शशिभूषण मिश्र का आलेख कारपोरेट-संस्कृति और इक्कीसवीं सदी की हिन्दी कहानी
कारपोरेट-संस्कृति और इक्कीसवीं सदी की हिन्दी कहानी
शशिभूषण मिश्र
बीसवीं सदी के अंतिम दशक से शुरू हुई वैश्वीकरण की प्रक्रिया से उपजे कारपोरेट सेक्टर ने नयी सदी के दो दशकों के भीतर न केवल अपने व्यावसायिक प्रतिमानों को सर्वशक्तिसंपन्न बना लिया है बल्कि निगमों और मल्टीनेशनल कंपनियों द्वारा एक नयी कार्य-संस्कृति विकसित कर उसे स्वीकारने के लिए पूरी दुनिया को बाध्य किया है । कुछ विकसित देशों की बात छोड़ दी जाए तो पूरी दुनियां में ‘इस कारपोरेट तंत्र’ के भीतर एम्लाइज़ की दशा बहुत चिंताजनक है। दुनिया भर में फैल चुकी मल्टीनेशनल की कार्य संस्कृति में शोषण और दमन की जितनी बारीक प्रक्रिया चल रही है, उसे देखा जान हौलनाक है।
हाल के वर्षों में हिन्दी में कुछ ऐसी कहानियाँ दिखाई देती हैं जिनमें कारपोरेट जगत की चमकती हुई उपलब्धियों के भीतर उस शोषण और दमन को उभारने की कोशिश की गयी है, जिसे अक्सर पूंजी प्रायोजित प्रचार तंत्र द्वारा ढँक दिया जाता है। इन कहानियों को पढ़ते हुए हम कारपोरेट की जिस दुनियां में प्रवेश करते हैं वहाँ देखते हैं कि यहाँ काम करने वाले एम्प्लायी के न तो काम करने के घंटों की कोई सीमा है, न ही टार्गेट के कोई परिधि ! असाधारण लक्ष्यों को पाने के दबाव के बीच काम करना कितना कठिन होता होगा; यह समझना बहुत मुश्किल नहीं है ! इस ‘पाठ-आधारित’ लेख के माध्यम से ‘कारपोरेट संस्कृति की उभरती प्रवृत्तियों’ को जानने-समझने की कोशिश की गयी है ।
मनोज रूपड़ा |
(एक)
“कारपोरेट कामकाज के डेटा में किसी के आंसुओं को दर्ज़ करने के लिए कोई ऑप्शन नहीं होता और दुःख से भरे दिलों में किसी फीडबैक के लिए कोई जगह नहीं होती ।”
- ‘लाइफ लाइन’ (मनोज रूपड़ा)
‘लाइफ लाइन’ कारपोरेट सेक्टर की कार्य-संस्कृति का स्याह रूपक है जिसे पढ़ते हुए रोंगटे खड़े हो जाते हैं । यह हिन्दी कहानी का नया प्रस्थान बिंदु है जिससे गुज़रते हुए पाठक अवसाद से भर जाता है । पल प्रतिपल पत्रिका के 79 वें अंक में छपी यह कथा एक ही नामी कंपनी में काम करने वाली दो बहनों की ऐसी दास्तान है जिसे एक पाठक के रूप में मेरे लिए भुला पाना संभव नहीं हो सका। कहानी में इस बात के साक्ष्य हैं कि तकनीक का विस्तार मशीनों में ही नहीं मानव जीवन में भी हुआ है। अपने वर्कर्स को मशीन की तरह उत्पादक इकाई मानने वाले ‘कारपोरेट सेक्टर’ में काम कर रही इन दोनों बहनों के जीवन में दो सबसे बड़े कष्ट हैं- पहला, उनकी माँ से जुड़ा है, जो मानसिक रोग के इलाज के चरणों से गुजरने के बावजूद भी अभी अस्पताल में है जिसके लिए वो समय तक नहीं निकाल पातीं और दूसरा उनकी ‘कंपनी के आफिस’ से जुड़ा है जहां ‘काम की कोई सीमा नहीं है और हर नया काम दिमागी मशक्कत की इंतहा पर जाकर ख़त्म होता है ।’ हर तिमाही के अंत तक तनाव इस कदर बढ़ जाता है कि बड़ी बहन का ब्लड प्रेशर इतना अधिक बढ़ जाता है कि उसके नाक से खून तक आने लगता है।
कहानी इन बहनों के जीवन के एक ऐसे नाजुक मोड़ से शुरू होती है जहां एक हाईटेक शहर के आईआईटी हब के बीचोंबीच एक बारह मंजिला इमारत में तीसरे फ्लोर में किराए के उनके फ्लैट का दरवाज़ा महीनों से खुला नहीं है । मार्केटिंग आपरेशन और सेल्स के नतीजों में ख़ुद को निचोड़ देने के बाद अगली सुबह सेल फोन में आए काल के बाद से ही बड़ी बहन को चुप्पी का दौरा पड़ा है ; उसने बोलना-चालना बिलकुल बंद कर दिया है । यहीं से शुरू होती है घुटन भरी आत्महंता परिणति जिसमें दोनों बहने न केवल कहीं भी आना-जाना बंद कर देती हैं बल्कि खाना-पीना बंद करने के साथ जीने की संभावनाओं का भी गला घोंट देती हैं । कहानी के अंत को देखना और भी त्रासद है, जिसमें दो महीने बाद उस फ्लैट का दरवाज़ा तोड़ा जाता है और दुर्गन्ध का ऐसा भभका आता है कि सब नाक बंद करके पीछे हट जाते हैं । फर्श पर दोनों लाशों पर भिनभिनाती मक्खियाँ और चीटें हैं,जमीन पर बिखरी हैं ब्रांडेड कास्मेटिक्स की पिचकी बोतलें और खाने का सामान ।
