शम्भु यादव की कवितायें

 

शम्भु यादव

'जानना' अपने आप में एक अमूर्त टर्म है। यह जानना अपने आप में असीमित विस्तार लिए हुए है। कब, कहाँ, क्यों, कैसे, किसलिए जैसे शब्द असीमित जिज्ञासाएँ समेटे उस अनजाने को जानने का रास्ता दिखाती है जिसे जानना अभी तक बाकी है। वैसे भी हम खुद अपने अंतस को ही कहाँ पूरी तरह जान पाते हैं। लेकिन प्यार सारी सरहदों को तोड़ देता है। प्यार का मतलब ही होता है अपना अस्तित्व गँवा कर अपने चाहने वालों का हो जाना। यहाँ कुछ भी जानने-सुनने की जरूरत नहीं। शम्भु यादव अपनी ढब के अनूठे कवि हैं। उनकी अपनी भाषा और उसकी स्पष्ट अनुगूँजें हैं। अपनी एक कविता 'और मैं तुम्हारे होने में होना चाहता हूँ' में वे लिखते हैं :  "पर न पूरा जान पाओ, न ही ज़रूरी है/ कोई सार-तत्व पूर्ण नहीं हैं, कोई स्वश्लाघा,/ बस इंतज़ार करो अपने को रूह में टिकाकर"। आज पहलीबार पर प्रस्तुत है शम्भु यादव की कविताएँ।



शम्भु यादव की कविताएँ

 

 

सुबह हो रही है और

 

सुबह हो रही है और 

तुम्हारी आंख खुलने से जो  

तिर आया है रात का काजल 

मुख के रोओं में इस क़दर कि

 

तुमने इसे पहचान लिया है और

इस स्थिति का एक सच  

थोड़ा सा ही सही, मैं भी कह दूं

जान लिया है मैंने भी 

कैसा होना चाहिए 'भोर का नभ' 

 

ला... आओ मैं इस कालस को  

तुम्हारे साथ के ठण्डे जल से धो लूं 

 

आओ भी देखूं तो 

कैसा संवर आया है तुम्हारापन 

 

हां, वैसे सही कह रही हो 

हा... हा.. 

 

'यह मसका एक आभासी' 

'गढ़ लो

‘सुबह की चाय पीते-पीते ही, तुम्हारा

सूर्य आसमान को चढ़ लेगा'

 

 

जहां मैं तुमसे मिलता हूं  

 

घोड़े, रस्सी, पहिया-चक्र, रथ-वाहक

और सारथी जी का महा वर्तांत

खंड-खंड विखंडित, तुम्हारी रूह  से बाहर......

 

कि मैं हूं जनतंत्र  के खोल की ख़्वाहिश

तुम्हारी आशा के चेहरे पर घाव-सा  
जहांमिलता हूं तुमसे और छूट जाता हूं बिछुड़ने को  

 तेरे, मेरे बीच का  अनजाना अहसास  

मेरी ज़ेहनियत का मुर्दापन कि कोलतारी सड़क 

 

और मैं तमस के बढ़ने की बात करता हूं-

जो ठीक तुम्हारे सामने लगे विज्ञापन में 

बनकर खड़ा है रोशन-दरिया आग़ाज़

प्रतिपल खिल-खिल खिलखिलाता  है

चांदनी की लड़ियों में सियाह खल प्रतिपल

उसकी चक्राकार आंखें निज-केंद्रित 

सर्प के ज़हर को इत्र की नित नई क़िस्म की महक में 

चमचमाती दमित इच्छाएं उन्मत्त... 

