श्रीधर दुबे का ललित निबंध “गाँव की गंध”
श्रीधर दुबे |
अभी कुछ वर्षों पहले की बात है जब हम भारत को गांव का देश कहा करते थे और इसमें गर्व की अनुभूति हुआ करती थी। भले ही गांव के रहने वाले लोगों को गंवई संबोधन दिया जाता हो लेकिन हमें खुद अपने को गांव का कहते बताते हुए कभी कोई हिचक या संकोच नहीं हुआ। सचमुच गांव के सद्भावपूर्ण और प्रकृतिमय जीवन को देख कर ही पंत जी ने कभी बरबस ही कहा होगा 'अहा ग्राम्य जीवन'। शायद गांव के उन बीते दिनों का ही प्रताप है कि हमारे अंतस में गांव हमेशा कहीं न कहीं टहलता घूमता रहता है। गांव की सद्भावना, वहां के लोगों के आपसी मेल मिलाप, सहज और निश्छल जीवन, तीज त्यौहार और शादी विवाह के मौसम गांव को सचमुच इकट्ठा और जीवंत कर देते थे। लेकिन आज गांव के बारे में ठीक ऐसा ही नहीं कहा जा सकता। यह अपने अनुभव के दम पर भी मैं कह सकता हूं कि गांव तो छोड़िए, अब घर परिवार के सदस्यों के बीच भी वह आपसी सद्भावना नहीं रही जो पहले कभी ग्राम जीवन का प्राण तत्त्व हुआ करती थी। बहरहाल गांव के अतीत पर युवा कवि श्रीधर दुबे का एक आलेख पढ़ते हुए मैं सहज ही गांव के गुजरे हुए अपने उन पलों में चला गया जो मेरे लिए आज भी जीवन तत्व का काम करता है। आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं श्रीधर दुबे का ललित निबंध 'गांव की गंध'।
“गाँव की गंध”
श्रीधर दुबे
एक आत्मीय मित्र मेरे गृह जनपद से परिवार समेत दिल्ली की यात्रा पर आये। दिल्ली से कहीं और की यात्रा भी उन लोगों ने पहले से तय कर रखी थी। मित्र को जब पता चला कि विकेण्ड होने के नाते अगले दो रोज मेरी छुट्टी होगी तो उन्होंने हम लोगों को भी साथ चलने की मनसा जाहिर की। मित्र मेरे स्वभाव से परिचित थे इसलिए उन्हें पता था कि जहाँ वे लोग जा रहे थे वो जगह मुझे बहुत पसंद आयेगी। मैने थोडी ना नुकुर की पर जब देखा कि पत्नी की भी इछा है तो तैयार हो गया। बहुत दिनों से हम लोग कहीं घूमने नहीं गए थे तो सोचा इसी बहाने कही घूमना फिरना भी हो जाएगा।
यात्रा के लिये अगले दिन सुबह निकलना
था लेकिन देर रात तक जागते रहने की वजह से सुबह जागने में विलम्ब हुआ और इसी वजह
से यात्रा में निकलने में करीब-करीब दोपहर हो गई।
यात्रा के क्र्म में दिल्ली से बाहर निकलने
के बाद जिस रास्ते से हो कर हमारी वैन गुजर रही थी वह रास्ता बडा मनोरम था। सडक के
दोनों तरफ गेहूँ की फसल लहलहा रही थी। जहाँ तक दृष्टि जाती वहाँ तक केवल हरीतिमा
ही दिख रही थी। कँकरीट के जँगलों से ऊबा और बोझिल मेरा मन दूर तक पसरी हरीतिमा को
देख कर अलौकिक सुकून पा रहा था।
बहुत दिन बाद खेत और फसलों को इतने करीब
से देख रहा था। फसलों की गंध को और करीब से महसूस करने के लिये मैने वैन की अपनी
खिडकी के दरवाजे खोल दिये। हवा में घुली हुई चिर परिचित फसलों की गंध पा कर मन छूटे
