बलभद्र की कविताएँ
बलभद्र |
कवि ऐसी जगहों की यात्रा भी आसानी से कर लेता है जहाँ जा पाना औरों के लिए सुगम नहीं होता। वह उसके बहाने से उन उपेक्षितों की बात करता है, जो सर्वदा से उपेक्षित रहने के लिए अभिशप्त हैं। हमारे पुरखों ने ऐसे लोकतंत्र का सपना देखा था जिसमें सभी के लिए समान जगह होगी, सभी को समान अधिकार प्राप्त होंगे। लोकतंत्र तो आया लेकिन उस अंदाज़ में नहीं, जिसका सपना हमारे पुरखों ने देखा था। लोहिया जी ने कभी कहा था - 'जिंदा कौमें पाँच साल का इंतजार नहीं करतीं।' लेकिन उस कौम का क्या जिसे जिंदा रहने ही न दिया गया हो। कवि बलभद्र जनधर्मी कवि हैं। ऐसे कवि हैं जो जमीन से आज भी शिद्दत से जुड़ा है। उनकी एक कविता है 'झरंगा'। यह रोपे गए धान के बीच अपने आप उगता है, बढ़ता है, फलता है और खेत में ही झड़ जाता है। साल भर की गर्मी, उमस, सर्दी, बारिश झेलता है इसके बाद फिर अपने मौसम में लहलहा कर उग आता है। ऐसा ही तो हमारे यहाँ का सामान्य जन है। बलभद्र की यह कविता उनके सरोकारों को स्पष्ट करती है। आज पहली बार पर प्रस्तुत है कवि बलभद्र की कविताएँ।
बलभद्र की कविताएँ
सभ्य-शालीन होना
गलीज को गलीज ही कहेंगे
अहंकारी को अहंकारी
गुंडे को गुंडा
फासिस्ट को फासिस्ट
सभ्य-शालीन होना
इससे बाहर की चीज नहीं
नो टेंशन मस्त हैं
भूल गए हैं जो पढ़ना-पढ़ाना
कई बरस हुए
सिलेबस से ले ली है छुट्टी
महीना पूरा हुआ
मेसेज आया
खाते में इतना समाया
स्वाथ्य-लाभ के लिए
आना है जाना है
नो टेंशन मस्त हैं
ऐप पर पढ़ाना
है बहुत जरूरी
हे मेरे घण्टी आधारित शिक्षक-मित्रो!
सब है सब कुछ है
सारे कायदे-कानून आपके लिए
शेष तो संत हैं
महन्थ हैं श्रीमंत हैं
मुजफ्फरपुर
ओ मेरे बच्चो!
तुम्हारा जन्म किस देश हुआ था?
ओ मेरे बच्चो!
तुम किस देश चले गए?
मुजफ्फरपुर किस देश
किस राज्य में है?
उस देश और उस राज्य में
किसका राज है?
ओ मेरे बच्चो!
उनके टूटने से
वे तो अपनी शाखों के लिए हैं
वे हवाओं के लिए हैं
वे सूरज-चंदा के लिए हैं
बारिश की बूंदों के लिए हैं
उनके टूटने से
सूरज थोड़ा टूट जाता है
चाँद उदास हो जाता है
भौरें गुनगुनाना भूल जाते हैं
तितलियाँ पंख डोलाते थक जाती हैं
हवाएँ कुछ कहते-कहते रह जाती हैं
पाँच सितम्बर पाँच बजे
क्या खूब रहा
यह पाँच सितम्बर पाँच बजे
क्या खूब जमा
यह पाँच सितम्बर पाँच बजे
क्या खूब बजा
यह पाँच सितम्बर पाँच बजे
क्या खूब दिखा
यह पाँच सितम्बर पाँच बजे
धन्य हुई ये आँखें
धन्य हुए ये कान
धन्य हुई ये सड़कें
धन्य हुई यह शाम
ताली, थाली, शंख, नगाड़े
पाँच सितम्बर पाँच बजे
खूब बजे, हाँ खूब बजे
दास कबीर की उलटी बानी
किसको नाहीं लगे सुहानी!
