बसन्त त्रिपाठी की कविताएँ
बसन्त त्रिपाठी हमारे समय के सुपरिचित कवि हैं। अभी अभी उनका नया कविता संग्रह 'नागरिक समाज' सेतु प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह का ब्लर्ब लिखा है वरिष्ठ कवि कुमार अम्बुज ने। ब्लर्ब पर छपी टिप्पणी के साथ साथ हम बसन्त की कविताओं पर दो और टिप्पणियां भी दे रहे हैं जिसे लक्ष्मण प्रसाद गुप्ता और प्रतिभा कटियार ने लिखा है। इसके बाद इसी संग्रह से बसन्त की कुछ कविताएँ भी दी जा रही हैं। तो आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं बसन्त त्रिपाठी की कविताएँ।
कुमार अम्बुज
बसंत त्रिपाठी की कविता अपनी भाषा भंगिमा और सुस्पष्ट अभिव्यक्ति
के लिए अलग से चिह्नित की जाती रही है। वाम दृष्टि उनकी कविता का सहज हासिल है।
रेखांकित किया जाना चाहिए कि यह संग्रह, उनकी कविता के इन
अवयवों के विकास का परिचय है। ख़ासतौर पर बीत गए दशक में भारतीय समाज, राजनीति और अस्मिता की चेतना में आए
फ़र्क की तफ़सील एवं पड़ताल इन कविताओं में उपलब्ध है।
प्रस्तुत समाज की मुश्किलों, घर-बार की प्रेमिल छबियों, लोकतांत्रिक संकटों के बीच राजनैतिक
विद्रूपताओं, पतन और करतबों को संग्रह के पहले खंड
में और अपनी हिंदी भाषा, साहित्य, कविता, आलोचना, पाठक और किताब जैसे विषयों पर कविता लिखने का
आवश्यक जोख़िम संग्रह के दूसरे खंड में विन्यस्त है। और यह सब इकहरे ढंग से
नहीं है। बल्कि एक साहित्यिक संवाद है, तकलीफ़ है और फ़िक्रमंदी है। वे खुद हिंदी के अध्यापक हैं इसलिए
उनके अनुभव इस परिदृश्य में कुछ इज़ाफ़ा करते दिखते हैं। यहीं कार्पोरेट और
वणिक वृत्ति के ख़तरों का मेल भी कवि की निगाह से ओझल नहीं है। वंचित, पददलित और विपन्न जीवन के वे मार्मिक
चित्र भी हैं, जो इधर कविता से प्राय: बाहर कर दिए
गए हैं। उचित ही नागरिक बोध और चेतना- ये उनकी केंद्रीयता के तत्व बन जाते हैं।
ये सब चीज़ें संग्रह को संपन्न करती हैं।
बसंत सुशासन, लोकतंत्र, विकास, देशद्रोह की विचलित परिभाषाओं को
दुरुस्त करते हैं और साहित्यिक परिदृश्य की चालाकियों, किंकर्त्तव्यविमूढ़ता, पराजित विमर्शों, सांस्थानिकताओं, प्रकाशन के गर्भगृहों, अतिरंजित महत्वाकांक्षाओं पर टिप्पणी
करते हैं। उनके विशेषणधर्मी वाक्य एक निगाह में कुछ क्रोधित दिखाई दे सकते हैं
लेकिन वे सीधे हस्तक्षेप की आकांक्षा से प्रेरित हैं। जीवन के विविध आयामों, दैनिक संघर्षों, आर्थिक परिदृश्य के बदलावों को दर्ज
करते हुए ये कविताएँ बहुस्तरीय असमानता, अन्याय के प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष उपकरणों की निशानदेही भी करती हैं। इनकी अभिधात्मकता
नुकीली है और काव्यात्मकता की तनी हुई प्रत्यंचा से कसे हुए तीर की तरह सनसनाती
हुई निकलती है।
कुछ कविताओं को सामने रखें तो 'दुनिया की महान उपलब्धियों का शोकगीत, 'यह रात है', 'घर और पड़ोस', 'फ्लाईओवर के नीचे जीवन' 'नागरिक समाज', जैसी अनेक कविताओं के साथ वे एक विस्तृत
वितान रचते हैं जिसमें भोजन से गायब होता स्वाद, विकास दर की हास्यास्पदता, किसान आत्महत्या, आश्वासन और आशंकाओं की सहजीविता के
सवालों को उठाते हैं। नए दिन की आशा, सामाजिकता के विश्वास और आत्मावलोकन की परिधियों तक भी यात्रा
है। इसलिए वे लिख पाते हैं- 'हम वहीं से लौटेंगे, जो ग़लत हुआ उसे ठीक करते हुए।'
अंतिम खंड में अपनी पसंद के कवियों, लेखकों जैसे नेरुदा, मार्खेज, नाज़िम हिकमत के जीवन में उतरकर कवि
की कुछ खोजबीन है, ये दिलचस्प दृश्य हैं। धर्म, सांप्रदायिकता के सवालों के बीच प्रेम, लुप्त सिक्कों और बारिश की स्मृतियों
के पास जाने के उपक्रम इस खंड को कुछ अतिरिक्त दीप्ति देते हैं। 'करेले' और 'खेखसी' जैसे विषयों को कविता में जगह मिलती है। इधर के जीवन की
विद्रूपताओं, विडंबनाओं और असहायताओं को वे लाँघ कर
नहीं जाते, उन्हें कुछ क़रीब से देखते हैं, उनका विश्लेषण करते हैं और उनसे
निबटने की युक्ति भी काव्य-माध्यम में पिरोते हैं। अपने समय में उपस्थित कवि का
यह एक व्यापक क्षेत्रफल है, जिसमें समय और काल अपनी ऐतिहासिकता में समकाल के समक्ष पेश है।
इसलिए यह एक कालखंड का दस्तावेज है।
आज जब कि हिंदी कविता में विचार और पक्षधरता के संकट की बात बार-बार
की जा रही है तब ये कविताएँ जैसे एक सकारात्मक उत्तर और साक्ष्य देने का प्रयास
करती हैं। इस फ़ासीवादी समय में कविता की भूमिका कुछ कलात्मकता से परे जाकर हो