दुनिया के हर एक बड़े शहर में अजर्रा उग आयीं इन कारपोरेट बिल्डिंग्स के भीतर की दुनियां कितने तनाव से भरी है, इसका अंदाजा इस कहानी से लगाया जा सकता है। अकूत मुनाफ़ा कमाने की होड़ में अपने इम्प्लाइज पर असीमित काम और टार्गेट का इतना बोझ लाद दिया जाता है कि वो अपनी ‘आजीविका की निर्मम शर्तों’ और जीवन के सबसे बड़े स्वप्नों से लगातार दूर होता जाता है। इन निर्मम परिस्थितियों में दीगर जिम्मेदारियों को निभाने की बात तो दूर, अपने क़रीबी रिश्तों के बीच संतुलन बनाना दुष्कर हो जाता है। बड़ी बहन की छटपटाहट से निकले शब्दों पर गौर करें- ‘मेरे एरिया में कम्पनी के प्रोडक्ट अगर परफार्म नहीं कर पा रहे हैं तो इसकी जिम्मेदार मैं या मेरी सेल्स टीम नहीं है । हमने दिन रात मेहनत की है। अपने हर तरह के पर्सनल प्राब्लम्स को भूलकर अपने आप को पूरा झोंक दिया... लेकिन जब जीडीपी लगातार तीन तिमाही तक गिरता है और स्टाक मार्केट में भी लगातार गिरावट आ रही है,तो कोई क्या कर सकता है? आप सिर्फ कम्पनी की बाटम लाइन और टाप लाइन को देख रहे हैं, हमारा स्ट्रगल आपको दिखाई नहीं दे रहा है । क्या आप यह उम्मीद करते हैं कि अगर मैं अपना एक हाँथ काट कर डेस्कटाप पर रख दूंगी तो मार्केट में बूम आ जाएगा ?’ (पल प्रतिपल, 79, पृष्ठ-187)
कहानी की दृश्य क्षमता की दाद देनी पड़ेगी। भौचक आँखों से इस भयावह दृश्य को हम अपने सामने घटित होता हुआ देखते और हाथ मलते रह जाते हैं। यह देखना जितना डरावना है उससे कहीं अधिक डरावना है- चारो ओर पसरा ‘आत्महंता मौन’ जो कहानी से बाहर निकल कर हमारे देशकाल के ओर-छोर तक पसर जाता है। पूर्वदीप्ति शैली में लिखी इस कहानी की परिस्थितियां और दृश्य कई बार अविश्वसनीय और आभासी प्रतीत होते हैं। क्या यह अविश्वसनीयता और ‘आभासी यथार्थ’ हमारे समय की पहचान नहीं है! रूपड़ा के पास समकालीन ‘बाजारोन्मुखी रणनीतियों’, ‘व्यापारिक सरोकारों और ‘कारोबारी कारस्तानियों के भीतर तक पैठने की कला है। कारपोरेट पूंजी और ब्रांड संस्कृति की लकदक के बीच काम कर रही युवा पीढ़ी की मानसिकता का अचूक रेखांकन उनकी कथा दृष्टि का अनिवार्य सूत्र है।
गीत चतुर्वेदी |
(दो)
‘किसी को जीवन से निकाल देना आसान होता है, नौकरी से निकालना उतना ही मुश्किल…वह खुद उन दस फीसदी लोगों देखना चाहता था,जो एक लम्बे समय से एक ज़िन्दगी का हिस्सा बने रहने के बाद उस ज़िन्दगी से बाहर हो जाने वाले थे ।’
- ‘पिंक स्लिप डैडी’ (गीत चतुर्वेदी)
भूमंडलीकरण-उदारीकरण की प्रक्रिया के चंगुल में फंसे विकासशील देशों के करोड़ों युवाओं के सामने रोजगार के संकट और उससे उपजे कई जरूरी सवालों से मुठभेड़ करती गीत चतुर्वेदी की प्रयोगधर्मी कहानी ‘पिंक स्लिप डैडी’ को एक मानीखेज तहकीक़ात से जुड़ने जैसा है । कहानी प्राइवेट कारपोरेट सेक्टर की बाहर से रंगीन किन्तु भीतर से उघड़ी और विगलित दुनियां की तस्वीर खींचती है। आर्थिक परिदृश्य में चारो ओर अपना वर्चस्व स्थापित करती कारपोरेट शक्तियां हमारी आँखों से दृष्टि छीनकर केवल अपनी दृष्टि प्रत्यारोपित करना चाहती हैं । कारपोरेट पूंजी का सबसे बड़ा लक्ष्य है कि ‘उसके सपनों को सभी अपनी आँख से देखें’।
‘पार्थ ग्रुप ऑफ़ कम्पनीज’ के बहाने कहानी कारपोरेट जगत की नीतियों और उसमें कार्यरत कर्मचारियों के जीवन का ‘क्लीनिकल ट्रायल’ करती है। इस क्लीनिकल ट्रायल में आदमियत,संवेदना,सम्बन्ध सब बेमानी साबित होते हैं। कहानी राजकुमार पसरीचा जैसी नामी कारपोरेट हस्ती के माध्यम से इस पूरी बिरादरी और यहाँ काम करने वाले नामचीन बिजनेस टाइकून दाधीच की सफलताओं के पीछे की निर्मम सचाइयों की नोटिस लेती सवाल खड़ा करती है कि क्या मनुष्य बने रहते हुए बुलंदियों तक पहुंचने के सारे रास्ते बंद हो चुके हैं? क्या दूसरों को गिराए बिना कारपोरेट सेक्टर में आगे बढ़ने का कोई और विकल्प नहीं है? कहानी दिखाती है कि दुनिया भर में कारपोरेट घरानों के बीच अधिक से अधिक पैकेज देकर कुशल प्रबंधकों को ‘ख़रीदने’ की होड़ लगी है। मैं इसे ख़रीदना ही कहूँगा वरना ‘गलत चीज के मुक़ाबले एक सही हार को प्रिफर करने