी नज़र आये, पर उनकी किताब पढ़ी जाती रही। तथापि बंग भंग के बाद के दौर में अंग्रेज़ों की फूट डाल कर राज करने की नीति ने यहां के हिंदू और मुसलमान को भी अपनी तरह असहनशील बनाना आरंभ कर दिया। 

     

 

गांधी जिस संस्कृति सभ्यतामूलक असहनशीलता से भारत को बचाना चाहते थे, वह भारत के उत्तरोत्तर बढ़ते हुए पश्चिमीकरण के कारण, अब ऐसी स्थिति में आ गयी है कि असहनशील हिंदुओं की कोई भीड़ किसी मुसलमान या दलित की 'लिंचिंग कर के भी, शर्मिंदा होने को बजाय, 'जय श्री राम के नारे लगाते हुई विजयोत्सव से भरी अपने गर लौट पाती है। 

     

 

अमर्त्य सेन अपने जिस देश को 'तर्कशील भारत' (आर्गुमेंटेटिव इंडिया)  कह कर पन्चिम के सामने एक सभ्यतामूलक विकल्प की तरह प्रस्तुत कर रहे थे, उस भारत के कुछ महत्वपूर्ण लोग आज अपने ही एक हिदू संन्यासी अग्निवेश की मृत्यु के बाद उसे 'हिंदू धर्म को शर्मिंदा करने वाला' कह कर लांछित कर रहे हैं, क्योंकि वह सर्वधर्म समभाव के महान मूल्य के लिये जीवन भर संघर्ष करता रहा।

     

 

दूसरी जो त्रासदी हमारे पश्चिमीकरण के परिणामस्वरूप घटी, वह यह है कि भारत भी पश्चिम की तरह प्रकृति विरोधी जीवन शैली के साथ जीने को अपने विकास और प्रगति के लक्षण की तरह देखने लगा है। 

    

 

गांधी के 'हिंद स्वराज' के अधूरे लक्ष्यों की पूर्ति का सवाल जब जब खड़ा होगा, हमें एक तो  परायी सभ्यता संस्कृति के आत्मसातीकरण की प्रक्रिया को फिर से गहराने की ओर आना होगाऔर इसके अलावा दूसरा कार्य  यह करना होगा कि हमें प्रकृति आधारित या प्रकृति पूरक अर्थतंत्र, समाज व्यवस्था और जीवन शैली में वापसी करनी होगी। 

      

 

अन्य सभ्यताओं का अपने अधिक मानवीय रूप में आत्मसातिकरण और प्रकृति पूरक उत्पादन तंत्र - ये दो बातें हैं, जो पश्चिमी सभ्यता की पैशाचिकता का उपचार हैं। 

     

 

भारतीय सभ्यता में इनके आधार तो मौजूद हैं, परंतु उनका अपने समय की ज़रूरतों के मुताबिक अंतर्विकास होना अभी बाकी है। 

     

 

हम यह काम करने की दिशा में आगे बढ़ रहे होते, तो यकीनन हिंद स्वराज के वास्तविक रूप को अपने वक्त की हकीकत बनाने लायक हो गये होते। लेकिन हमारी बदकिस्मती यह है कि आज़ादी मिलने के सत्तर साल बाद भी हम उल्टे और अधिक पश्चिमीकृत हो गये हैं। 

     

हमारा हिंदूकरण हुआ हो अथवा इस्लामीकरण या सिक्खीकरण, सभी विभाजनकारी पश्चिमीकरण के उप-रूप हैं। 

     

हमारा विदेशी तकनीकी के आयात पर निर्भर उत्पादन तंत्र, प्रकृति के विनाश पर आधारित है। उसने शेष भारत में तो प्रकृति और मनुष्य की आपसदारी को पहले ही नष्ट कर दिया है, अब वह इसी विकास मौडल को ले कर पूर्वोत्तर तथा अन्य पहाड़ी प्रदेशों की ओर भी, बेशर्मी से वहां के लोगों को उनकी ज़मीनों से उखाड़ते हुए, आगे बढ़ रहा है। वह प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक दोहन शोषण और पर्यावरण को और अधिक  विषैला बनाते जाने के अभियान को अपने प्रगति की ओर अग्रसर होने का पर्याय मानता है। ऐसा इसलिए हो रहा है, क्योंकि पश्चिम और उसके विकास मौडल ने हमें चारों तरफ से घेर लिया है। हम आज़ाद हुए, पर पश्चिमी सभ्यता की और बड़ी गुलामी की जकड़ में चले गये। 