सकती है, यह संग्रह इस पक्ष की भी एक सूचना है, घोषणा है और संकल्प है। जिसमें
निराशाएँ अपनी सक्रियता में नये रास्तों, नई लड़ाइयों और हिकमतों के पुनराविष्कार
का प्रस्ताव करती हैं। हताशा और अवसाद पर विजय पाने के लौकिक तरीकों का अन्वेषण
है। और यह इतना सुचिंतित है कि वे एक पूरी कविता ही 'कुछ भी अलौकिक नहीं होता' सूत्र पर संभव करते हैं।
बसंत त्रिपाठी का यह संग्रह सदी के नये और तीसरे दशक के प्रारंभ
में पाठकों के बीच सर्जनात्मक व्यग्रता और अमर आशा के बीच एक संबंध की तरह भी
देखा जा सकता है। जो सवाल इस महादेश के सामने पिछले वर्षों में अचानक आ गए हैं, उन पर भी विचार के लिए एक जगह बना
सकेगा। यही आग्रह उनकी इन कविताओं में पैवस्त है।
मैं एक ठहरे हुए पल में जी रहा हूँ - बसंत त्रिपाठी
लक्ष्मण प्रसाद गुप्ता
ज़िंदगी ने जो कुछ भी दिया है, वो सहसा हासिल नहीं हुआ। रिक्तता से भरी रातों में खुली पलकों के बीच अक्सर ये महसूस किया कि हासिल के पीछे बहुत कुछ टूटता और बिसरता रहा है। ये भी लगा कि इन सबका भागी न तो अकेला यह शरीर रहा, न मन ; बल्कि जो संग-साथ थे, सभी इसके सहभागी रहें। न हासिल सिर्फ़ अपना था,न टूटन सिर्फ़ अपनी थी, न बिसरता हुआ सबकुछ सिर्फ़ अपना; ये सब तो जैसे सामूहिक था। होने, न होने का बोध अकेले का नहीं होता। ये सामाजिक होता है। हममें से ज़्यादातर लोग इसे वैयक्तिक मान लेते हैं। लेकिन, एक संवेदनशील के साथ ऐसा नहीं होता। यही वजह है कि वह नितांत वैयक्तिक को भी सार्वजनिक मानते हुए, बड़ी जिम्मेदारी के साथ सबकुछ को साझा करता चलता है। रचनाधर्मी व्यक्तित्व के निर्माण के पीछे यही प्रक्रिया काम कर रही होती है। चाहे सुख हो, चाहे दुःख; रचनाकार को इसे दो स्तरों पर जीना पड़ता है। एक तो जब यह सब उस पर घटित होता है, और दूसरा जब वह घटित को शब्द-दर-शब्द रच रहा होता है। अनेक बार दूसरे स्तर की पीड़ा सिर्फ़ रचनाकार की पीड़ा होकर रह जाती है। कभी यूँ भी होता है कि उसे हम समझ पाते हैं। यह समझ तब बेहतर ढंग से आकार लेती है, जब रचनाकार सम्मुख होता और अपनी रचना को हमसे साझा कर रहा होता है। यानि अपनी रचना के पाठ से गुज़र रहा होता है। यदि सूक्ष्मता से देखें तो यह किसी भी रचनाकार के लिए आसान नहीं होता, क्योंकि हर पाठ घटित की ओर बार-बार लेकर जाता है। यातनाएँ दो स्तरों की सीमा लाँघकर बहुस्तरीय होती जाती हैं।
आज की शाम स्वराज विद्यापीठ में बसंत त्रिपाठी जी के एकल काव्यपाठ से गुज़रते हुए यह अहसास प्रत्यक्ष ही हो रहा था। कवि के शब्दों में चेहरे की संगत कुछ इस कदर थी कि उसका सुख और दुःख दोनों देखा जा सकता है। अपने चार संग्रहों - 'मौजूदा हालात को देखते हुए', 'सहसा कुछ नहीं होता', 'उत्सव की समाप्ति के बाद', और 'नागरिक समाज' की कविताओं के माध्यम से बसंत जी न सिर्फ़ अपने को टटोल रहे थे, न ही सिर्फ़ अपनों को; बल्कि समय-समाज की कुछ ऐसी तस्वीरों को भी सामने रख रहे थे कि जिससे उनके कवि संघर्ष को समझा जा सकता है। कहते हैं न कि ईमानदार कवि अपनी रचना में जितना अधिक घुलता जाता है, अपने में उतना ही खपता चला जाता है। किसी भी रचनाकार के बचे रहने का अनुपात उसके खपे हुए के अनुपात से ही तय होता है।
बसंत जी व्यक्ति और समाज के टूटन को रेखांकित करनेवाले ईमानदार कवि हैं। जहाँ न तो भाषा का कोई छद्म है, और न ही अपने को स्थापित करने की होड़। जहाँ दिखाई पड़ता है तो सिर्फ़ कवि का असल दायित्व। इन्हें सुनते हुए कोई यह नहीं कह सकता कि अब कविता की ज़रूरत नहीं। यह भी नहीं कि कवि मोर्चे पर संघर्ष नहीं करता।
इस इतवार की तैयारी कल शाम ही हो गयी थी. तीन नयी किताबें सिरहाने रखकर सोई जो थी. इन्हें पढ़ने का मोह इस कदर था कि सुबह नींद जल्दी खुल गयी. पहली चाय के साथ अख़बार को पांच मिनट में उलट-पुलट कर रखकर सैर पर चली गयी. लेकिन कुछ था घर में जो पुकार रहा था. सैर से लौटते ही एक चाय और चढ़ाई और ‘नागरिक समाज’ उठा ली. सच कहती हूँ, अरसे बाद लगा कि कुछ मन का पढ़ा है. कुछ ऐसा जो मुझे झकझोर रहा है. कविताओं के सैलाब से गुजरते हुए शायद खो गया था ये स्वाद. मित्र कवि बसंत त्रिपाठी का यह संग्रह ज़ेहन की भूख मिटाता भी है और बढ़ाता भी है. ये कवितायेँ आईना हैं देश का, समाज का और हमारा. मुझे मालूम नहीं कि जैसा मैं महसूस कर रही हूँ उसे कैसे लिखूं, शायद नहीं लिख पाऊंगी, अभी सीखना बाकी है जस का तस अभिव्यक्त कर पाना.