वाला’ प्रफुल्ल शशिकांत उर्फ़ पी. एस. दाधीच इतने स्तर तक नहीं गिर सकता था कि साथ काम करने वालों की मौत पर भी अपनी तरक्क़ी की संभावना देखे! कहानी दाधीच के माध्यम से न केवल प्राइवेट कारपोरेट सेक्टर में बेहद सफल व्यक्तियों की ‘चंटई’ को बेनक़ाब करती है बल्कि उनकी धूर्तता और लम्पटता को भी उघाड़ती चलती है। ‘स्पेशल मैनेजर ब्रांडिंग’ पद पर आने के बाद दाधीच ने कम्पनी की मार्केट वैल्यू बढ़ाने के लिए ऐसा हर ऐसा रास्ता अपनाया जो कम्पनी में उसके कद को बढ़ाता हो। जी. एम. की कुर्सी तक पहुँच चुके पी. एस. दाधीच ने कारपोरेट दुनिया से ही यह सबक सीखा है कि उंचाई तक पहुँचने के लिए मेहनत से ज्यादा चालाकी और पैतरेबाजी की ज़रूरत पड़ती है और उसने हर जगह इस सबक को साबित भी किया।
अपनी मार्केट वैल्यू के लिए कारपोरेट वो सब करती-करवाती हैं जिसे गैरकानूनी कहा जाना चाहिए पर यह सब छिपे रास्तों से होता है। प्रॉफिट के लिए छिपे रास्तों से काम करना कारपोरेट कार्य-संस्कृति की अनिवार्य किन्तु अदृश्य रणनीति है। वाइस प्रेसिडेंट रामनाथ पोतदार इन्हीं छिपे रास्तों का माहिर खिलाड़ी है जिसके हुनर ने पार्थ ग्रुप को बिजली और तेल-क्षेत्र की पोलिटिकल डीलिंग में बड़ी कामयाबी दिलवाई है। ध्यान दिया जाना चाहिए कि आखिर भारत में सरकारें क्यों इन कारपोरेट शक्तियों पर मेहरबान हैं! बहुत पीछे न जाएं और पिछले ही वर्ष की स्थिति देखें कि जुलाई 2019 में भारत की वित्रमंत्री ने कारपोरेट सेक्टर को कई रियायतें दीं जिनमें कारपोरेट टैक्स में कटौती के अलावा सीएसआर के नियमों में भी बदलाव प्रमुख हैं। कारपोरेट टैक्स घटाने से सरकार के राजस्व में एक साल में 1.45 लाख करोड़ की कमी आएगी । गम्भीरता से विचार कीजिए कि ‘हमारी’ सरकार किसके साथ है- मजदूरों, किसानों के साथ या कारपोरेट के साथ! इस बेहद अहम बिंदु पर विचार किया जाना बेहद ज़रूरी हो जाता है कि, ‘पार्थ ग्रुप ऑफ़ कम्पनीज’ जैसी कंपनियाँ किसके बल पर फल-फूल रही हैं!
कहानी में विन्यस्त स्त्री चरित्रों के माध्यम से भी कारपोरेट दुनियां की कई छिपी सचाइयाँ खुलती हैं। टैरो कार्ड रीडर पृशिला पांडे उर्फ़ मदर सेबेस्टियन इनमें से एक है, जिसके हारोस्कोप मुंबई से निकलने वाले अखबारों में हर सप्ताह छपते हैं और जिसके पास उस शहर के बड़े बड़े पोलिटिकल डैडीज के बहुत सारे राज छिपे हैं। यही नहीं दाधीच जैसे जाने कितने कारपोरेट सेक्टर के लोग सफलता के लिए पृशिला के बताए टोटकों को बराबर आजमाते हैं और अपनी सफलता में उन्हें महत्वपूर्ण मानते हैं। कहानी बहुत गहरे आशय के साथ कारपोरेट दुनियां में फैले अंधविश्वास और डर को रेखांकित करती है। यह देख कर हैरानी होती है कि अपार आर्थिक मुनाफ़े और वैभव में डूबी कारपोरेट दुनियां में वैज्ञानिक टेम्परामेंट का कितना टोटा है! ऐसे में ही पृशिला पांडे जैसों को खूब स्पेस मिलता है और वो इसे हैंडल भी बखूबी करती हैं। दाधीच जैसे जाने कितने बड़े मुर्गे पृशिला की शरण में जा कर न केवल सफलता की भूख को और बढ़ाते हैं बल्कि अपनी वासना की भूख को भी शांत करते हैं। पृशिला पांडे जैसी बेहद सफल टेरो कार्ड रीडर्स की असल दुनिया में आप जैसे जैसे घुसने की कोशिश करेंगे वैसे वैसे भारत की व्यावसायिक राजधानी के सामाजिक-सांस्कृतिक संरचना की तहें खुलती जाएँगी।
कहानी के अहम क़िरदार जयंत लाल के माध्यम से लेखक ने ऐसे कई संकेत किए हैं जिससे कारपोरेट दुनियां की नामी हस्तियों के कारनामों की पोल खुलती जाती है। ‘पार्थ ग्रुप ऑफ़ कम्पनीज’ की बुनियाद कहे जाने वाला शख्स जयंत लाल, सिर्फ कम्पनी का वाइस प्रेसीडेंट नहीं था बल्कि, एम. डी. राजकुमार पसरीजा के बाप यानी कम्पनी के संस्थापक चंदूलाल पसरीचा (प्रेसीडेंट) का जायज़ न सही पर था उसी की औलाद। प्रोफेशनल पावर के साथ उसका पर्सनल पावर भी इतना मजबूत था कि कई बार ठान लेने के बाद भी राजकुमार पसरीचा उसका कुछ नहीं बिगाड़ पाया। दूसरों के व्यक्तिगत स्पेस का अतिक्रमण करना, हर उभरते एम्लाई को शक की निगाह से देखना उसके व्यक्तित्व का अनिवार्य पहलू है। उसे देख कर लोग कहते हैं कि अगर जयन्त लाल बिल्डिंग कंस्ट्रक्शन फील्ड में होता तो सबसे बड़ा माफिया होता। जब उसे पार्थ कंस्ट्रक्शन का जिम्मा सौपा गया था; उसने बहुत कुछ ऐसा कर दिखाया जिसे मुंबई जैसे बड़े मेट्रोपोलिटन के सबसे सफल लोग भी नहीं कर पाए थे। कहानी दिखाती है कि उसने धार्मिक क्षेत्र में अपना एक बड़ा साम्राज्य खड़ा कर लिया था इसलिए पार्थ को हमेशा के लिए अलविदा कहना चाहता था।उद्योग में बेहतरीन मौका देखते हुए उसने कम्पनी का साथ हमेशा के लिए छोड़ दिया। कहानी धर्म के कारोबार पर बराबर नज़र बनाए रखती है।
