सेवाराम त्रिपाठी का आलेख 'हरिशंकर परसाई और व्यंग्य की दुनिया'
व्यंग्य की धार बड़ी तीखी होती है। यह दिल पर गहरा चोट करती है। इसे यूं भी कहा जा सकता है कि यह दिल को चीर कर रख देती है। वह व्यंग्य ही क्या जो अपने अंदाज में गहरी चोट न करे। इस मामले में हरिशंकर परसाई के व्यंग्य काफी तीखे और मारक होते हैं। परसाई जी जैसा व्यंग्यकार मिल पाना दुर्लभ है। आलोचक सेवाराम त्रिपाठी ने हरिशंकर परसाई के व्यंग्य पर एक पड़ताल की है। आइए आज पहली बार और पढ़ते हैं सेवाराम त्रिपाठी का आलेख 'हरिशंकर परसाई और व्यंग्य की दुनिया'।
हरिशंकर परसाई और व्यंग्य की दुनिया
सेवाराम त्रिपाठी
"सही व्यंग्य व्यापक जीवन परिवेश को समझने से आता है। व्यापक सामाजिक, राजनीतिक परिवेश की विसंगति, मिथ्याचार, असामंजस्य, अन्याय आदि की तह में जाना, कारणों का विश्लेषण करना, उन्हें सही परिप्रेक्ष्य में देखना - इससे सही व्यंग्य बनता है। ज़रूरी नहीं कि व्यंग्य में हंसी आए। यदि व्यंग्य चेतना को झकझोर देता है, विद्रूप को सामने खड़ा कर देता है, आत्म साक्षात्कार कराता है, सोचने को बाध्य करता है, व्यवस्था की सड़ांध को इंगित करता है और परिवर्तन की ओर प्रेरित करता है तो वह सफल व्यंग्य है। जितना व्यापक परिवेश होगा, जितनी गहरी विसंगति होगी, जितनी तिलमिला देने वाली अभिव्यक्ति होगी, व्यंग्य उतना ही सार्थक होगा।" (हरिशंकर परसाई)
इस वक्तव्य में व्यंग्य के व्यापक परिप्रेक्ष्य के बारे में परसाई जी ने वास्तविकता व्यक्त की है। यही नहीं अपनी वे तमाम चिंताएं जाहिर भी की हैं? जिससे वे जूझते रहते थे। जैसे हमें सत्ता के बहुत बड़े भूसे के ढेर में से जनतंत्र को तलाशना पड़ता है, उसी तरह व्यंग्य के भारी-भरकम स्टाक स्टोर में से व्यंग्य खोजना पड़ता है। लिखाई- छपाई बहुत है और व्यंग्य के छम्मक-छल्लो भी अनंत हैं? जाहिर है कि जल्दी व्यंग्य मिलता कहां हैं? न जाने वह कितनी परतों में छिपा हुआ है? लोग व्यंग्य को फटाफट अंदाज़ में परोस रहे हैं और प्रशंसा के संसार को जबरन अपने लिए झुकाने में लगे हुए हैं।
व्यवस्थित व्यंग्य या जन जीवन की वास्तविकता को उजागर करने वाले व्यंग्य कराह रहे हैं? सच्चे साहसी और भीतर तक चीर देने वाले व्यंग्य की ख़ोज इस दौर में काफ़ी कठिन और पेचीदा काम है। ऐसा नहीं है कि अच्छे और सच्चे व्यंग्य निरंतर लिखे नहीं जा रहे हैं। लिखे तो जा रहे हैं लेकिन उनमें से सही व्यंग्य तलाशना बेहद मुश्किल है। यानी एकदम टेढ़ी खीर। जाहिर है कि यह ऐसा दौर है जबकि व्यंग्य की स्थितियों की दिन-ब-दिन बढ़ोत्तरी हुई है। विद्रूप, अंतर्विरोध, विसंगति, विडम्बना और गलत-सलत चीज़ों के, शोषण, उत्पीड़न, भय, भ्रष्टाचार के विशालकाय पहाड़ खड़े हैं। विरोधाभासों का जमघट लगा है। 'लूट सको सो लूट लो' की गाजें गिर रही हैं। अन्याय, हिंसा और दुरभिसंधियों ने हमारे समूचे विकास को छेंक रखा है। जैसे अब तो राज-काज करना है तो चाहे जितना गिरना पड़े। लोग गिर कर भी सत्ता प्रतिष्ठान और संस्थानों में चढ़ते जा रहे हैं?