 

‘माय डिअर मॉडर्निटी इज़ ए अनफिनिश्ड प्रोजेक्ट’

‘कहता है हैबरमास'

‘कौन हबार मास’ तुमने कहा है कुछ तल्ख़ 

और चल दिए हो एक तरफ़ अपना रिक्शा खींच-

'मुझे सवारी लेने दो, कहीं ओर, अपना यह नशा उतारो|' 

 

 

मेरे जीने की आस

 

मैंने अपनी नज़र में बचा रखा है उस पेड़ को 

हवा में हिलती-खिलती डालियां मेरे मन में वासित, सुवासित  

 

पड़ोसी घर के भुवन-शिखर पर

पूरे तामझाम के साथ बस गए मोबाइल टावर के 

मेरी नींद में आ घुसने से न डरा हूं

और न ही रोकता हूं  गगन में उसका पहुंचना

 

अपने जागने की उम्मीद में नृ-रात

झपट पड़ी हवा है 

मुझमें मीलों दूर तक मथता इसका ईको 

 

कि मेरी सोच की सुरंग में झटपटाहट रही

कि इन्तजार करो , भूख को प्रेरित कर देने वाली द्रव-क्रिया को  

कोई जनेटिक शोध एकदम सफ़ाया कर दे 

 

सत्य कहना चाहा जो मन के मीत को-

बीच में ही प्राण हर ले

 

उद्दंडता व्यवहार की एक पुरातन चाप मार दे मुझे 

उत्तर आधुनिक आचार में क्या समझ लूं और किसी से कुछ कह पाऊं 

टूटकर- उसकी लांस एंजलिस जिम की चौड़ी छाती आगे 

मकाऊ के हरहराते समंदर पर जा उसके साथ जिम्लेट पीने की आरज़ू एक

सागर के तल में आ जमी बैठी मृत्यु है

मैंने ही खोद निकाली है पृथ्वी गर्भ से

 

 

परमाणु रेडियो-धर्मिता- मेरी ही विकलांगता के सूजे होंठ,

निष्क्रिय हुए हैं चुम्बन लेने में-

प्यार जो करता है दिल को खुशहाल संचारित

 

तुम्हारे सीने पर चिपका मैं डरा हूं  

राग का दरिया एक ख़याल हूं  

सहला पाऊं तुम्हारी हथेली-

गर्म ख़ून में बसी मेरे जीने की आस

 

और फिर मैंने कहा कि काश न होता मेरा समय आंख मूंद

अंध बेगाना होश खो, काश न होता 

 

 


 

इस कहन में सपने के टूटने के बाद की बात है 

   

                 1

इस कहन में, सपने के टूटने  के बाद की बात है

 

कि वह पैंढे के पास वाली रिपटन में रिपट 

अपनी पसलियां तुड़वा बैठी

 

कि वह भागी थी कोठरी की ओर, वहां 

फटे टाट के परदे के पीछे, पीड़ा  

चीत्कार रही है, दम तोड़ रही है 

एक आसन्न प्रसवा:

 

कि छठी की काली रात में उस नन्ही की गर्दन पर 

अपनो ही के अमानुष निशान, गहराए सूर्ख

 

कि कई दिन से भूख में धंसी,

पड़ी थी  खटोले के झोल में 

लकवा मारी दिव्य-अंग बुढ़िया

आसपास कबाड़ से मुंह में डाल कुछ 

अपने सूखे उजाड़ हलक में कि थोड़ी-सी जान साध ले

          

       

      2

कि इस कहन में प्रेम तोतो दिल चिलगौज़ो नहीं है 

कि कोई 'फाडू' मज़ो नहीं है 

 

कि महंगो घर, महंगो आई-फोन........खरीदने वालों के लिए 

ब्रांडिड महंगो चावल खाने की सलाह में 

'पैसो वसूल' 'आत्मगौरव' में आलापित जिंगल 

कोई, नहीं है। 

 

दोपहर धूप हिल रही है 

 

अपनी कोरी पीठ पर हरे बाज़ू-ओं को समेट

हवा की मंद बे-मंद सरसरी में बहुरती,

दोपहर धूप हिल रही है 

 