कारपोरेट नीतियों का सबसे पीड़ादाई पहलू कर्मचारियों की छटनी है, जिसे कहानी बड़ी संजीदगी से उठाती है। ‘पार्थ ग्रुप ऑफ़ कम्पनीज’ अपने दस फीसदी कर्मचारियों को ‘पिंक स्लिप’ थमाती है, यानी दस फीसदी वर्कर्स की छटनी का आदेश। स्लोडाउन की विभीषिका के सामने कर्मचारी मजबूर थे और हर कोई कुछ भी करके अपनी नौकरी बचा लेना चाहता था पर उनमें से दस फीसदी को पीएफ, ग्रेच्युटी और दो महीने की सैलरी दे कर हमेशा के लिए बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। छटनी के काम को प्रफुल्ल चन्द्र दाधीच बखूबी अंजाम तक पहुंचाता है। ऐसे लोमहर्षक दौर में कहानी पढ़ने का सफ़र और भी कठिन रहा जब पूरा विश्व ‘मंदी के अभूतपूर्व और भयावह संकट’ से गुज़र रहा है और देखते देखते हजारों लाखों नहीं करोड़ों युवा अपनी नौकरी से हाँथ धोते जा रहे हैं।
कहानी के दृश्यों से बाहर निकल कर आप कोरोनाकालीन भारतीय आर्थिक परिदृश्य को देखें तो पता चलेगा कि भारत की सबसे बड़ी कारपोरेट हस्ती ने फेसबुक के साथ 43574 करोड़ की डील की है मगर उसके पास अपने कर्मचारियों को सैलरी देने के लिए पर्याप्त राशि नहीं है। इसलिए उनकी सैलरी में कम्पनी तीस प्रतिशत तक की कटौती कर रही है। मुझे पूरा यकीन है कि यह ‘दिखावे वाली घोषणा है’ सैलरी कितनी मिलेगी ये तो कर्मचारी ही बताएंगे! बहरहाल, केवल मुनाफ़े के लिए काम करने वाले ऐसे निगमों में अपने कर्मचारियों को सैलरी देने के नाम पर हाहाकार मची है जबकि अभी मार्च अंत तक काम हुआ है और केवल अप्रैल का महीना पूर्ण बंदी में गुजरा है। कोरोना काल में आर्थिक साम्राज्यवाद को ताक़त देने वाले गिरोहों का चेहरा नंगा हो चुका है।
राकेश बिहारी |
(तीन)
“कम्पनी वालों की चले तो वे हमें भी कम्प्यूटर ही बना डालें” - ‘और अन्ना सो रही थी’
(राकेश बिहारी)
हिन्दी के रचनाशील परिदृश्य में कथा-आलोचक के रूप में स्थापित हो चुके राकेश बिहारी के कथाकार पर कम ध्यान दिया गया जबकि उनके पास कारपोरेट दुनिया की तलस्पर्शी समझ वाली कहानियां हैं। अफ़सोस के साथ कहना पड़ रहा है कि हिन्दी में इस विषय पर बहुत कम कहानियाँ हैं और राकेश बिहारी शायद अकेले कहानीकार हैं जिनके पास कारपोरेट जगत की एक नहीं कई कहानियाँ हैं। उनकी कहानियाँ भूमंडलीकरण के गर्भ से उपजी शोषण की निर्मम नीतियों और दमन की बारीक प्रक्रिया का अनुभवजन्य साक्षात्कार कराती हैं। इस सन्दर्भ में ‘और अन्ना सो रही थी’ तथा ‘वह सपने बेचता था’ उल्लेख्य कहानियाँ हैं।
‘और अन्ना सो रही थी’ एक मल्टीनेशनल कम्पनी के माध्यम से उस कार्य-संस्कृति को उजागर करती है जहां ‘पीटर’ जैसे मेहनती और जिम्मेदार कर्मचारी को भी नौकरी छोड़ने के लिए बाध्य कर दिया जाता है। प्राइवेट सेक्टर के बारे में आम तौर पर माना जाता है कि यहाँ सरकारी विभागों की तरह राजनीति नहीं होती और प्रतिभाओं को बड़े ही सम्मान से देखा जाता है जबकि वास्तविकता में ऐसा नहीं है, कम से कम ‘प्रीपेस इण्डिया लिमिटेड’ की कार्य-संस्कृति को देख कर तो ऐसा नहीं लगता। विडंबना ये कि पीटर जैसे कार्य-कुशल और प्रतिभाशाली कर्मचारियों को बेहतर परफार्मेंस के बाद भी ‘बॉस’ द्वारा दरकिनार किया जाता है। जिस प्रीप्रेस इंडिया लिमिटेड की एक्सपोर्ट यूनिट में पीटर काम करता है वहाँ ओवर टाइम और कम प्रोडक्शन के नाम पर इम्प्लाइज को बॉस द्वारा धमकाया जाना आम बात है। पीटर की सुपरवाइजर हरप्रीत की रिपोर्ट है कि पीटर साढ़े पांच बजे के बाद आफिस में