महेश चन्द्र पुनेठा के कविता संग्रह 'अब पहुँची हो तुम' की कमलेश अटवाल द्वारा की गई समीक्षा
चर्चित कवि महेश चन्द्र पुनेठा का हाल ही में एक नया कविता संग्रह 'अब पहुँची हो तुम' प्रकाशित हुआ है। महेश सामान्य भाषा में गहरे मनोभावों वाली कविता लिखने वाले कवि हैं। यह संग्रह इस बात की तस्दीक करता है। आज पहली बार पर प्रस्तुत है महेश पुनेठा के कविता संग्रह 'अब पहुँची हो तुम' पर कमलेश अटवाल की समीक्षा।
हरी पत्तियों का संघर्ष
कमलेश अटवाल
एक कविता संग्रह में सामान्यत: अलग-अलग थीम्स पर कविताएं लिखी जाती हैं। क्या अलग-अलग थीम पर लिखी गई कविताओं में कोई समानता हो सकती है?
उत्तराखंड के सुदूर पहाड़ी ज़िले पिथौरागढ़ से शिक्षा समानता के लिए काम करने वाले एक्टिविस्ट शिक्षक और लेखक महेश पुनेठा जी के कविता संग्रह "अब पहुँची हो तुम" को जब 'समय साक्ष्य' पब्लिकेशन द्वारा की गई पैकेजिंग से निकाल रहा था यह सवाल मन में चलायमान था।
तीसरे ही पृष्ठ पर यह वाक्य देख कर पढ़ने की लालसा और तेज़ हो गई "आरंभ के उन युवाओं के लिए जो पढ़ने की संस्कृति के विकास में लगे हैं"।
55 विविध कविताओं से सजे इस कविता संग्रह को पढ़ने के बाद कवि के काम को उनके पूर्व के काम से जोड़ कर समझना आसान हो गया। लोकतान्त्रिक, भयमुक्त समाज, रचनात्मक शिक्षा और पहाड़ी जीवन के विभिन्न आयामों को समेटे यह संग्रह बीते साल को पुन: याद करने का सबसे अच्छा तरीका लगा।
यह पुस्तक विस्थापन के विमर्श को एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाने की सीमित समझ से आगे जा कर सामाजिक विस्थापन को भी अपनी कविता में शामिल करती है। कवि एक 'बटन' के प्रतीक को एक पुरुष और महिला के अलग-अलग नज़रियों से देखने के बाद लिखते हैं कि -
"पता नहीं अभी
और कितना समय लगेगा
मुझे तुम जैसा बनने में
और
विस्थापन की पीड़ा समझने में।"
विस्थापन के दर्द को रेखांकित करती महेश जी की बहुचर्चित कविता 'गाँव में सड़क' से प्रेरित "अब पहुँची हो तुम" किताब का टाइटल इस पृष्ठभूमि में बहुत सार्थक प्रतीत होता है। विस्थापन का विमर्श गांव से शहर जाने या पहाड़ से भाभर जाने तक का नहीं है। इसके सामाजिक पहलू भी हैं। कवि लिखते हैं - "पहाड़ी गांव यानी बिछोह, मिलन फिर बिछोह"।
पहाड़ी जीवन की कठिनाइयों से रूबरू कराती कविताएं दिखाती हैं कि कैसे एक महिला अपने स्वास्थ्य की कीमत पर अपने खेती बाड़ी के काम को प्राथमिकता देती हैं। उसे अपने स्वास्थ्य से ज़्यादा अपनी गाय ब्याने की चिंता है। उस पहाड़ी महिला की आर्थिक स्थिति, उसे डॉक्टर से दूर कर, झाड़-फूंक करने वाले तक समेट देती है। कविता का अंत सब कुछ बयां कर देता है।
"वह आज अचानक नहीं मरी
हां आज अंतिम बार मरी
उसको जानने वाले कहते हैं
मरी क्या बेचारी तर गई।"
सचेत नागरिक के रूप में संवेदनशील कवि की नज़र पहाड़ों की मूलभूत ज़रूरतों और प्राथमिकता पर अनायास ही पड़ जाती है जब वह गांव में पेयजल योजना की जगह बिना मांगे बना दिए गए भव्य मंदिर पर लिखते हैं -
"लोग प्रशंसा कर रहे हैं