हुए गाँव की ओर अनुधावन करने लगा। हालाँकि छूटे हुए गाँव कहना उचित नहीं, क्योकि गाँव से पार्थिव दूरी भले
हुई हो पर मन में गाँव की गँध हमेशा यथावत बसी हुई रही है,
जो गाहे बे गाहे मेरे भीतर गमकती रहती है।
मेरे भीतर बसे गाँव की उस सुगन्ध में उन सबकी कभी न खतम होनी वाली गंध भी है जिनसे जाने-अनजाने भी बहुत कुछ सीखा, बहुत कुछ समझा। बचपन की दोपहरों के खेल, खेल के
साथी-सँघाती सब के सब मेरे भीतर अभी तक रचे बसे हैं।
लोगों को स्नेह देने और लोगों से स्नेह पाने की ललक मुझे मेरे गँवई
परिवेश से ही मिला। महानगर में कभी कभी जब मन अकुलाता है तो शायद इसलिये भी कि यहाँ आत्मीयता की पुकार लगाने वाला कोई नहीं मिलता।
गाँव की ही बाबत मुझे याद आता है कि
फागुन का महीना आने से पहली ही गाँव के भौजाईयों की चुहल शुरु हो जाती थी। उम्र
में बडी और रिश्ते में भौजाई लगने वाली औरतों की हँसी ठिठोली पर कभी कभी झेप भी
होती थी।
छुटपन में जिस रास्ते से हो कर स्कूल
जाना होता था। उसी रास्ते में मँगल भाई का घर पड़ता था। मँगल भाई की पत्नी उम्र में
काफी बड़ी थीं लेकिन आते जाते इस तरह के मजाक करतीं कि मैं जल्दी से उस रास्ते को
पार कर जाना चाहता था। फागुन के महीने में डरा डरा रहता कि कहीं भाभी रँग से भिगो
न दें और स्कूल की ड्रेस न खराब हो जाये। भाभी ने भौतिक रूप में तो मेरे ऊपर कभी कोई रँग नही उड़ेला लेकिन आत्मीयता के जिस रँग से उन्होंने मुझे भिगोया वह रँग
आज तक मन में बहुत गहरे से लगा हुआ है। मैं उस रँग से भीतर ही भीतर आज भी भीँगता
हूँ। और उस भींगने में उन गँवई रिश्तों की मिठास से भी तरबतर होता रहता हूँ जिसका अभाव दिल्ली या दिल्ली जैसे महानगरों
के अपरिचित माहौल में हमेशा टीसता रहता है।
जिस
गाँव में मैं पैदा हुआ वहाँ ज्यादातर सँख्या मिट्टी के बर्तन बनाने वाले कुम्हार
लोगों की है। बचपन में उनका कारोबार बडा जादुई लगता था। मेरे घर के दो घर बाद ही मिट्टी
के बर्तन बनाने वाले कुम्हार लोगों की
टोली शुरु होती थी। कुम्हार टोली में तीसरा घर था धन्नी काका का। मुझे जब कभी भी
फुर्सत मिलती तो भाग कर काका के पास चला जाता और काका द्वारा चाक पर मिट्टी के
बर्तन बनाने की कला पूरी तन्मयता से देखता रहता।
धन्नी
काका बाँस के बने डँडे से चाक को गोल-गोल घुमाते, फिर
माटी का लोदा उस पर रखते और देखते ही देखते वह अनग़ढ माटी का लोदा अलग-अलग रुप वाले
बर्तनों के रुप में रुपाकार होने लगता। मैं चाक के पास ही बैठा चकित आँखों से उस
जादू को देखता रहता, काका बर्तन गढते जाते मेरे पूछने पर एक एक
बर्तन का नाम बताते जाते।
धन्नी
काका के चाक और उनकी कलात्मकता को आज जब अपने सृजन के केन्द्र में रख कर सोचता हूँ
तो लगता है कि मेरे सृजन की प्रथम पाठशाला का पहला अक्षर तो काका का चाक ही है।
अनगढ
माटी की ही तरह भीतर से भावों की निराकार लहरें उठती रहतीं है, और