गिरना इस समय की एक फिज़ा है। एक ज़रूरी सी कार्रवाई है।गिरे बगैर किसी भी कीमत में काम चलने का नहीं? इस धुंधुआए परिवेश में बार-बार हरिशंकर परसाई की हैसियत, निष्ठा और उनके व्यंग्य-बोध का परीक्षण आसानी से किया जा सकता है। वे जीवन के विस्तार को समझ-बूझ कर, देख-भाल कर उसे अंजाम देते हैं। उनका समूचा व्यंग्य लेखन- 'सीस काट भुई मा धरे', की व्यापक कार्रवाई का लेखन है। उनके लेखन में विद्यमान खरापन, साफगोई हमें लगातार आकर्षित ही नहीं करती है बल्कि अंदर तक चीर भी देती है?
परसाई जी के इस दुनिया से विदा लेने के बाद व्यंग्य का एरिया बहुत बढ़ा है। उसकी पहचान विस्तृत हुई है। उसकी क्षमता और लोकप्रियता में बेइंतिहा इज़ाफा हुआ है। और मांग और आपूर्ति की तरह खपत भी बढ़ी है? खर पतवार के दौर में व्यंग्य आसान नहीं रह गया, लेकिन व्यंग्य के हल्केपन और संकीर्णता ने, कूढ़ मगज मनोविज्ञान ने उस पर अनेक प्रश्न भी जड़ दिए हैं। व्यंग्य खूब लिखे जा रहे हैं और छापे भी जा रहे हैं और गाए- बजाए भी जा रहे हैं। प्रशंसा का वितान भी निर्मित हुआ है? चिंता यह है कि यह क्या हो रहा है? लेकिन किसी को व्यंग्य से कोई डर नहीं और शायद कोई खतरा भी नहीं। सब नाक की सीध सरपट दौड़ते जा रहे हैं?
हरिशंकर परसाई को किन्हीं बंधे-बंधाए खांचों में, बने-बनाए फार्मूलों में हमें नहीं देखना चाहिए। न देखा जा सकता? उनकी प्रकृति एकदम स्वतंत्र है। परसाई का गद्य हंसता-खिलखिलाता हुआ बहुत सख़्तजान वाला गद्य है। वह हमें अदंर तक बेचैन करता, निर्झर की तरह बहता, रचनात्मक शक्ति में डूबा हुआ गद्य है। उनके लेखन की अंतर्धारा भी है और एक हरहराती हुई वाह्यधारा भी, जो भारतीय जीवन और समाज में व्यापक, मूलगामी परिवर्तन की आकांक्षा से भरी हुई है। उनका समग्र लेखन भारतीय नागरिक की ओर से ही नहीं बल्कि विश्व नागरिकों की ओर से सतत एक जिरह भी है। खदबदाता हुआ तूफान है और मनुष्यता की अदालत में हलफनामा भी है। उनका व्यंग्य लेखन गलत मनोविज्ञान, असद आचरणों के खिलाफ़ लगातर मुठभेड़ भी है। वह पुरस्कार, कीर्ति, पद-प्रतिष्ठा और किन्हीं भी चालाकियों को पछाड़ता हुआ मानवीय मूल्यों, सरोकारों, उम्मीदों और लक्ष्यों की एक विशेष धारा को ठीक करने वाला विशेष प्रकार का व्यंग्य है, जिसमें करूणा, विकास और मनुष्यता की त्रिवेणी है। मुक्तिबोध ने सच ही संकेतित किया था - "परसाई जी का सबसे बड़ा सामर्थ्य संवेदनात्मक रूप से यथार्थ का आकलन है, चाहे वह राजनैतिक प्रश्न हो या चरित्रगत हमारे यहां की साहित्यक संस्कृति ने सचाई के प्रकटीकरण पर जो हदबंदी करके रखी है, उसे देखते हुए श्री परसाई जी की कला सहज ही वामपक्षी हो जाती है।" (मध्य प्रदेश का जाजवल्यमान कथाकार निबंध)