धत्त तेरे की!
झूमा अम्बर नाची धरती
पाँच सितम्बर पाँच बजे
ऐसा तो
बचपन की सुनी कई कथाओं में
ईमानदारी
कर्त्तव्यपरायणता
सहनशीलता
सत्यनिष्ठा
पातिवर्त्य
राजभक्ति
आदि की कठोर परीक्षा लेते मिल जाएँगे देवता
अनेक कष्ट झेल खरा उतरने पर
परम प्रसन्न ऋषि-मुनि
आह्लादित देवगण करते आकाशवाणी
फूल बरसाते मिल जाएँगे
किसी का बिलाया धन चुटकी में वापस
लौट आता है राजपाट
नौकर-चाकर, हाथी-हथिसार
मृतपुत्र आँखें मींजते ऐसे उठता
जैसे उठता है कोई गहरी नींद से
नीलगगन में
ऋषि-मुनि अमल-धवल
मन्द-मन्द मुस्काते मिल जाएँगे देवगण
जनगण विस्फारित नेत्रों से
देख-देख प्रभु-लीला
हाथ जोड़े खड़ा
धन्य होती धरा
ऐसा तो
बचपन में कथाओं में सुना था
पढ़ा था कई ग्रन्थों में
हे राजन!
इस महामारी में जो मर-खप गए
जो जला दिए गए
जो दफना दिए गए
चिताभस्मों और कब्रों से
आँखें मलते हुए
क्या उठ खड़े होंगे सहसा
अस्पतालों में
जिनकी चल रही धुकधुकी
अंतिम साँसें जो ले रहे
अचानक क्या हँस पड़ेंगे ठठाकर
घरवालों की आँखें खुशी और
मारे आश्चर्य के रह जाएँगी खुली की खुली
यदि नहीं, तो
क्या कहेंगे वे फूल
जो बरसाये गए
किस पर तरस खाएँगे
आप पर
या अपने आप पर
हे राजन!
क्या बात है भाई?
क्या बात है ?
शहर में रह-रहकर पटाखे क्यों फूट रहे हैं?
क्या बात है भाई ?
कोरोना संक्रमितों की संख्या
आज कुछ कम हुई क्या ?
क्या बात है ?
संक्रमितों के इलाज की
कोई अच्छी व्यवस्था हुई क्या ?
क्या बात हुई ?
रह-रह क्यों फूट रहे हैं पटाखे?
किसी नये अस्पताल का उद्घाटन हुआ क्या ?
आखिर क्या हुआ?
देश के करोड़ों बेरोजगारों को
रोजी-रोजगार मिलने वाला है क्या ?
'हाँ' तो मेरी ओर से भी एक सही
'ना' तो रह-रह यह पटाखाबाजी क्यों?
लॉकडाउन में जो लाखों गाँव लौटे हैं, क्या खुश हैं ?
जो चले थे क्या सबके सब सकुशल पहुँच गए हैं ?
जो कोरोना की चपेट में आए हैं, ठीक हो गए?
