खेमकरण ‘सोमन' का आलेख 'तुम्हारा यहाँ तक पहुँचना : अनिल कार्की'
अनिल कार्की |
अनिल कार्की हमारे समय के महत्त्वपूर्ण युवा कवि हैं। उनकी कविताओं में पहाड़ और उत्तराखंड का जीवन, वहां की समस्याएं और विडम्बनाएं प्रमुख रूप से दर्ज हैं। वे उन विडंबनाओं को भी उभारते हैं, जो स्थानीय हो कर भी वैश्विक है। अनिल अल्मोड़ा के रानीखेत में नानीसार नामक जगह पर गाँववासियों द्वारा प्रारम्भ किए गए आंदोलन को कविता का विषय बनाने में हिचकते नहीं। वस्तुतः इस आंदोलन का बड़ा कारण था- जिंदल ग्रुप द्वारा निर्मित अंतरराष्ट्रीय बैक्लॉरेट स्कूल। ऐसा स्कूल जिसकी फीस लाखों में है और जिसका लाभ स्थानीय लोगों को मिल ही नहीं सकता। कवि खेमकरण ‘सोमन' ने अनिल कार्की के कवि कर्म की पड़ताल करने की एक कोशिश की है। आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं खेमकरण सोमन का आलेख 'तुम्हारा यहाँ तक पहुँचना : अनिल कार्की'।
तुम्हारा यहाँ तक पहुँचना : अनिल कार्की
खेमकरण ‘सोमन'
अनिल कार्की इक्कीसवीं सदी के कवि हैं। ओशो के शब्दों का सहारा ले कर कहें तो विचारों से पूर्णतः युवा और बेबाक। लोक-समाज से बहुत गहरा जुड़ाव रखते हैं। उनकी रचनाओं को पढ़ते हुए प्रतीत होता है कि आपबीती, सुख-दुख और कविता की धरती पर उगे प्रश्न उनके साथ-साथ पाठकों के भी हैं। कवि-नागरिकों के लिए एक कालजयी प्रश्न प्रायः उठता रहा है कि ‘यह समाज किधर जा रहा हैं?’ यह भी तब है जब देश में सरेआम लूटने-ठगने की प्रवृत्ति बढ़ जा़ती है। यह छुपा हुआ सत्य नहीं है कि आदमी के खून में अब ईमानदारी के तत्व निरन्तर विटामिन्स-प्रोटिन्स की तरह घट रहे हैं। कामगार हर स्थिति पर चुप रहते हैं या मौजमस्ती के लिए इतवार-छुट्टी की तलाश में। अलबर्ट कामू का कथन है कि अपने सामने की स्थितियों से निपटने के लिए व्यक्ति तीन प्रकार के उपाय करता है- आत्महत्या, देवी-देवताओं की शरण और स्थितियों की स्वीकार्यता। स्थितियों को स्वीकार कर उसे बदलने के गुण-तत्व कम ही व्यक्तियों में पाए जाते हैं। कुछ सामाजिक दबाब में आ कर आत्महत्या कर लेते हैं अथवा अधिकतर लोग, अपने कर्म-संघर्ष की राह छोड़ कर अपनी समस्याओं का निदान देवी-देवताओं के समक्ष की गई प्रार्थना में खोजते हैं, या स्थितियों के सामने हमेशा के लिए घुटने टेक देते हैं। बेशक... राग दरबारी उपन्यास के लंगड़ा की तरह उनके भौतिक कार्यों का सम्पादन हो या न हो! यह स्थिति भी एक प्रकार से स्वयं को ठगने जैसी है। देश के बेरोजगार, सामाजिक-सांस्कृतिक और राजनीतिक व्यवस्था परिवर्तित करने की अपेक्षा फरिश्ते और अपनी नौकरी की खोज में मंदिर, मस्जिद तथा चर्च के चक्कर लगा रहे हैं। विचार करें तो उनका यह विश्वास भी उन्हें एक प्रकार से ठग रहा होता है। इन स्थितियों को देख अनिल कार्की कहते हैं-
कामगार लोग रखते हैं
अक्सर तारीखें याद
