ग्रीक कवयित्री जैंती होन्ड्रू हिल की कविताएँ

 

जैंती होन्ड्र हिल


वर्ष 2020-21 में कोरोना जैसी महामारी पूरी दुनिया के लिए आफ़त बन कर आयी। सब कुछ यहाँ तक कि समूचा जीवन भी ठप्प पड़ गया। वह जीवन, जो सीखने की रोज की आदतों से बना है। वह जीवन, जो जीने की रोज की आदतों से ही सँवरा है। ग्रीक कवयित्री जैंती होन्ड्रू हिल की चिन्ता वह वाजिब चिन्ता है, जो न केवल ग्रीस (यूनान) के लिए बल्कि समूची दुनिया के लिए एक बड़ी चिन्ता है। इस महामारी का दुःख अकथनीय था। इस महामारी ने लोगों के दिलों पर ऐसे जख्म छोड़े हैं जो उन्हें पूरी ज़िंदगी सताते रहेंगे। यह कवयित्री की वह संवेदनात्मक चिन्ता है जिसमें वे लिखती हैं : 'कुछ को दुबारा सीखनी पड़ेगी साँस लेने की कला,/ सीखना पड़ेगा दुबारा बोलना, निगलना,/.न केवल सच को बल्कि भोजन को भी!/ उन्हें सीखना पड़ेगा चलना,/ महीनों तक कोमा में रहने के बाद,/ हड्डी और माँस पेशियों के बेतरह कमज़ोर हो जाने के बाद!' आज जैंती होन्ड्रू हिल का जन्मदिन है। जन्मदिन की बधाई देते हुए पहली बार पर आज हम प्रस्तुत कर रहे हैं जैंती होन्ड्रू हिल, की कविताएं। इन कविताओं का अनुवाद किया है हमारे समय की चर्चित कवयित्री पंखुरी सिन्हा ने। पंखुरी न केवल बढ़िया कविताएँ लिखती हैं बल्कि वैश्विक कविताओं के उम्दा अनुवाद के लिए भी जानी जाती हैं। 

 


ग्रीक कवयित्री जैंती होन्ड्रू हिल की कविताएँ


मूल से हिन्दी अनुवाद : पंखुरी सिन्हा

 



नानी के लिए चिट्ठी 


प्यारी नानी 

मुझे अब भी याद है 

 तुम उठती थी सुबह सवेरे 


और बनाती थी चाय 

सारा घर भर उठता था 

उम्मीद की खुशबू से! 


कभी डेज़ी जैसा वह फूल कैमेमोली 

तोड़ लाती थी तुम 

बगीचे से अपने 


कभी बनाती थी 

जंगली पहाड़ी चाय! 


तुम खुद चुनती थी उन्हें 

एक एक फूल, 

हमारी पिकनिक के बाद! 


फिर उन्हें डालती थी 

झोला बन्द, चाय के तौलिये में! 


यह चाय दरअसल है कितना कुछ  

हारती नहीं कभी, कभी नहीं टेकती 

घुटने! कहती थी तुम! 


आती है वह हर साल के बाद 

दूसरे साल, न डरती है, न छिपती है 

न युद्धों से, न गोले बारूदों से! 


गर्मी या जाड़े से भी 

नहीं खाती खौफ़! 


छोटी सी चीज़ है यह चाय 

छोटा पौधा, ज़रा सा पेय 

लेकिन, देखता है हमेशा यह

आसमान की ओर और जुटा लेता है 

अपनी ताकत! 


घर लौटते, तुम सुनाती थी किस्से 

और सौंपती थी मुझे प्यार के 

तोहफे! कभी खूब चबा कर खाने वाली

मिठाईयाँ, कभी जेली के बने, गुलाब की खुशबू लिये, 

गुड्डे-गुड़िया, 

जो हमेशा होते थे बहुतायत में 

जेब में तुम्हारी! 


चाय हमारा खजाना है 

कहती थीं तुम! 


हमारी रसोई की पुरानी 

दराज में रखी चाय पत्ती 

झाँकती रहती थी 

खिड़की से बाहर! 


काँच की शीशियों में 

छोटे सफ़ेद डॉली के फूलों की 

सजावट के साथ! 


