धीरेंद्र धवल की कविताएं

 

धीरेंद्र धवल

 

 

सुख और दुःख जिंदगी के हिस्से हैं। लेकिन इनकी प्रकृति में मूल रूप से बहुत अन्तर है। वैसे ये सुख दुःख हमेशा से कविता का विषय बनते रहे हैं। कबीर का एक दोहा चर्चित है - 'दुःख में सुमिरन सब करें, सुख में करे न कोय। जो सुख में सुमिरन करे, सो दुःख काहें होय।।' युवा कवि धीरेंद्र धवल भी दुःख को अपनी कविता की कसौटी पर कसते हुए लिखते हैं -'जब कोई कहे!/ क्या चुनोगे?/  सुख या कि दुःख!/ बशर्ते, दोनों की/ अवधि बहुत छोटी होगी!!/ तब चुनना दुःख!/ सुख सृजन का बांध है!/ दुःख सृजन का आकाश!!' धीरेन्द्र की छोटी कविताएं काफी प्रभावशाली हैं। बड़ी कविताओं को भी कवि ने अच्छी तरह बरता है लेकिन उसमें कवि को संवेदना की गहराई में और धंसना होगा। निश्चित रूप से कवि ने जो विषय उठाए हैं, वे हमारे समय के ज्वलंत मुद्दे हैं और उन पर कविता लिखने में सपाटपने का जोखिम है। लेकिन नया कवि होते हुए भी धीरेन्द्र ने जिस तरह यह जोखिम उठाया है, वह सराहनीय है। हम उम्मीद करते हैं कि जैसे जैसे उनमें काव्यगत गंभीरता आएगी वे अपने समकालीन मुद्दों को बेहतर तरीके से बरत सकेंगे। खैर, इन कविताओं को देखते पढ़ते हुए हम यह कह सकते हैं कि धीरेन्द्र भविष्य के एक बेहतर कवि साबित होंगे। 'पहली बार' पर इस नए कवि का स्वागत करते हुए हम आज प्रस्तुत कर रहे हैं धीरेंद्र धवल की कविताएं।



धीरेंद्र धवल की कविताएं



दुखहरन का बेटा सुखहरन


नागार्जुन की कविता के दुखहरन मास्टर

अब नहीं रहे

उनकी जगह ले चुके हैं उनके बेटे सुखहरन


दुखहरन तो लगाते थे बच्चों को तमाचे

तमाचे भले गुस्से में लगाया करते थे

लेकिन, यकीनन वह तमाचे

ज्ञान की दुनिया में

जाने, डूबने और कुछ पाने का सबक रहें होंगे

दुखहरन टूटी-फूटी, चूती इमारत में पढ़ाते थे

स्कूल नियम से आते थे


एक दिन दौरे पर आए

शिक्षा मंत्री ने जब नहीं सुनी उनकी बात

उनकी पीड़ा और शिक्षा के बुरे हालात

उन्होंने लिख डाला एक कड़ा पत्र

इस बात की परवाह किए बगैर कि

कहीं कारण बताओ नोटिस न आ जाए

नौकरी से निकाले जाने का फरमान न आ जाए


अब जमाना सुखहरन का है

जिन्होंने छीना है बच्चों का सुख

उनकी मौलिकता और उनकी नैतिकता

वो बच्चों को नहीं डांटते, नहीं मारते

उनसे लेते हैं तरह-तरह के अपने काम

राजनीतिक दलों का बनाते हैं सदस्य

कटवाते हैं पर्ची और थमा देते हैं अपना झोला


सुखहरन जैसे मास्टर

अब सरकार बहादुर को लिखते हैं पत्र

कहते हैं मेरे सरकार

घबराइए नहीं

शिक्षा व्यवस्था एकदम दुरुस्त है

सवाल उठाने वाले शिक्षक अराजक हैं

बस आपसे है एक निवेदन

फीस चाहे जितना बढ़ाइए

प्राइवेट स्कूलों की चाहे जितनी झड़ी लगाइए

प्रयोगशालाओं में सुविधा चाहे भले न दीजिए

बच्चों की स्कॉलरशिप चाहे आए न आए

नई नियुक्ति करें या ना करें

मेरे सरकार बस विनती है इतनी

सातवां नहीं, अब आठवां वेतन आयोग बनाइए

भत्तों को थोड़ा बढ़ा दीजिए


और हां!