उनकी जिंदगी में इतवार बन कर आते हैं
सबसे असरदार दिन
जबकि बेरोजगार रखते हैं याद
मंदिर गिरजे और मस्जिद भी
उनकी ही अजान की मोहताज हैं
कितनी अजीब बात है कि यहाँ
फरिश्ते भी जानते हैं
बेरोजगारों को ठगना।
(ठगना)
नदी का पानी, अपनी राह से निकल कर इधर-उधर हो जाए, तो उसका समुद्र में पहुँचना संभव होगा? कदापि नहीं। ये ऊर्जस्वित बेरोजगार भी नदी के पानी हैं जिन्हें जिस चीज़ के लिए जहाँ जाना चाहिए, वहाँ नहीं अपितु जहाँ जाना नहीं चाहिए, वहाँ जा रहे हैं। उनकी शिक्षा व्यवस्था ने भी उन्हें घोड़े की जगह पता नहीं जीव में परिविर्तित कर दिया है कि दौड़ना ही नहीं जानते! इसी कारण जीवन की राह में बिना संघर्ष वे पिछड़ते जा रहे हैं। मंदिर, मस्जिद और चर्च में आरामदायक रूप में बैठे पुजारी, मौलवी और पादरी, केवल उन्हें नहीं अपितु सम्पूर्ण समाज को भी यथास्थिति में रखना चाहते हैं। और वहाँ प्रार्थनाएँ कैसी होती हैं... आह कि यह विश्व स्वर्ग और बैकुंठ बन जाए। विश्व से दुख का नाश हो। प्राणियों में सद्भाव हो।
दुख-नाश के लिए प्रयत्न यानी निरन्तर संघर्ष की आवश्यकता होती है। संघर्ष के प्रार्थना की। उत्तराखंड की उच्च शिक्षा व्यवस्था में कार्यरत संविदा शिक्षक संघर्ष के इन्हीं रास्तों का अनुसरण कर अपने शोषण और सरकार के विरुद्ध में जब उत्तराखंड हाईकोर्ट में गए तो सरकार द्वारा हाइकोर्ट से पूरी लिस्ट मंगवा ली गई कि कौन-कौन शिक्षक हैं इस लिस्ट में! तदुपरांत उनकी नौकरी छीन लेने के नाम पर केस वापिस लेने का भारी दबाब बनाया गया। परिणामस्वरूप उच्च शिक्षा के शिक्षक घबराए हुए उच्च शिक्षा मंत्री उत्तराखंड से माफी माँगने पर विवश हो गए। इस समय के प्रत्यक्षदर्शी कवि अनिल कार्की संघर्षशील युवाओं से मुख़ातिब होते हैं-
तुम्हारा यहाँ तक पहुँचना
एक घटना नहीं बल्कि
एक कडुवा यथार्थ है उनके लिए
जो तुम्हें अपने सामने झुकाना चाहते हैं
वो छीन लेना चाहते हैं
तुमसे लड़ने-भिड़ने का जज्बा
बोलो क्या तुम इस बात के लिए
माफी माँगना चाहते हो कि
तुमने कानून पर विश्वास किया
बंदूक पर नहीं।
(माफी किस बात की)
संभवतः कानून पर नियति की तरह विश्वास करने का प्रतिफल है कि सम्पूर्ण विश्व सदियों से सपोलों की गिरफ्त में है। सदियों से देश और विश्व के कर्ता-धर्ता सामान्य आदमी नहीं हैं जिनकी संख्या करोड़ों-अरबों में है बल्कि वे हैं जिनकी संख्या मात्र दर्जन भर हैं। विडंबना है कि इनके यहाँ कोई बच्चा भी पैदा होता है तो पूरा विश्व चर्चा-परिचर्चा करने में रम जाता है। क्या सट्टा बाजार, क्या टीवी-अखबार, क्या पत्रकार, क्या समाज? हर कोई। जबकि उसी समय समस्याओं में घिरी गरीब स्त्री जब गर्भवती होती है या बच्चा जनमती है तो उसकी सुध-बुध लेने वाला कोई नहीं होता! यहाँ तक कि डॉक्टर और नर्स भी नहीं! यह सब मैदानी-पहाड़ी आपदाओं के बीच की बाते हैं! इस दृश्य को देख कर विषम भौगोलिक क्षेत्र के कवि अनिल कार्की बेचैन हो उठते हैं-