शाम को तुम बनाती थी चाय 

हमें भरने के लिए गर्माहट से 

और सुबह तुम जागती थी 

सबसे पहले, और दुनिया को भर 

देती थी उम्मीद के सुवास से! 


सबों को थमाती थी ताजी चाय की प्याली, पढ़कर

सुनाती थी एक खुशनुमा कविता, कैलेंडर से 

और दुनिया देखती थी तुम्हारी ओर 

और समेटती थी अपनी ताकत!

 


 


बर्फ़ की कहानियाँ 


बर्फ़ लिखती है 

एकदम सुनसान गलियों में भी 

खूबसूरत कहानियाँ! 


मिटाती है सारे दाग धब्बे 

ताकि चमक सके हर कुछ 

तारों की रौशनी के नीचे! 


बर्फ़ बनाती है एक नई कैनवस 

खाली, ताकि उस पर लिखा जाए 

प्यार, मासूमियत के साथ! 


बर्फ़ की परियां, देवदूत और बर्फ़ के लोग, सब बराबर हैं 

गिरी हुई बर्फ़ के इकट्ठा ढ़ेर 

सब सुन्दर और एक साथ!

 


लॉक डाउन में बन्द राजधानियों के लिए 


खुशनुमा और रौशन 

नहीं हुए हमारे दिन! 

सड़कें खुली हैं पूरी तरह 

फिर भी, कहीं नहीं है 

जाने को! 

यहाँ इस गली में ही 

हम ज़िंदा बचेंगे 

सर्दियों में! 

तब तक जब तक हमारे मूल्य 

चमकने नहीं लगते 

हमारी हरकतों में 

उत्सव की तरह 

गणित जैसे परिणाम के साथ!

 


 


विरासत 


मिटाते हुए मेरे शब्दों से 

पुरातन देवताओं 

और असुरों के नाम 


मिटाते ऐतिहासिक घटनाएं और 

किंवदंतियाँ, बचती है केवल 

एक युद्धभूमि 

बचते हैं संगमरमर के शहरों के 

टूटे खंभे 

एक गूँगा दृश्य! 


मिटाते 

विस्मयादि बोधक 

और जैसे सारे चिन्ह 

सबके लिए 

 

जरूरत बचती है 

केवल किसी नर्तक नर्तकी की 

जिसे ज्ञात है  

भोर ही उठ जाने की कला ! 

और धूप से भरे बरामदे की 

झाड़ कर धूल 

वापस पलटने की 

बस एक दिन के लिए 

मृत्यु! 



अप्रत्याशित संचयन 


मेरी सुन्दर सी गुणवान बेटी आना के लिए 

 तुम्हारे दहेज़ के लिए 

संचित किये मैने 

सूरज, पहाड़ और समुद्र 

इस ब्रह्मांड से! 

 

मैं बातें करने गई रातों से 

ताकि तारे तुम्हारा भविष्य 

उज्ज्वल लिखें! 

मैं बैठी फूलों के पास 

सुनने के लिए आवाज़ें उनकी! 

और मैंने इकट्ठे किए रंग 

पक्षियों से ताकि तुम्हारी ज़िन्दगी 

भरी रहे खूबसूरत 

रंगों से! 


लेकिन जब सुनी मैंने

तुम्हारे नन्हें से दिल की धड़कन

भर गई मेरी ज़िन्दगी

संगीत, रंगों और रौशनी से! 

 


 


मुझे सौगन्ध है 


मैं खाती हूँ सौगन्ध

प्यार के लाल रंग की

आकर्षण की गहराई की

चाँद की रौशनी की

और तारों की चमक की

उस ब्रह्मांड की

जो विभाजित भी

करता है हमें और जोड़ता भी है!


मैं प्रेम की सौगन्ध

खाती हूँ पागलों की तरह

वह जो होता है खुलेआम

और छिपा हुआ भी

मैं खाती हूँ सौगन्ध

उन तमाम झूठ के पुलिंदों की

जिन्होंने परिभाषित किया हमें 

और सच के उन पिटारों की

जिन्होंने बचाया हमें!


मैं खाती हूँ सौगन्ध

तुम्हारी आँखों, नज़रों

मेरे शब्दों और उन हाथों की

जो दरअसल खोलते हैं

हमारे दिल

और उन खुफिया बातों

हमारे बीच के राज़ों की

जो हमें रखते हैं ज़िंदा

तंदुरुस्त!