इस बार आपकी रैली में

मेरे स्कूल, मेरे कॉलेज से

हजारों की संख्या में बच्चे जाएंगे

आपकी सभी नीतियों का हम करेंगे अक्षरशः पालन

सुखहरन की बिरादरी की ओर से

स्वीकार करिए शत शत सलाम

 


पुरस्कार पाने वालों की आंखें देखें


देखना उनकी आंखों में

जिनके हाथों में दिखता है पुरस्कार

तिकड़मी पुरस्कार पाने वाले

बिखेरते हैं कुटिल मुस्कान

रात होते ही

उनकी महफिल होती है शबाब पर

उन महफिलों में स्त्रियां होती हैं गालियां

उनकी चर्चा में होती है स्त्री देह

उनके बयान होते हैं हिंसक

इन्हीं चर्चाओं और बयानों के बीच

वो फिर लग जाते हैं अगले पुरस्कार की ओर


पुरस्कारों की कामना से अलग

मानव जाति की पीड़ा और पक्षधरता में

अपने होने की सार्थकता तलाशने वाले

जब पाते हैं साहित्य का कोई श्रेष्ठ पुरस्कार

खुशी की बात तो होती ही है


जब ऐसे रचनाकारों को मिलता है पुरस्कार

उनके भी चेहरे पर तैर जाती है थोड़ी मुस्कान

यह मुस्कान पीड़ित जनों की सांत्वना होती

इस मुस्कान के बावजूद

उनके हृदय में धधकती रहती है आग

माथे पर चिंता की लकीरें

मन अज्ञात भय से क्लांत


दिख जाय

जब भी कोई ऐसा रचनाकार

तो देखना

उसकी आंखें

वो आंखें

जिनमें वो देखता है

मानव समाज की खुशहाली

शोषण मुक्त समाज

स्त्रियों की भरपूर भागीदारी

ऐसे ही अनेक खुशनुमा ख़्वाब


सोचना, वह कितना बेबस होता होगा

जहां उसे खुशहाली लिखनी थी

वह लिखता है

बदहाली, बलात्कार और पीड़ा का अथाह संसार


जो लिखना तो चाहता है

भाईचारा, सौहार्द और साझा सरोकार

पर उस ख़्वाब के बदले लिखता है

हिंसक, छद्म और साम्प्रदायिक समाज


वह लिखना चाहता है

बराबरी और विश्वास का समाज

पर लिखना ही पड़ता है

असमानता और छल का साम्राज्य


खुशहाली का ख़्वाब देखने वाले

दुखों की दुनिया से टकरा कर

यकीनन

भीतर ही भीतर घुट जाते होंगे

उनकी आंखों से छलक पड़ता होगा आंसू


मैंने कल देखी

साहित्य अकादमी से सम्मानित कवयित्री

अनामिका की कई तस्वीरें


उनकी आंखों में दिखा

मानव की अपार दु:खों का संताप

सदियों से संघर्षरत स्त्रियों की पीड़ा

उन्हें देख कर

ऐसा लगा जैसे

मनुष्य के दु:खों को

शब्द कम ही नहीं कर पा रहें हों






सवाल ख़ुद को भी तो घेरते हैं


जब कोई कहता है

आप देशद्रोही हैं

उसे भी तो अपना देश प्रेम याद आना चाहिए

उसे याद तो आना ही चाहिए

वह कब-कब और कैसे-कैसे

देश प्रेम का परिचय दिया है

उसे यह ध्यान तो होगा ही

देश प्रेम केवल

भारत पाकिस्तान के युद्ध या क्रिकेट में जीत का जश्न नहीं होता

देश प्रेम केवल

अपने जाति, धर्म या समुदाय का

झंडा उठाना नही होता


जब कोई कहता होगा

अमुक भ्रष्टाचारी है