नहीं रुकते जबकि पीटर का तर्क है कि समय से अपनी सारी जिम्मेदारियों को पूरा करना जरूरी है न कि बॉस को खुश करने के लिए देर तक रुकना। कहानी उस कार्य-संस्कृति को संदेह से देखती है जिसमें ‘बॉस’ ही सब कुछ हो। ऐसे माहौल में एक मेहनती और स्वाभिमानी व्यक्ति के लिए काम करना थोड़ा कठिन हो जाता है। कम्पनी के पर्सनल मैनेजर बरुआ भे पीटर को एक क़ाबिल कॉपी एडीटर मानते हैं पर उनका तर्क है कि ‘प्रमोशन और इन्क्रीमेंट’ के लिए इतना ही काफी नहीं हैं। बरुआ का संकेत बहुत स्पष्ट है कि केवल बढ़िया काम ही से बात बनने वाली नहीं है वरन बेहतर करिअर के लिए बॉस का खुश होना बेहद जरूरी है। अमूमन पूरे कारपोरेट जगत में एम्लाई का देर तक रुकना वहाँ की कार्य संस्कृति का अनिवार्य पहलू बन गया है।
कम्पनी की इस यूनिट के हेड ‘मिस्टर तलवार’ हैं जो स्वभाव से न केवल रंगीनमिज़ाज हैं बल्कि ऑफिस में बारीक राजनीति के कर्णधार भी हैं। वो एक तरफ पीटर का इन्क्रीमेंट रोक देते हैं तो दूसरी तरफ अपनी ख़ास ‘अलका’ को एक साथ दो प्रमोशन देते हैं। बॉस की चमचागीरी में कुशल और रंगीनमिजाजी का फायदा उठाने वालों के सामने पीटर के काम की क्या बिसात! बहरहाल, मिस्टर तलवार को उनके बेहतर काम के पुरस्कार स्वरूप कम्पनी उन्हें यूरोप भेजती है और उनकी जगह कारपोरेट ऑफिस से मिस्टर डी. के. आते हैं। कारपोरेट ऑफिस से आए नए बॉस से यूनिट के कर्मचारियों को बड़ी उम्मीदें थीं कि शायद कुछ माहौल बदले, मगर डी. के. ने तलवार को भी पछाड़ दिया - आठ घंटे के बजाए 10-12 घंटे काम लेना, कर्मचारियों को डांटते हुए गाली तक उतर आना और बात बात में नौकरी से हटाने की धमकी देना। मिस्टर तलवार की तरह डी. के. को भी किसी ने बता दिया था कि पीटर अपनी पिछली जॉब में यूनियन में जुड़ा था और उसने वहाँ हुई हड़ताल का नेतृत्व भी किया था। तो पीटर डी. के. की नज़रों में भी चढ़ गया था और तब तो और ज्यादा जब कम्पनी के ई.डी. मिस्टर तनेजा ने यूनिट के दस वर्ष पूरे होने के ‘ऐनुअल डे’ समारोह में पीटर की रिपोर्ट की न केवल खुली तारीफ़ की थी बल्कि डी. के.से यह भी कहाँ था कि कारपोरेट आफिस में होने वाली मंथली मीटिंग में वह पीटर को अपने साथ जरूर लाएं।
पीटर का दिल्ली से बंगलुरु ट्रांसफर कर दिया जाता है, वो भी ऐसी यूनिट में जहां उसके लिए कोई काम ही नहीं है; यानि एक तरह से बाहर का रास्ता दिखाने का प्रबंध डी.के. कर चुका होता है। क्या इतना बड़ा फैसला ई. डी. या पर्सनल मैनेजर की सहमति के बिना संभव था? हालाकि कहानी ऐसा कोई संकेत नहीं करती। पीटर ने अपनी बेटी के अभी बहुत छोटी होने और दिल्ली में वाइफ के वर्किंग होने के मजबूत कारण बताए पर कुछ भी न सुना गया। कंपनी जानती थी कि पीटर को नौकरी छोड़ने के लिए किस तरह मजबूर किया जा सकता है और अंततः पीटर को इस्तीफ़ा देना पड़ा। पीटर को अपनी नौकरी जाने का अफ़सोस तो था ही पर ऐसे समय में टेलीविजन पर दिखाई जा रही ख़बर ने उसे भीतर तक हिला दिया था कि ‘सरकार ने भारत विद्युत निगम सहित चार सार्वजनिक उपक्रमों के विनिवेश का फैसला लिया है।’ पीटर की पत्नी इसी भारत विद्युत निगम की कर्मचारी है। पीटर के उठे हुए कौर के बीच में ही रुक जाने और बेटी अन्ना के भविष्य को लेकर उसकी आँखों में कांपती दहशत के साथ कहानी का अंत पाठक को बेचैन कर देता है।
‘वह सपने बेंचता था’ कहानी ‘और अन्ना सो रही थी’ का अगला चरण हैं जिसमें समाज को बदलने और जनवादी संघर्ष के लिए तत्पर रहने वाला पीटर अब एक कम्प्लीट मार्केटिंग प्रोफेसनल बन गया है। कारपोरेट की शोषणकारी नीतियों के खिलाफ़ आवाज उठाने और हड़ताल में कर्मचारी यूनियन का नेतृत्व करने वाला पीटर अब उन्हीं कारपोरेट नीतियों के पक्ष में खड़ा है। कहानी पीटर के बहाने वामपंथी विचारधारा के अंतर्विरोधी प्रवृत्ति की भी छानबीन करती है, जिसका शिकार आज की युवा पीढ़ी है। कहानी का अंतिम हिस्सा पाठक को झकझोर कर रख देता है। जिस राजकुमार नाम के व्यक्ति को पीटर ने अपनी एजेंसी में पार्ट टाइम एकाउंटेंट के रूप में रखा था, उसकी आप बीती सुन कर बेचैन हो जाना स्वाभाविक है – ‘मैंने पीटर का काम छोड़ दिया है। वह बहुत धूर्त आदमी है। शुरू में तो उसने कहा था कि अभी हमने कम्पनी शुरू की है इसलिए आपको कम तनख्वाह दे रहा हूँ, प्रॉफिट में आते ही बढ़ा दूंगा। पिछले साल तो एक नंबर में भी प्रॉफिट हुआ है फिर भी वह सैलरी नहीं बढ़ा रहा है। बातें तो बड़ी बड़ी करता है कि आप हमारे इम्प्लाई नहीं बिजनेस पार्टनर हैं और पैसा देने के नाम पर...’। (वह सपने बेचता था, पृष्ठ-58)
