यतीश कुमार के सद्यः प्रकाशित कविता संग्रह 'अंतस की खुरचन' की आनन्द गुप्ता द्वारा की गई समीक्षा
यतीश कुमार इधर अपनी समीक्षाओं के नए ट्रेंड के कारण साहित्य जगत में एक सुपरिचित नाम बन चुके हैं। उन्होंने बेहतर गद्य लेखन भी किया है। इस क्रम में वे कहानियों और संस्मरण से हो कर भी गुजरे हैं और खुद को साबित किया है। लेकिन यतीश कुमार मूलतः एक कवि हैं। वह इमानदारी से अपना कवि कर्म करने में जुटे हुए हैं। और इन दिनों अपने लिए काव्य मुहावरों की तलाश कर रहे हैं। यतीश कुमार का हाल ही में राजकमल प्रकाशन से एक नया कविता संग्रह 'अंतस की खुरचन' प्रकाशित हुआ है। इस कविता संग्रह का पहला संस्करण कुछ ही दिनों में आउट ऑफ प्रिंट हो गया, जो यतीश कुमार के कविता की लोकप्रियता की कहानी को स्वयं साबित करता है। आनंद कुमार गुप्ता कवि है और उन्होंने यतीश कुमार के इस कविता संग्रह 'अंतस की खुरचन' पर एक समीक्षा लिखी है। आज पहली बार पर प्रस्तुत है यतीश कुमार के संग्रह 'अंतस की खुरचन' पर आनंद कुमार द्वारा लिखी गई समीक्षा।
समाज की बजाई हुई ताली में एक चीख़ मात्र हूँ
आनन्द गुप्ता
सपनों की सतरंगी दुनिया की यात्रा करता कवि अपने शब्दों की बारिश कर कविताओं में नित्य नये इंद्रधनुष रचता रहता है। यह यात्रा इतनी आसान भी नहीं होती। यहाँ शब्दों में तपिश के लिए कवि को खुद को तपाना और झुलसाना भी पड़ता है और अपने अंतर्मन को खुरच कर संवेदना को बाहर निकालना पड़ता है। यह एक लगातार चलने वाली प्रक्रिया है। जितना अधिक खुरचेंगे और तपाएंगे उतना गहरा उद्गार बाहर आएगा। कवि यतीश कुमार ने अपने जीवन में गहरे उतार चढ़ाव भरा सफर तय किया है और सफर के ताप को भी खूब सहा है। 'अंतस की खुरचन' कविता संग्रह में इसी तपिश से गुजर कर निकली हुई कविताएँ संग्रहित हैं। इन कविताओं से गुजरते हुए आप उस तपिश को आसानी से महसूस कर सकते हैं। अपने जीवन के सामान्य अनुभवों और स्मृतियों को कविता में अभिव्यक्त करने की कला वे बखूबी जानते हैं। इस कारण जीवन से जुड़ी बहुत ही छोटी-छोटी घटनाएं और चीजें जिन पर हम सामान्य तौर पर ध्यान नहीं देते इनकी कविताओं में दर्ज हो गई हैं।
यह संग्रह दो खंडों में विभक्त है -
1. देश राग और आसपास तथा
2. साझा धागा
पहले खंड के शीर्षक से स्पष्ट है कि इस खंड की कविताओं में अपने देश-काल, समाज और समय की चिंताओं को कवि ने दर्ज किया है। सच भी है कि आज एक ऐसे दौर में हम जी रहे हैं जहाँ संवेदना पर सबसे ज्यादा कुठाराघात किया जा रहा है। आम आदमी के पास दो ही विकल्प है - या तो चुप रहे और सब कुछ देखता रहे अथवा अपनी आवाज़ बुलंद करे और बदले में तरह-तरह से प्रताड़ित होने के लिए तैयार रहे। एक सच्चा कवि हमेशा इस प्रताड़ना को सहने के लिए तैयार रहता है। वह अभिव्यक्ति के हर खतरे को उठाने को प्रतिबद्ध मिलता है। यतीश कुमार के शब्दों में -
"इस कठिन समय में
सबसे मुश्किल है