समझता हूँ ये पटाखे क्यों फूट रहे हैं
समझता हूँ कौन ऐसा करा रहा है
कौन आपको बगल के सुख-दुःख से काट रहा है
वह आपको एक शोर में लिए जा रहा है
वह आपको कुछ और किए जा रहा है
मैं कोई बड़ी बात नहीं कह रहा
नहीं कह रहा नई कोई बात
कि आपके राम भी
अब नहीं रहे आपके काम के
हजारों पाँव पैदल
हजारों पाँव पैदल
जो गाँव जा रहे हैं
माथे पर बोझ
कंधे से बैग लटकाये
यकीन मानिये
कई तो गाँव लौटने के लिए ही आये थे
लेकिन इस तरह लौटना
सपने में भी नहीं सोचा था
ये ठीक से जानते हैं
बेरहमदिल हैं उनके तथाकथित मालिक
संकट में काम नहीं आने वाले
सरकारी घोषणाओं के सच
ये जानते हैं
बहुत कठोर मन से पाँव पैदल
गाँव जाने का निर्णय है इनका
कंधे पर जो बच्चे हैं
ऊँघते हुए
दरअसल यह उनकी ऊँघ नहीं
एक तरह का जागरण है
उनकी नन्ही स्मृतियों में क्या कुछ नहीं दर्ज हो रहा
सूजी हुई आँखों में क्या कुछ नहीं समा रहा
कोरोना और सरकार
दोनों को अलग ये देखें तो कैसे!
सड़कों पर जो महिलाएं हैं
इतनी खामोश अबतक कोई यात्रा नहीं रही होगी इनकी
सैकड़ों किलोमीटर की दूरियों को
अपनी खामोशियों में सिलती-बुनती
ढोती-उतारती
ये हजारों पाँव पैदल
जो गाँव जा रहे है हैं
इस समय को यहाँ से समझना
ज्यादा मुनासिब है
इनको चंद बोतल पानी
और भर पत्तल भात समझना
क्रूर मजाक होगा
आगे को न पूछे
हजारों हजार
जो अपने-अपने गाँवों को चल पड़े हैं
बहुत तो ऐसे हैं
जो चल तो पड़े हैं
पर उनके लिए वहाँ भी
नहीं है कोई ठौर
किसी तरह वहाँ पहुँच भी गए
तो रहेंगे कहाँ ?
क्या करेंगे?
क्या खाएँगे?
कहाँ से करेंगे रहने की शुरुआत?
अपने अपने गाँवों से
निकले थे जिन प्रश्नों के साथ
क्या करेंगे उनका?
बहुत तो अभी रास्ते में हैं
रोक दिए गए हैं बहुत जहाँ-तहाँ
कुछ पहुँच गए हैं
कुछ पहुँचने- पहुँचने को हैं
कुछ बीमार हैं
कुछ पाँवों के छाले से लाचार हैं
कुछ की पीठ पर है पुलिस के डंडों की छाप
कुछ को चलनी पड़ी है मेढक चाल
कान पकड़ करनी पड़ी है उठक-बैठक
कुछ के तो रास्ते में ही
टूट गए दम
अभी कोई उनसे आगे को न पूछे
जिंदा नहीं तो मर कर भी
अभी तो ये चल रहे हैं
सड़क पर, सड़क न सही रेलवे ट्रैक पर
खेत-मेंड़, ऊबड़-खाबड़ सबकी परवाह करते,न करते
गुस्सा जितना है उतना ही गम
जितनी भूख है उतनी ही प्यास
हजारों किलोमीटर दूर अपने-अपने देस को चल रहे हैं
इनके अपने-अपने देस की क्या कोई सूरत
झिलमिलाती हुई ही सही
उभर रही होगी इनके जेहन में
या वो भी इनके चलने में ही घुल-मिल गई होगी
वो भी चल रही होगी हाँफ रही होगी
उसके भी टटा रहे होंगे हाथ-गोड़
कैसे जाना है कौन-सी राह पहुँचाएगी
किधर से किधर जाना है
कहाँ से मुड़ना है
कहाँ है पानी कहाँ मिलेगा खाना
बरखा हुई तो कहाँ लुकाना है
घाम में कहाँ छंहाना
कैसे सोच लिया, कैसे ठान लिया कि चले चलेंगे
क्या नहीं ताके होंगे अपने बच्चों के मुँह
बूढ़ी माँओं के बारे में क्या सोचे नहीं होंगे
हजारों किलामीटर कैसे पार करेंगे पैदल-पैदल
कंधे पर गोद में उठाये कैसे पहुँचेंगे
निरा मूर्ख हैं कि जिद्दी कि सनकी कि क्या हैं?