इन कविताओं को पढ़ते हुए महसूस होता है कि कवि होना कितनी पीड़ा, कितनी बेचैनी में होना है. और यह पीड़ा यह बेचैनी उस समय और समाज को लेकर है जिससे असल में निज की निर्मिति होती है. बिना सतर्क नज़र और साफ़ नज़रिये के आप कुछ भी हो सकते हैं कवि नहीं. इन कविताओं को पढ़ते हुए अपने उस निज की पड़ताल होती है जो सुविधाभोगी घेरे में मतलब भर की वैचारिकी (जिसमें जोखिम न हो) के साथ बहस, आन्दोलन कर लेता है. ये कवितायेँ आपका हाथ पकड़कर समाज के उन स्याह कोनों, वहां के लोगों के जीवन तक ले जाती हैं जिनकी बात किये बगैर नहीं है अर्थ किसी बात का. ये कवितायें बार-बार पढ़े जाने वाली कवितायें हैं. सेतु प्रकाशन से प्रकाशित यह कविता संग्रह बसंत त्रिपाठी का चौथा कविता संग्रह है.
इन्हें पढ़ते हुए आपको सुख नहीं होगा, बल्कि आपके कम्फर्ट में खलल पड़ेगा फिर भी मैं कहूँगी कि इन कविताओं को पढ़ा जाना जरूरी है.
इसी संग्रह की अलग-अलग कविताओं से कुछ पंक्तियाँ-
केवल विकास दर के बढ़ते ग्राफ से नहीं
अपहरण बलात्कार और आत्महत्याओं के तरीकों से भी
यह सदी दर्ज हो रही है इतिहास में
इतिहास के अंत के भाष्यकारों से नहीं
इतिहास में शामिल होने
और उसे बदल डालने की इच्छा से भी
आप जान सकते हैं इस सदी को....
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लड़ना तो दूर
कहीं जगह ही नहीं थी मेरी
क्यों न खुद को खत्म कर लूं
बस इस ख्याल का आना था
कि यमदूतों ने अपने भालों की नोक चुभोयी-
‘तुम्हारा समय अभी नहीं आया है मि बसंत
तुम्हें इस देश में अपने हिस्से की जिल्लत
पूरी-पूरी झेलनी है.’
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बोलना जरूरी है
कभी-कभी चीखना और झुंझलाना भी
लेकिन सिर्फ बोलने और चीखने और झुंझलाने से
ईमानदार नहीं हो जाता हर कोई
ढोल संगत देने के लिये ही नहीं
अपनी पोल छुपाने के लिए भी
बजता है कई बार
ढडंग... ढडंग...
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देशभक्त आजकल देश से गिरकर
भक्त पर अटके हुए हैं
और बाबाओं की तो अब रहने दें
वे जब तब धर्म की गंधाती व्यापारिक नाली में
गिरते ही रहते हैं
अब तो क्रांतिकारिता भी फेसबुक पर लाइक की आस में
हर सुबह गिर पड़ती है
गिरने का कारोबार उठान पर है अब
जो जितना गिरता है
उसकी आभा उतनी ही निखरती है.
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मुख्यमंत्री के चरित्र के गिरने का ग्राफ
प्रधानमंत्री जैसा नहीं होता
न उनके सचिव एक जैसे गिरते हैं
और मंत्रियों का तो कहना ही क्या
उनका चेहरा क़दमों पर इतना गिरा होता
कि मंत्रित्व काल में
कभी ठीक से दिखाई नहीं पड़ता पूरा...
