बलभद्र का आलेख 'खेती, गाय और हमारा आज'

बलभद्र


 
पाषाण काल से ही मनुष्य ने अपनी सभ्यतागत उन्नति के लिए प्रयास आरम्भ कर दिए थे। उन्नति का यह रास्ता सपाट नहीं है। उसने सभ्य बनने के लिए तमाम सबक उन जानवरों से लिए, जो उसके प्रारंभिक सहचर थे। अलग बात है कि मनुष्य का बौद्धिक विकास बिल्कुल अलग तरीके से हुआ। इसी क्रम में उसने उन पशुओ को पालतू बनाया जो उसके लिए उपयोगी हो सकते थे। इन पशुओं में गाय सर्वाधिक महत्वपूर्ण थी। गाय को यह महत्त्व इसलिए भी मिला क्योंकि मनुष्य ने कृषि करना सीख लिया था। इस सीख के साथ ही उसके जीवन में स्थायित्व आया और परिवार जैसी संस्था अस्तित्व में आयी। हमारी भारतीय परम्परा में गाय को इसीलिए पवित्र माना गया क्योंकि यह हमारी कई जरुरतों को पूरा करती थी। यह समृद्धि की परिचायक भी थी। पालतू बनाने के क्रम में हम मनुष्यों ने इन पशुओं को अपनी तरह से ढालने का प्रयत्न किया और इसी क्रम में हमने अपने लाभ के लिए वे क्रूरताएँ भी कीं जिसे उचित नहीं ठहराया जा सकता। बलभद्र हिन्दी और भोजपुरी के महत्त्वपूर्ण कवि एवम आलोचक हैं। गाँव से उनका सम्बन्ध अब तक बना हुआ है। इसी क्रम में उन्होंने खेती और गाय को आज के संदर्भ में गहराई से परखने की कोशिश की है। आज पहली बार पर प्रस्तुत है बलभद्र का आलेख 'खेती, गाय और हमारा आज'।



खेती, गाय और हमारा आज 
 
                             -
बलभद्र


                    
 (1)

मेरे मित्र भोजपुरी के युवा कथाकार सुमन कुमार ने कल एक बातचीत में कहा कि बीफ पर बहस करने वाले, गो रक्षा की कसमें खाने वाले और बीफ पार्टी देने वाले एक ही मानसिकता के हैं। बात बिलकुल सही है। 

                            
अब गाँवों में गायों की संख्या बहुत कम रह गई है। भैसों की भी संख्या कम हुई है। चंद गायें जो बची हुई हैं वो भी जर्सी गाएं हैं। सींग और मउर वाली भारतीय नस्ल की गायें देखने तक को नही मिलेंगी। किशन कन्हैया कैलेंडरों में जिस गाय के साथ दीखते हैं वो गाय अब नही बची है। बैल और हल-जुआठ का सफाया हो चुका है । झारखण्ड के गाँव में हल -बैल वाला दृश्य अभी कहीं-कहीं देखा जा सकता है। यह इसलिए कि पहाड़ी इलाका है और छोटे-छोटे खेत हैं और आदिवासी अभी खेती कर रहे हैं वो भी भाग्य और भगवान के भरोसे। सोचने की बात है कि गाय, बैल कहाँ चले गए। नाद-चरन और सानी- भूसा कहाँ उधिया-बिला गए। बेशक ट्रैक्टर का विरोध उचित नही है, लेकिन हमारे मवेशियों का गायब हो जाना तो चिंता का विषय है। यह चिंता मैं कोई अकेले और पहली बार नही कर रहा हूँ। इसके लिए क्या हमारे सरकारों की नीतियां जिम्मेवार नही है? 

               

शहरों में खटालें खुली हुई हैं। दूध का कारोबार जारी है। खटाल वाले मुनाफा से मतलब रखते हैं। बछड़ा-बछिया और पड़वा-पड़िया को दूध पिला कर पालना और उसको बड़ा करने के बारे में ये सोचते तक नहीं। बच्चे हफ्ता दस दिन में दूध और देखरेख के अभाव में मर जाते हैं। एक और बात यह कि बच्चों के मर जाने के बाद गाय-भैसों का दूध इंजेक्शन लगा कर निकाला जाता है। यह गाय भैसों के सेहत के लिए बहुत खतरनाक है। यह क्यों नहीं सोचा जाता है कि आम आदमी के लिए जीवनयापन की  सुविधाएं कायदे से उपलब्ध नही हो पाने के चलते यह सब होता है। इसके लिए क्या कोई एक व्यक्ति जिम्मेवार है?