हरिशंकर परसाई का लेखन आज़ाद भारत की भयावह त्रासदी, ज़िंदगी, उसके अंतर्विरोधों, विसंगतियों, विरोधाभासों, विडंबनाओं, छलनाओं, प्रवंचनाओं, दोगलेपन, हताशाओं और साजिशों को फलांगता हुआ, उनसे मुठभेड़ करता हुआ, लोकतंत्र की हिल रही उम्मीदों की बुनियाद पर फोकस करने वाला है। वे गणतंत्र की ठिठुरन भी देखते हैं और अकाल उत्सव की विकट परिस्थितियों और विकराल दुनिया भी अनुभव करते हैं और उसे कराते भी हैं। इधर एक तबके के ताल्लुकात सरोकार विहीनता में टंग रहे हैं, हालांकि ये मनचली ताकतें राष्ट्रवाद के उफान से ग्रस्त व्यंग्य-व्यंग्य की चीख-चिल्लाहट मचाए हुए हैं?
मार्क्सवाद परसाई जी की जीवनी शक्ति ही नहीं उनकी गहरी निष्ठा का प्रमाण है। जिसका संबंध भारतीय जीवन और समाज, आदमी की प्रतिबद्धता, संबद्धता का घोषणा पत्र है। परसाई जी ने अपने आपको कभी भी छिपाया नहीं है। इस संसार से विदा हुए परसाई जी को लगभग सत्ताइस वर्ष से अधिक का समय हो चुका है लेकिन उनकी रचनाएं और उनकी आवाज़ का जादू दिन- ब-दिन बढ़ रहा है। यूं तो जब हम उनकी रचनाओं का पाठ और पुनर्पाठ करते हैं तो समय के विराट चक्के में देश की आज़ादी, जनतंत्र और संविधान को घिरा हुआ पाते हैं। मनुष्य की जिजीविषाओ को ख़त्म करने की साजिशों से भी दो चार होंगे? जनतंत्र को इस दौर में भयानक संकटों से बिंधा हुआ पाते हैं। तरह- तरह से जनतंत्र को खंडित, विरूपित किया जाना धड़ल्ले से देख रहे हैं। आज के दौर में हमें जो लेखक सर्वाधिक याद आते हैं, उनमें मुक्तिबोध, हरिशंकर परसाई, नागार्जुन, शमशेर बहादुर सिंह, धूमिल और सर्वेश्वर दयाल सक्सेना इत्यादि प्रमुख हैं। ये आंकड़ा इतना छोटा नहीं है कि यहीं पूरा हो जाता है। उसमें भी परसाई की चिंताएं अकूत हैं और धारदार भी।
उनका एक कथन ज़रूर देखें। "उनका एक कथन ज़रूर देखें।"हमारे बापों से तब कहा जाता था कि आज़ादी की घास गुलामी के घी से अच्छी होती है। हम तब बच्चे थे, मगर हमनें भी इसे सुना, समझा और स्वीकारा। आज़ाद हो गए, तो हमने कहा -अच्छा, अब हम गौरव के साथ घास भी खा लेंगे।.. नारा लगाने वालों से पूछना भूल गए कि वे कब तक खाएंगे। मगर हमनें देखा कि कुछ लोगों ने अपनी -अपनी काली- काली भैंसें आज़ादी की घास पर छोड़ दीं और घास उनके पेट में जाने लगी। तब भैंस वाले उन्हें दुह कर घी बनाकर हमारे सामने ही पीने लगे।"