बसन्त त्रिपाठी की कविताएँ
इस सदी को
इस सदी को समझने के लिए
नहीं चाहिए बहुत सिद्धांत
बहुत रौशनी
या भाष्य कई कई
इसे तो उस अतृप्ति से भी जाना जा सकता है
जो लगातार
सबके भीतर जमा हो रही है
ज़मीन में क्षार की तरह
जीभ पर रखते ही बैंगन की सब्ज़ी
टीस सी उठती है
और याद आता है दस साल पुराना बिछड़ चुका स्वाद
वह भी इस सदी को समझने का एक पैमाना है
असुरक्षा जो हर वक्त
आशंका की तरह बजती रहती
संपन्नताएँ जो भय पैदा करतीं
बात बेबात झुँझलाना जो बढ़ता ही जाता
इन सबसे भी पहचानी जा सकती है यह सदी
धन को बुरी नज़र से बचाने के लिए
बिक रहे धनरक्षक यंत्रों
शक्तिवर्धक औषधियों फ्रेंडशिप के विज्ञापनों
और पिज़्ज़ाहट की रौनक से भी पा सकते हैं इस सदी का हाल
यह सदी जो मनोचिकित्सकों की समृद्धि
और कुपोषण से ग्रस्त लोगों की वृद्धि का अकल्पनीय द्वैत है
पीपल के पत्तों की तरह
काँप रहे हैं गरीब गुरबे
नीम की पत्तियों की तरह
झर रहे दिन रात
खाद में तब्दील हो रहे रोज़ ब रोज़
जिसे चूस कर बढ़ रहे हैं धनकुबेर
उन पन्द्रह करोड़ धनकुबेरों की
एक अरब लोगों पर बरसती व्यंग्यात्मक मुस्कुराहट से भी
जान सकते हैं सदी की चाल
केवल विकास दर के बढ़ते ग्राफ से नहीं
अपहरण बलात्कार और आत्महत्याओं के तरीकों से भी
यह सदी दर्ज हो रही है इतिहास में
इतिहास के अंत के भाष्यकारों से नहीं
इतिहास में शामिल होने
और उसे बदल डालने की इच्छा से भी
आप जान सकते हैं इस सदी को
इतना इतना भरम
इतनी इतनी जुगत
बाढ़ की तरह बढ़ आई कुरुचियाँ
और सारा कुछ इर्द गिर्द,
जिसका भी चेहरा छुओ
पानी की एक धार छूटती है
गर्म और नमकीन
वह या तो पीड़ित है या चिह्नित
भरमाने और उलझाने वाले तर्कों से ही नहीं
असंतोषों के उमड़ते सैलाब से भी
जान सकते हैं हम
इस महान सदी को।
नागरिक समाज
मैं जहाँ रहता हूँ
वहाँ अकसर
बर्फ से ठिठुरती या
घनघोर बारिश में भीगी या
रेत कणों से लिपटी
एक काँपती आवाज़
दूर कहीं से आ कर
मेरा दरवाज़ा खटखटाती है
‘मैं तुम्हारा देश हूँ’ वह क्षीण आवाज़ कहती है
‘माफ करना मुझे ओ ठिठुरती हुई आवाज़
मैं किसी और के देश में रह रहा हूँ’
मुझे शर्म से कहना चाहिए था
लेकिन मैंने गर्व से कहा
तनिक शान से भी
‘तुम मनुष्यता से कई दर्ज़ा नीचे गिर कर
मनुष्यता के बारे में बातें कर रहे हो’
मनुष्यता.... मैं हकलाते हुए हँसा
हमारे रहबरों के लिए मनुष्यता का मतलब
उनकी निजी इच्छाएँ हैं
और मैं रहबरों की इच्छाओं की सुरक्षा में पलता
एक बेमतलब का जीव
लेकिन छोड़ो यह निरर्थक बहस
हमें मिला है एक बस यही जीवन
और एक ही यह शरीर
जो कि सत्य है
स्वाद और कामनाएँ हमारे अधिकार भी हैं
और कर्तव्य भी
खीझ कर उस आवाज़ ने कहा-
‘अपने ही देश को जाते तमाम रास्ते
समृद्धियों से बंद कर रखा है तुमने
तुम्हारी संपत्ति ही तुम्हारा कैदखाना है
ध्वस्त कर दिए हैं संवेदना के सारे पुल
दुख को कहते हो अभिशाप
लेकिन देखो कि चमकीली तरंगें ही
तुम्हारा चयनित अकेलापन है
और मोमबत्ती ब्रह्मास्त्र’
उस आवाज़ का चेहरा देख लेने को आतुर
मैंने हड़बड़ा कर पूछा-
कहाँ हो तुम ओ मेरे देश की काँपती उपेक्षित आवाज़
मुझसे कितनी दूर?
चुप्पी के महासागर में डूब जाने से पूर्व
उस आवाज़ ने बस इतना ही कहा-
‘मैं कहीं बहुत दूर से नहीं
तुम्हारे पड़ोस से ही बोल रहा हूँ
यदि गौर से अपने बच्चे का चेहरा देखोगे
मैं वहाँ भी दीख पड़ूँगा।’
आत्मकथा लिखने से पहले खुद से कुछ सवाल
मैं कैसे याद करता हूँ अपने अतीत को
क्या अपने अतीत में
केवल मैं ही रहता हूँ
अपनी रुचियों चाहतों पराजयों के साथ
या मेरा पड़ोसी भी
क्या मैं अपनी ही भाषा का पीछा करता हूँ
क्या मैं अपने ही गाये गीतों को
फिर फिर गुनगुनाता हूँ
मेरे अतीत की यादों में
क्या मेरे देखे हुए पक्षी ही अपने पंख फड़फड़ाते हैं
क्या मेरे अदीख का कोई दुःख
अक्षम्य अपराध की तरह
हावी होता है कभी मुझ पर
मसलन यदि मैं अपने बनारस के जीवन को याद करता हूँ
तो क्या बस्तर का नहीं जिया गया जीवन
सालता है मुझे
मैं अपनी पसंदगी नापसंदगी उदासीनता के अलावा
क्या कभी कुछ और भी दर्ज करने की सोचता हूँ
राख में भी चीज़ों की पहचान छुपी होती है
और हर राख एक सी भी नहीं होती
क्या मैं राख का मुआयना करने की खातिर
लौटना चाहता हूँ अपने जीवन के दहक चुके पन्नों में
कितनी कितनी गिरहें हैं जीवन में
कितनी कितनी उलझने
कभी कुछ भी सुलझता नहीं है पूरा-पूरा
हर राह
हज़ार पगडंडियों में फूटती है
हर पूरी हुई इच्छा
बीसियों अनिच्छाओं का कब्रिस्तान है
कितना भी खाली करो गिलास
तलछटी में कुछ न कुछ रह ही जाता है
क्या मैं छूट गए सामान की तलाश में
लौटना चाहता हूँ अपनी ज़िंदगी के अलक्षित कोनों में
क्या मैं वह बाँसुरी फिर से बजाना चाहता हूँ
जिसे ठीक तरह से तब भी नहीं बजा पाया था
कहीं ऐसा तो नहीं कि
मैं अपनी पराजय का उत्सव मनाना चाहता हूँ ?