  

शहरों में गायें कूड़े के ढेर पर मटरगश्ती कर रही हैं। पोलथिन और कूड़ा - कचरा चबाने को मजबूर हैं। साँढ़ कूड़ा-कचरा खा कर अपने भाग्य को झँख रहे हैं। पॉलीथिन क्या किसी एक व्यक्ति, एक जाति या कि एक धर्म के चलते भारत में इस कदर आया है? इसके लिये कौन जिम्मेदार हैं?


                         
(2)


यही कोई 20-25 वर्ष पहले तक किसानों के दरवाजे पर गाय और बैल और भैंस हुआ करते थे। गाय जब खरीद कर आती थी तब घर की मालकिन चावल और गुड़ गाय को खिलाती थी और उसके पैरों पर लोटा भर पानी डालती थी फिर गाय को टीका लगाती थी। मैंने अपनी दादी को और माँ को भी ऐसा करते देखा है। बैलों के साथ भी यही होता था। अब जबकि न गाय रही और न बैल तो गाय गाय चिल्लाने से कुछ नही होगा। 

                       

जानने की बात है कि गाय जब बछड़े (male child) को जन्म देती थी तब किसान कुछ अधिक ही खुश होते थे। वे सोचते थे कि हल जोतने के काम आएगा। खूंटे से बंधा बछड़ा जब उछलता-कूदता था तब किसान भी खुश होता था। बछिया (female child) को भी मान-सम्मान हासिल था, लेकिन बछड़े की तुलना में थोड़ा कम। जबकि यह तय था कि बछिया ही गाय बनेगी, वही दूध देगी। बछड़े वाले गाय की कीमत बछिया वाली गाय से कुछ अधिक हुआ करती थी। यहाँ भी हम चाहें तो कुछ सोच सकते हैं। कृषि संस्कृति के भीतर की यह बात है। जिसको लेकर इस समय कुछ ज्यादा ही शोर मचाया जा रहा है, उसको उस संस्कृति में भी कम अंक प्राप्त है। हम इस संस्कृति की पुरुषवादी मानसिकता को भी इसके जरिये समझ सकते हैं। 

                     

हमें जानना होगा कि भैंस जब पाड़ी (female child) को जन्म देती थी तब भी किसान ज्यादा खुश होते थे। पाड़ा (male child) को तो वे उस साहूकार के समान समझते थे जो कर्ज वसूली के लिए दरवाजे पर गाहे- बगाहे आ टपकता है। भोजपुरी की एक प्रचलित कहावत है 'भैंस बिआइल पाड़ा त साह भइल खाड़ा'। पाड़ी को लोग खूब ध्यान में रखते थे और पाड़ा को उपेक्षित। पाड़ा को हद से हद तभी तक बचा कर रखा जाता था जब तक भैंस दोनों वक़्त लगा करती थी। भैंस के बिसूखते ही यानी दूध देना बंद करते ही औने-पौने दाम पाड़ा को बेच दिया जाता था। पाड़ा चले जाते थे कसाईबाड़ा। किसान इन्हें न बेचते तो क्या करते?



