चैनसिंह मीना की किताब 'कवि का विश्व' पर देवेश पथ सारिया की समीक्षा

 




जितेंद्र श्रीवास्तव के कवि-कर्म को ले कर युवा आलोचक चैन सिंह मीना की एक आलोचना पुस्तक आयी है 'कवि का विश्व'। इस किताब की समीक्षा लिखी है युवा कवि देवेश पथसारिया ने। आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं देवेश पथसारिया की समीक्षा 'कवि का विश्व : कवि के संसार का मानचित्र रचती किताब'


कवि का विश्व : कवि के संसार का मानचित्र रचती किताब


देवेश पथ सारिया


अपने लेखन के बिल्कुल शुरुआती दौर से मैंने जिन कवियों को पढ़ा, उनमें वरिष्ठ कवि जितेंद्र श्रीवास्तव का नाम शामिल है। कविता को सामान्य पाठक की तरह पढ़ना और फिर कविता के रसायन को समझना आपकी साहित्यिक समझ का क्रमागत विकास करता है। इसलिए, जब जितेंद्र श्रीवास्तव के संपूर्ण लेखन की आलोचनात्मक व्याख्या करती यह पुस्तक 'कवि का विश्व' मुझे प्राप्त हुई, तो मुझे सुखद अनुभूति हुई। चैनसिंह मीना ने इस पुस्तक में सन् 1986 में लिखी जितेंद्र की कविता 'हिमपात' से ले कर कोरोना काल में लिखी गई उनकी कविता श्रृंखला 'जीवन सरल रेखा नहीं है' तक का गहन विश्लेषण किया है। कुल मिला कर जितेंद्र श्रीवास्तव के कविता कर्म के लगभग 35 वर्षों का विश्लेषण इस पुस्तक में है। 


जब एक कवि इतने समय से सक्रिय हो तो यह लाजमी ही है कि उसने भारतीय एवं वैश्विक माहौल में बहुत सारे परिवर्तनों को देखा होगा। 1986 से 2021 के दौरान क्षेत्रीय एवं वैश्विक स्तर पर बहुत उथल-पुथल हुई है। जितेंद्र श्रीवास्तव को चैन सिंह मीना ने 'मनुष्यता के संधान का कवि' कहा है। कवि ने वक़्त की हर बदलती करवट को मनुष्यता के पक्ष में खड़े हो कर दर्ज किया है। चैन सिंह पुस्तक में कई जगह जितेन्द्र के कविता-कर्म ही नहीं, अपितु आलोचना कर्म की भी चर्चा एवं व्याख्या करते हैं।


इस कवि का बचपन गांव में बीता। वहां से क़स्बे और महानगर तक का सफ़र तय करते हुए उसने हर जगह जीवन की विडंबनाओं को महसूस किया। पहाड़ के प्रवास में कवि ने वहां के आम जन की तकलीफ़ को जाना (संदर्भ कविता: 'पहाड़ का दुख') जो पर्यटकों की निगाह से अनदेखी रह जाती है। इस तरह निम्न एवं मध्यमवर्गीय आय वर्ग से कवि का जुड़ाव रहा जिन पर देश या अपने छोटे से इलाके में हुए हल्के से भी बदलाव का सर्वाधिक असर होता है। कवि ने अपने जीवन के हर परिवेश को गहराई से महसूस करते हुए उसे अपनी कविताओं में उतारा है। चैन सिंह एक महत्वपूर्ण बिंदु की ओर ध्यान दिलाते हैं कि 'निज' को व्यापक से जोड़ना इस कवि की विशेषता है। 