चुपचाप ज़िन्दा रहना
और दबाव में सृजन करना
मुर्दे सीधा सोते हैं
आदमी नींद में भी टेढ़ा रहता है
गफलत है
चीजें सीधी बेहतर है या टेढ़ी"।
आज का महानगरीय जीवन तमाम तरह के अंतरद्वन्द्व, विसंगतियों और विडंबनाओं से घिरा हुआ है। भय, निराशा, तनाव, कुंठा, लालच, अकेलापन इत्यादि से घिरा आदमी हर दिन अपने रंग बिरंगी सपनों को टूटते हुए देखने को अभिशप्त है।संबंधों में टूटन जारी है। कंक्रीट के ऊंचे मकानों ने लोगों के बीच की दीवार को और ऊंचा किया है। शहर अपना ही बोझ उठाए हांफ रहा है। अपने समय में हो रहे इन परिवर्तनों को समझने के लिए कवि के पास गहरा सामाजिक बोध और यथार्थ बोध मौजूद है। कवि कहता है -
"अतृप्त का सोता लिए
दर-ब-दर भटकते लोग
सुख की तलाश में
अपने-अपने दुखों को नत्थी कर रहे हैं
खून और पसीना एक साथ बह रहे हैं"।
गांव की स्थिति भी दिन-प्रतिदिन बदतर होती जा रही है। किसान मौसम और कर्ज की दोहरी मार खाता हुआ जीने को अभिशप्त हैं। पूंजीवाद और कारपोरेट जगत के दखल ने उनकी जिंदगी को लगातार तबाह ही किया है। पूंजी और सत्ता के गठजोड़ के कारण फसल का उचित मूल्य न मिलने की लड़ाई सड़क से संसद तक जारी है। पर कहीं भी कोई राह ऐसी नहीं दिखती जहाँ उसको तसल्ली मिले। यतीश कुमार मानव जीवन की इस बड़ी त्रासदी पर सूक्ष्म दृष्टि रखते हैं। ये पंक्तियाँ देखिए -
"चेहरा दिखा उसका
दर की ज़मीन दिखी
फौलादी सपने टूटे
और लोहा भी पिघला
भूख और आग के बीच
देह की नमी नदारद
दावानल के केंद्र में
दिखी भाषा दिशाहीन
इस उदास वसंत में
किसान का चेहरा
पाला लगे मटर सा लगा।"
किसानों के चेहरे पर छाई यह मायूसी दरअसल उस भारत की अवधारणा पर एक दाग की तरह है जिसे किसानों की भूमि माना जाता है।
यतीश कुमार की कविताओं की एक बड़ी खूबी इनका विषय वैविध्य है जहाँ मानव जीवन, संबंध, पशु-पक्षी, धरती, पर्यावरण से लेकर धर्म, संस्कृति, समाज और राजनीति के विभिन्न रंगों की छटा मौजूद है। इस संग्रह की कविताओं के शीर्षक से ही इस बात की पुष्टि हो जाती है। जाहिर सी बात है कि कवि की चेतना व्यक्ति से समष्टि की यात्रा करता हुआ जीवन के तमाम अच्छे बुरे अनुभवों को कविताओं में उद्घाटित करता रहता है। कवि कविता के अपेक्षाकृत उन नये इलाकों में भी कदम रखता है जहाँ अधिक मानवीय सरोकार की जरूरत है। संग्रह की पहली कविता 'किन्नर' शीर्षक से है। किन्नर आज भी हमारे समाज में लांक्षित जीवन जीने को विवश हैं, भले ही तमाम कानून उनके पक्ष में बनाए गए हों। इस कविता की अंतिम कुछ पंक्तियाँ पाठकों के दिमाग को जैसे झनझनाहट से भर देती है -
"समानता का हक़ मिलने पर भी
अवहेलना की नसें जुड़ी रह गईं
और अब भी मैं
समाज की बजाई हुई ताली में
एक चीख़ मात्र हूँ"।
इस चीख़ में सैकड़ों सालों का दर्द, दुत्कार, हताशा और जिल्लत भरी जिंदगी की पीड़ा मौजूद है।
यतीश कुमार |
"मां की दी हुई मलहम की डिबिया