मैदानी इलाकों का नागरिक-बोध
हम मैदानी इलाकों की
समृद्ध प्रकृति के बीच जन्मे हैं
थोड़ी अलाली, थोड़ी जागरूकता
बहुत सारे ईश्वर और छिपे हुए अनैतिक कृत्यों के बीच
पले बढ़े हैं
हम सब कुछ हैं थोड़ा थोड़ा
हम यायावर नहीं हैं
फिर भी यायावरी
पहचानी गलियों के बीच करते हैं
जैसे हम भगत सिंह जैसे नहीं हैं
लेकिन उस पर बनी फिल्म हिट करवा देते हैं
तुम हमें कभी पहचान नहीं सकते पूरा
हमारे बीसियों चेहरे हैं
और उससे भी ज्यादा पहचान-पत्र
हम धर्म के भीतर रहते हैं
भाग्य के भीतर रहते हैं
जाति और लिंग हमें विस्तार देते हैं
और हमारी भाषाएँ हमारा कैदखाना हैं
हम क्रोध से जलते हैं
विरोध भी करते हैं
हम हताशाओं के पुतले लगते हैं
हम जंगलों में नाचते हैं
फसल कटने के बाद नाचते हैं
हम हरेक उत्सव में नाचते और गाते हैं
हम गर्व करते हैं और शर्मिन्दा होते हैं
हम आधुनिकता से डरते हैं और शीतल पेय पीते हैं
हम अतीत से मुक्ति चाहते हैं और सजातीय वर ढूँढ़ते हैं
दो फसलों के बीच हम सपने देखते दिन गुज़ारते हैं
हमारी दिनचर्याओं पर दो बजटों के अंतराल का पहरा है
हमारी परिचित दुनिया खुद इतनी अपरिचित है
कि उसे पुनः पुनः तलाशते हैं
इस तरह हम अनपेक्षित नाकेबंदी के शिकार हैं
हम रमे रहते हैं अपनी ही चिन्ता में
हम महान परिवर्तनों को कूड़ेदान में तब्दील कर देते हैं
फिर उससे उठती गंध पर ऐतराज करते हैं
हम कुछ नहीं करते सिवाय प्रतीक्षा के
हम इस देश के बाकायदा नागरिक हैं।
गिरना
चीज़ें अपनी गति से
लगातार गिरती रहती हैं
पीला पत्ता लहराकर चक्करदार गिरता है
पत्थर सीधी रेखा में
झट से
जंगल में काटा गया पेड़
ऐसे गिरता है
जैसे छापामार युद्ध का सैनिक कोई
मुख्यमंत्री के चरित्र के गिरने का ग्राफ
प्रधानमंत्री जैसा नहीं होता
न उनके सचिव एक जैसे गिरते हैं
और मंत्रियों का तो कहना ही क्या
उनका चेहरा कदमों पर इतना गिरा होता
कि मंत्रीत्व-काल में
कभी ठीक से दिखाई नहीं पड़ता पूरा
विपक्ष को पूरे पाँच साल
इसका अफसोस रहता है
हाय! मैं वैसा क्यों न गिर सका?
कारपोरेट घरानों के मालिक की निष्ठा
सत्ता के निर्देशानुसार गिरती है
पुरानी इमारतों को बिल्डर ऐसे गिराता है
जैसे पहलवान अपने कमज़ोर प्रतिद्वंद्वी को
शेयर बाज़ार तो धड़ाम से गिरता है
जब अमेरिकी पूँजी अपनी आँखें तरेरता है
उसके ठीक अगले दिन
वित्तमंत्री का बयान मय चेहरे के
अखबारों के मुख-पृष्ठ पर गिरता है
देशभक्त आजकल देश से गिर कर
भक्त पर अटके हुए हैं
और बाबाओं की तो अब रहने दें
वे जब तब धर्म की गंधाती व्यापारिक नाली में
गिरते ही रहते हैं
अब तो क्रांतिकारिता भी फेसबुक पर लाइक की आस में
हर सुबह गिर पड़ती है
गिरने का कारोबार उठान पर है अब
जो जितना गिरता है
उसकी आभा उतनी ही निखरती है।
राष्ट्र-द्रोही
(1)
सुकून की केवल इतनी जगह चाहिए
कि खड़ा हो सकूँ बेखौफ
डरूँ ना कि कोई निकल जाए कुचल कर
थोड़ी-सी छाया हरे दरख़्त की
भले मुझ पर न पड़े
दिखे आस-पास
और गिलहरी गर दीख जाए
तो क्या कहने
बस इतनी-सी जगह कि
आसमान देखूँ पल भर तो
चौंका न दे कोई भागती मोटर
कोई ठंडा झोंका हवा का
सहलाए पुचकारे
इस शहर में
बस इतनी-सी ही जगह चाहिए
यह चाहना कोई गुनाह तो नहीं है
फिर क्यों मुझे
अपराधी की तरह देखते हो
और कानून की किताबों में ढूँढ़ने लगते हो
मेरे लायक कोई सज़ा ?
(2)
मैं सड़क को
सड़क की तरह देखता हूँ
गड्ढों को गड्ढों की तरह
सब्ज़ियों की बढ़ी कीमतों से
परेशान होता हूँ
और आत्महत्याओं से दुखी
मैं स्त्रियों को यौन-शुचिता के प्रतीक की तरह
नहीं देखता
और विनायक सेन, उसके बारे में तो कुछ नहीं कहता
माना कि भीतर ही भीतर कुढ़ता हूँ
आखिर सचिन तेंदुलकर के भारतरत्न मसले पर
मैं चुप हूँ
तो जाहिर है कि आपकी नज़र में
राष्ट्र-द्रोही ही हूँ
आपके इस सबसे बड़े लोकतंत्र की किताब में
मेरे लायक कौन सी सज़ा है?