1986 में प्रकाशित जितेंद्र की पहली कविता 'हिमपात' 2021 के कोरोना काल में भी उतनी ही प्रासंगिक है ‌और चैन सिंह के मुताबिक यह किसी कवि के लिए महत्वपूर्ण उपलब्धि है कि उसकी कविताएं भविष्य की नब्ज़ पकड़ना जानती हों। वर्ष 1986 पर ज़ोर देते हुए चैन सिंह कहते हैं कि वह उदारीकरण से पूर्व का दौर था, जब कवि ने लिखना आरंभ किया और व्याख्या करते हैं कि किस तरह उदारीकरण, नव पूंजीवाद और निजीकरण ने उस समय के माहौल और युवकोचित उत्साह से भरपूर जितेंद्र श्रीवास्तव के कवि का शुरुआती ख़ाका तैयार किया। चैन सिंह यहां यह चर्चा भी करते हैं कि आपात काल के कुछ वर्ष बाद के माहौल में आपात काल की स्मृति कितनी बची रह गयी होगी। प्रधानमंत्रियों की हत्याओं ने और बाबरी मस्जिद के विध्वंस ने उस दौर के एक युवा कवि को कैसे प्रभावित किया होगा। अचानक घटित हुए ये बदलाव हतप्रभ करने वाले रहे होंगे और कवि के लिए सतही तौर पर नहीं, बल्कि तन्मयता से संलग्न हो कर उन्हें काव्य में रूपांतरित करना आसान नहीं रहा होगा।



न केवल भारतीय परिदृश्य अपितु वैश्विक घटनाओं की चर्चा भी चैन सिंह करते हैं। वे दोनों विश्व युद्धों की बात करते हैं। सोवियत संघ के विघटन और अफगानिस्तान के वर्तमान हालात को इस निष्कर्ष से जोड़ते हैं कि इनके दुष्परिणामों से उबरने में किसी भी राष्ट्र को कई दशक लग जाते हैं और इनके कारण मानवता का अकल्पनीय विनाश होता है। 


जितेंद्र श्रीवास्तव की भाषा के बारे में चैन सिंह का निष्कर्ष है कि चमत्कारों से दूर रह कर, सहज भाषा में भाव की सघनता कविता में ले कर आना कवि जितेंद्र का लक्ष्य रहा है। यहां चैन सिंह ध्यान दिलाते हैं कि भाव प्रवणता के लिए कवि जितेंद्र की कविताओं में परिवेश के अनुसार लोक शब्दावली के अतिरिक्त अंग्रेज़ी और उर्दू शब्द भी देखे जा सकते हैं। यह भाव ही है, जो वैश्विक स्तर पर पाठकों को किसी कवि से अपनापन महसूस कराता है। यही कारण है कि जितेंद्र श्रीवास्तव की कविताओं के अनुवाद भारतीय एवं विदेशी भाषाओं में होते रहे हैं। भाव की गहराई कविता में सुनिश्चित करने के लिए तुरत-फुरत लिखी गई कविताओं से बचने की सलाह स्वयं कवि भी पुस्तक में देता है। कवि मानता है कि अच्छी कविता संभव करने के लिए जग में निरंतर भटकना ज़रूरी है और स्वयं को परखते रहना भी :


"पिछले वर्षों में हिंदी कविता में स्वयं पर संदेह करने और अपने को दुरुस्त करने की प्रवृत्ति का ह्रास हुआ है।"
~ जितेंद्र श्रीवास्तव, कवि का विश्व (पृष्ठ 245)


जितेंद्र श्रीवास्तव की कविताओं में विविधता है और उनकी कविताओं के विभिन्न परिवेशों पर आधारित पृथक अध्याय पुस्तक में हैं। जितेंद्र श्रीवास्तव स्मृतियों के कवि भी हैं। कवि एक छूटी या खोई हुई वस्तु का स्मरण करता है और एक गहरी बात वहां से निकल कर सामने आती है। 


