सुरेन्द्र कुमार की प्रेम कविताएं

सुरेन्द्र कुमार


 

प्रेम मनुष्य के लिए श्रेष्ठतम अनुभूति है। यह मनुष्य को सही मायने में मनुष्य बनाता है। यह सभी संकीर्णताओं का अतिक्रमण करता है और मनुष्यता की नई परिभाषाएं रचता है। यह दुनिया की सबसे प्राचीनतम अनुभूति भी है। यह हमेशा जीवन की नई परिभाषाएं रचता है। इसीलिए प्राचीनतम होने के साथ-साथ यह हर जमाने में नवीनतम भी बना रहता है। सुरेंद्र कुमार एक मशहूर गजलकार हैं। साथ ही वह मुक्त छंद की कविताएं भी लिखते हैं। इधर उन्होंने कुछ अच्छी प्रेम कविताएं भी लिखी हैं। आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं सुरेंद्र कुमार की प्रेम कविताएं।

 


सुरेन्द्र कुमार की कविताएं



क्या मैं इतना भी नहीं कर सकता


क्या मैं इतना भी नहीं कर सकता

जब वो हडबड़ाती सुबह उठती है

उसके लिए चूल्हे पर भगोने में रख कर

गर्म पानी

गिलास में डाल कर

उसे पीने के लिए दे दूं

और मग्घे में

ब्रश व कुल्ला करने के लिए

हल्की हल्की आंच में उसकी मनपसंद अदरक वाली चाय

उसके टेबल पर रख दूं

क्या मैं इतना भी नहीं कर सकता,

जब वह रोटी बेलने लगे

मैं तवे पर सैंक दूं

बच्चों को उठा दूं

बच्चों का टिफिन तैयार करने में मदद कर दूं

उनके बस्तों में

टिफिन के साथ एक केला एक सेब रख दूं

ओटो वाले भैया को

ये कहकर

बच्चों को संभाल कर चढ़ाना

और संभाल कर उतारना

झटपट से

अपने लिए सब्ज़ी तैयार करना

और नाश्ता पानी कर

छोटी सी स्माइल कर

घर से दफ्तर की ओर चल देना, 

क्या मैं इतना भी नहीं कर सकता?



क्या तुम्हें पता है?



तुम कहां हो

तुम्हारा पता ठिकाना

तुम्हारी गली जाते हुए भी डर लगता है

अगर उधर से गुज़रूं

और बाहर से ताला नज़र आ गया तो


पड़ोसी से पूछा तो

हाथ खड़े कर दिए

तुम्हारे नम्बर पर

कितनी बार ट्राई किया

स्विच ऑफ, स्विच ऑफ बताया,

पता है जब हम धचके खाती हुई बस में कुल्लू जा रहे थे

तुम्हारी साड़ी का पल्ला मेरे कंधे को छू रहा था

तुम्हारी नज़र मेरी नज़र को

न तुम कुछ बोल पा रही थी ना मैं  कुछ बोल पा रहा था

बस पहाड़ पर आगे बढ़ती जा रही थी,

तुम्हें पता है जब खेत पर से गन्ना तोड़ते हुए 

गन्ना पूरा का पूरा उखड़ गया था

और तुम्हें उसकी मिट्टी झाड़ते हुए 

कितने जद्दोज़हद से गुजरना पड़ा था

और तोड़ते हुए तो वो पिचक ही गया था

उस का रस मीठा रस तुम्हारी उंगलियों पर तैर रहा था

मन कर रहा था कि उसको

अपनी उंगलियों पर उतार लूं 

लेकिन हिचकिचाहट में कुछ ना कह सका

और मैं तुम्हें गन्ना चूसते हुए

पास बैठा हुआ देखता रहा

क्या तुम्हें पता है

जब तुम साइकिल से जा रही थी

लड़खड़ाते हुए कैसे गुलमोहर के पेड़ से टकराई थी

धूप में तुम्हारा चेहरा गुलाब की तरह हो जाता था

यार बता भी दो तुम कहां हो?