दोनों ही कहानियाँ इन्टरनल फोकलाईजेशन के माध्यम से उन दृष्टि बिन्दुओं पर ले जाती हैं जहां से हम बदलते आर्थिक परिदृश्य में परिवर्तन की पूरी प्रक्रिया को देख पाते हैं। इनमें नैरेटर खुद एक पात्र के रूप में मौज़ूद है और उसी के माध्यम हम पीटर और उसके आसपास की दुनियां को बहुत क़रीब से देख पाते हैं। एक ऐसी दुनियाँ जहां आर्थिक संपन्नता और करिअर के सामने विचार और विचारधारा का कोई महत्व नहीं रह गया है। ‘अन्ना सो रही थी’ का जनसरोकारों से जुड़ा नायक इस कहानी में सपने बेचने वाला पेशेवर व्यापारी बन जाता है। ऐसा व्यापारी जो राजकुमार जैसे अपने अधीन काम करने वाले लोगों का भी हक़ मारता है। कहानी पीटर के जीवन के बीते दिनों में भी लौटती है और यह समझने का स्पेस देती है कि एक व्यक्ति के बदलने में परिस्थितियां किस हद तक जिम्मेदार होती हैं।
मल्टीनेशनल्स द्वारा अपने कर्मचारियों पर हर महीने टारगेट अचीव करने का दबाव, आर्थिक मंदी में कर्मचारियों की छटनी और बेरोजगारी के संकट को केंद्र में रख कर लिखी कहानी है –‘प्रस्थान’। यह छोटे शहरों में काम करने के बजाए महानगरों की ओर ललचाई निगाह से देखने वाली पीढ़ी की ‘दीपिका’ की कहानी है जिसे बड़ी मशक्कत के बाद मुंबई में दूरसंचार क्षेत्र की एक मल्टीनेशनल कंपनी में काल सेंटर की नौकरी मिलती है। ट्रेनिंग, कम्यूनिकेशन की थियरी, अंग्रेजी बोलने का अभ्यास, कम्पनी के प्राडक्ट्स की जानकारी, क्लास टेस्ट, उसके बाद एक सप्ताह की फ्लोर ट्रेनिंग और नौकरी शुरू होते ही सबसे पहले ‘एक महीने के भीतर पच्चीस कनेक्शन बेचने का टार्गेट’। यहीं से शुरू होती है वह यात्रा जिसमें कम्पनी की परेशानियां अपनी परेशानियाँ बन जाती हैं और लाख मेहनत के बाद भी टार्गेट पूरा न हो पाया तो सब बेकार। नीलिमा के बैच में सलेक्ट हुए पच्चीस लोगों में उसे मिलाकर दस लोगों को टार्गेट पूरा न करने के आधार पर अगले ही महीने निकाल दिया जाता है और इसके साथ फिर से नयी नौकरी की तलाश शुरू होती है। मेट्रो शहरों में नौकरी के लिए धक्के खाते युवाओं की हताशा को कहानी गहरी संवेदना के साथ व्यक्त करने में सफल कही जा सकती है। प्रयास करते रहने पर इस बार उसे इंडो-अमरीकन बैंक में कस्टमर केयर की नौकरी इस शर्त पर मिलती है, कि उसे शिफ्टों में ड्यूटी करने पड़ेगी। सभी शर्तों को स्वीकार करते हुए दीपिका ने न केवल बैंक में नौकरी हासिल की बल्कि छः महीने बाद उसने अपनी मेहनत से महत्वपूर्ण माने जाने वाले एनआरआई डिपार्टमेंट में भी अपनी जगह बना ली।
जीवन में पहली बार एक अच्छी सैलरी और आत्मनिर्भर बनने का सुख महसूस करते उसे बहुत समय नहीं हुआ था कि अमरीकी अर्थव्यवस्था में मंदी की ख़बरें आने लगीं। नए कस्टमर मिलने कम हो रहे थे और मंदी की सबसे अधिक मार कस्टमर केयर डिपार्टमेंट के ऊपर पड़ी। बैंक ने इंसेंटिव तो बंद ही कर दिए थे और अब छटनी की बारी थी; पर छटनी के कारण बैंक की मार्केट में साख गिरती इसलिए बिलकुल नया तरीका निकाला गया जिससे सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे। यह जुगत थी -बिना वेतन के स्वैच्छिक अवकाश। दीपिका के सामने और कोई रास्ता नहीं था सिवाय घर लौटने के पर क्या छुट्टी के बाद तक उसकी नौकरी सुरक्षित रह पाएगी ! इस भय और उथल-पुथल भरी लौट के साथ कहानी पाठक को अकेला छोड़ जाती है।