जिस वक्त
एक रानी जनती है एक सपोला
गर्म हो जाता है सट्टा बाजार
और भर जाते हैं अखबार
सात समन्दर पार से यहाँ तक
उसी वक्त दसियों किलोमीटर पैदल चल कर
पहुँचती है सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र तक
एक पहाड़ी स्त्री
जिसकी कोख में
आपदाओं में पैदा होने वाले बच्चे
ले रहे होते हैं साँस।
(इंग्लैंड की रानी के पुत्रवती होने और उत्तराखंड की आपदा के बीच)
कई प्रकार की प्राकृतिक-मानवीय आपदाओं के बीच रहने वाले अनिल कार्की, मुँहफट मिजाज के कवि हैं पर इसे अपने उत्तराखंड प्रदेश से प्यार है। अपनी माटी से प्यार है। इसलिए उनकी कविताओं में और संवेदनाओं की छाँव में समाज को शिखर पर पहुँचाने वाले किसान, मिस्त्री, घस्यारिन, नाई और सफाईकर्मी सम्मानित रूप में चित्रित हैं। सभी बच्चे अपने-अपने पिताओं को किताब में खोज रहे हैं लेकिन किताबों में कहीं उनका उल्लेख ही नहीं। रत्ती भर भी नहीं... जबकि किताबों में वैज्ञानिकों, डॉक्टर, इंजीनियर, मास्टर, प्रोफेसरों, तहसीलदार और जिलाधीशों का उल्लेख सदियों से है। इन सभी बच्चों को संबोधित करते हुए कवि अनिल कार्की कहते हैं-
मेरे प्यारे बच्चों
ये किताबें बदलनी हैं तुम्हें।
(प्यारे बच्चों)
पिथौरागढ़ में पूर्वी रामगंगा नदी के तट पर रहने वाले इस कवि को दुनिया की सभी नदियों से भी प्यार है। इतना कि दिल्ली, आगरा और हरिद्वार में रहने वाला आदमी भी यमुना-गंगा से प्यार न करता होगा। चाहे इस विषय पर विधानसभा-संसद भवन में दो दिवसीय चर्चा हो जाए। कवि को नदी से इतना प्यार है कि वह महाकाली नदी क्या, किसी भी नदी पर बाँध बनने-बनवाने के पक्ष में नहीं। परन्तु सरकारी तन्त्र यह समझने में असमर्थ है कि प्रेम, नवीन निर्माण का द्योतक होता है। यह किसी को नष्ट नहीं करता, बल्कि नष्ट होने से बचाता है। बाँध बनने की प्रक्रिया त्वरित गति से प्रारम्भ है। इस आंतरिक विक्षोभ को नकार भाव के साथ अनिल कार्की यूँ प्रकट करते हैं-
मैं नहीं कर सका
किसी भी नदी से प्रेम
कर पाना नदी से प्रेम
हर किसी के वश में कहाँ?
(काली पे बाँध)
कैसा अन्तर्विरोध है कि नदी से प्यार करने वाले कवि अनिल कार्की नदी के जीवन, और उस पर आश्रित दो देशों के जनजीवन-गाँव को बचाने के लिए महाकाली पर बाँध बनवाने के पक्ष में नहीं हैं। वहीं दूसरी तरफ सरकार भी दावा करती है कि उसे नदी से बहुत प्यार है ताकि काली (महाकाली) नदी पर पंचेश्वर बाँध बना कर वह दो देशों के जनजीवन को लाभ प्रदान कर सके। दोनों तो सही नहीं हो सकते! जनता ही उत्तर खोजे तो अधिक उचित होगा।