खेती आज भी हो रही है, लेकिन किसान परेशान हैँ। पहले की तुलना में उत्पादन भी काफी बढ़ा हुआ है फिर भी किसान परेशान हैं। उत्पादन कम था। उस समय भी खेती से न तो बाल-बच्चों को पढ़ा पाते थे और न ही कोई और काम कर पाते थे। आज जब उत्पादन बढ़ गया है तब भी इस खेती से कुछ नहीं कर पा रहे हैं। युवा पीढ़ी इसमें अपना कोई भविष्य नही देख रही है। खेती हो रही है पर मन से नहीं। खेती और किसानी को ले कर सरकारें उदासीन हैं। किसान गाँव से और खेती से भाग रहे हैं। गाय, बैल, भैंस तब क्यों रहेंगे गाँव में। ये भी जा चुके हैं। गो हत्या का यह भी एक रूप है। यह कृषि और किसान की हत्या भी है। जो गाय रखना जानते हैं वे हताश हैं और जो गायों से दूर-दूर का रिश्ता नही रखते वे गाय- गाय चिल्ला रहे हैं। ठीक उसी तरह से जैसे कि इस समय भोजपुरी में अश्लील गीतों के साथ-साथ भक्ति के कानफाड़ू गीत प्रचलन में हैं। पहले भक्ति के पद भक्त और संत रचते और गाते थे और अब मनोज तिवारी आदि। चरम अश्लील गीत भी गाते हैं और भक्ति गीत भी। इस दौर में सबको बिकाऊ बना दिया गया है। क्या पता कल गाय को भी ओढ़नी ओढ़ा कर नया कोई गीत गा दें।
 




                  
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बात भोजपुरी के गीतों और गायकों पर चल रही है तो देखने की बात है कि भोजपुरी भाषा वाले क्षेत्र को कौन कहे, गैर भोजपुरी क्षेत्रों में भी भोजपुरी गीतों का दबदबा कायम होता दिख रहा है। शहर को कौन कहे गाँव, गलियों, खेत-खलिहानों, ट्रेनों, बसों, ट्रकों, ट्रैक्टरों, टेम्पो, मॉलों, होटलों, चाय-पान की गुमटियों तक ये गीत सुने जा सकते हैं। इन गीतों में हमारे मानवीय मूल्यों की धज्जियाँ उड़ाई जा रही हैं। और तो और भक्ति के गीतों में भी अश्लीलता परोसी जा रही है। मुखड़ा भक्ति गीतों का है और उसके भीतर की थिरकन अश्लील है। एक गीत में भोले बाबा 'गउरा' को 'गउरा डार्लिंग' कहते हैं। इस पर किसी को कोई आपत्ति नहीं। एक दूसरे गीत में भोले बाबा का बंसहवा सावन में मुखियावा/परधनवा के अरहर के खेत में छुट्टा चर रहा है। यह भक्ति के बाने में परोसी जा रही लम्पटता है। मजेदार बात है कि वह किसी किसनवा के रहर में नहीं परधनवा के रहर में चर रहा है। एक प्रधान तो दिल्ली में सत्ता के शीर्ष पर है, दूसरे राज्यों की राजधानियों में और तीसरे गाँवों में। यह बंसहवा किसी न किसी रूप में चाहे वो सत्ता के निचले पायदान पर ही क्यों न हो, के खेतों में विचरता है। यह खेत और खेती और किसान के विस्थापित होने को ही दर्शाता है। आवारा वित्तीय पूँजी और 'शुभ लाभ' वाली मानसिकता की उपज है यह बंसहवा। नई किस्म की इस पूँजी ने नौजवानों को भी घूमने-टहलने लायक ही बना छोड़ा है। खेती-बारी में कोई दिलचस्पी नहीं रही। कल-कारखाने तो हैं नहीं। माल-मवेशी भी नहीं रहे कि सुबह-साँझ सानी-पानी करें। कॉलेजों में एडमिशन भर हुआ है। सरकारों ने ऐसी व्यवस्था कर दी है कि लगे रहिये मोबाइल में। लीजिए सुविधा और सुनते रहिए मनोज तिवारी को, दिनेश लाल यादव को, पवन सिंह को, खेसारी लाल यादव को और ऐसे अनेक को। खेतों में रोपनी-सोहनी के गीत नहीं। इनको ही सुनिए। घर का कोई बूढ़ा या कि कोई बूढ़ी चिल्ला रही है तो चिल्लाने दीजिये। पानी-पानी रटने दीजिये। हमारे मानवीय संबंधों के बीच, एक-दूसरे की बात सुनने-समझने के बीच ये बाज़ारू गीत आ खड़े हुए हैं और हमारा ही मजाक उड़ा रहे हैं। पी. चंद्र विनोद के गीत की एक पंक्ति याद आ रही है-