उन उठती लहरों को भाषा के चाक पर रख कर सृजन करता हूँ, लेकिन
क्या सचमुच उतनी तन्मयता से सृजन की इस साधना को साध पाता हूँ, जितनी तन्मयता से काका अपने चाक पर मिट्टी के बर्तनों को गढते थे? यह
प्रश्न अभी तक अनुत्तरित है।
बहुत बड़े होने तक मैंने देखा था कि गाँव के
कुम्हार लोग अपने मिट्टी से बनाये बर्तनों से ही अपनी जीविका चलाते थे। तब लोग
खेती भी करते थे। मौसमी सब्जियों के लिये बाजार का मोहजाज नहीं होना पड़ता था।
जिनके अपने थोड़े बहुत खेत थे वे अपने खेतों में सब्जी और अनाज उगाते थे। और जिनके
पास जमीन कम होती थी, वे अन्य लोगों के खेतों में आधे पर बुआई करते थे। गाँव के
ज्यादातर लोगों की निर्भरता खेती-किसानी पर थी जिसकी वजह से लोगों में एक दूसरे के प्रति सहयोग की भावना थी।
आपसी मेल-जोल की इस भावना को सदर्भ में रख कर जब गाँव को याद करता हूँ तो कितनी बातें याद आने लगती हैं। एक समय ऐसा भी था जब गाँव में किसी के घर शादी ब्याह पड़ता था तो उसको सम्पन्न कराना पूरे गाँव की जिम्मेदारी होती थी। जब तक धान कूटने या आटा पीसने के मशीन सहज रूप से उपलब्ध नहीं थे तब तक शादी के महीने भर पहले से हर किसी के घर थोड़ा थोड़ा अनाज कूटने पीसने के लिये दे दिया जाता। और गाँव के लोग समय रहते अनाज को कूट पीस कर विवाह वाले घर पहुंचा दिया करते। बारात के लिये बिस्तर, कुर्सियाँ और खाट भी एक एक घर से इकठ्ठा किया जाता था। एक घर की इज्जत पूरे गाँव की इज्जत होती थी। सब मिल जुल कर गाते-बजाते एक एक दूसरे का सहयोग करते और एक दूसरे के उत्सवों में शामिल भी होते। सबको इस बात का डर होता कि अगर बारात आदि की खातिरदारी में कोई कमी हुई तो केवल एक घर की नहीं बल्कि पूरे गाँव की बदनामी होगी।
ग़ाँव की परम्परा में गाँव के किसी घर के दामाद,
नाना,
मामा आदि
रिश्ते के लोगों को हर घर से एक जैसा ही स्नेह और आदर मिलता था।
अभावों में जीने वाले गँवई जन के पास
सँसाधनों की कमी तो थी पर जीवन बड़ा खुशहाल था। तब लोगों के पास भविष्य की भयावह
चिंता नहीं, बस वर्तमान हुआ करता था।
मैंने अपने और आस-पास के गाँव में वैसी
जुल्म और जमींदारी नहीं देखी जैसा प्रेमचंद के उपन्यासों और कहानियों में पाया।
मैंने बचपन से ही देखा कि अपने खेतों में काम करने वाले लोगों से बिलकुल घर जैसी
अत्मीयता होती थी। मेरे घर की खेती देखने का काम गाँव के दो परिवारों के लोग करते
थे। एक परिवार था नारायण काका का और दूसरा था पियारे काका का। इन दोनों परिवारों
का लगभग पूरा जीवन मेरे खेत और खलिहान में ही बीता। जब कभी किसी काम से इन
लोगों के घरों की ओर जाना होता था ऐसा स्नेह और सत्कार मिलता था मानों अपना ही घर
हो और अपने ही लोग हों।
नारायण काका की पत्नी को तो लोग आज भी याद करते
हैं। लोक गीतों की चलती फिरती शब्द कोश थीं काकी। आज के परिवेश में जब साधन व