उसे भी तो अपना भ्रष्ट आचार याद आना चाहिए

उसे याद तो आता ही होगा


उसे यह याद तो होगा ही

वह कब-कब और कैसे-कैसे

भ्रष्ट आचार में लिप्त रहा


किसी संस्थान का मुखिया होते हुए

अन्य पद की लालसा में

अनैतिक निर्देशों को स्वीकार करता रहा

अयोग्य, असमर्थ लोगों को

अनेक पदों पर नियुक्त करता रहा

देह सुख की कल्पित यात्रा में

कई स्त्रियों को विवश किया


किसी राष्ट्र या प्रदेश का प्रमुख होते हुए

आखिर क्यों

हिंसक बयान दिया

अपात्रों को हर तरह का लाभ दिया

रोजगार के सवाल पर

चुप्पी साधे बैठा रहा

जाति और धर्म के गठजोड़ में

जातीय-धार्मिक नरसंहार पर मौन रहा

प्रकृति के हर संसाधन को

पानी को, पर्वत को, जंगल को

बेचने को तैयार हुआ


आम आदमी और आम कार्यकर्ता भी

प्रायः यह कहते

अमुक दल जातिवादी या धार्मिक है

और खुद ही जाति और धर्म के ध्रुवीकरण का हिस्सा बनते


इसी तरह के अन्य आरोप और सवाल

कई रूपों और दृश्यों में मौजूद है

उन सबके लिए

जो आरोपों और सवालों का पुलिंदा

केवल अन्य के लिए तैयार रखते हैं

 


धिक्! ऐसे भी लोग


चापलूस

चापलूसों के करतब पर कविता लिख रहें हैं


पैसे के बूते दिन-रात अपनी खतौनी* बढ़ाने वाले

मजदूरों की मजदूरी गप्प कर जाने वाले

किसानों और मजदूरों की पीड़ा गा रहें हैं


अकादमिक दुनिया को भ्रष्ट करने वाले

मेधा पर जाति, धर्म, परिवार और दल को वरीयता देने वाले

अकादमिक दुनिया के तबाही का मंजर बता रहें हैं


जो स्टेटस सिंबल के लिए ब्रांड को ज़रूरी मानते हैं

जिनके पास हर मौके के लिए

अलग-अलग डिजाइन और रंग के कपड़े हैं

वो अधनंगें लोगों की दुर्दशा पर आंसू बहा रहे हैं

यहां उनको गांधी याद नहीं आते

जिन्होंने चंपारण की यात्रा में वस्त्रविहीन समाज देख कर

केवल एक वस्त्र धारण करने का प्रण ले लिया था


पूंजीवाद के विरोधी

असीमित पूंजी के मालिक बन रहें हैं

समाजवादी सिपाही, पार्टी और संस्थान

जातिवादी नुमाइंदे बन रहे हैं

राष्ट्रवादी चिंतक, पार्टी और संस्थान

धर्म विशेष के प्रचारक बन चुके हैं


इन जैसे लोगों के कारण ही

अविश्वसनीय हो चुकी है उनकी आवाज

जो यकीनन साजिश के शिकार हैं

जो वास्तव में पीड़ित, लाचार और दु:खी हैं

न्याय की गुहार में

उनकी ऊंची आवाज भी अनसुनी और मद्धिम हो चुकी है


ऐसे में उनकी मद्धिम आवाज को सुन सकें तो सुने

जिन्होंने समाजवादी मूल्यों के लिए

गांधी, लोहिया और जेपी की तरह अपने को न्यौछावर कर दिया है

जिन्होंने राष्ट्रवादी मूल्यों के लिए

सुभाष बाबू की तरह देश हित में हर कष्ट बेझिझक उठाया है

जिन्होंने जनवादी मूल्यों के लिए

भगत सिंह के रास्ते को स्वीकार कर लिया है


*ज़मीन के मालिकाना हक़ का सरकारी दस्तावेज




 