"अजिया परल ओरचनिया हो 
नाही हिलल चरनिया।" 


और तो और इन गीतों के चलते लड़कियों का चलना-फिरना मुश्किल होता जा रहा है। बबुनियों को ओढ़नी संभाल कर चलने का उपदेश देने वाला खुद कितना संभला हुआ है, यह समझने की बात है।



यहीं पर जब बूढे बुज़ुर्गों की बात चली है, तो प्रेमचंद की कहानी "बूढ़ी काकी" याद आती है और साथ ही साथ याद आता है अपने ही परिवेश का निकटवर्ती अतीत कि कैसे बूढी हो चली गायें छुट्टा छोड़ दी जाती थी। नाद पर दाना-पानी बंद कर दिया जाता था। कुछ दिनों तक ऐसी गायें अपने मालिकों और नादों के आस-पास चक्कर काटती रहती थीं। फिर सारी आशाएँ छोड़ जहां-तहाँ, इस खेत तो उस खेत, इस नाद तो उस नाद भटकने को अभिशप्त थीं। ऐसी गायों के लिए एक शब्द प्रचलित था-"अनेरिया", जिसका अर्थ है 'बेकार'। 'बूढी काकी' (प्रेमचंद) और 'अनेरिया बूढी गायें' हमारे ही समाज की क्रूर व अमानवीय मानसिकता को दर्शाती हैं। अब गायें तो गाँवों में कम रह गई हैं, लेकिन बूढी काकियों और बूढ़े काकाओं को देखा जा सकता है। मुझे तो लगता है कि सत्ता के शिखर पर बैठे लोग बड़े चालाक और धूर्त हैं। अपने मुताबिक़ मुद्दे उठाते और उछालते हैं। गाय पर जब कोई बहस चलेगी तो क्या इन चीजों को छोड़ कर चलेगी। गाय के प्रति किसान का नजरिया कभी भी शुद्धतावादी नहीं रहा है। गाय तो सानी-पानी, घर भर का जूठा खा कर मस्त रहती थी। किसान धो-चमका कर रखता था, कौड़ियाँ गले में बांधता था, कौरा खिलाता था। चुमकारता था। वह किसी कुटिल-धूर्त्त राजनीतिक की तरह बहस तो नही करता था।
 

                    
(4)


हिन्दी सिनेमा के सदाबहार गीतों की कुछ पंक्तियाँ याद आ रही हैं- 'कैसा जादू किया ओ सजना...' और 'ढूंढो-ढूंढो रे साजना मोरे कान का बाला...'। यहाँ 'साजना' का जो अर्थ है वो हम सब जानते हैं। लेकिन इस 'साजना' का एक अलग अर्थ सन्दर्भ सहित इस समय स्मृति-पटल पर बार-बार उभर रहा है। मैं छोटा था, पाँचवी या छठी कक्षा में पढता था तब की बात है। मेरे अपने घर के बगल के घर में, जो मेरे गोतिया में के चाचा का घर था, खेलते-खेलते चला गया था। उनका बड़ा आँगन था और तब ढेर सारी औरतें उस घर में रहती थीं। कई तो मेरी भौजाई लगती थीं और उसमें की कई अभी भी हैं। आँगन में एक दमघोंटू ख़ामोशी थी। पूरब और दखिन के कमरे के कोने से एक औरत की गहरी सिसकी सुनाई दे रही थी। मैं उस दरवाजे पर चला गया। दरवाजा भीतर से बन्द था और दो-तीन औरतों की डाँटती-डपटती आवाज सुनाई दे रही थी... 'चुप हरामजादी , तोर अतना गुमान'। सिसकती हुई आवाज में फिर सुनाई पड़ा 'ना ए अम्मा जी, (मद्धिम किन्तु भारी आवाज में) मुअनी हो दादा'। आँगन में खड़ी कुछ औरतें आपस में खुसुर-फुसुर कर रहीं थी। मैं भागे-भागे उन सबों के पास गया तो सुना कि अपनी पतोहू को दो सासें 'साज' रही हैं। मुझे लगा कि शायद कोई बड़ा और गम्भीर काम कर रही हैं। लेकिन मैं अंदर से डरा हुआ था। घर आकर माँ से पूछा कि यह 'साजना' क्या होता है। तब माँ ने बताया कि पतोहू को केवाड़ बंद कर मुँह दाब कर पीट-पाट कर अपने मुताबिक ढालने को 'साजना' कहते हैं।