 

तुम्हारा होना


तुम्हारा होना ही काफ़ी है

मेरे लिए

बस व्हील चेयर पर बैठे रहो

और हिदायत देते रहो


देखो, ये चप्पलें  ये ब्रश एक दूसरे में गुथ्म गुत्था है

इनको करीने से रखवा दिया करो,

और आया आने के बाद

फर्श को ढंग से धुलवा भी दिया करो

तुम्हें पता है कोने में कितने जाले लगे हैं,

कभी-कभी तुम खुद ही काटने लग जाते हो सब्ज़ी

तुम्हें लेटलतीफी पसंद नहीं है

बैठे-बैठे पानी में भीगे कपड़े

खुद ही मसलने लग जाते हो

बैठे-बैठे ही बहुत कुछ

करना चाहते हो तुम

लेकिन कितनी बार कहूं

तुम्हारा होना ही काफ़ी है मेरे लिए


एक दिन भतीजी के साथ पूजा के लिए फूल तोड़ने क्या निकली

बस शुरू हो गए

कहां गई वक्त हो रहा है बालों पर मेहंदी लगाने का

पड़ोसी बता रहे थे पूरा घर सर पर उठा रखा था


तुम्हारी प्लानिंग तुम्हारा मैनेजमेंट, 

बाबू बहुत पसंद है मुझे,

और और तुम्हारा कवि होना

मगर तुम्हारा गुस्सा बाप रे बाप,     

और तुम्हारा प्यार

सचमुच यार तुम्हारा होना ही काफी है मेरे लिए

 

 


 