उनकी धर्म परायणता की
सर पर पानी सारते हुए।"
इस किताब में चयनित कविताएं सिर्फ़ पहाड़ के जीवन तक नहीं, बल्कि हमारे समय के सबसे दर्दनाक वैश्विक मानवीय संकट इज़राइल-फ़िलिस्तीन पर भी जाती हैं। "जेरूसलम" के खून खराबे को देख पुनेठा जी लिखते हैं -
"हे दुनिया के प्राचीन शहर
क्या कभी तुम्हें लगता है
कि पवित्र भूमि की जगह तुम
काश! एक निर्जन भूमि होते।"
एक शिक्षक के रूप में महेश पुनेठा जी न सिर्फ़ नवाचारों के लिए जाने जाते हैं बल्कि बालमन को समझने पर बहुत ज़्यादा जोर देते हैं। उनकी कविता "ग्रेफीटी" बच्चों के साथ काम कर रहे टीचरों के लिए एक ज़रूरी हस्तक्षेप है। इसमें कवि, स्कूल की मेजों और दीवारों में लिखे अलग-अलग संदेशों को पढ़ने के बाद यह सोच रहे हैं कि जिन समाजों में प्रेम और आक्रोश की अभिव्यक्ति सहज होती होगी वहां बच्चे स्कूल की दीवारों और बेंचों में क्या लिखते होंगे?
"अब पहुंची हो तुम" कविता संग्रह में कवि ने बहुत जगहों पर अपने व्यक्तिगत अनुभव को जगह दी है जिनकी प्रेरणा शायद उन्हें अपने क्लासरूम, घर के किचन से लेकर, खेती किसानी और अपने व्यक्तिगत संबंधों से मिली हो। लेकिन मेरे लिए यह कलेक्शन, सामाजिक विज्ञान के छात्र के रूप में एक सामाजिक और राजनीतिक दस्तावेज भी है, जो वर्तमान राजव्यवस्था, हमारे समाज की संरचना और शिक्षा पर प्रत्यक्ष और महत्वपूर्ण सवाल उठाता है। कवि एक कविता में कहते हैं -
"मुझे शक है कि
तुम खुद को भी देख पाते हो या नहीं
लोग कहते हैं तुम ज़िंदा हो
पर मुझे विश्वास नहीं होता है
एक ज़िंदा आदमी
इतने संकीर्ण कुएँ में
कैसे रह सकता है भला!"
आज जब राजनीतिक विमर्श में "विकास" शब्द इतना प्रचलित हो गया है कि हर वक्त टी वी, अखबारों, यहां तक कि गली-गली में भी यही शब्द गूँजने लगा है, कवि अपनी 9 पंक्तियों की कविता से "विकास" को आईना दिखा देते हैं।
"एक पेड़ काटना
कानूनी अपराध है
पर समूह के समूह नष्ट कर डालना
राष्ट्र का विकास है
यह कैसा मज़ाक है?"
प्रस्तुत कविता संग्रह, ना सिर्फ़ अपने क्राफ़्ट में नवाचारी है बल्कि अपनी विषयवस्तु में समकालीन भी। जहां एक तरफ़ नफ़रत की आग उगलते व्हाट्सएप संदेशों को "छोटी सी नदी" के शीतल पानी से शांत करने का प्रयास किया गया है, वहीं सात दशकों बाद भी न्यूनतम मजदूरी न मिल पाना भी कवि की चिंताओं में है। लोकतंत्र के प्रति कवि का विशेष आग्रह कविताओं में स्वत: ही प्रफुल्लित होता है। लोकतंत्र का मतलब घर के छत के नीचे की बराबरी से भी है। कवि को जहां एक तरफ़ हरी पत्तियों का संघर्ष दिखता है जिससे पेड़ जिन्दा रहता है, वहीं उसे इस बात की भी उदासी है कि उसकी एक क्लास की लड़की जिसे वह संतुलित आहार के बारे में समझा रहा है उसने कल स्कूल से लौटने के बाद कुछ नहीं खाया।
नए साल में हमारे समाज और देश की यात्रा का मूल्यांकन करने के साथ-साथ भविष्य की उम्मीद से सराबोर है "अब पहुंची हो तुम" काव्य संग्रह।
सम्पर्क
कमलेश अटवाल
मोबाइल +91 88518 30364
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