थोड़ा और बड़ा हुआ तो देखा कि एक गाय ने बच्चा दिया। बच्चा देने के बाद गाय को दूहा गया। लेकिन अगले दिन गाय ने बछड़े को तो दूध पिलाया लेकिन थान में हाथ नहीं लगाने दिया। चार पाँच दिनों तक पूरा दूध बछड़ा पीता रहा। फिर उसके बाद गाय डंडे के बल पर दूही जाने लगी। किसी ने बेतरह पीटने से मना किया तो कहा गया कि बिना 'साजे' यह ठीक नहीं होगी। मुझे याद है कि 1984 में बक्सर के मेले से एक गाय मेरे यहाँ भी आई। वो गाय किसी तरह बछिया को दूध पिला लेती थी, छनर-मनर करते हुए। पर दुहाने को तैयार न थी। जैसे ही कोई बैठता और उसके पिछले पैरों में छान लगाता, वह तड़प उठती थी। गाँव के लोगों के सलाह पर गाँव के ही रामाशीष यादव को बुलाया गया जिनका प्रचलित नाम शीशा था। वे अब स्मृतिशेष हैं। उनका कहना था कि पहिलौठी की गाय है सिहरी (सिहरन) मिटाना जरुरी है। फिर तो डोर मँगाई गई। पाँच-छह लोग जुटाए गए, गाय पटकी गई और नरिया से उसके पूरे शरीर को रगड़ा गया। और यह तब तक जारी रहा जब तक गाय पस्तहिम्मत नहीं हो गई। गाय बाँय-बाँय डकरती रही। लोगों ने कहा कि शीशा ने 'साज' दिया गाय को। यह 'साजना' कितना त्रासद है बताते हुए मन भर आता है। जिस पतोहू को 'साजा' जा रहा था, वो भी अब स्मृतिशेष हैं। हमारी सरकारें भी हम सबों को 'साजने' पर तुली हुई हैं। 'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते...' और 'गाय हमारी माता है' को क्या उपर्युक्त संदर्भों से अलग करके समझा जा सकता है?



                       

(5)


साथी संतोष कुमार चतुर्वेदी ने इन टिप्पणियों को पढ़ते हुए लिखा और कहा भी कि हिंदुत्ववादी जो हैं वो इन जमीनी वास्तविकताओं को या तो समझते नहीं या सब समझते हुए केवल गाल बजा रहे हैं। उन्होंने यह भी कहा कि गाय को दुहते समय पिछली टांगों को नोये (छान लगाना) जाने का रिवाज रहा है। बिलकुल सही। मैंने लिखा भी है लेकिन छान लगाना लिखा है। 'नोअना' शब्द तो भूल ही गया था।  जिस रस्सी से गाय को नोया जाता था अथवा है, उसे 'नोइन' अथवा 'नोअनी' कहते हैं। मैंने अपने बाबा के मुँह से भी यह शब्द सुना है। संतोष जी ने यह भी याद दिलाया कि यह धारणा भी प्रचलित थी कि गाय को बिना 'नोये' दूहने पर पाप लगता है। मेरे बाबा भी कहा करते थे और गाय दूहते वक़्त खुद गाय को 'नोय' देते थे। अब तो विदेशी नस्ल की गायें हैं और उनको इंजेकशन से दूहा जाता है। इंजेक्शन गायों को लग जाने के लिये बाध्य कर देती है। क्या मजाक है कि गाय को दूहने से पहले उसे 'नोअने' की क्रिया को पाप-पुण्य से जोड़ दिया गया है। बिना 'नोये' दूहेंगे तो पाप लगेगा तो इसका दूसरा अर्थ जो ध्वनित होता है कि 'नोय' कर दूहेंगे तो पुण्य मिलेगा। बात बिलकुल स्पष्ट है कि हमारे यहाँ की जो देसी गायें होती थीं बड़ी धारदार हुआ करती थीं और अपने तरीके से दुहे जाने का प्रतिकार करती थीं। उनके प्रतिकार-शमन के लिए ही नोअना था। जैसे कि गाय के बछड़े को कृषि-कर्म के लिए उपयोगी बनाने हेतु उसे 'बधिया' किया जाता था। इस बधिया का मतलब हम सब जानते ही हैं। यह किसी बछड़े की अपनी पसंद तो नहीं। मर्मान्तक पीड़ा से उसे गुजरना पड़ता था। जिस बैल को कृषि संस्कृति में 'महादेव' कहा गया है उसके लिए यह महादेवत्व कितना कष्टकर है, हम महसूस कर सकते हैं। हमने इन पशुओं को अपने लायक बनाने के लिए उनके ऊपर क्या-क्या नहीं जुल्म ढाए हैं। मान बहादुर सिंह ने एक कविता भी लिखी है जिसका शीर्षक है 'बैल व्यथा'।
  