और एक पड़ा मैं हूं जो उम्र के इस काठ पर ठंडा 

दबाकर आशाओं की गरम सांस   

आसमान के इस कोने उस कोने

बादलों के टुकड़े-टुकड़े दर्ज़ कर

 

आ जा, ओ नींद चुपके से आ जा मुझमें  

इस दोपहर मुझको कहीं खो दे,..... खो दे,

 

वहां, शाम की ड्योढ़ी पर सफ़ेद दो कबूतर चाह में  

एक दूसरे की गर्दन रगड़ते 

 

और किसी बात में तुम चुपचाप से कुछ कह न देना 

 

और किसी बात को मैं चुपचाप से किसी कान में धरूंगा नहीं

कहीं से भी नहीं किसी कुछ में

 

 

सांझी 

                                 

पीपल के पेड़ के बीच से मैंने तोते से छीनी है हंसी

बहुत गहरी है दिमाग़ की दलदल और अन्धकार का ठस सरूर हृदय में

 

बीत रहा क्या कुछ मकान की झड़ती पपड़ियों में, मैं सूना

पतझड़ के रूप पर मोहित उदास…. 

 

                2

गई रात में जो आया था नींद में

स्वप्न हो आया है याद अभी इस सांझ में कि

धूप में जलते गलियारे क्या मुझे बुलायेंगे

नगें पांव झुलसती रेत में चलने को

 

              3                         

तब जब वह कड़ी मिटटी में जमा था

..तेज बारिश ने उसे ज़िन्दा किया 

 

              4

मस्त कुदकती फिर रही है सांझ

सूरज की सुनहली राह पर,

हवा के चमकते पंखों पर खिलखिलाती किरणों के पांव

आंखें चूमे थके हारे लौटते दिन की

ठौर लौटे पाखी चहचहाहट का बाजा बजाते ढम ढमाढम

 

उड़ते हुए कबूतर कहीं भी बैठ चाहे कोई भी अठखेली कर लें

इस उम्र को और चाहिए क्या

शीशम में पत्तियों पर टपकने को है चांद की चांदी

मैं खिलूंगी दिल में धड़कन

भीतों से बाहर निकल आओ छोरियों लुकम-लुकाई खेलण

 

                5

लकवा मारी गर्दन इस होने पर क्योंकर ऐंठ में तनी है

 

 

ऐसा कि यही तो चाहा तुमने

 

जीव-आंख में चौंध भर कर लालसाओं की बलवटें

लपेट-मार देह की अदात्मक रंगरेलियां जानिब

ऐसा कि यही तो चाहा तुमने........

 

और अब यहां जो मेरी आख्या में है

जनपथ के हाशिए पर पड़ा है  

ज़िंदा !

जीवन जी लेने की वैयक्तिक चाह में है

मिट्टी का डला-सा, ठस-सा बच्चा

(और अब आप पसंद करे या न करे इसे

एक विचार की संकल्पना मेरे विषयी का नियामक) 

कि ‘खाए-पीए अघाए’ ने उसके हाथ में दस-दस के नोट रख 

उसका पेट भर लेने में अपनी दानी-भूमिका की इस अदा पर

अपनी ग्लानि का मुक्ति गीत गाया   

 

अपने बल प्रबल प्रकट करकट-कूड़े के ढेर को

रेशमी चादर से ढक रहा नरकेन्द्रियता का खल-

फूल की महक को कुचलता है  

धर्म-सिंहावलोकन-दुष्ट-अट्टहास-खिलखिल 

 

आदमी की आदम-उंचाई तक रोशन-लाइट लगी है पर जलने में ख़राब है

 

घंटाघर चौक पर लगी है खड़ी-सी घड़ी

बेरफ़्तार कि

कोई भी समय सूझ नहीं रहा है इच्छा का

 