इनके फैसले को
इनके चल पड़ने के निर्णय के उस कठोर क्षण को
कैसे कोई समझे,कहे कोई कैसे!
ये चल रहे हैं पैरों में छाले लिए
चल रहे हैं कि चलेंगे तो कभी तो पहुँच ही जाएँगे
चल रहे हैं कि उनके पास चलने को पाँव हैं
गनीमत है कि उनके अपने-अपने गाँव हैं
सायकिलें हैं ठेले हैं रिक्शे हैं
अपनी एक जमात है
जहाँ से चले हैं उस जगह ने तो नहीं कहा कि रुक जाओ
जिस काम के लिए थे वो काम केवल काम था
जिस मालिक के लिए थे वो मालिक केवल मालिक था
जिस देश में हवाई जहाजें उड़ती हैं
साबुत रेल की पटरियाँ हैं, रेलगाड़ियाँ हैं
भरे-पूरे अन्न-भंडार हैं
चुनी हुई सरकारें हैं
करोड़ों की बजटें हैं
उसी देश में कुछ नहीं है इनके लिए
ऐसा नहीं कि इन लोगों ने यह सोचा न हो
राह-बाट में अघट भी घट सकता है
ऐसा नहीं कि नहीं सोचा हो
ये आपस में बतियाते हुए चल रहे हैं
पुलिस की मार खाते चल रहे हैं
रोते-बिलखते चल रहे हैं
नई राहें तलाशते चल रहे हैं
पूरे बिखराव में भी
चलने की पूरी एक योजना के साथ चल रहे हैं
इनको अपने चलने पर भरोसा है
इनको इन राहों पर भरोसा है
इनको गति पर भरोसा है
पैदल भी तो गति ही है सबसे आदिम
सबसे अधिक विश्वसनीय
जरूर हलवाही याद आई होगी
अपनी नहीं तो बाप-दादों की ही सही
बैलों के पीछे-पीछे भर-भर दिन चल कर ही
जोते जाते रहे हैं सैकड़ों-हजारों बीघे खेत
माथे पर बोझ लिए खेप दर खेप करते खेत-खलिहान
ईंट,पत्थर,गारा-सीमेंट ढोते
साँप-बिच्छू, गाली-मार सब कुछ
चलना ही चलना रहा सदियों से
ये चल रहे हैं बच्चों को कभी कान्ह पर लिए
कभी अँगुरी धराए
औरतें चल रही हैं कि चलने के सिवा और कोई विकल्प नहीं
झोरा-बोरा, बैग-सैग लिए लोग चल रहे हैं
ये चल रहे हैं कि चलना है और पहुँचना है अपने देस
चलने और पहुँचने में मरना भी पड़े तो भी चलना है
रेल की पटरी पर ट्रेन से कट कर
कार के धक्के से
थकान से या भूख-प्यास से
हारी- बीमारी से
पर चलना है और पहुँचना है
जिंदा नहीं तो मरकर भी पहुँचना है
ये चल रहे हैं
सब देखते हुए चल रहे हैं
राह-बाट, लोग-बाग, थाना-पुलिस
गांव-नगर, साहब-सरकार
उनका देखना अभी किसी को
नहीं देखने जैसा भी लग सकता है
पर, कल को ये बहुत कुछ कहेंगे
बहुत कुछ सुनाएँगे
ये जो बेबस हैं मजबूर हैं
चाह गए तो
सत्तामद में जो चूर हैं
उनको धूल भी चटाएंगे
कोरोना और वह कामगार महिला
पूछा उससे
तुम रोज आती हो बर्तन माँजती हो
झाड़ू-पोंछा लगाती हो
पता है तुमको कि पूरी दुनिया में
इस वक्त भारी तबाही मची है
लोगों को घरों से निकलने से मना किया जा रहा है
थोड़ी-थोड़ी देर पर साबुन से हाथ धोने को कहा जा रहा है
उसने अपनी मातृभाषा खोरठा में कहा
हाँ भइया! बीमारी फैली है
बहुत लोग जान गँवा चुके हैं
फिर पूछा
तुमको क्या लगता है?