                                 

'नाथ' का अर्थ होता है मालिक, स्वामी। संतों ने ईश्वर को नाथ माना। बैलों के लिए यह 'नाथ' इसी अर्थ में तो नहीं है। बैलों को नाथकर यानी उनकी नाक में रस्सी लगा कर और स्थाई रूप से उसमें उसे जकड़कर हम खुद उसके 'नाथ' बन गए। मुझे तो लगता है कि गोरक्षा के नाम पर उत्तेजना फैला कर देश के सामान्य जन को बैल की तरह ही 'नाथने' की तैयारी चल रही है। लेकिन, बैल और आदमी के अंतर को जानने वाले यह जरूर जानते हैं और ब्रेख्त के शब्दों में कह सकते हैं कि आदमी में एक नुख्स है कि वो सोच सकता है और टैंक के मुँह को शासक वर्ग की तरफ घुमा भी सकता है। 


                      
बार-बार अतीत की तरफ मुड़ना पड़ जा रहा है। अपने वर्तमान को समझने के लिए, आज की बहस को समझने के लिए। वे अतीत को महिमामंडित करते हैं और हम विश्लेषित। बैलों को बैल बनाने के लिए उन्हें नाथ-पगहे, फुलगेंदे, घंटियों से सजाया जाता था। मैं इसे बुरा नहीं कहता। लेकिन यह जरूर कहता हूँ कि गाय और बैल को ले कर जो विवाद खड़ा किया जा रहा है, वह मानवद्रोही और इतिहासद्रोही और संस्कृतिद्रोही भी है। पैने से पीटे जा कर, सूजे हुए कन्धों के बावजूद जोते जा कर, पेट-आधपेट खाए जा कर, दवनी के वक़्त मुँह में जाब लगाए जा कर, बधिया बनाए जा कर यानी पुंसत्व से वंचित किये जा कर, कौन 'महादेव' कहलाना पसंद करेगा?


                      
(6)


खेती-गृहस्थी की हालत तो ऐसी हो चली है की हर कोई उस से मुँह मोड़ चला है। कोई शौक से खेती करना नहीं चाह रहा है। बिहार सहित अन्य कई राज्यों में भूमि समस्या का समाधान नहीं ढूंढा जा सका है। बिहार में अभी भी बड़े-बड़े जोत वाले हैं। हज़ारों एकड़ जमीन मठों और महंतों के पास है। भूमिहीनों की जमीनों पर अभी भी अनेक दबंग कब्ज़ा जमाये हुए हैं। नीचे से ऊपर तक भ्रष्टाचार का बोलबाला है। आदमी के साथ-साथ मवेशी अस्पताल भी खस्ताहाल हैं। यह सब अलग से बताने की जरूरत नहीं है। 