सुविधासम्पन्न लोगों को उदास और मायूस तथा अपनी परिस्थितियो का रोना रोते देखता
हूँ तो काकी की याद आने लगती है। सोचता हूँ कि सँसाधनों के अभाव में भी हमेशा गाते, गुनगुनाते रहने का जज्बा काकी लाती कहाँ से थीं? काकी की एक बात और थी। गाँव में किसी के भी घर शादी- ब्याह का आयोजन
पडता तो लगता था कि वह उत्सव काकी के ही घर पर है। काकी अपने पुराने चाँदी के जेवर
निकालती और पहन कर उत्सवकर्ता के घर हाजिर हो जाती। उनके पहुँचने के बाद बाद
उत्सव का महौल और वहाँ की रौनक ही बदल जाती।
अपने जीवन के अंतिम दिनों में काकी का कहीं आना जाना कम हो गया था। वो थोड़ी विक्षप्त सी हो गई थीं। कभी-कभी मेरे घर आतीं इधर
उधर की बातें करतीं और मेरे घर के किसी न किसी सदस्य के बारे में पूछतीं। ऐसे ही
एक बार मेरे घर आईं तो अपने बेटे की शिकातय कर रही थीं फिर अचानक पूछीं “दुलहिन कहवा बाडी” मेरी मां को वो दुलहिन बोलती थी। मैंने जब
बताया कि माँ को गुजरे तो साल भर हो गया
तो मुझे पकड़ कर खूब रोई थीं। काकी का अपनी माँ के लिये उस तरह से रोना देख कर मुझे समझ
आया कि क्यों हमेशा माँ दिल्ली में हम भाईयों के पास कुछ दिन रह लेने के बाद गाँव
जाने के लिये लालायित होने लगती थीं।
गाँव की लगभग हर बुजुर्ग के साथ मेरी माँ
का लगाव ऐसा ही था। माँ के रहते गाँव वाले घर पर ऐसी महिलाओं का जमावडा हुआ करता था।
सुबह और शाम उन बुजुर्ग महिला लोगों को चाय पिलाने की जिम्मेदारी माँ ने ले ली थी।
माँ को हम लोग अम्मा कहा करते थे।
अंतिम बार जब अम्मा का दिल्ली आना हुआ और
वो बीमार पडी तो छोटे बेटे की हिदायत थी कि अब यहीं रहना है,
गाँव नहीं जाना
है। छोटे भाई की बातें सुन कर अम्मा उदास हो गईं थीं। हास्पीटल से भाई के चले जाने के बाद मेरा हाथ पकड कर बोलीं कि एक बार और गांव घुमा देना, लोगों से मिल लूंगी। हास्पीटल में भी ठीक हो जाने के बाद
अम्मा के चेहरे पर बीमारी से बच जाने की चमक से कहीं ज्यादा इस बात की चमक और खुशी
थी कि कुछ दिन बाद वो गाँव जायेगी। इमरेजेंसी से नार्मल वार्ड में आने के बाद
जिस दिन अम्मा को डिस्चार्ज होना था उसके एक रोज पहले की सुबह ही उसकी हालत फिर
बिगड गई और उसे वापस फिर से इमरेजेंसी वार्ड में शिफ़्ट किया गया। उसके बाद से फिर उनकी हालत
बिगडती गई और फिर वहां से उनकी वापसी अपने घर आने के बजाय किसी और घर की ही वापसी
हो गई।
माँ की बहुत सारी बातें सँस्कार रूप में
मेरे भीतर मौजूद हैं। मेरी सूरत और सीरत भी माँ पर ही गई है। मेरा चेहरा मेरी माँ
से इतना ज्यादा मिलता जुलता है कि बहुत से लोग जो केवल माँ से ही मिले थे और मुझे
नही देखे थे, वे लोग मुझे देखते ही बोल पडते हैं कि फलाना बहिनी के
के बेटे हैं।
मुझे सबसे ज्यादा अचरज तब होता है जब
ननिहाल का कोई मुझे देख कर कहता है कि फलाँ बुआ, फलाना बहिनी के लडके हैं क्या?