‘बाकी बातें फिर कभी’ में पिरोए गए लेखकीय अनुभवों के आधार पर इस बेहद ज़रूरी बहस की ओर बढ़ा जा सकता है कि प्राइवेट पूंजी आधारित बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और सार्वजनिक पूंजी द्वारा संचालित निगमों की कार्य-संस्कृति में इतना बड़ा फ़र्क क्यों है? यह गौर करने की बात है कि ‘जहां प्राइवेट कम्पनियां हर तिमाही अपने टर्न ओवर और प्रॉफिट के बढ़ने की घोषणा करते हुए सेंसेक्स का चढ़ाव देखती हैं, वहीं इसी क्षेत्र की सरकारी कंपनी के ये तथाकथित बड़े अधिकारी ‘मैनेज’ करते हुए कंपनी के सिक होने का इंतज़ार करते हैं। बहरहाल, कहानी में विन्यस्त घटनाओं और चरित्रों के माध्यम से लेखक ने न केवल उनके विनिवेशीकरण के लिए जिम्मेदार तत्वों की पहचान की है बल्कि यह भी दिखाने की कोशिश की है कि सरकारें सार्वजनिक सिस्टम की खामियों को दूर करने के बजाए ऐसे उपक्रमों/ कंपनियों को ही नष्ट करने पर तुली हैं।
हरियश राय |
(चार)
‘नौकरी के लिए कोई तो नियम होते हैं, कुछ कायदे होते हैं, कुछ कानून होते हैं। पर यहाँ कोई नियम नहीं.. यहाँ हम लोग सस्ते में काम करते हैं इसलिए ये हमसे काम कराते हैं, अमेरिका में यही काम कराएं तो हमसे बीस गुना तनखाह इन्हें देनी पड़े।’
- वजूद के लिए (हरियश राय)
‘वजूद के लिए’ चुनौतियों को अवसर मानने वाली एक ऐसी लड़की की कहानी है जिसका एमबीए करते ही एक अमरीकी मल्टीनेशनल कम्पनी में चयन होता है। करियर की इस शानदार शुरुआत पर गर्व करते हुए उसके पिता का मानना है कि जिस कम्पनी का क़ारोबार चालीस देशों में फैला हुआ है उसमें काम के लिए उसे चुना जाना एक बड़ी उपलब्धि है। यह न्यूयार्क से संचालित एक ऐसी एमएनसी है जो उन कंपनियों का अध्ययन करती है जिनका मुनाफा कम है। उनके मैनेजमेंट,बीवर्क फ़ोर्स, कार्यशैली और मार्केट इकानमी को ध्यान में रखते हुए उन्हें सुझाव देती है कि उनका व्यापार और उत्पादन कैसे बढ़ सके! इस अमरीकी एमएनसी का वज़ूद इन्हीं कंपनियों की सफलता पर टिका है और तेईस साल की लड़की वंदना साबरवाल का वज़ूद भी।
कम्पनी उसे जम्मू भेजती है जहां उसकी मुलाक़ात कमल वर्मा से होती हैं। कमल वर्मा यानी उसके बॉस जिन्होंने वंदना साबरवाल को फ़ाइल देते हुए इस बात का आदेश दिया था कि वह रिपोर्ट का अध्ययन कर ऐसा प्रोजेक्ट तैयार करे जिससे कंपनी का प्रॉफिट अगले साल तक दुगुना हो जाए। यहीं से शुरू होती है वंदना साबरवाल की ‘कारपोरेट जीवन-शैली’ जिसमें समय का कोई हिसाब नहीं है और काम कभी ख़त्म नहीं होता। सुबह आठ बजे से शुरू हुआ काम देर रात तक चलता, तब भी उसके सिमटने की कोई जुगत न बन पाती यहाँ तक कि खाना भी कम्पनी के ऑफिस में बनता ताकि एम्प्लाइज के घर जाने का सबसे मजबूत अस्त्र भी विफल हो जाए। समय गुजरने के साथ वंदना साबरवाल एक ऐसी मशीनी जीवन शैली की गिरफ़्त में आती गयी जिससे बाहर निकलने का कोई रास्ता उसे नहीं सूझ रहा था। पूरे समय लैपटॉप पर घुसे रहना, दुनिया-जहान के कामर्शियल डेटा और जानकारियाँ इकठ्ठा करना, उनका विश्लेषण करना और तुलनात्मक आधार पर कुछ नतीजों की ओर बढ़ना और जाने क्या क्या तरकीबें निकालना। हर दिन की प्रोग्रेस रिपोर्ट न्यूयार्क भेजना और एक प्रोजेक्ट पूरा होते ही अगले की तैयारी में खुद को झोंक देना। क्या वंदना साबरवाल की इस मशीनीकृत जीवन शैली का शिकार हमारी नयी जनरेशन नहीं है! इसी जीवन शैली के चलते वंदना साबरवाल महज एक साल पूरे होने से पहले ही बहुत थकने लगी है, उसकी ऊर्जा का सोता कहीं सूखने लगा है और चश्में का नंबर बढ़ने लगा है। बावजूद इसके उसने जब भी छुट्टी की बात की बॉस कोई न कोई बहाना लगा कर बात टाल देता। इन्हीं मनःस्थितियों के बीच उसका परिचय उसी कम्पनी में काम करने वाली अर्पिता और रंजना से होता है। उससे अधिक सैलरी पर काम करने वाली उन दोनों सीनियर्स की महज तीन साल में ऐसी हालत देखकर उसे यकीन नहीं हो रहा था। उनके बीच जैसे जैसे बातें आगे बढ़ती जाती हैं वैसे वैसे कारपोरेट-संस्कृति की तल्ख़ परतें उघड़ने लगती हैं। रंजना कहती है कि क्या उनकी हालत गुलामों जैसी नहीं हो गयी है! यह प्रश्न बहुत ही प्रासंगिक और विचारणीय है किन्तु भारतीय जनमानस में इसे लेकर कोई गहरी बेचैनी दिखाई नहीं देती; ऊपर से कोरोना की आड़ में कई सरकारें श्रम कानूनों को मिटाने पर आमादा हैं। वैसे भी भारत में श्रम कानूनों की हालत चिंताजनक है, उसके बावज़ूद भी उनमें ऐसे बदलाव किए गए हैं जिनसे शोषण की भयावह स्थितियां पैदा होंगी। ऐसा महसूस हो रहा है कि मानों सरकारें कारपोरेशन हैं और देश के नागरिक उनके अधीन काम करने वाले वर्कर।