परसाई के जीवन और मनोविज्ञान में जनतंत्र की बिडम्बनाएं , अंतर्विरोध, विसंगति और वास्तविकताएं विशाल फलक पर रही हैं। जिसका बार-बार चित्रण उनके लेखन में अनुस्यूत है। परसाई जी के न रहने पर उनका लेखन हमें निरंतर याद आता है। इसलिए कि उसमें सच्चाई का जज़्बा और ताप है और विद्युत जैसी लहर है। यूं तो देश की विभिन्न समस्याओं पर, विकृति, बिडंबना, आज़ादी और जनतंत्र के खोखलेपन पर, संवैधानिक तहस-नहस पर, आम आदमी के शोषण उत्पीड़न पर उनकी पैनी निगाह रही है और उसका सक्षम प्रतिरोध भी। उनका लेखन मनुष्य की कर्मठता, सूझबूझ और जिजीविषा का असाधारण रूप है। उनका लिखा बेहद जरूरी है। अतिरेक न समझा जाए तो कहना ज़रूरी है कि परसाई जी के लेखन में जो बातें आती हैं वे सूत्रों की तरह आती हैं। मुझे उनकी बातें राम चंद्र शुक्ल की याद दिलाती हैं। पुल निर्माण के संदर्भ में और भ्रष्टाचार के सिलसिले में दो सूत्र वाक्य पढ़ें और गुनें। "पुल पार करने के लिए नहीं, बल्कि उद्घाटन के लिए बनाए जाते हैं। पार उतरने के लिए उसका उपयोग हो जाता है, प्रासंगिक बात है…।" इसी प्रकार दूसरा मुद्दा देखें - "मुनाफाखोरी, काला बाजारियों.. भ्रष्टाचारियों ने मिल कर राष्ट्र को एक कर दिया है।"
उनकी प्रायः सभी रचनाएं हमें पाठ और पुनर्पाठ का आमंत्रण देती हैं। पाठपुनर्पाठ हो भी रहा है लेकिन उसे कबड्डी खेलने की प्रतियोगिता जैसे के रूप में नहीं इस्तेमाल किया जाना चाहिए? और न किसी तरह की वाहवाही लूटने के लिए। जनतंत्र के न जाने कितने रूप उनके लेखन में सक्रिय हैं। मसलन ठिठुरता हुआ गणतंत्र, अकाल उत्सव, आदि। उनका एक वाक्य है। "प्रजातंत्र तो भेड़ों के झुंड का नाम है।" इसी तरह उनका यह कहना भी देखें। "हम नहीं बजा रहे हैं, फिर भी तालियां बज रही हैं। मैदान में ज़मीन पर बैठे वे लोग बजा रहे हैं, जिनके पास हाथ गरमाने के लिए कोट नहीं है। लगता है, गणतंत्र ठिठुरते हुए हाथों की तालियों पर टिका है। गणतंत्र को उन्हीं हाथों की ताली मिलती है, जिनके मालिक के पास हाथ छिपाने के लिए गर्म कपड़ा नहीं है।"
परसाई के दूसरे पक्ष पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए। उन्होंने दक्षिणपंथी मनोविज्ञान और ताकतों के खिलाफ़ अत्यंत प्रखर हो कर विरोध किया था। उन्होंने जनसंघ, भाजपा और आर एस एस की तीखी आलोचना भी की थी। इसके परिणाम भी भुगते थे। आर एस एस के दो युवकों ने उन्हें 21 जून 1973 को उनके निवास पर पहुंच कर आक्रमण किया था। इसके तमाम साक्ष्य हैं। उसके बाद परसाई जी ने लिखा था कि मेरा लिखना सार्थक हो गया। दक्षिणपंथी ताकतों से परसाई जी ने आजीवन संघर्ष किया था। उनका एक व्यंग्य पढ़ें। महात्मा गांधी को चिट्ठी पहुंचे,-"गोडसे को भगत सिंह का दर्जा देने की कोशिश चल रही है। गोडसे ने हिंदू राष्ट्र के विरोधी गाँधी को मारा था। गोडसे जब भगत सिंह की तरह राष्ट्रीय हीरो हो जाएगा, तब तीस जनवरी का क्या होगा? अभी तक यह गांधी निर्वाण दिवस है, आगे गोडसे गौरव दिवस हो जाएगा। इस दिन कोई राजघाट नहीं जाएगा, फिर भी आपको याद ज़रूर किया जाएगा।" इसमें निहित संदर्भ को समझने की जरूरत है।