     

 

गांधी इसके विकल्प के रूप में अपने सामंतीय अतीत में वापसी की बात नहीं करते हैं। उन्होंने स्पष्ट किया है कि अंग्रेज़ों के जाने के बाद वे देशी राजाओं की निरंकुश सत्ता व्यवस्था और धन संपदा के केंद्रीकृत होने के हालात में भी वापसी नहीं चाहते। वहां जिस तरह का जातिवादी शोषण और उच्च वर्ग की विलासिता जड़ें पकड़ चुकी है, उसे भी वे भारत की प्रगति में अवरोध की तरह देखते हैं। परंतु आज आज़ादी मिलने के सत्तर साल बाद हम देख रहे हैं कि भारत की संपत्ति उन लोगों के हाथ में आ गयी है, जो प्रजातांत्रिक सियासत के भीतर से निकल कर हमारे चुने हुए प्रतिनिधियों की तरह सत्ता संभाल रहे हैं, परंतु जिनकी मानसिकता अभी भी सामंतीय निरंकुशता से जकड़ी नज़र आती है। वे  प्रजातांत्रिक विरोध को भी नाकाबिले बर्दाश्त मानते हैं और पुलिस तंत्र का गैर प्रजातांत्रिक इस्तेमाल करके विरोध को कुचलने का प्रयास करते हैं। 

     

 

गांधी इस संभावना को देख पा रहे थे, इसलिए उन्होंने बहुमत का प्रबंधन करके सत्ता को निरंकुश तरीके से चला पाने में मदद करने वाली प्रजातांत्रिक संसदीय प्रणाली की बजाय, सर्वमत वाली किसी सर्वोदयी व्यवस्था को खोजने की बात की थी। वे सत्ता के विकेन्द्रीकरण के पक्षधर थे और उसे ग्राम केंद्रित बनाना चाहते थे। परंतु अब आज़ाली के सत्तर साल बाद वाले परिदृश्य में हमारे गांवों का जिस तरह का राजनीतिकरण हो गया है, वह विकल्प बंद हो चुका है। नागरिक केंद्रित प्रजातंत्र के मौजूदा रूप को, मीडिया के सार्वजनिक क्षेत्र के राजनीतिकरण ने, गैर प्रजजातांत्रिक बनने के हालात में धकेल दिया है। मज़बूत केंद्र वाला भारत गांधी के हिंद स्वराज की परिकल्पना के उलट है। 

     

 

अगर हमें अब हिंद स्वराज की ओर पुनः रुख करना है, तो हमें पहले प्रकृति पूरक उत्पादन के मौडल वाले नये अर्थतंत्र और उस पर गुज़र बसर करने को तैयार संयमित  समाज व्यवस्था को खड़ा करने के लिये काम करना होगा। 

     

इस नयी तरह के अर्थतंत्र को उच्च तकनीकी की मदद से मुनाफा कमाने वाले हालात तक लाया जा सकता है। 

     

इससे हम एक स्वस्थ समाज की स्वस्थ सभ्यता के नवविकास की उम्मीद कर सकेंगे। 

     

पर हमें अब यह काम मौजूदा अर्थतंत्र के सह समांतर रूप में करना होगा, न कि उसके विरोध में खड़े होने वाले विकल्प की ओर लपकने की तरह। 

     

लेकिन आखिरी मंज़िल प्रकृति मे सहभागी हो सकने की होगी, जिसके साथ किसी को समझौता नहीं करने दिया जायेगा। 

     

 

भारत की सांस्कृतिक विरासत प्रकृति के देवताओं के पूजन से संबंध रखती है। हमें अपने मौजूदा दौर के अवतारवादी हिंदू पुनरुत्थान को अतीत के प्रकृति पूजन की असल ज़मीन से जोड़ कर उसके अर्थ बदलने पर काम करना पड़ेगा। इंद्र, विष्णु, अग्नि, वायु, आदित्य, वरुण, उषा, पूषा, त्वष्टा आदि सभी मूल देवी देवता प्रकृति से संबंध रखते हैं। उनकी ओर रुख करते ही हिंदू पुनरुत्थान प्रगतिशील और भविष्योन्मुख हो सकता है। 