इतिहास में दर्ज़ होने की हड़बड़ी


इतिहास में दर्ज़ होने की हड़बड़ी

सनक में बदल जाती है


तुगलक को

इतिहास में दर्ज़ होने की हड़बड़ी ही तो थी

तभी तो उसने कहा

आज से राजधानी

दिल्ली नहीं दौलताबाद होगी


इतिहास में दर्ज़ होने की हड़बड़ी ने ही

हिटलर से लाखों यहूदियों का कत्ल करवा दिया

बख़्तियार खिलजी ने तो नालंदा विश्वविद्यालय में आग ही लगवा दिया

गोडसे ने महान शख़्सियत गांधी को मौत के घाट उतार दिया


इतिहास में दर्ज़ होने की हड़बड़ी में

और भी बहुत से करामात हुए, होते आ रहें हैं


ऐसे शासकों, आक्रांताओं, कट्टरता के पुरोधाओं से

जरूरत है सचेत होने की

जो इतिहास में दर्ज़ होने की हड़बड़ी में

सनक जाते हैं

हर पत्थर पर अपना नाम देख लेना चाहते हैं

हर योजना में शामिल हो जाना चाहते हैं

चाहे वह भले ही जनता की कब्रगाह बन रही हो



देखना


उस तरह मत देखना किसी को

जिस तरह 

नदी को देखता है व्यापारी

हरे जंगलों को देखते हैं विकास के नायक

उनकी तरह भी नहीं

जिनकी निगाह में स्त्री केवल देह है


नदी जानती है

व्यापारी देखता है नदी का पानी

उस पानी की कीमत

नदी को सुखा देने के बाद उस ज़मीन का मोल


हरे जंगल जानते हैं

विकास के नायक 

पेड़ों को रौंद कर 

खड़ा कर देंगे कंक्रीट का जंगल


स्त्रियां जानती हैं

स्त्री को देह की नज़र से देखने वाले

कामुक और कुंठित ही नहीं कार्पोरेट भी होते हैं

कार्पोरेट स्त्री देह को विज्ञापन की नज़र से देखता है

कार्पोरेट की नज़र में उसकी देह 

विज्ञापन की कसौटी है

मांसलता की वस्तु है सौंदर्य की नहीं


नदी चाहती है

जो आँखें उसकी ओर उठे

वो देख पाए तो देखे

उसका बहाव और सौंदर्य 

अतिक्रमण और अवहेलना

और उसकी ठंडी पड़ी धार


स्त्री चाहती है, 

उसे देखना ही है तो देखा जाय

उसके हिम्मत और जुनून को 

उसके श्रम सौंदर्य को

वो चाहती है, उसकी आँखों में देखा जाय

जिसमें उसकी राग के हर रंग दर्ज़ हैं


सच तो यह है कि हर कोई चाहता है

उसे देखा जाय मानवीय नजर से

जैसे, मानव समाज को कभी देखा था

बुद्ध, मार्क्स, गांधी, टैगोर और अंबेडकर ने

मदर टेरेसा, ज्योतिबा राव फूले ने

जैसे देखते रहे हैं 

गोर्की, प्रेमचंद और टॉलस्टाय



सवाल


पानी पर खींची लकीर नहीं

सवाल

हवा में हस्ताक्षर नहीं

सवाल

धरा का अदृश्य क्षितिज नहीं

सवाल

बिना आग का धुंआ नहीं

सवाल

जिंदा लोगों की दास्तान

सवाल

मुश्किलों के हल का जज़्बा

सवाल

सत्ता की क्रूरता पर हमला

सवाल

खुशनुमा दुनिया का राज़

सवालों को इस तरह समझने वाले

ढूंढ ही लेते हैं उत्तर

वह उत्तर

जो सवालों के बिना

हमेशा के लिए अनुत्तरित रह जाते

 


 


जनपक्षधरता आसान नहीं


रंगीन कपड़े और झंडे

भले प्रतीक हो

किसी पार्टी, दल या संगठन का

धर्मनिरपेक्षता या समता का


इन सबके बावजूद

जनपक्षधरता आसान नहीं


यदि पढ़ा हो आपने

मैक्सिम गोर्की की 'माँ'

टॉलस्टाय की 'युद्ध और शांति'

प्रेमचंद की 'रंगभूमि'

तुलसीराम की 'मुर्दहिया'

या और भी वो किताबें

जिनमें दर्ज़ है जनपक्षधरता

तो आप जान सकेंगे

आसान नहीं है अब जन पक्षधर होना

इस दौर में इस कसौटी पर खरा होना


इसलिए कि

होना औऱ दिखना अलग-अलग बात है

इसलिए भी कि

पूंजी औऱ बाज़ार का मज़बूत असर

सत्ता की चमक

जाति का ज़हर और धर्म की मादकता

नहीं होने देती शोषितों के साथ


ऐसे में आप कुछ न बनिये

तो बन जाइये एक अच्छा इंसान

करिये

हक़, हुक़ूक़ औऱ मानवता की बात

उठाइये

रोज़ी-रोज़गार और खेती-किसानी के मुद्दे

लड़िये

स्त्री-सुरक्षा, शिक्षा औऱ पर्यावरण के सवाल पर

औऱ इन सबको ले कर

हो जाइए

फिक्रमंद, चेतस औऱ गंभीर!