क्यों चली आती हो रोज?
जबकि सब कुछ बंद है
कितने घरों में जाती हो?
क्या किसी ने तुमको आने से मना किया?
क्या किसी ने बचाव के लिए कुछ कहा?
उत्तर में उसने पहले मेरी ओर देखा
कुछ देर जहाँ थी वही खड़ी रही
फिर 'ना' कह काम में भिड़ गई
किचेन से आ रही
बर्तन धुलने की आवाज
जिसमें नल के जल का शोर शामिल था
और उस कामगार महिला का संताप
सदियों का
मैंने कई बार सोचा
उसी अल्प अवधि में
और कहा - कल से नहीं आना है
फिर तो एकदम सकपका गई
मैंने कहा
पैसा मिलता रहेगा
पर, उसे यकीन नहीं हुआ
झरंगा
रोपा धानों के बीच
अपने आप उग आए
ढेर सारे धान
जिनकी बालियाँ
रोपा धानों की बालियों से
बिल्कुल अलग
कद-काठी में ऊँच
स्वभाव नहीं झुकना
रोपा धानों से पहले ही पकना
पकते ही झड़ना
सालभर मिट्टी में पड़े-पड़े रहना
पक्का किसान शिवजतन महतो का
यही है कहना
हाँ, यही है झरंगा
उनुको बेर
हमरा गाँवे एक जना रहलें
बिगहा के गुमान वाला
एह गुमाने
ऊ रोज अपना अलग-अलग खेत में
कूद-कूद मयदान फिरस
आ आपन चलाना चमकावत
थाह-थाह के डेग डालत
अपना जाने धरती के धँउसावत
दुआरे आवस
राड़-रेयान के बदलत मिजाज प
भरहींक भासन देत
लोटा माँजस
तब दतुअन करस
जइसे सभे के जाए के होला
ऊहो एक दिन चल गइलें
जइसे सबके बेर लागेला
'गंगिया माई के जय' के
उनुको बेर लागल रहे
जोर से जयकारा
जाए द
हमरा गाँवे एक जना रहलें
ऊ जब बोले शुरू करस त
जतने बोलस अतने मूडी झाँटस
हाथ भाँजस
गोड़ पटकस
उनकर मेहरारू कहस कि
बहार फेंको रे
बात अइसन बात ना
बुझाता जे मूडी मुचका लीहें
अगल-बगल जे केहू होखे त घवाहिल क दीहें
गाँव के लोग मजे में
ई देख-सुन कहे कि जाए द
भाँजे द
के कह देल
ऊ लोग सुतल रहे कि जागल
चलत कि बइठल
खइनी ठोकत कि कवनो फिकिर में डूबत-उतरात
कि ओठँघल
थाक के चूर हो गइल रहे लोग
भूख-पियास से अलस्त
का करत रहे लोग कवना हाल में रहे
का साँचो गिट्टियन के बिछौना
आ लोहतकिया प मूड़ी दे
थोरिका देर खाती सूत गइल रहे लोग निरभेद
का एकदम निचिंत रहे लोग
कि एहिजा ना आई पुलिस
ना करे परी उठक-बइठक
डंटा ना खाये परी
का भुला गइल रहे कि एह प ट्रेनो चलेले
के कह देल
कि सूत गइल रहे लोग
के कह देल
कि सुतले में
ओह लोग के ऊपर गुजर गइल ट्रेन
घर से आइल रहे लोग ट्रेन से
सपनो में ना सोचले रहे
कि जाए के परी एह तरे
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
सम्पर्क
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वाह लाजवाब अभिव्यक्तियां
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जवाब देंहटाएंधन्यवाद
दिलबागसिंह विर्क
बहुत सुन्दर
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