इस कहन में
कितनी आत्मीयता, कितनी मिठास होती है।
इस बार की छुट्टियो में पापा को ले कर ननिहाल
मामा से मिलाने ले गया था। जिस जगह गाडी खडी कर के उतरा वहाँ एक चबूतरे पर कुछ पुरुष
और स्त्रियाँ बैठी थीं। मैंने गाडी से उतरते ही उन लोगों की ओर देखा और कहा “आप लोग तो हम लोगों को नहीं पहचानते होंगे?” तो उन्ही लोगों में एक बूढी स्त्री ने जबाब दिया “अपने गाँव के भयने और दामाद को कोई नहीं पहचानेगा बाबू?,
आप फलाना बहीनी
के बड़े लड़के हैं।" पिता जी उस बूढी औरत की बात सुन कर फफक पड़े थे।
आज के इस महानगरीय परिवेश में लोग एकलता के
दुर्वह बोझ तले दबे कुचले जा ररहे हैं, प्राईवेसी का आलम ये है कि निजी जिंदगियों में थोड़ी सी भी दखल लोगों को बर्दास्त नहीं, सँवादहीनता के इस दौर में मुझे आज अगर गाँव
याद आता है तो इसलिये भी कि गाँव के जीवन में ये सब बीमारियाँ नहीं हैं। घरों में
केवल लोगों की ही नही पशु-पक्षियों और चिड़ियों की भी आमद है। गावों ने और गाँव के खुले
वातावरण ने हवा और पानी को जहरीला होने से अभी भी बहुत हद तक बचाये रक्खा है। हम
खुले कुँए का जल भी निडर हो कर पी सकते हैं और स्वस्थ रहते हैं। बच्चों के खेलने
के लिये भी खुला आसमान और बाग बगीचे अब हैं। गाँव में हर उमर के लोगों के पास
अपना दुख दर्द कहने और सुनने के लिये लोग उनकी उमर वाले लोग हैं।
अम्मा के न रहने पर अब समझ में आता है कि
अम्मा क्यों बार बार भाग कर गाँव जाना चाहती थी? उसे बंद कमरों में घुटन होती थी। हम सब से
कहती रहती थीं कि कमरे की सारी खिडकियाँ खोल दो, खुली हवा आने दो। पार्क में टहलते लोगों
के चेहरों में आपने गाँव घर के लोगों को तलाशती थीं।
गाँव के जीवन में हम केवल लोगों से ही नही बल्कि
पेड पौधे, पश-पक्षियों से भी जुडे हुए थे। मुझे याद है मेरे पुराने वाले घर खुले
आँगन में चिडियों के लिये घान की मोजरें लटकाई हुई रहती थीं। घर की खपरैल में इतनी चिडियों
का बसेरा होता था कि दोपहर के एकांत में उनकी चह चह से सारा घर झुनझुने जैसा बजता
रहता था।
इन सब सोच विचार में और वैन की
खिडकी के बाहर के दृश्य में रमा मन कुछ जान समझ भी न सका कि यात्रा कितनी पूरी हुई
और कितनी बची हुई है। मन का स्वभाव ही ऐसा है कि कब कहाँ उड चलेगा, किस जगह की सैर कर आयेगा कुछ पता ही नहीं चलेगा।
वैन की बाँई खिडकी के पास बैठी श्रीमती जी ने खिडकी के बाहर कुछ दिखाने के लिये मेरे हाथ का स्पर्श किया तब मुझे ध्यान आया कि खेतों, फसलों के बीच से गुजरती सड़क की यह यात्रा मेरे मन को भी सुदूर किसी यात्रा पर ले कर निकल गई थी। पत्नी ने खिडकी बाहर कुछ दिखाते हुए कहा कि वो देखिये आम में बौर आ गये हैं। मैं उस ओर उन्मुख हुआ तो देखा सडक के बाई ओर किसी गाँव से सटे आम का एक नयनाभिराम बाग है।
जिस बाग को देख कर अंतस में आम के बौर की सुरभि से जाग उठी। आम, आम के बौर और उनकी सुरभि से कितना पुराना परिचय है। अपरिचित जगह पर उगे आम के पेडों और उन पर उगे बौर से भी कितनी आत्मीयता प्रतीत होती है। ऐसा लगता है जैसे इन्हें आज से नहीं बल्कि युगों से जानता हूँ। आम के इन्ही बौरों में स्त्री मनोभाव की स्वतन्तता और काम की उपासना का सँकेत पाता हूँ। प्रिय कवि कालिदाश की नायिका इन्ही बौरों को देख कर मधुमास के उत्सव की उपस्थिति का सँकेत पाती है और दृश्यमान आम्रमुकुल को मधुमास का प्राण मानते हुए, आम्रमुकुलों से ही कामदेव का अर्चन करती है।