अतीत में जाएँ तो यही सब कुछ उत्तराखंड सरकार टिहरी के विषय में कहती थी! फिर टिहरी ऐसी डूबी की टिहरी की जनता आज तक अस्त-व्यस्त हैं। नई टिहरी बसी अवश्य लेकिन नई टिहरी, पुरानी टिहरी जैसे सुख और संवेदना देने में पूर्णतः असफल रही! डनकी यादें उन्हें आज भी रूलाती हैं। ऐसे में महाकाली पर बनने वाला बाँध तो रूस के रोगुन बाँध के बाद दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा बाँध है? एक सौ चौतीस वर्ग किलोमीटर में विस्तारित यह बाँध, विचार करें कि कितना बड़ा क्षेत्र डूब-डूबा ले जाएगा। भारत और नेपाल के इस प्रयास में, दोनों देश के इस बड़े प्रोजेक्ट में, उनकी डीपीआर में स्थानीय बोली-भाषा, संस्कृति, सभ्यता, जमीन, इतिहास और पर्यावरण आदि की कोई चिंता प्रकट नहीं होती। दोनों देश बस अपने-अपने कार्य मे लगे हुए हैं। इस विकट संकट की घड़ी में अनिल कार्की कहते हैं-
तत्पर है दो देश इस समय
इसको बाँधने को
अपनी-अपनी राजधानियों में कर रहे हैं
फाइलें इधर से उधर
दूर पहाड़ में
काली बेखर बह रही है
अपने दोनों किनारों पर
असंख्य गाँव समेटे।
(काली पे बाँध)
उत्तराखंड को ये दिन देखने न पड़ते! यदि यहाँ की भाषा, संस्कृति और लोक अस्मिता को पढ़ने-गढ़ने का प्रयास होता। इसी अस्मिता के दृष्टिकोण से ही तो वर्ष दो हजार में एक, नौ और पंद्रह नवम्बर को क्रमशः तीन राज्य छत्तीसगढ़, उत्तराखंड और झारखंड अस्तित्व में आए। छत्तीसगढ़ में संयुक्त राज्य मोर्चा की अपेक्षा झारखण्ड में झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) और उत्तराखंड में उत्तराखंड क्रांति दल (उक्रांद) के संघर्ष सशक्त एवं जमीनी थे। अतीत के पृष्ठ पलटने पर प्रतीत होता है कि इन बीस वर्षों में अपनी जमीनी हकीकत और कार्य व अस्मिता के कारण झारखंड मुक्ति मोर्चा, बीच में कुछ भटकाव के बाद भी झारखंड में अपनी पकड़ बनाने में पुनः कामयाब हुई है। वहीं उत्तराखंड में उत्तराखंड क्रांति दल अब लगभग खत्म होने की स्थिति में है। वह पानी के एक-एक बूँद के लिए तरस गई है। छत्तीसगढ़ और झारखंड अब कई मायनों में उत्तराखंड से आगे हैं। यहाँ के भोले-भाले लोग बस देवभूमि-देवभूमि, मेरा पहाड़-मेरा पहाड़ कहते रह गए। काश... इन मासूम उद्गारों को पनाह देने के जमीनी प्रयत्न होते! फिर इन सबको कभी उक्रांद भी एकजुट नहीं कर पाई। उनके बीच उपजा अवसरवाद और पर्वतीय, भावर व मैदान की अनदेखी अन्ततः उक्रांद को ले डूबी। अनिल कार्की इस क्षेत्रीय पार्टी से अपने हृदयोद्गार प्रकट करते हुए कहते हैं-
हम इस समय उदास हैं
ओ उक्रांद
इस उदासी के जिम्मेदार तुम भी हो
ठीक वैसे ही जैसे हम तुम्हारी
बेदखली के जिम्मेदार
एक (एकजुट) तो करो
पहाड़ भी झूम उठेगा
ओ उक्रांद
सुन रहे हो न तुम!
(ओ उक्रांद)