उन कायरों के नाम ख़त, जो धर्म-रक्षा की खातिर बंदूक सँभाले हुए हैं
कायरो,
कितना डरते हो तुम कथित ईश्वर की बनाई दुनिया में
कथित ईश्वर के लुप्त हो जाने के भय से
तुम्हारी सोच का दायरा
एक पागल कुत्ते की रैबीज़ जितना ख़ौफनाक है
कायरो,
क्या तुम बता सकते हो
कि किस ईश्वर के आख्यान में डूब कर
अपनी नसों में भरते हो यह घृणा ?
वैसे मेरा निजी अनुभव तो यही है
कि ईश्वर का नया नागर संस्करण
एक ध्वजा है जो घृणा सिखाता है
और हत्या के लिए उकसाता है
तुम बहुसंख्या के धर्म में धार्मिक बाना पहनकर रहते हो कायरो,
इतिहास में झूठ का पुलिंदा बाँध कर
अल्पसंख्यकों की असुरक्षा के भयभीत तर्कों पर सवार हो कर
दिखावे की सहिष्णुता में आक्रामकता की मूँछ उमेठ कर
जाति में वर्चस्व के छीजते भय की सामंती आशंकाओं
और सन्निपाती इच्छाओं से लैस
तुम अँधेरे से निकलते हो
रोशनी पर हमला करने के लिए
कायरो, तुम्हारा वह जहरीला टैंक
जो तुम्हें ईंधन उपलब्ध कराता है
बदल नहीं पाएगा दुनिया का हत्यारा पृष्ठ
क्या इतिहास से तुम कोई सबक नहीं लेते हो ?
क्या तुम देखते नहीं कि दुनिया के तमाम तानाशाहों की कब्रें
सूखी पत्तियों से ढँकी सुनसान पड़ी हैं?
सिराई गई हड्डियों को मछलियों-झींगों तक ने कुतर दिया है
और सभ्यता घूम-घाम कर, भटक-बहक कर
विचारकों के पास ही पहुँचती है आखिरकार
इसलिए कायरो,
अपने तानाशाहों की चरण पादुकाएँ देखना बंद करो
तानाशाहों के पक्ष में लिखीं चमकीली इबारतें
एक दिन अपनी चमक खो देंगी
तब तुम्हारे द्वारा की गई हत्याओं के पृष्ठ
तृण-पात की तरह उड़ेंगे
तब लिखा जाएगा कि तुमने इतिहास के एक कालखण्ड में
धूप के क़त्ल की वाचाल कोशिश की थी।
जहाँ...वहाँ...
जहाँ रात के लिए एक स्याह बिंब है
जहाँ दिन एक जलती चिता है
जहाँ नींद
दो दिन के बीच काम करने लायक ताज़गी का
जहाँ मौत केवल एक आँकड़ा है
जहाँ अतीत
पुनरुत्थानवादियों के षड़यंत्रों का औजार है
जहाँ धर्म
उद्वेलित चित्त का आक्रामक उत्सव है
और है
धार्मिक स्थलियों और नए धर्माचार्यों का व्यावसायिक व्याख्यान
जहाँ बाज़ार
धमकाती ज़रूरतों का अंतहीन व्यापार है
जहाँ राजनीति
बस कांग्रेस-भाजपा है
और थोड़ी सी जगह में सपा-बसपा है
जहाँ देश
पाकिस्तान और चीन का विरुद्धार्थी शब्द है
जहाँ मनुष्य
बस सफलतम प्राणी का समानार्थी शब्द
जहाँ प्यार
सुरक्षा का दूसरा नाम है
जहाँ शिक्षा
जाति-व्यवस्था का आधुनिक प्रत्याख्यान है
वहाँ रहते हुए
मैं उदास और मौन कण्ठ से
गाता हूँ उदासी और पराजय का
एक धुँधला, धुंध भरा गीत
जिसे कोई नहीं सुनता।
हिंदी
इस भाषा ने
मेरे माथे पर लिख दी है
पराजय की कुछ अदृश्य पंक्तियाँ
जो बार-बार इस तरह छा जाती है मुझ पर
जैसे विनम्र निरंकुशों के अव्यक्त अट्टहास
मेरे पीछे
एक तूफान है
पाँवों के सारे निशान मिटाता हुआ
और आगे एक अंधड़
लगातार चला जा रहा है
जिसमें कुछ सार्थक कह सकने का-सा भ्रम है
वहाँ दूर एक समुद्र
अपनी फेनिल हँसी हँसता हुआ
इंतज़ार कर रहा है
जो अनगिन भाषा-नदी को
पचा चुका है अब तक
मित्रो !
यह वही भाषा है
जिसकी धमक में छिपी है
महान कवियों की उद्दाम आकांक्षाएँ
और छटपटाती करवटें
मेरी हिंदी दरअसल
मुनादी का ढोल है
जो किसी और के लिए बज रही है
पिछली एक सदी से
लगातार.... लगातार.....