अकुलाहट में, महसूस क्यों हो रही है बदहवाशी-

लौट आने के लिए तो नहीं

मुझसे पलट ठीक किसी बिसरी जगह में अपना भारी सिर रखती है

किसी आदिम सिरहाने, जहां से 

कहीं को जाता एक सीध रस्ता न 

जिसके लिए मैं चला पहले से जो सोच समझ

चलते हुए जाना है जहां जाना है पहुंच, आगे बात बढ़ाकर 

 

दंभ-भाषा-काल की कालस-कोठारी से मुक्त-

नारी के जीने का दम- उसके अपने वश

नव शब्द-अर्थ-रूप नुमायां हो सहभागी

पेड़ में फल-फूल, मैंने चाहा है नदी में स्वच्छ जल...

और मैं इसी समय को हाथ से निकलने न देकर कुछ साहस सा दिखा दूं क्या ...

लो अभी

उस पूंजी के नरकेंद्रीय अमानुष तामझाम को ध्वस्त करने जाता हूं

...सुनो बस आता हूं 

 

और देखो तो वह है मिट्टी के डला-सा जो

(और मैं अपने रेचन के लिए यही करूंगा...बेशक)

उठा है और निशाना साध दिया है सत्ताई संगीनों पर

 

और फिर गोली चली है और धरती फिर लाल हुई है

(धरती का हरापन भविष्य के मेरे ख़याल की तासीर... )

 

और फिर एक जान मुर्दा हुई है- हार....फिर हार  

और फिर मुझे कहना ही है

बार-बार हर-बार, हक़-ब-जानिब 

 


 

 

और मैं तुम्हारे होने में होना चाहता हूं

 

अपने नाम की पहचान में बस कर उस धूप में

और अंधेरे उसका आकाश उसमें भरा है कि

सुनो और रुको तो इस अस्तित्व में बंधकर जानो

 

और जाओ आगे को या किसी भान में कि पीछे को,

अपने-आप को न जान पाने को जानो

 

पर न पूरा जान पाओ, न ही ज़रूरी है

कोई सार-तत्व पूर्ण नहीं हैं, कोई स्वश्लाघा,

बस इंतज़ार करो अपने को रूह में टिकाकर 

 

कहीं कुछ होने से पहले, कुछ तो ऐसा हो

रुक जाए कही गई किसी आवाज़ में कोई

    

हां, एक सिर हिला है, क्या तुम्हारा 

और मैं तुम्हारे होने में होना चाहता हूं दिल रखकर कहने को कुछ बात

 

अदृश्य में है या कि उसको तुम कुछ इस तरह सहेज दो

मैं अब तक की अपनी बेख़ुदी के विपरीत होऊं- थोड़ा अशक्त

किसी नए व्योम में भाषा कुछ इस तरह

तुम्हारा अब तक तुम्हारे होने के विपरीत होना- थोड़ा शक्त

 

कैसा कहीं क्या कुछ होना है तुम्हारा- मेरा वहां ऐसा कि

कही बातें अपने में हो जाएं पानी सी हलकी कि बस

 


अपने होने की तरस कोई

 

पेड़ की हिलती हुई बाज़ूओं से टूट कर गिरा

और मोटर के टायर नीचे आ कुचल गया,

बिखरा पड़ा तत्व

कहीं कुछ है अपने होने की छिपी गहराई में

अपने होने की तरस कोई

 

वो बीज थे जिनको था उपजना

प्लास्टिक थैली में बंद हैं गंदे नाले के कीचड़ में सनकर

लकड़ी की छोटी-सी डंडी है सहारे में, 

घुटी सांस अपने को थाम इन्तज़ार है उस युग का कि प्रकट हो सकें 

 

अपना पेट भर लेने की जुगत-आह में दम साध अपना,

बैठते थे चौराहे के कोने कटोरे में पड़े सिक्के को छम-छम बजाते

सिक्के छम-छम-जीवन के साथ जीवन

जीवित शरीर  

शासन की आदती-मार खा ग़ायब हुए अचानक

 कि माना गया उन्हें ‘दिल्ली मेरी शान’ के

महानगरीय-गान में गति-विरुद्ध, अवांछित  

 