       
खेतिहर समाज के ही कुछ लोग काम-धंधे की तलाश में छोटे-बड़े शहरों में गए और वहां खटालें खोलीं। जिन गाय-भैंस को किसान धो-पोंछ कर रखते थें, वही गाय भैंसेँ बहुत कम जगह में और बहुत विपरीत परिस्थितियों में उन खटालों में रहने लगीं। कोई चाहे तो शहर के खटाल में जाकर इनकी स्थितियों का कोई जायजा ले सकता है। गाय की कसमें खाने वाले एक बार इधर भी देखें। डेयरी फार्मों में इन मवेशियों के साथ जितनी ज्यादितियाँ होती हैं, देख कर रोंगटे खड़े होने के साथ-साथ मन भिनक भी जाता है। गायवादी जो हैं वे दूध कहा से लेते हैं?


                     
आज़ादी के बाद से लेकर अबतक की सरकारों ने गाँवों और किसानों और गरीबों को तो कोई महत्व नहीं दिया।गरीब अगर एकजुट होकर अपनी आवाज बुलंद करते हैं तो जमींदारों की राइफलें गरजने लगती हैं।कुँअर सेना, लोरिक सेना, ब्रह्मर्षि सेना, रणवीर सेना जैसी निजी सामन्ती सेनाएं गठित होने लगती हैं और गरीब- दलित जनसंहार रचाये जाते हैं और सरकारें गरीबों-दलितों के साथ नहीं, जमींदारों के साथ खड़ी होती रहीं हैं। गौरतलब है कि बर्तमान भाजपा सांसद और नीतीश के मंत्रिमंडल में  मंत्री रहे गिरिराज सिंह  रणवीर सेना के सरगना ब्रहमेश्वर सिंह को निर्लज्जता पूर्वक गांधीवादी तक कह डालते हैं। अब प्रश्न यह उठता है कि स्त्रियों, बच्चों, बूढ़ों, जवानों, दलितों का हत्यारा गांधीवादी कैसे हो सकता है? ऐसा कहने वाला आदमी अगर गोहत्या पर चिल्लाये तो समझना होगा कि मामला गाय और हिन्दू का नहीँ पुराने सामन्ती वर्चस्व को येन-केन-प्रकारेण बनाये रखने का है। मवेशी पालन का काम तो किसानों और गरीबों का अपना काम था और है भी, उनकी हत्या कर कैसे कोई गाय और भैंसों को बचा सकता है। मैंने आरा, पटना, बलिया, ग़ाज़ीपुर, बनारस, धनबाद, गिरिडीह में देखा है कि गाँव के भूमि-पुत्रों ने ही खटालें खोली हैं।


               
मुझे आश्चर्य होता है यह देख कर कि हिन्दू-हिन्दू और गाय-गाय चिल्लाने वाले ईमानदारीपूर्वक न गाय से वास्ता रखते हैं न हिन्दू से। वे हिन्दुओं को जज्बाती तौर पर भड़काने का काम करते हैं। मैंने देखा है कि गाय के मरने पर पहले एक खास जाति के लोग ही उसे उठा के ले जाते थे। मैनें किसी सवर्ण को मृतक पशु को उठा के ले जाते हुए नहीं देखा है। अब दलितों में जागरण आने के बाद दबाववश भले ही कहीं उठाना पड़ जाता हो। मैंने तो देखा और सुना भी है कि जिन्दा को कौन कहे मरे हुए पशुओं के मांस भी हमारे ही गाँव- समाज के लोग कुछ लोग खाया करते थे । प्रेमचंद के 'कर्मभूमि' को पढ़कर भी इसे समझ जा सकता है। दलितों को गोबर से निकाले अन्न को भी खाते देखा-सुना है और शरण कुमार निम्बाले की आत्मकथा 'अक्करमाशी' में पढ़ा भी है। ये हिंदुत्ववादी बाबरी विध्वंस से दादरी और कलबुर्गी तक वाया गुजरात जनसंहार बतलाते हैं कि हम अपना वर्चस्व चाहते हैं। एक दौर में ये मंदिर- मंदिर चिल्लाते थे और ईंट पूजन करवाते थे और आज गाय-गाय चिल्लाते हैं। तब आगे थे आडवाणी और अब हैं मोदी और शाह। ये भारत की बहुलवादी संस्कृति को नष्टकर एकल किस्म का सवर्ण सामंती भारत बनाना चाहते हैं जिसमें कारपोरेटी तड़का हो। यह हम सब के लिए चिंता का विषय है। हर दौर में साहित्यकारों-संस्कृतिकर्मियों ने ऐसी प्रवृत्तियों का विरोध किया है। हमारी खेती चौपट, शिक्षा का बाजारीकरण जारी, बढ़ती महंगाई, बढ़ती बेरोजगारी, इतिहास की एकांगी व्याख्या, अभिव्यक्ति पर बढ़ते खतरे, बढ़ती असहिष्णुता और इसके प्रति संघ और भाजपा के गैर जिम्मेदार रवैये, मॉब्लिंचिंग को बढ़ावा देना - बहुत चिन्ता और चिंतन का विषय है। हमें प्रतिवाद के सारे सूत्रों को संगठित करना होगा। इस दिशा में सम्मान लौटाने वाले साहित्यकारों, फिल्मकारों,  वैज्ञानिकों के साथ-साथ प्रतिरोध संघर्ष में खड़े सभी साथियों के साथ खड़ा होना होगा।