समकालीन कला केन्द्रित संगोष्ठी का आधार वक्तव्य
यह समय
कूड़ों के हवा में घुलने का
नालियों के दिमाग में खुलने का
महासमय है
अनसुलझे सारे प्रश्न
अपनी चप्पलों के साथ
धुँधली आभा में गुम हो चुके हैं
सीमित सफलताएँ
उन्मादी नृत्य करते हुए
अपना वजन तौल रही हैं
उन्हें वह सबकुछ मिल गया है
जिसका वायदा फुसफुसाते हुए किया गया था
जो एड़ी की हल्की दर्द के इलाज के लिए
अस्पताल में दाखिल हुआ था
एक किडनी के साथ
धक्के मार कर निकाल दिया गया है
भुने चने खाकर
जैसे तैसे ज़िंदा लोग
खदेड़ दिए गए हैं
विकास के राजपथ से
बदलाव इतना निकट का विचार कि
लोग मुखौटों से बदलने लगे हैं अपना चेहरा
वह कसैला धुआँ छोड़ता कवि
जो मेहतर चाहता था
हतप्रभ है कि झाड़ू चुनाव चिह्न है
और प्रधानमंत्री तक जुट गया है सफाई में
पर दिक्कत यह कि कुछ भी साफ नहीं हो रहा
बुहारकर जितना भी इकट्ठा किया गया था कूड़ा
उसे दिमाग में ठूँस दिए जाने का विचार
संसद में लंबित है इन दिनों
और कलाएँ हैं कि
दर्शक दीर्घा में बैठ
मुफीद समय का इंतज़ार कर रही हैं !
आवरण
ज़रा सा हट गया था आवरण
बस ज़रा सा ही
और वह भी केवल कुछ पलों के लिए
दिखाई दे गया उतने में ही
अंतर का सारा मैल
भय और कायरता और स्वार्थ का कुण्ड
खदबदा रहा था भीतर
लेकिन वह बना हुआ था
धीरोदात्त गर्वोन्नत
वह खुद को झरना कहता था
लेकिन मैंने देख लिया
उसकी धमनियों में
उदारता का चोगा ओढ़े हुए
अहंकार बह रहा था
वह मृत शेरों की शिकार कथा लिखने वाला
महानायक था
हद तो तब हुई
जब बाँई आँख दबाकर
तनिक दोस्ताना अंदाज़ में उसने कहा -
हाँ, अभिनय ही इस दुनिया का
अपराजेय विचार है
ज़रूरी है अच्छा और सच्चा होने का अभिनय
दुनिया के अधिकांश काम इससे सध जाते हैं
राजनीति, कला, साहित्य और सभाएँ
वाह वाही में डूब जाती हैं
जब यह महान विचार
वह अपनी टुच्ची ज़ुबान से व्यक्त कर रहा था
ठीक उसी वक्त मैंने सुना
कि दुनिया के सारे कुत्ते
एक साथ रो पड़े थे।
नेरूदा
नेरूदा, मेरे प्रिय कवि !
तुम्हारे पास समुद्र
और उसकी नमकीन हवाओं का स्पर्श था
तुम्हारे पास
धूल धुंध पसीना
पथरीली चोटियाँ
और अनगिनत फूलों की ज़िंदा खुशबू थी
तुम्हारे पास
सड़कों और मकानों की खिड़कियों से
फिसलते बर्फ का दृश्य था
और गुदाज़ स्त्रियों से संभोग की
अविश्वसनीय कथाएँ भी
तुम्हारे पास तानाशाही के खिलाफ
उठे कदमों की कड़क पदचाप थी
संतरों की मादक गंध
और किसम किसम की शराबें थीं
तुम्हारे पास समकालीन कवियों-चित्रकारों की
छटपटाती आत्माओं के विलाप थे
जो झिंगुर की तरह छा जाते थे तुम पर
तुम्हारे पास दुनिया के तमाम रचनाकारों की
अक्षय शुभकामनाएँ थीं
जो हर पल तुम्हें रौशन और तरोताज़ा रखतीं
तुम जीवन और कविता के बीच
अपना हैट पहने और कलम थामे
ऐसे खड़े थे
जैसे पहाड़ पर देवदार का जंगल
और तुम्हारी कविता ऐसे बहती थी
जैसे हरे जंगल के बीच से
कोई उजली नदी !
मैं जब भी खोलता हूँ तुम्हारी कविता की किताब
तुम हमेशा पन्नों के भीतर से
मेरी ओर हाथ बढ़ाकर कहते हो –
‘आओ साथी,
दुनिया को पहचानने की इस विस्मयकारी दुनिया में
तुम्हारा स्वागत है ।’
गैब्रिएल गार्सिया मार्केज
(सोन्या सुरभि गुप्ता द्वारा अनूदित ‘एकान्त के सौ वर्ष’ पढ़ने के बाद)
मार्केज, मेरे दोस्त
बीहड़ और पसीने और
अधूरी अतृप्त इच्छाओं से सने वाक्यों के जंगल से बाहर निकल कर
सारे आदिम स्वाद जीभ
में तैरने लगे हैं
और मस्तिष्क में एक रुई का चट्टान
अपनी भारहीनता से खौफ पैदा कर रहा है
मार्केज, मेरे दोस्त
शब्दों ने तयशुदा अर्थों का दामन छोड़ दिया है
और वे आकाश में कुलाँचें भरने लगे हैं
धूल और कीचड़ से सनी हैं उनकी चप्पलें
जब सिर पर पड़ती है चप्पल
तार-तार हो जाती है ठहरी हुई दिनचर्या
मार्केज, मेरे दोस्त
आदिम जद्दोजहद की आधुनिक कथा
बार-बार वहीं लौट आती है
जहाँ से वह शुरू हुई थी
जैसे भाप बनकर उड़ गया पानी
लौट आता है नदियों के मार्फत समुद्र में
और हद तो यह कि लाल चींटियाँ और दीमकें
अपनी बाँबियों से निकलकर
घेरा डाल रही है पूरी दुनिया पर
मार्केज, मेरे दोस्त
नुकीली घाटियों पर मखमली चादर बिछाए
मुझे नहीं मालूम कि कब से तुम
लगातार करवटें बदलते सो रहे थे
कब तुमने पत्थरों को
दाँतों से पीसना सीखा और अभिसार की आदिम इच्छाओं ने
कैसे और कब पा लिया अपना प्रणयातुर साथी
वह तुम्हारा संघर्ष था
तुम्ही को मुबारक हो
मेरे दोस्त,
तुम्हें उर्सुला की सौगंध !