उक्रांद कितना सुन रहा है यह उक्रांद और उनके नेताओं से वार्तालाप कर जाना जा सकता है लेकिन उत्तराखंड में जहाँ भी जाएँ; सांस्थानिक भ्रष्टाचार पैसा ले कर ही सुनता है, यह निश्चित और भीतरी बात है! यह सरलता से समझ नहीं आएगी! यही स्थिति देश की है? यह भी भीतरी और शर्मनाक बात है कि बेरोजगार जब तक बेरोजगार रहता है; उगते सूरज की ओर ताक-झाँक कर कर्तव्य-अधिकार पर खूब लंबे-चौड़े भाषण देता है! और जैसे ही उसे रोजगारी की प्राप्ति होती है अथवा सरकारी सेवा में किसी पद पहुँचता है या पदोन्नतिस्वरूप तहसीलदार बनता है, एकाएक भ्रष्ट बन जाता है। फिर उड़ती चिड़िया का अर्थ, उसकी दृष्टि में उड़ती चिड़िया नहीं बल्कि अतिरिक्त कमाई का बड़ा साधन अर्थात रिश्वत हो जाता है। इस संदर्भ में कवि अनिल कार्की लिखते हैं-
आदमी कड़क है
कम बोलता है
ज्यादा सोचता है
जम के खाता है
डकार मारता है
कहता है ठेकेदार से
बोलो कहाँ बिठानी है चिड़िया
पहले हरे पत्ते वाला पेड़ दिखाओ
मेरी चिड़िया सूखे में नहीं बैठती।
(नया तहसीदार)
राज्य बनने की प्रसन्नता का खुमार उत्तराखंड पर इतना छाया कि चेतन की जगह अवचेतन में चला गया! वर्तमान कालावधि में भी अर्द्धचेतन की अवस्था में है। उसे जगाने की आवश्यकता निरन्तर बनी हुई है। एक प्रकार से बीस-इक्कीस वर्षों का समय इस राज्य के लिए लॉक डाउन सरीखा रहा है। इसी बीच धीमी गति से जो भी प्रगति हुई, राज्य की वास्तविक प्रगति वही है। चेतना का लॉक डाउन खुले तो यह राज्य फिर कई स्तरों पर प्रगति करे। कवि अनिल कार्की से राज्य की यह स्थिति छुपी नहीं है। वह परिचित हैं कि संविधान ने स्त्रियों को कई अधिकार दिए है। फिर भी स्त्रियाँ अभी भी लॉक डाउन की स्थिति से गुजर रही हैं। कविता के आलोक में कवि कार्की देखते हैं कि-
जब से खुद बनी है पधानी
हजार झंझट लग गए हैं पीछे
अब जब आते हैं अफसरान
पल्लू सर कर के
कहना पड़ता है नमस्कार
कागज़ों से ले कर
पधान की मुहर तक
सब सम्भाल लेता है प्रधानपति
पधानी करती है चूल्हा-चौका।
(नई ग्रामपधानी)
अल्मोड़ा के रानीखेत में नानीसार नामक जगह पर गाँववासियों द्वारा एक आंदोलन प्रारम्भ हुआ। इस आंदोलन का बड़ा कारण था- जिंदल ग्रुप द्वारा निर्मित अंतरराष्ट्रीय बैक्लॉरेट स्कूल और उसका प्रस्ताव। इस प्रस्ताव में लिखा हुआ था कि इस स्कूल में कॉरपोरेट जगत, एनआरआइ, उत्तर-पूर्व, माओवाद प्रभावित क्षेत्र, गैर-अंग्रेज़ी भाषी देश, विदेशी समुदाय और वैश्विक एनजीओ द्वारा प्रायोजित बच्चे पढ़-लिख सकेंगे। स्कूल की वार्षिक फीस भी स्कूल बीस-बाईस लाख रुपये थी। उस समय कॉंग्रेस के तत्कालीन मुख्यमंत्री हरीश रावत और भाजपा के सांसद मनोज तिवारी ने जन आकांक्षाओं को हाशिये पर रख कर फाइव जी स्पीड से स्कूल का उद्घाटन भी कर दिया था।
कैसी विद्रूपता है कि लगभग सात हेक्टेयर की जमीन पर बनने वाले इस स्कूल में उन्हीं के बच्चे नहीं पढ़-लिख नहीं सकेंगे, जिनकी यह जमीन हैं। यदि पढ़-लिख भी सकेंगे, तो एक वर्ष में बीस-बाईस लाख रुपये कहाँ से लाएँगे? यह स्थिति वाकई पीड़ादायक है, अतः जब गाँववासियों ने विरोध किया तो जिंदल के बाउंसरों ने उन्हें पीटा भी। अनिल कार्की इस आंदोलन का आवश्यक अंग बन कर तत्कालीन सरकार से कहते हैं-
हे महाराज!