अरे! और यह कहां से आ मरा है बीच सड़क

नंग-धडंग, मैला-कुचला, राल खखार लिपटा मुखमंडल

अपने न होने के वजूद में प्रकट पूरे का पूरा ठोस वह|

 


ललकती झालर की गोद में 

 

उस ललकती झालर की गोद में 

चहकते गोल शीशे की पोली चमक

मेरी आंखों में कुछ छायामय हो जाने के

अपने भ्रमित-जाल में भर,  उभर-उभर 

छबीले शब्द-अंदाज़ कर रही थी झिलमिल

 

हिल रही थी अपने बिम्बित-जादू से में,  

ऐसे आलंबन पर किरच मार दी मैंने

 

वह गैस का गुब्बारा था विराट होने के अपने बहुरंग बयां के साथ 

उजला स्याह रूपक के अंत-रूप फूट गया सिकुड़ गया अपने न होने में,

अहसास करूं तो,

 

क्योंकि उसके होने का अहसास 

मेरे खेत के खूड़ में गिरे बीज के उम्दा फसल होने का छदम रूप ग्रहण कर,

आशा बनकर रंगीन चित्रहार-सा प्रासारित यूं कि  

 

उसके प्रायोजक की निर्मिति को समझने के संताप में,

कहीं से कहीं, शब्द-अर्थ-रूप, भटकता हूं  काल दर काल......

मैं एक शोक की तरह 

 

 

समय बोझिया

 

हवा चल रही थी मेरी सांस में और

साकार पत्तियों का हिलना जान लेने के बाद  

फिर जहां एक उम्र बीतने की तासीर में  

मैंने जान लिया शब्द स्थापत्य को सत्तात्मक 

 

उस एक समय की एक शाम चावड़ी बाज़ार, 

एक बोझिया और कोढ़ी हो रही पीठ  को जाना

उस पर लदी एक क्विंटल वजनी बोरी 

मैंने जाना इसको इस तरह से कि

क्या मैं हूं, कहीं गहरे किसी ज़मीनी पैठ में   

जानकर ख़ुद अपने समय को,

मैंने जाना     

 

सोने-चांदी की चाहत में सजे भरे-पूरे दिन को 

मेरा यह कहना कतई पसंद न आया कि

एक ख़्वाब की वह बात तो बस पेट-भर

खा जी लेने की है मात्र 

वह भी मयस्सर न हुई 

 

मैंने अपने घर की देहरी पर रोशनी देता दीया रखा

कि मेरी गली का अन्धेरा छीजता रहे, जानू

मेरे अंक में आओ हम करें एक दूसरे से दुलार

 

मेरे घर में पिछले दरवाज़े से नफ़रत

देखो तो कैसे आ बैठी है मेरी रूह तक

सूरज उठा है पीला मुंह लिए और फिर

सुबह सर्दी शरीर रूपी चमड़े को चबाती है

 

धुंध सफ़ेद, किसी अनिश्चय में

ज़मीन उठ रही है आसमान को या कि  

आसमान से आ गिरी है ज़मीन

 

मैं अब तक जान न सका हूं

कहीं कोई अखिल निश्चिय है क्या?  

 

 

सम्पर्क

 

मोबाईल - 9968074515

 

टिप्पणियाँ

  1. बेहद अलग कविताओं का कवि है शंभू यादव। कहन, भाषाई बदलाव, टटके बिंब मिलते कम हैं आजकल। सबसे बड़ी बात कि कवि कविता में सायास चमत्कार नहीं भरता बल्कि यह अनायास आ बैठता है और स्पर्श कर कहता है कि देखा मैं आगया और तुम्हें अहसास भी नहीं हुआ। कवि को बधाई।

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