मुझे तो बस
उस पथरीली घाटी से उतरने का
रास्ता बता दो
मैं लौटना चाहता हूँ
अपने अनछुए अदीप्त
कोलाहलरहित एकान्त में
जो यकीनन माकोंदो तो नहीं ही होगा ।
इस बार बारिश
रात के ही किसी अचिह्नित क्षण में
नींद के मंच पर
जब सपने का महावृत्तांत
एक चमकदार अलौकिक नृत्य की तरह जारी था
शायद तभी बरसना शुरू हुए होंगे बादल
आषाढ़ ने इस बार
रात के अँधेरे में आना तय कर रखा था
मुझे लगभग क्षण का भी अंदाज़ा नहीं
लेकिन यह ज़रूर हुआ था
कि सपनों में बिजली कड़कड़ाई थी
पानी के बरसने की आवाज़
रूप बदलकर सपने में दाखिल हुई थी
मैंने बारिश की अगुवाई नहीं की
लेकिन सपनों ने उसके वैभव के गीत गाए
वह टपाटप तालमय गीत
कुत्तों का कुँकुआते हुए छुपने की दौड़भाग
और प्रणयरत बिल्लियों की नर्म गुर्राहट
सबकुछ याद हो आया
जब उठा सुबह
पानी अब भी बरस रहा है धारासार
मैंने मन ही मन किसानों से कहा –
बधाई इस पृथ्वी के अपराजेय योद्धाओ,
मुझे सीमा पर डटी सैन्य टुकड़ियों से कहीं ज्यादा
तुमसे प्यार है
तुम हो इसलिए यह पृथ्वी है
जैसे जंगल सिर्फ इसलिए हैं
क्योंकि आदिवासियों की गर्म साँसें
उन्हें अब भी थपथपाती हैं ।
कुछ भी अलौकिक नहीं होता
कुछ भी अलौकिक नहीं होता
न वे मुलाकातें न वे कंधे
कि पल भर के लिए
जिसमें रख दिया था
अपने समस्त दुखों का भार
ठीक उस एक पल
ऐसा लगा था जैसे
हमारा कुल वजन एक पंख से भी कम है
वह तयशुदा नहीं था लेकिन अलौकिक भी नहीं
सुबह काम के लिए जाते हुए
जब आप हड़बड़ी में थे
एक गाड़ी ने कुचलते कुचलते बचा ही लिया था आपको
चौराहे पर किसी अपरिचित ने समय पूछा था
स्कूल के किसी विद्यार्थी ने हाथ दिखा कर रोका
और अगले मोड़ तक पहुँचाने की गुज़ारिश की थी
बहुत बड़ी नहीं थी ये पूरी हुई ज़रूरतें
लेकिन हम काम तो आए ही थे दूसरों के
और दूसरे हमारे
अभी चेहरा इतना विकृत नहीं हुआ
कि समय भी न पूछा जा सके
या लिफ्ट माँगने से लोग डरें
आपके चेहरे में कुछ ऐसा ज़रूर है
सहज और आत्मीय,
कि भिखारी ने बिना डरे आपसे एक रुपए माँगा
सड़क बनाते उन मजदूरों के एक साथी ने
इशारा कर दाहिने ओर से निकल जाने को कहा था
उसका आपसे कोई संबंध नहीं था सिवाय मनुष्यता के
हॉर्न देने पर आपको साइड दिया था एक गाड़ीवान ने
शायद उसने जान लिया था कि आप जल्दी में हैं
पत्नी का दुपट्टा इससे पहले कि चक्के में फँसता
सतर्क कर दिया था किसी ने पीछे से तेज़ी से आकर
सोचिए कि इस तरह की तेज़ी
जानलेवा भी हो सकती थी उसके लिए
लेकिन उसने ऐसा किया
और आपने भी उसे मन ही मन धन्यवाद दिया
जो सब्ज़ी अभी आपने चटखारे लेकर खाई
गृहिणी की तारीफ की
उसे उगाया एक अपरिचित किसान ने
हो सकता है कि उसके किसी निकट संबंधी ने
हाल फिलहाल आत्महत्या की हो
इससे पहले कि जूते का एक तल्ला
पूरी तरह अलग हो जाता
पुरानी छतरी के साए में बैठे उस बूढ़े मोची ने
आपको फिर चलने की सुविधा दी
शायद आपने देखा ही होगा
कि वह मुड़े तुड़े बर्तन में खाना खा रहा था उस वक्त
और उसके चश्मे की एक बाँह भी टूटी हुई थी
आपके और उसके बीच केवल पाँच रुपए का सबंध भर नहीं है
वह तल्ले पर कील ठोंकने से
मना भी कर सकता था
सोचिए कि आप एक जूता हाथ में लिए
कितने हास्यास्पद दिखते
और कितने लाचार भी
कदम कदम बहुराष्ट्रीय लुटेरों
और ताकतवर दलालों की इस मंडी में
किसी ने एक घर का पता पूछा था
कितना संतुष्ट हुए थे यह जानकर
कि ऐसी बहुत सी जगहें हैं
जिन्हें आप जानते हैं अब भी
आप तब भी हतप्रभ रह गए थे
जब दुकानदार ने आपके एक अतिरिक्त नोट को
वापस कर दिया था
आपका हिसाब दुरुस्त करते हुए
यह सब न तो अनायास था न तयशुदा
न ही दिव्य या अलौकिक
यह सबकुछ उसी संसार में घटित हुआ था
जिसे छोड़कर चले जाने की बात
हताशा और अवसाद में आपने कई बार सोची थी ।
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स विजेन्द्र जी की है)
सम्पर्क
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