     

 

प्रकृति आधारित अरथतंत्र को, मौजूदा उच्च तकनीकी के डेटा बेस तथा आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस वाले अगले विकास चरण के सह समांतर, इस तरह ग्रहण करना होगा कि हमारे भविष्य के समाज का ऐसा मनुष्य प्रकट हो सके, जो संयम के मानवीय उत्कर्ष से परिचालित हो, न कि भूख बढ़ाने वाले अराजक उपभोक्ताकरण से।

     

 

भविष्य का यह परिदृश्य गांधी के हिंद स्वराज से बहुत अलग तरह का दिखाई देगा, क्योंकि यह विज्ञान को अलग नज़रिये से देखने से ताल्लुक रखेगा। वह विज्ञान को, उच्च नैतिक व मानवीय मूल्यों को चरितार्थ करने के माध्यम की तरह स्वीकार करेगा। ऐसा करने से हम गांधी के चिंतन के उस अंतर्विरोध से मुक्त हो सकेंगे, जो विज्ञान के प्रति संशय से युक्त है। परंतु ऐसा करते हुए भी हमारे बुनियादी सरोकार, गांधी की तरह ही बेहतर सभ्यता की तलाश करने वाले होंगे। 

     

 

गांधी की विज्ञान को ले कर जो हिचकिचाहट है, उसकी वजह यह है कि गांधी मानव देह की प्रकृति को प्राकृतिक विकास की ज़मीन की तरह देखते हैं। वे मानते हैं कि मनुष्य की प्रगति की गति उतनी होनी चाहिये, जितनी कि वह पैदल चल कर अपने पैरों से ज़मीन नापने की हैसियत रखता है। 

 

Mahatma Gandhi is seen with a group of congressmen at the frontier between India and Afghanistan.

 

 

19. गति का विभ्रम और प्रगति की हकीकत

      

प्रगति और मनुष्य के पैरों से नापी जा सकने वाली ज़मीन के आपसी रिश्तों की बात करने वाले थौमस पी टेलर की एक किताब का ज़िक्र गांधी ने 'हिंद स्वराज' में किया है। इसका नाम है,  'फैलेसी औफ स्पीड' (1909)। ऐसा लगता है कि गांधी जब 'हिंद स्वराज' को अंतिम रूप दे रहै होंगे, उन्हीं दिनों उन्होंने यह किताब पढ़ी होगी। टेलर मानता है कि विज्ञान ने मानव की प्रगति की गति को बढ़ा दिया है। पर गति का तीव्र होना मानव जाति को आगे ले जाने की बजाय भ्रमित अधिक करता है। चीज़ों के वास्तविक ज्ञान के लिये हमें उनके करीब होना  पड़ता है। तेज़ गति की मदद से हम आगे ही आगे निकलते जाते हैं और चीज़ों की झलक पाने भर को उन्हें जानने का नाम दे कर भ्रम में जीने लगते हैं। 

     

गांधी इसीलिए पैदल चलने में यकीन रखते थे। ऐसा कर के वे लोगों के साथ सीधे रिश्ते स्थापित कर पाये। 

     

गांधी इसी तर्ज़ पर मारक अस्त्रों की सभ्यता विरोधी भूमिका तक भी पहुंचते हैं। आमने सामने की लड़ाई में किसी को मार डालना, भीतर एक जुगुप्सा भी पैदा करता है। पर दूर से चलाये गये अस्त्रों के मारक परिणामों का चलाने वाले को सीधा ज्ञान नहीं होता। इससे मनुष्यों के सामूहिक संहार की संभावनाएं बढ़ जाती हैं। 

     

 