“चूतप्रसवँ गृहीत्वा सम्पादयामि कामदेव्स्य अर्चनम”
आज भले ही गाँव बागहीन हो गये हों लेकिन एक समय था जब भारत का शायद ही कोई ऐसा गाँव था जिसके आस पास आम या महुए के बाग न हों।
पशु-पक्षियों और पेड-पौधों से हम भारतीयों का लगाव पुरातन है। गाँव का अनपढ आदमी भी पेडों का और जल का महत्व समझता था। इसीलिये वह पुण्य के लिये या तो पेड लगाता था या कुँए और तालाब बनावाता था।
लोक गीतों में भी मनुष्य और प्रकृति का सँबंध खूब मिलता है। यह सम्बंध दर्शाता है कि गाँव के लोगों को वृक्षों आदि का महत्त्व पता था। गाँव की गँवार, अनपढ औरतें भी विवाह के लिये दुल्हन लाने जाते दुल्हे को भी जिन मँगल गीतों से आशीषती हैं उनमे भी आम और महुए का ही जिक्र मिलता है।
(आम की तरह वर मँजरित हो, महुए की तरह पुष्पित हो,
पुरईन की तरह प्रसृत हो और कमल की तरह विहँसित हो)
विवाह के बाद अपने नये घर के ले लिये विदा होती स्त्री भी अपने पिता से यही आग्रह करती है कि पिता जी दरवाजे की नीँम मत कटवाना क्योकि नीम चिडियों का बसेरा है।
“निमिया चिरईया के बसेर”
शकुंतला को उसके पतिगृह को विदा करने के पहले कण्व ऋषि तपोवन के
वृक्षों से अनुमति लेते हैं।
पातुं न प्रथमं व्यवस्यति जलं
युष्मास्वसिक्तेषु या
नादत्ते प्रियमण्डनापि भवतां स्नेहेन
या पल्लवम् ।
अद्ये वः कुसुम प्रसूतिसमये यस्या
भवत्युत्सवः
सेयं याति शकुन्तला पतिगृहं
सर्वैरनुज्ञायताम् ॥
(जो शकुंतला तुम्हें जल सींचे (पिलाए) बिना (खुद) जल पीने का विचार
नहीं करती थी, जो आभूषण प्रेमी होने पर भी तुम्हारे प्रति प्रेम के
कारण (तुम्हारे) नये पत्तों को नहीं तोडती थी, तुम्हारे
प्रथम पुष्प आने के समय जिसका जिसका उत्सव होता था’ वही
शकुंतला अपनी पति ग़ृह को जा रही है, तुम सब अपनी स्वीकृति दो।)
शकुंतला भी विदा होने के पहले लता का आलिंगन करते हुए अपने पिता से कहती है कि पिता जी, मेरी तरह ही इसका भी ध्यान रखियेगा।
“तातः! अहमिव इयम त्व्या चिंतनीया”
वृक्षों-वनस्पतियों और जीव-जंतुओं से यह स्नेह केवल साहित्य में नहीं बल्कि लोक जीवन में भी यथावत मिलता है। इसिलिये गाँव में रसोई की पहली रोटी घर के पालतू पशुओं के लिये निकाली जाती है। दुधारु पशुओं का दुध निकालने के बाद भी एक थन का दूध उसके बच्चे के लिये छोड दिया जाता है।
यात्रा के दौरान दिखी इन आम्र मँजरियों ने आज कितना कुछ याद दिला दिया है। इन्हें देख कर अपने बचपन के बाग को याद करने लगता हूँ, तो गाँव के पूरब वाले आम का बडा सा बाग याद आने लगता है। बाग में आम, महुए, शीशम और जामुन के मिले जुले पेड थे। आम का वह बाग राह चलते पथिको का विश्रामालय भी था।
पतझर के भीतर से आगामी वसंत की झीनी पुकार मैं तभी सुनने लगता था जब बाग के पेडों की पत्तियाँ सूख सूख कर जमीन पर गिरने लगती थीं और पुरे बाग में सूखे पत्तों पर चलते हुए मर्र-मर्र की ध्वनि उठने लगती थी। एक समय होता जब पूरा बाग सूखे हुए पत्तों के ढेर से भर जाता था। गाँव में गरीब तबके के लोग उन पत्तों को भोजन आदि पकाने के लिये जलावन के रूप में इस्तेमाल करते थे।
यही मौसम होता था जब धरती में नये रस का सँचार होता था। किसान अपनी खडी फसल को उम्मीद भरी निगाह से देखने लगता था। लोग धीरे धीरे खेत खलिहानों की ओर उन्मुख होने लगते थे।