(यह आलेख 20 अक्टूबर 2015  -  01 नवम्बर 2015 के बीच कुल छह किश्तों में लिखा गया था।)




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टिप्पणियाँ

  1. हेठार में 'नोय' और दक्खिन में 'छान' (छान-पगहा द्वित्व शब्द) के रूप में प्रचलित ये शब्द पर्याय हैं। यह आलेख मूलत: कृषि संस्कृति के साझे संकट को उजागर करता है , जिससे सरकारों ने मुँह मोड़ रखा है। आलेख में इसके राजनीतिक कारणों की भी तलाश है , जो जायज है। आलेख है मौलिक है।

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  2. पूरा पढ़ा। गाँव-समाज की हाले-हकीकत है यह। बहुत प्रामाणिक और सच्ची। यह सच है कि कृषक समाज उपयोगितावादी था, पर वह इसमें भी नैतिकता का व्यवहारिक निर्वहन करता था और उतना ही दोहन करता था, जितने में उसकी बुनियादी जरूरतें पूरी हो जाती थीं। तब कृषि कारोबार नहीं था और न ही धन संग्रहण लक्ष्य। तब लोग 'पेट' भरने के लिए मिहनत या दोहन करते थे, न कि 'पेटी' भरने के लिए।

    जहां तक हिंदुत्ववादी राजनीति के उभार का मसला है तो इसमें गैर-हिंदुत्ववादी राजनीति का भी उतना ही हाथ है, इसकी भी निष्पक्ष और तार्किक पड़ताल और शिनाख्त करनी होगी। मॉबलिंचिंग, सेकुलरिज्म, सांप्रदायिकता आदि जैसे शब्द दुधारी तलवार हैं। इसके प्रयोग में बहुत निष्पक्ष और वस्तुनिष्ठ होने की नैतिक जिम्मेदारी निभाने की दरकार होती है।

    बलभद्र जी को बधाई कि उन्होंने अच्छा लिखा है। हां, राजनीतिक संदर्भों में और वस्तुनिष्ठ होने की जरूरत थी। यह इतना सामान्य, इकहरा, एकरैखीय और एकांगी मसला कतई नहीं है।

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  3. बहुत महत्वपूर्ण विषय पर लिखा है सर ! यहाँ हमारे गॉंव-जनपद में गाय-बैलों की हालत भी कोई ठीक नही है ! बहुतेरे आज ऐसे लोग हैं जो दुधारू गाय को बाँधे रहते हैं और अनदुहानु को खुला छोड़ देते हैं ! समस्याएँ कई तरह की हैं ! एक वर्ग ऐसा है जिसे अपनी गाय से दूध तो चाहिए ,लेकिन देख-भाल वैसी नही करते जैसी करनी चाहिए ! जमीनी हकीकत को गॉंव-जनपद में रहते और भी अच्छे से समझा जा सकता है ! यों सच यह है कि गाय-बैलो को लेकर समस्या गांव में भी जटिल हो रही है !

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