नहीं; जिस दुनिया से हम-आप रूबरू हैं!

आने वाली पीढियां

यदि बचेंगी तो देखेंगी

इससे भी कुरूप, विद्रूप औऱ डरावनी दुनिया!!

 


इक्कीसवीं सदी


इस सदी में

चीजें ठीक नहीं की जाती

बदल दी जाती


मसलन

घड़ी बिगड़ गई बदल दो

फ़ोन बिगड़ गया बदल दो

रेडियो बिगड़ गया बदल दो


ठीक इसी पैमाने से

बन चुका है अलिखित नियम

दोस्त काम का न हो तो छोड़ दो

प्रेमी गड़बड़ हुआ तो बदल दो

प्रेमिका कोई बात न माने तो छोड़ दो


इतना ही नहीं

अब लोग बड़ी जल्दी उकता जाते

प्रेमी अपने प्रेमिका से

दोस्त अपने दोस्त से

पति अपने पत्नी से


ठीक उसी तरह

जैसे रिश्ते भी

मोबाइल, घड़ी या टीवी हों



भूलना 


जिन्हें आदत है भूलने की

वो केवल अपना पाठ ही नहीं भूलते

कोई सामान ही नहीं भूलते

वो भूल जाते

परिचितों के अपराध

मित्रों का विश्वासघात

प्रिय का दुराव

इस तरह भूलना

वो शय है

जो मुक्त करती है

तमाम असहनीय दु:खों और फिजूल के बोझ से

 


 


पांच छोटी कविताएं


1. दुःख


जब कोई कहे!

क्या चुनोगे?

सुख या कि दुःख!

बशर्ते, दोनों की 

अवधि बहुत छोटी होगी!!

तब चुनना दुःख!

सुख सृजन का बांध है!

दुःख सृजन का आकाश!!

 


2. फर्क


गिरना

आख़िर गिरना ही होता है...

झुकना

एक तमीज़, एक अदब, एक लिहाज़

जिन्हें नहीं मालूम गिरने और झुकने का फ़र्क

वो अंततः गिरते हैं और गिरते ही चले जाते हैं!



3.  दु:ख वह पीड़ा है


दुःखों से मुक्ति की खोज

सुख की तलाश नहीं

दरअसल

सुख वो अतृप्त भूख है

जो बनाती है आदमखोर

दु:ख वह पीड़ा है

जिसमें छिपी होती है आदमियत



4. कठिन


पहचान

बनाना या बन जाना

आसान भी है और कठिन भी

आसान है बन जाना

निंदक, हिंसक और गलीज़

कठिन है बन पाना

सर्जक, प्रेमी और नजीर


 

5. शब्दों का अर्थ


इस दौर में

दुनिया की अरगनी पर

शब्दों का अर्थ

लटका हुआ है उल्टा

प्रेम का अर्थ घृणा

अहिंसा का अर्थ हिंसा

वसुधैव कुटुंबकम् का अर्थ भूमंडलीकरण

भूमंडलीकरण का अर्थ एकीकरण 

भाषा का, बाज़ार का, संस्कृति का

 

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेंद्र जी की हैं.)


सम्पर्क


मोबाइल : 09415772386


टिप्पणियाँ

  1. सर, आपकी टिप्पणी बेहद मानीखेज है।
    साफगोई से सच्ची और अच्छी प्रतिक्रिया प्राप्त हुई आपसे।
    कविता की दुनिया में आपकी स्वीकार्यता और सक्रियता तथा आपकी संपादकीय दृष्टि हम जैसे युवा अध्येताओं और रचनाकारों को ख़ूब प्रेरित और प्रोत्साहित करती है।

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत ही सुंदर एवम् सटीक रचनाएं हैं सर !! पढ़ कर आनंद और संतोष की अनुभूति हुई कि आने वाले समय में हिन्दी साहित्य को आप जैसे कवि समृद्ध करेंगे !!

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. धन्यवाद नेहा जी।
      आपकी कविताओं से कई बार गुजरा हूं। मर्मस्पर्शी और महत्त्वपूर्ण हैं आपकी कविताएं।
      अपनी भी कोशिश रहती है कि जो कुछ कहना चाहते हैं, उसे काव्य रूप में प्रस्तुत कर सकूं।

      हटाएं
  3. बहुत महत्वपूर्ण एवं समसामयिक कविता।

    जवाब देंहटाएं

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