गेहूँ की फसल जब पक जाती तब खेतों की अलग ही रौनक होती थी। ऐसा लगता था मानों हर ओर सोने की खडी फसल लहलहा रही हो।
जगह जगह खेतों से चईता (चैत के महीने में गाया जाने वाला गीत) गाने का स्वर सुनाई देता था। गर्मियों से बचने के लिये लोग खेतों की फसल रात में काटा करते थे। चाँदनी रात में खेतों में फसल की कटाई का दृश्य बहुत ही मनोरम होता था। वैसी सुखद और मनोरम रातों के लिये मन आज भी ललकता है। खेतों में, खलिहानों में काम करने वाले गँवई लोगों के बीच आपस में खूब हँसी ठिठोली होती थी।
करीब महीना भर लोगों का डेरा खलिहान में ही होता था। खेतों से काट कर
अनाज के बोझ खलिहान में इकठे किये जाते। फिर उसकी मडाई होती और अनाज घर पर लाया
जाता।
यात्रा के दौरान गाडी
जितनी गति से आगे भाग रही थी मेरा मन उतनी ही गति से सुदूर बसे अपने गाँव और खेत
खलिहानों की ओर भागा जा रहा था। सच में यात्राएं मन को भी कितनी कितनी यात्राओं से सुरभित करती चलती हैं।
जिस यात्रा पर हम लोग निकले थे उसके गँतव्य तक पहुंचते पहुंचते शाम हो गई। जिस जगह हमें ठहरना था उस जगह के परिसर में पहुंचते ही एहसास हुआ कि सच में मित्र ने इस जगह की झुठी तारीफ नहीं की थी।
वह शहर से दूर एक रेजार्ड था, जिसमें पूरा गँवई वातावरण और शांति थी। वहाँ
किसी तरह का शोर नहीं था। पूरा परिसर चिडियों की चह-चह से गुंजायमान था। रेजार्ड के
शांत कैम्पस के अपने अपने कमरों में पूरी तरह सेट होते होते रात हो गई।
हमारे आवास के पिछले हिस्से में घास का बहुत बडा मैदान था। जिसका आखिरी हिस्सा परिसर में चारों से फैले जँगल से मिलता था। मैदान के एक हिस्से में एक तालाब था। और खाली मैदान में जगह जगह आम, महुआ और भी ढेर सारे सुगंधित फूलों के पेड थे। मैं अपने अवास के पिछ्ले हिस्से के सन्नाटे में सामने के जँगलों को निहार रहा था।
बहुत दिन बाद रात के सन्नाटे में ऐसा लगा मानों जीवन का कोई खोया हुआ
सँगीत सुन रहा हूँ। जिस सँगीत ने भीतर के अदृश्य
अनगिनत तारों को झँकृत कर दिया था। उस रात ऐसा लगा मानो बहुत दिन बाद खुद से मिला
था। मेरे मित्र ने पीछे से आ कर हौले से मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए कहा “शहर से जब ऊब जाता हूँ तो यहीं एकांत
में आ कर कुछ दिन रहता हूँ”
मैं मित्र की बातों को सुन रहा था और मन ही मन अपने गाँव के बारे में सोच रहा था।
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेंद्र जी की हैं।)
सम्पर्क
मोबाईल - 8050743616
मेरे द्वारा बताया नहीं जा सकता कि इस आलेख के एक-एक वाक्य से मैं ख़ुद को कितना जुड़ा हुआ महसूस कर रहा हूँ। एक ग्रामीण हूँ और आजीवन रहना चाहूँगा
जवाब देंहटाएं- अनुज पाण्डेय, गोरखपुर
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
हटाएंअनूप जी आभार आपका।
हटाएंसरस,सुंदर और रोचक निबंध के लिए दुबे जी।एवं पहली बार को बधाई.केवल वर्तनी संबंधी कुछ भूलें रह गईं हैं। हम हिन्दी वाले की ज़िम्मेदारी बनती है कि सही- सही लिखें। वैसे यह सब जिया हुआ सुखद यथार्थ है। उन दिनों में लौटने का मन करता है।
जवाब देंहटाएंगाँव की पुरानी यादें जीवन्त हो उठीं बहुत सुन्दर वर्णन भाई गाँव में भी अब शहरीकरण अपना प्रभाव जमा चुका है हम सब तो अभी भी गाँव से जुड़े हुए हैं लेकिन अब वो पहले वाला प्रेम नहीं दिखाई देता है भाई को शुभाषीष
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