चैन सिंह मीना




एक आलोचक के तौर पर चैन सिंह कृत्रिम आधुनिकता के विरोध में दिखाई देते हैं। वे तकनीक एवं बाज़ार द्वारा मानवीय मूल्यों में ह्रास के पक्षधर नहीं हैं। इसी कसौटी पर वे जितेंद्र की कविताओं को परखते हैं और 'तमकुही कोठी का मैदान' जैसी कविताओं का उदाहरण दे कर पाते हैं कि कवि सामंतवाद के ख़िलाफ़ है। आलोचक चैन सिंह का एक अन्य मजबूत पक्ष इतिहास पर पकड़ है, जिसका प्रयोग वह कुशलता से करता है। मसलन, धर्मों के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य की चर्चा करना एवं औद्योगिक क्रांति द्वारा मनुष्य जीवन को जटिल बना दिया जाना। औद्योगिक क्रांति के दुष्परिणामों की परिणति पूंजीवादी और उपभोक्तावादी संस्कृति के मुख्य धारा बन जाने में हुई।


भारत के परिप्रेक्ष्य में जातिवाद, सांप्रदायिकता, भ्रष्टाचार, दलितों और स्त्रियों के प्रति पक्षपात इत्यादि समस्याओं पर विमर्श चैन सिंह बहुत जरूरी मानते हैं। उनका आकलन है कि जितेंद्र की कविताएं महज़ इन समस्याओं का चित्रण नहीं करतीं, बल्कि उससे आगे की बात करती हैं। जैसे, 'रामदुलारी' कविता गांव में स्त्रियों की स्थिति में बदलाव लटकने वाली एक नायिका की कविता है। पूंजीपति विजय माल्या की मुख़ालफत करती कविता भी जितेंद्र के यहां है। एक महत्वपूर्ण निष्कर्ष यहां यह है कि कवि जितेंद्र कविता में क्रांति को बड़ी सहजता से ले आते हैं, जिसके पीछे की वजह कवि का लोक से गहरा जुड़ाव है- 


"कवि जितेंद्र की मान्यता है कि जहां भी श्रम की संस्कृति है, वहां लोक उपस्थित है। वहां लोक संस्कृति मौजूद है।" (पृष्ठ 69)


पुस्तक में अंबेडकर, गांधी एवं नेहरू के विचारों, मान्यताओं एवं प्रयासों की प्रमुखता से चर्चा की गई है। शहरीकरण का इतिहास बताते हुए चैन सिंह लिखते हैं कि अंबेडकर एवं नेहरू द्वारा शहरीकरण का समर्थन किया जाना इस मायने में सही था कि जाति प्रथा और भेदभाव ख़त्म हो सके। पर क्या हम इसे ठीक से संभाल पाए हैं? शहरी आबादी बढ़ती गई है, पर आर्थिक एवं अन्य मोर्चों पर उसे कितनी ही जटिलताएं झेलनी पड़ी हैं। इन अंतर्द्वंद्वों का चित्रण इस पुस्तक के 'शहरी परिवेश की मुकम्मल पड़ताल' अध्याय में गहराई से किया गया है। 


राजनीतिज्ञों में प्रतिबद्धता के पतन, भारत में अब तक हुए घोटालों इत्यादि की चर्चा करते हुए कवि और आलोचक कवि का राजनीति में हस्तक्षेप आवश्यक मानते हैं। समाज के अंतिम व्यक्ति की बात करते हुए कवि अपनी एक कविता में लिखता है :


"इन दिनों लोकतंत्र में 
गाॅंव का दक्खिन हो गया है 'आख़िरी आदमी'।"