अपना ख्याल रखना



तुम्हैं ये नहीं खाना

वो नहीं खाना

कितने गिलास पानी पीना

हरी मिर्च खा सकते हैं

लाल मिर्च कभी नहीं

जूते देखो एकदम 

जंगली जैसे

अगली बार ये मटमैली शर्ट पहनी तो


पर्स में अपने साथ

कंघा क्यों नहीं ले जाते

उलस पुलस बाल रहते हैं

ये हाथ में क्या बांध रखा है

किसी के कहने पर

लाल डोरी बांध ली, सो बांध ली


मुझे लौटने दो गांव से

फिर देखती हूं तुम्हें

पूरे के पूरे बच्चे हो गये,

अबकि बार सामान 

इधर उधर पड़ा मिला तो खैर नहीं,


अब पेट कैसा है

दफ्तर समय पर जा रहे हो या नहीं

तुम्हारी छोटे वाली साली आने को कह रही 

ले आऊं क्या


मैं तुम्हें बताना भूल गई

पिंक कलर की बनारसी साड़ी,

अनदेखे में जल गई

पाज़ेब का एक कुंडा कहीं निकल गया

ढूंढ़ा भी बहोत मगर पाया नहीं


खैर छोड़ो

आपकी पसंद का अचार डाल दिया है

आंवलें का मुरब्बा

और आलू के चिप्स धूप में पड़े हैं


गाय का घी

अब गांव में भी शुद्ध नहीं मिलता,

चाची से बिलवा रही हुं

मुझे तो आता ही नहीं निकालना,

और सिरका सुरती ताई के घर से मिल गया

सब लेकर आऊंगी

शर्त ये है अपना ख्याल रखना



गुनाह 


व्हील चेयर पर बैठे बैठे

दोनों बैसाखियों पर झूलते

धरती पर घिसटते

हद हो गई


जिसके दोनों पैर

हाथ नहीं थे

वह ईरानी लड़की

उसको भी आती है फीलिंग प्रेम की


बुरा है बुरा है

छि छि

गुनाह है गुनाह है

हम जैसों के लिए



ख़्वाब



अभी अभी

ख़्वाब के दफ़्तर से

लौट रहा हूं

बड़ी लम्बी लाइन

लगी है

अर्जी देने वालों की

सबकी ये शिकायत है

आते हो

लेकिन पूरे नहीं होते





प्रेम नगर


प्रेम नगर जाने वाली बसें

एक तो रूकती कम हैं

दूसरी बात सीट कम हैं


हर रोज़ खड़ा हो जाता हूं

बस स्टॉप पर

आइसक्रीम खाते हुए कपल्स

मस्ती में बतियाते हुए कपल्स

शीशे में से साफ साफ दिखाई देते हैं


कभी-कभी तो मन करता है

ज़ोर ज़बरदस्ती कर के

बैठ जाऊं उनकी सीट पर


मैंने भी सोच लिया है

जाना तो प्रेम नगर ही है

लगता है कंडक्टर की दावत पानी करनी पड़ेगी

और ड्राइवर के लिए गांव से मट्ठा लाना पड़ेगा


आपको पता है खड़े-खड़े धूल में

कितनी बार मेरी सफेद शर्ट

मट मैली हो गई

कितनी बार मां से डांट पड़ी

मिट्टी ढुलाई का ठेका ले रखा है क्या तुमने

कुछ भी हो मुझको प्रेम नगर जाना ज़रूर है



यक़ीनन



जब मैं बिजी होती हूं

तब भी

जब मैं खाली होती हूं

तब भी

बाल संवारते हुए

एक हाथ से

हथेली पर

मेहंदी लगाते हुए

वाशिंग मशीन में कपड़े डालते हुए

इस्तरी करते हुए

तुम्हारी पसंद की सब्ज़ी बनाते हुए

ब्लाउज का हुक बंद करते हुए

लिपस्टिक लगाते हुए

आइब्रो बनाते हुए

काजल लगाते हुए

आंगन में सूखे पत्तों को सकेरते हुए

गुनगुनी धूप में

स्वेटर का कुंडा बुनते हुए

सहेली से चुहल करते हुए

यूट्यूब पर कोई सा गाना देखते हुए

जगजीत सिंह की आवाज़ में ग़ज़ल सुनते हुए


बाज़ार जाते हुए

आलू की टिक्की में तीखा डलवाते हुए

छोटे-छोटे बच्चों को ट्यूशन पढ़ाते हुए

लाइट भागने पर

पंखा न चलने की एवज में पसीने से नहाते हुए

धड़ाम से थक कर चूर बिस्तर पर लेटते हुए

किसी बात पर गुस्सा होते हुए

किसी बात पर गुस्सा करवाते हुए

कभी ना बोलने की क़सम खाते हुए

यक़ीनन बाबू तुम्हारी बहुत बहुत याद आती है





छांव तले आने पर


एक गुलमोहर का पेड़ सब कुछ भुला देता है

वरना अबकि बार तो ठान लिया है

मैं उनको ये कहूंगी वो कहूंगी

मसलन कचर कचर बोलते जाना पसंद नहीं मुझे

किसी की सुनते नहीं

अपनी बकबक

बहुत शर्मिंदगी उठानी पड़ती है


लेकिन साहब तो साहब हैं

जहां स्कूटर पर बैठे

बिल्कुल हवा  की तरह

जैसे आपसे बढ़कर

कोई हवा के

घोड़े पर सवार नहीं

कह दो तो मुंह बना लेते हैं


वैसे भी हाइवे पर

पलक झपकते ही काम ख़त्म,

कहा था कलर कोई और

दुपट्टा रंगवा दिया कोई और


जूते में आज तक

वो अधिया टूटी हुई तनी

ज्यूं की त्यूं चल रही है

फोन पर लग जाओ तो

घंटों तक बात

मेरी मिस कॉल का 

कोई जवाब नहीं

मुझे खेत की पगडंडियों पर

मस्ती में दुलकी चाल पर चलना

बहुत अच्छा लगता है

नाचते हुए मोर को देखना


कहूंगी उधर चलना है

तो बाबू जी चल देंगे

चाचा की तरफ़ गांव में

चाय पीने 

मट्ठा पीने को कहूं तो

नज़ला नज़ला 

अच्छा बहाना

मां तड़क में 

चक्की चलाती थी

उसकी घोर में

नींद ख़ूब आती थी

ये बात बता दूं तो 

कोई असर नहीं

बेहद टोकने पर कहते हैं

ज़माना बड़ा फास्ट है

कहने को तो बहुत कुछ

कहना चाहती हूं

मगर एक  गूलमोहर का पेड़,

उसकी छांव तले आने पर

कुछ भी, कुछ भी तो

कह नहीं पाती हूं


(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स स्व. विजेंद्र जी की हैं।) 

 

 

संपर्क
 

मोबाइल: 06396401020

 

टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

हर्षिता त्रिपाठी की कविताएं