तीसरी बात बीमारियों के तीव्र संक्रमण की है। गांधी तो रेल के द्वारा ही बीमारियों को दूर तक फैलाने की संभावना से चिंतित थे। जबकि आज हम वैश्विक महामारी के दौर में है। हवाई जहाज़ की यात्राएं इसके लिये मुख्यतः ज़िम्मेवार हैं। इसे देखते हुए गति और प्रगति के आपसी रिश्ते आज नये रूप में फिर से विचारणीय हो गये हैं। महामारी के दौरान सामाजिक दूरी की ज़रूरतों ने इसे एक सभ्यतामूलक प्रश्न में भी बदल दिया है। 

     

 

तथापि इन सब कारणों से विज्ञान नहीं, उसके इस्तेमाल के रूप ही अधिक कटघरे में खड़े होते है। ये दोनों बातें एक दूसरी से जुड़ी हैं, पर एक नहीं हैं। 

     

 

हम विज्ञान को कुछ दूसरी दलीलों की मदद से अब भी बचा सकते हैं। जहां तक मनुष्य देह की बात है, उसके चलने की यकीनन एक सीमा है। परंतु क्या उसके विचारों की भी कोई सीमा होती है? विचार भी तो प्रकृति के उपजाने मन में पैदा होते हैं। क्या उनका होना भी अप्राकृतिक घटना है? निश्चय ही नहीं। परंतु देहिक गति की तरह ही विचारों की गति का भी संयमित व संतुलित होना अवश्य ज़रूरी है। 

     

 

साईबर विज्ञान मन की गति से काम करने की दिशा में आगे बढ़ रहा है। हमारा प्रयास यह होना चाहिए कि वह एक बेहतर और अधिक मानवीय सभ्यता की ओर ले जाने वाला हो। हमारे कुछ देवताओं की बाबत कहा गया है कि वे मन की गति से चलते हैं। हम यहां इतना ही कह सकते हैं कि वह जो मन की गति से चले, वह देवताओं की तरह मानवीय सरोकारों से युक्त होना चाहिए। पर गति को ही भ्रमित करने वाला कह कर हम अपना तीर गलत निशाने पर साधने वाले हो जायेंगे। 

 

     

 

लेकिन गति को बढ़ाते हुए हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि हमारी अपनी मिट्टी से बावस्तगी बनी रहे। इसका अपने हाथों से काम करने की प्रकृति प्रदत्त ज़रूरत से संबंध है। श्रम के ऐसे रूपों का समांतर रूप में बने रहना भी ज़रूरी है। फर्क यह पड़ सकता है कि हाथ से काम करते हुए छोटे मोटे उत्पादों से हमारी जो सीधी आपसदारी थी, वह अब हमारी रोज़गार की विवशता न हो कर, स्वैच्छिक जीवन शैली हो सकती है। खाना बनाने से ले कर बागवानी तक बहुत कुछ ऐसा है, जिसे हम समांतर श्रम और उत्पादन व्यवस्था की तरह बनाये बचाये रख सकते हैं। 

     

हम एक ऐसे भविष्य के समाज की परिकल्पना कर सकते हैं, जो जितना दूर जा सकता हो, उतना ही अपने निकट हो कर वहीं ठहर सकने के धैर्य से भी युक्त हो। 

     

 

इस प्रकृतिमूलक नये अर्थतंत्र को मौजूदा हालात के संदर्भ में देखने की कोशिश करें, तो जिसे हम नक्सल समस्या कहते हैं, उससे निजात पाने का रास्ता निकल सकता है। बात इतनी सी है कि कुछ राज्यों में हमें प्रकृति आधारित अर्थतंत्र के मौडल को अपनाना होगा। उत्तर पूर्वी राज्यों के लिये और कश्मीर, लद्दाख व उत्तराखंड जैसे राज्यों के विकास के दिये हम प्रकृति आधारित अर्थतंत्र के समांतर मौडल पर काम कर सकते हैं। जैसे भूटान ने अपने यहां करने का  कुछ प्रयास किया है। सभी राज्यों को एक ही तरह के विकास मौडल की लाठी से हांकने के दुष्परिणाम क्या हो सकते हैं, वे एक एक कर के हमारे सामने आ रहे हैं।

 

 

(इस पोस्ट के चित्र गूगल फोटो और www.news18.com से साभार लिये गये हैं)

 

 

 

विनोद शाही

 

 

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