मैं खाती हूँ सौगंध

आग और राख की

ज़िंदा रखने की उस

सपने को, जो हमेशा 

खुला रखेगा

हमारा अपना अभयारण्य!


मैं खाती हूँ सौगन्ध

तुम्हारे लिए अपने प्यार की

सनातन और सदैव

अपने प्यार की!

 


 


कायान्तरण 

(फ्रांज काफ्का के प्रति)


श्रद्धा शब्द यह कविता उन लोगों को समर्पित है

जिन्हें हमने 2020-21 की महामारी में खो दिया


आँकड़े जब तक आँकड़े थे केवल 

कोई डर नहीं था

एक संदेह था बस

और सावधानी थी

शायद, कुछ कम

जिस पर दिया गया था ज़ोर


लेकिन, जैसे ही

आँकड़े लेने लगे आकार

बनने लगे हाड़ मांस के लोग

जिनकी धमनियों में दौड़ता था 

रक्त, पहनने लगे प्रिय जनों के चेहरे 

पहचाने जाने लगे सगे संबंधियों की तरह, 

किसी के माँ बाप, किसी के दादे दादी,

किसी के भाई बहन, किसी के बच्चे की तरह,

तब आँकड़े की हर एक संख्या बनने लगी विशाल!


शुरुआत में एक आशा थी

एक रौशनी की उम्मीद कि

ज़िन्दगी जीतेगी, स्वास्थ्य सुधरेगा, बढ़ेगी लोगों

की रोग प्रतिरोधक क्षमता, लेकिन, अन्त में हमेशा

विकराल, भीमकाय ताकतों की होती है फतह,

भाग्य की दलील की तरह,

जो पहुंचती है किसी अदृश्य तलवार सी,

बिना किसी मोह भाव के, काटने को ज़िन्दगी का रेशमी धागा,

किसी अज्ञात, शैतानी ताकत की तरह,

जो उपस्थित होती है, बिना किसी चेतवानी!

किसी अफवाह की तर्ज़ पर,

कुछ लोग कह रहे हैं यह भी,

कि थी कुछ हिदायतें रहने की सावधान,

सबसे ज़्यादा खतरे की उस घंटी के रूप में

जो बजती है केवल लोगों के भीतर! 


कुछ बुला रहे हैं इसे अन्दरूनी कोई बीमारी,

कुछ नाम दे रहे हैं सीधा असावधानी का,

और कुछ ऐसे भी हैं जो छिप रहे हैं,

व्यक्तिगत ज़िम्मेदारी के तर्क के पीछे, 

क्योंकि दरअसल, वो खुद लेना नहीं चाहते 

खुद की ही ज़िम्मेदारी,

और क्योंकि राजनैतिक है यह ज़िम्मेदारी,

लोगों के स्वास्थ्य की, राज्य के लोगों की भलाई की!


और कुछ इन्हीं कारणों से सारे वृहदाकार हो गए हैं

तब्दील या तो क्रॉस के निशान में,

अथवा चिता की अग्नि में या फिर आँसुओ और चित्कार में!

हर कब्र पर खुदे क्रॉस के साथ घेरा होगा

अनुपस्थित प्रिय जनों, कथाओं का, प्रेमिल चेहरों का,

जीवन के संगी साथियों का,

ममता से भरी माताएं, बहनों द्वारा नाज़ों से पाले गये भाई,

अतीत की खिलखिलाहटें,

सब राख, यहाँ तक कि बच्चे भी, ज़िन्दगी जीने के

अपने अन खर्चे सपनों के साथ!

कुछ को दुबारा सीखनी पड़ेगी साँस लेने की कला,

सीखना पड़ेगा दुबारा बोलना, निगलना,

न केवल सच को बल्कि भोजन को भी!

उन्हें सीखना पड़ेगा चलना, 

महीनों तक कोमा में रहने के बाद, 

हड्डी और माँस पेशियों के बेतरह कमज़ोर हो जाने के बाद!

 

 

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स स्व. विजेंद्र जी की हैं।)  

 

 

पंखुरी सिन्हा

 

 

सम्पर्क – 

 

ई मेल : nilirag18@gmail.com

 












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