धन्य राजा धन्य नर-नारायण
इंद्र का इनरासन (इंद्रासन)
प्रशासन क्या शासन हुआ
तुम्हारा सिंहासन
नाच हुए जहाँ किसम-किसम के
तुम चील गिद्धों के दगाड़िये (सच्चा साथी)
तुम मेंसखात (इनसान का रक्त चूसने वाले) लोग
दूर देश से आण-बाण (चेले-चपाटे)
बाउंसर-फाउंसर
ले आए हो
हमारी धड़-पकड़ को।
(प्रदेश के दलालों के नाम)
कवि अनिल कार्की की कविताएँ लोकतत्व के रंगों से रंगीली हैं। संभव है कि बाहरी परिवेश के पाठकों को कविता समझने में कुछ शब्द और अर्थरूपी जटिलता का सामना करना पड़े! यह बड़ी समस्या नहीं, फिर भी इस समस्या के निदान के रूप में उनके दोनों काव्य संग्रह (उदास बख्तों का रमोलिया, पलायन से पहले) में फुट नोट्स दिए गए हैं। कविताओं के नैसर्गिक प्रवाह के लिए यह आवश्यक भी है कि इन शब्दों को उसी रंगरूप में देखा, रखा-परखा जाए, जिस रंगरूप और ढंग का कवि है। यही तो अनिल कार्की की लोक संवेदना है। यह खत्म, तो शब्द खत्म, शब्द खत्म तो कवि भी खत्म।
अतः कविता के माध्यम से ऐसे लोक निर्मित शब्दों को स्वीकार करना, वास्तव में हिंदी साहित्य के विस्तार एवं सम्वर्द्धन हेतु सम्मानजनक नजरिया है। पाठक-नागरिक वैश्विक स्तर पर अंग्रेजी या दूसरी उपभाषाएँ-भाषाएँ प्रायः बोलते-लिखते, पढ़ते ही रहते हैं तो दिल्ली, इलाहाबाद, लखनऊ और बनारस में कुमाऊँनी का दाज्यू शब्द भी बोल-लिख और पढ़ दिए तो यह स्वागत योग्य है। कई लोग जानते हैं कि कुमाऊँ मंडल में बड़े भाई को दाज्यू कहा जाता है। हालांकि अब तो यह शब्द चर्चित हो कर बहुत विस्तार पा चुका है। दाज्यू की भांति ही कई लोक शब्द अनिल की कविताओं की विशेष उपलब्धि है। इस क्रम में मुझे सुप्रसिद्ध कथाकार शेखर जोशी जी की ‘दाज्यू’ शीर्षक कहानी याद आ रही है।
अन्त तक आते-आते आपने जितना भी देखा-पढ़ा, जाँचा, इसे कवि अनिल कार्की की कविताओं के बहाने बस एक संक्षिप्त वार्तालाप समझें। अपने समय-समाज के मुद्दों पर वार्तालाप। इस कवि की कविताओं से गुजरते हुए मैंने पल-पल अनुभूति की कि कवि अनिल की पकड़ आसमान की अपेक्षा अपनी जमीन पर अधिक है। कवि रूप में अनिल तीक्ष्ण और सूक्ष्म दृष्टि से लैस है। इसीलिए उनकी कविताओं में बहुत विविधता, आत्मबोध और गहरा सरोकार दिखता है। तभी ये कविताएँ सीधे हृदय में ही आ बैठती हैं। एक उदाहरण देखिए कि-
किसान के बच्चों ने
किताब का पहला पन्ना खोला
देर तक किताबों में ढूँढा किसान
मिस्त्री का बच्चा
ढूँढता रहा मिस्त्री किताबों में
दुनिया के सबसे बड़े महलों
मीनारों का रास्ता पढ़ता हुआ
घस्यारिन के बच्चे
गहस्यरिनें ढूँढते रहे
पहाड़ों के बारे में पढ़ते हुए किताबों में
नाई की बच्ची
ढूँढती रही कैंची से निकलती
गोरैया सी आवाज के साथ
अपने पिता को किताबों में
सफाईकर्मी का बच्चा ढूँढता रहा
एक साफ सुथरी बात कि उसका पिता क्यों नहीं है किताबों में
कौन इन्हें बताए
यह दुनिया केवल
डॉक्टर इंजीनियर मास्टर प्रोफेसरों की है
तहसीदार जिलाधीशों की है
इसमें मजूरों किसानों
नाई और घस्यारिनों की कोई जगह नहीं
मेरे प्यारे बच्चों
ये किताबें बदलनी हैं तुम्हें।
(प्यारे बच्चों)
यकीनन, किताबें बदलने की आवश्यकता हैं। किताबें बदलेंगी भी। इसके लिए एक ही रास्ता है- संघर्ष का रास्ता। कवि अनिल कार्की इन्हीं रास्तों के कवि हैं।
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स स्व. विजेंद्र जी की हैं।)
खेमकरण ‘सोमन’
द्वारा श्री बुलकी साहनी,
प्रथम कुंज, अम्बिका विहार, भूरारानी, वार्ड-32,
रूद्रपुर, जिला-ऊधम सिंह नगर, उत्तराखंड
मोबाइल: 09045022156
ईमेल: khemkaransoman07@gmail.com
बहुत सुन्दर चिन्तन लाजवाब सृजन पर ।
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