जितेंद्र श्रीवास्तव अपनी कविता यात्रा की बहुत शुरुआत से ही स्त्री विमर्श की कविताओं के लिए जाने जाते हैं (उदाहरण कविता: सोनचिरई)। बेटियों को लेकर लिखी 23 कविताओं का उनका कविता संग्रह 'बेटियां' भी प्रकाशित हुआ है। परवीन बॉबी, संजना तिवारी और रामदुलारी जैसी उनकी नायिकाएं बार-बार स्त्रियों के सवाल पूछती हैं। उनकी माॅं और पत्नी भी उनकी कविताओं में सवाल पूछती हैं। जितेंद्र का स्त्री विमर्श वास्तविक है, क्योंकि कवि अपने आस पास की स्त्रियों के सवालों को नज़रअंदाज नहीं करता। आलोचक चैन सिंह ने एकाधिक अध्यायों के माध्यम से इस पर प्रकाश डाला है। यहां भी चैन सिंह, विमर्श को इतिहास से जोड़ते हुए प्राचीन भारतीय समाज में स्त्रियों की उत्तम स्थिति की चर्चा करते हैं, जहां उन्हें वेदों की शिक्षा प्रदान की जाती थी। वर्ण व्यवस्था और जाति भेद जैसी बुराइयों के साथ स्त्री शोषण प्रारंभ हुआ। वर्तमान समय में भारत की आजादी के बाद स्त्रियों के अधिकारों के पक्ष में किए गए सरकारी निर्णयों को भी यहां गिनाया गया है। फिर भी जो कमियां रह गई हैं, उनके कारणों पर चर्चा आलोचक यहां करता है। 



कोरोना काल की विभीषिका में कवियों की भूमिका उम्मीद की बात करने की रही है। कवि जितेंद्र यहां उम्मीद और प्रेम दोनों को महत्वपूर्ण मानते हैं। चैनसिंह भी लिखते हैं :


"प्रेम के माध्यम से किसी भी उद्देश्य को पूरा किया जा सकता है। आवश्यकता है नैतिक बल की और व्यापक धरातल पर प्रेम की स्वीकार्यता की।" (पृष्ठ 186)


दरअसल, कोरोना से भी बड़ी बीमारी अकेलेपन की है। कवि ने स्वयं भी कोरोना से जूझने के उपरांत अनुभवजन्य एक लंबी कविता लिखी। कोरोना काल में पूंजीवाद के दखल का उदाहरण आईपीएल के आयोजन द्वारा दिया गया है। जहां पूंजीवाद है, वहां एक शोषित वर्ग भी होगा ही। मज़दूरों के बारे में अपनी बात रखते हुए आलोचक, कोरोना काल में मज़दूरों के महानगरों से पलायन की भयावह स्थिति याद दिलाता हैं। 


पुस्तक में कवि के दो साक्षात्कार भी दिए गए हैं। प्रथम साक्षात्कार बाज़ार की उपस्थिति एवं सधी हुई भूमिका, कवि के प्रेरणा स्रोतों, युवा कवियों के लिए भटकाव से बचने की सीख, कवि की अपनी भाषा के प्रति मान्यता जैसे पक्ष हमारे सामने रखता है। द्वितीय साक्षात्कार में दलित साहित्य एवं दलित विमर्श पर विस्तार में बातचीत की गई है। इस तरह दोनों ही साक्षात्कार अलग-अलग कारणों से पाठक वर्ग के लिए उपयोगी हैं।


चैन सिंह मानते हैं कि प्रत्येक कवि का अपना एक विश्व होता है। सचमुच, अपने शीर्षक के अनुरूप ही यह पुस्तक कवि जितेंद्र श्रीवास्तव की कविता, आलोचना-कर्म एवं वैचारिक सरोकारों के संपूर्ण विश्व की यात्रा है। इस पुस्तक में चैन सिंह मीना के आलोचक की कई विशेषताएं प्रगट होती हैं। जैसे, इतिहास का ज्ञान, सामाजिक परिदृश्य का व्यापक प्रेक्षण और कविता की रचना प्रक्रिया की समझ आदि। अपने आलोचना टूल्स का बखूबी प्रयोग करते हुए चैनसिंह मीना एक समर्थ आलोचक के तौर पर उभर कर सामने आते हैं।



पुस्तक: कवि का विश्व (जितेंद्र श्रीवास्तव का कवि-कर्म)
लेखक: चैनसिंह मीना
प्रकाशक: कलमकार पब्लिशर्स प्राइवेट लिमिटेड
वर्ष: 2021



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देवेश पथ सारिया

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