परसाई जी का पुनर्पाठ करने के अनेक पक्ष हैं। फिलहाल तीसरा पक्ष यह है कि परसाई जी ने बंधी-बंधाई विधाओं में ही नहीं लिखा, बल्कि अन्य विधाओं में भी अच्छी खासी तोड़-फोड़ की। जैसा विश्वनाथ त्रिपाठी और उदय प्रकाश ने अपने लेखन में बाद में किया। अन्य भी कर रहे हैं। उसी तरह संस्मरण विधा को नए- नए रूपों में उन्होंने प्रस्तुत किया। मुक्तिबोध : एक संस्मरण, इसका सक्षम उदाहरण है। इस तरह के संस्मरणों का प्रयोग उनके समय में और बाद में काशी नाथ सिंह एवं कांति कुमार जैन ने किए हैं?
परसाई जी के बाद अनेक तथाकथित व्यंग्य लिखने के लिए लिखे जा रहे हैं या छपास के लिए भी लिखे जा रहे हैं? छपने के लिए लिखे जा रहे व्यंग्य में वो ताक़त कैसे आ सकती है? अपना महत्त्व स्थापित करने के लिए लिखे जा रहे व्यंग्य उस तड़प से बाहर ही होते हैं? देश की वास्तविक समस्याओं को रेखांकित और उजागर करने के लिए नहीं? परसाई जितने विक्षुब्ध हो कर लिखते हैं और पाठक को विक्षुब्ध करते हैं। वो यथार्थ निरंतर कम हुआ है। अब कम व्यंग्य ही ऐसा कर पाने में समर्थ हो पाते हैं? उनकी गंभीरता कई बार अनेक प्रश्न रखती है? व्यंग्य लेखन में परसाई जो मानक निर्मित कर गए हैं - उसको तोड़ना न सहज है और न संभव और न किसी तरह सरल है? बल्कि परसाई का लिखा व्यंग्यकारों के लिए भी एक बहुत बड़ी चुनौती है। हरिशंकर परसाई और शरद जोशी के व्यंग्य पढ़ कर देखिए। दोनों में कुछ फ़र्क है क्या? परसाई का लेखन अपने समय की समग्र सच्चाइयों और विभीषिकाओं से जूझ-जूझ कर निकला है। परसाई का लेखन अपने वर्तमान में ज्यादा मुखर होता है लेकिन इतिहास और संस्कृति के तमाम रूपों को व्यवस्थित तरीके से उजागर करता है।
परसाई जी ने ज़िंदगी के विभिन्न क्षेत्रों में जा कर विसंगतियों, विद्रूपताओं और विडंबनाओं की गहरी छानबीन और जांच पड़ताल की है। "सफलता के महल का सामने का आम दरवाजा बंद हो गया है। कई लोग भीतर घुस गए हैं और उन्होंने कुंडी लगा दी है। जिसे उसमें घुसना है, वह रूमाल नाक पर रख कर नाबदान में से घुस जाता है। आस-पास सुगंधित रूमालों की दुकानें लगी हैं। लोग रूमाल खरीद कर उसे नाक पर रख कर नाबदान में घुस रहे हैं। जिन्हें बदबू ज्यादा आती है और जो सिर्फ मुख्य द्वार से घुसना चाहते हैं, खड़े दरवाजे पर सिर मार रहे हैं और उनके कपालों से खून बह रहा है।" ( पगडंडियों का जमाना)
हरिशंकर परसाई विट के बारे में कमाल करते हैं। चर्चा करना ज़रूरी है कि परसाई के लेखन में वे तमाम रूप या तंतु खुल कर खेलते हैं जो जल्दी ही दृष्टिगोचर नहीं होते। कितने रूपक, उपमान, प्रतीक, सादृश्य, मिथक और हमारे रोजमर्रा जीवन से जुड़े तमाम रूप या सच अचानक प्रकट होते जाते हैं।