कहानी उस विडंबना को भी उभारती है जिसमें एक इम्प्लाई दूसरे इम्प्लाईज की जगह खुद को रख कर कभी देखने की कोशिश नहीं करता और अप्रत्यक्ष रूप से ऐसी परिस्थतियों को मजबूत करता है जिनसे शोषण जन्म लेता है। एक साल में दुगुना प्रॉफिट बढ़ाने के लिए वंदना साबरवाल जिन प्रोजेक्ट्स पर काम कर रही है, क्या उनमें कभी उसने यह देखने की कोशिश की होगी कि वहाँ के स्टाफ के लिए काम करने की परिस्थितियां कितनी स्वस्थ और अनुकूल हैं? बात बहुत स्पष्ट है कम्पनी उसे जिस बात के लिए पैसे देती है उसमें इम्प्लाई कहीं नहीं है, उसमें केवल और केवल मुनाफ़ा है। कंपनियों के मुनाफ़े को एक साल के भीतर दुगुना करने के लिए उसने जो प्रोजेक्ट्स बनाए हैं उनमें क्या एक भी बिंदु इम्प्लाइज के हित में होगा? दरअसल दुनियां को अपनी मुट्ठी में करने की चाहत रखने वाली जो नयी खेप भारत में तैयार हुई है उसके लिए सिर्फ उसका पैकेज और तरक्क़ी मायने रखती है। हमारा एमबीए का पाठ्यक्रम हमारे अन्दर कमाने की भूख तो पैदा करता है पर यह नहीं सिखाता कि हम मशीन बनने से कैसे खुद को कैसे बचाएं। यह भी कि स्वस्थ और ऊर्जावान बने रहने से बेहतर कोई और विकल्प नहीं होता।
कहानी का अंत जिस क्षोभ और द्वंद्व से होता है वह महत्वपूर्ण है। वंदना साबरवाल को कंपनी में काम करते एक साल हो गए हैं फिर भी कई कोशिशों के बाद उसे छुट्टी मिल पा रही है। बॉस की हरामखोरी के चलते उसे कम्पनी के न्यूयार्क स्थित हेड ऑफिस से अनुमति लेनी पड़ती है। पांच दिनों के स्वीकृत अवकाश के लिए इतनी मशक्कत और अपमान! तिस पर घर निकलने से एक दिन पहले कमल वर्मा ने फाइलें पकड़ा दीं, इस कड़े लहजे के साथ कि इन्हें वह देख ले और तीन दिन के भीतर प्रोजेक्ट मेल कर दे! कितनी ऊर्जा और चहक ले कर आई थी यहाँ वह और लौट रही है कितना गुबार ले कर! उसके मन में कई बार आया कि वह गलत जगह आ गयी है और उसे यहाँ से क्विट कर लेना चाहिए पर एमबीए की पढ़ाई में लिए गए कर्ज की किश्तें कौन भरेगा? और कौन सी दूसरी कम्पनी इतने पैसे देगी? उसके मन के किसी कोने में एक सवाल ने सर उठाया कि कहीं वह भी तो गुलाम नहीं बन गयी? गुलामी की यह प्रक्रिया इतनी महीन है कि हमें पता ही नहीं चलता और हम..। कारपोरेट कार्य संस्कृति में ‘दमन और शोषण की इस बारीक अनिवार्यता’ को कहानी बराबर लक्षित करती है। विरोधाभाषी और विभक्त व्यक्तित्व की बहुत सटीक पहचान करते हुए लेखक उस बिंदु की तरफ भी ध्यान खींचता है जहां स्वयं वंदना साबरवाल अप्रत्यक्ष रूप से शोषक की भूमिका में भी है और शोषित की भूमिका में भी।
उल्लेख्य कहानियों में कारपोरेट सेक्टर में काम करने वाली जिस युवा पीढ़ी से हमारा सामना होता है वह ज़िन्दगी में कोई जोखिम उठाना तो दूर, अपनी छोटी-छोटी सुविधाओं की कटौती का तनिक भी खतरा मोल लेने के लिए तैयार नहीं है, फिर चाहे वह ‘लाइफलाइन’ की दोनों बहनें हों; ‘अन्ना सो रही थी’ की ‘अलका’ हो; ‘वह सपने बेचता था’ का पीटर या नीलिमा हों; ‘प्रस्थान’ की दीपिका हो; पिंक स्लिप डैडी का दाधीच, अज़रा जहागीर, उत्प्रेक्षा जोशी हो; ‘वजूद के लिए’ की वंदना साबरवाल हो। इन पात्रों के माध्यम से ये कहानियाँ हमें अपने भीतर झाँकने की जरूरत से रू-ब-रू कराती हैं। इतनी विशाल युवा आबादी वाले देश में बेरोजगारी की भयावह स्थितियों का फायदा उठाने वाले कारपोरेट सेक्टर की नीतियों का प्रतिपक्ष रखने और सत्ता की भूमिका को प्रश्नांकित करने का लेखकीय उपक्रम तभी सफल होगा जब युवा ख़ुद इस व्यवस्था का अपने स्तर पर प्रतिरोध करना शुरू करेंगे !
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 09.06.22 को चर्चा मंच पर चर्चा - 4456 में दिया जाएगा| मंच पर आपकी उपस्थिति चर्चाकारों का हौसला बढ़ाएगी
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
दिलबाग