(1) वे और होते हैं जिनके चरण-स्पर्श से पत्थर भी स्त्री बन जाता है। वे अपनी स्त्री को छोड़ देने वाले होते हैं।
(2) दो अवसरों पर आदमी का चेहरा बहुत विकृत और हास्यास्पद होता है- प्रशंसा स्वीकार करते समय और प्रणय - निवेदन करते समय।
(3) शाम को डूबते सूरज को देख रहा था। निर्मल मन का कवि होता तो सोचता कि नीले सरोवर में कमल खिला है। इतना निर्मल मन हम कहां से लाएं। मुझे सूरज उस पुलिस अफसर के कपाल के टीके की तरह लग रहा था जिसने मेरी एक दोस्त को झूठे फौजदारी मामले में फंसा दिया है। वह बड़ा सा लाल टीका लगाता है। शायद हनुमान का सिंदूर है। मैंने उससे कहा था- साहब, यह टीका क्या झूठ पचाने के लिए लवण भास्कर चूर्ण है।" (परसाई रचनावली -3, पृष्ठ - 308)
इस कठिन दौर में हरिशंकर परसाई दिनोंदिन अत्यधिक प्रासंगिक होते जा रहे हैं। उनकी रचनाशीलता वर्तमानता में ज्यादा मुखर होती है और जीवन मूल्यों के साथ सांस लेती है। वे जल्दी खप जाने वाले लेखक कभी नहीं हो सकते? उनके जीवन वास्तव को जीवन संघर्ष को मेरी नज़र में दो लोगों ने अत्यंत निकट से देखा जाना और पहचाना है एक - मायाराम सुरजन और दूसरे हनुमान प्रसाद वर्मा ने। इन्होंने अपने संस्मरणों में इसका विस्तार से जिक्र किया है। जहां तक मुझे सूत्रों से प्राप्त जानकारी है। परसाई जी 1944 से जबलपुर में रहे और यहीं के हो कर रह गए। उनके यूं तो अनेक मित्र थे। सबके पास परसाई की अलग-अलग छवियां हैं। वे कस्बे के एक ठेठ जीवन शैली वाले आदमी रहे हैं। परसाई बारीक नज़र वाले आदमी यूं ही नहीं बन गए। उनका काफ़ी बड़ा रचना संघर्ष रहा है। परसाई की रचनात्मकता में उनकी संपर्क क्षमता का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है।
परसाई का जीवन कोई सीधा सादा जीवन नहीं रहा बल्कि उसमें संघर्ष के विराट आकार, जीवन के अंदरूनी इलाकों के ताप और लोग के संकटों के अंबार भी थे। अपने तई परसाई जी ने उन्हें अपने लेखन में वाणी भी दी है जगह भी। हनुमान वर्मा ने अपने संस्मरण में इसका उल्लेख किया है - "परसाई बंजारा का जीवन भी जिए और यायावरी का जीवन भी जिए। परसाई बड़ों के लिए भी जिए और छोटों के लिए भी जिए। परसाई लंबे थे। ऊंचाई थी, तो सात्विकता भी थी। परसाई दुबले थे, तो समाज के भीतर जो दुबला है, उसके प्रति भी संवेदना उनके जेहन में थी। कहीं पर भी कटुता नहीं मिलेगी।… कबीर, तुलसी, ओ हेनरी, या चेखव , बालजाक या गोल्डस्मिथ, यूरिपिडिस या शेक्सपियर - कहीं पर भी आप जाएंगे, आपको वहां परसाई मिलेंगे।" (वसुधा)
सम्पर्क
रजनीगंधा-06, शिल्पी उपवन
अनंतपुर, रीवा (म.प्र.)- 486002
मोबाइल : 07987921206
सुंदर रचनात्मक पोस्ट।
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