वक्त और शब्दों के रूखेपन को
मुलायम करते-करते
खाली हो गयी
जख्म की सूखी खुरदरी परतों से अब
सिर्फ खुरचन निकलती है दर्द की
इन दिनों बचपन के
भूले नुस्खे याद करता हूँ
और जरूरत पड़ने पर
लगाता हूँ थूक, मिट्टी और पेशाब भी
कभी दर्द को गमछे से बांध लेते थे
तौलिए में कमबख्त बंधता ही नहीं है
फुर्तीला चिकना दर्द"।
आगे वे लिखते हैं
"चौराहे पर लोगों का शोर नहीं
जिरह हुआ करती थी
हम थे और गप्पियां थीं
अब गाड़ियों की चीखें हैं और
अंदर का कोलाहल है
गाँव शहर की ओर दौड़ रहा है
चाय की गुमटियां
और चौराहे हो रहे हैं गुम"।
गुमटियों और चौराहों का गुम होना दरअसल लोगों के बीच संवाद के उन जगहों का गुम होते जाना है जहाँ तमाम तरह की सुख दुख भरी बातों, नोकझोंक, वाद विवाद एवं असहमतियों के लिए 'पब्लिक स्पेस' मौजूद थे। सत्ता भी यही चाहती है कि लोगों के बीच की सामाजिक दूरियाँ बढ़े और वे खंडित हो ताकि सोशल मीडिया की जहरीली खुराक उसे धीरे-धीरे पिला कर अपने स्वार्थ के लिए इस्तेमाल कर पाए। 'अनिसुर रहमान' शीर्षक कविता की ये पंक्तियाँ द्रष्टव्य है -
"अखंडता के केंद्र में
जहाँ गुरुत्वाकर्षण सबसे ज्यादा है
ठीक वहीं पर ठुकी एक कील हो तुम
जिसे उखाड़ने की कोशिश में बहुरूपिये
रथ यात्रा में शामिल हो रहे हैं"।
सत्ता के तमाम प्रपंचों को दरकिनार करते हुए आज अनिसुर रहमान जैसे लोगों ने ही अपनी बहादुरी और त्याग से भारत की अवधारणा को बचाए रखा है।
देश बहुरूपिये नेताओं से लगातार आक्रांत रहा है। ये अपने क्षुद्र स्वार्थ के लिए जनता के सामने तरह-तरह के मुखौटे पहन कर आते हैं और उन्हें भरमाते रहते हैं। एक जिम्मेदार कवि का यह काम होता है कि वह इन न सिर्फ इन मुखौटों के पीछे छिपे घिनौने चेहरों के खुरदरे यथार्थ को लोगों के सामने लाए बल्कि उनसे सीधे सवाल भी करे। 'बस, अपना जवाब चाहिए' शीर्षक कविता की ये पंक्तियाँ यहाँ पढ़ी जा सकती है -
"अच्छा बताओ तो
हमेशा सड़क पे सोते लोग ही क्यों मरते हैं?
हमेशा मजलूमों की बस्ती गांव क्यों जलते हैं?
कश्मीर में सिर्फ भोली जनता दिखती है बौराई
तुम पर आज तक खरोंच भी नहीं आई?"।
धर्म, राजनीति और सत्ता ने आज लोगों को रंगों के नाम पर लगातार बांटा है। ये रंगों के नाम पर आज खूनी खेल खेल रहे हैं।
"धर्म-जाति और सत्ता-महत्ता
सबसे आसानी से उपलब्ध
अलग-अलग रंगों के चश्मे हैं
और रंग धब्बे में तब्दील हो रहे हैं".
संग्रह के दूसरे खंड में कवि यतीश कुमार का कोमल मन प्रेम की ऊंची और रुमानी उड़ाने भरता हुआ हमें संवेदना के आकाश की ऊंचाई तक का सफर तय करा देता है। वह इस छल छद्म और घृणा से भरे समय में अपने अंदर का प्रेम, कोमलता, सरलता और संवेदना हमेशा बचाए रखना चाहता है। कवि इस संग्रह में एक जगह कहते हैं -
"इतना ही सीखता हूँ गणित
कि दो और दो को
बस चार ही गिन सकूँ
इतना ही सीखता हूँ भौतिकी
कि रोटी की जरूरत के साथ
हृदय की प्रेम तरंगें
और कंपन भी माप सकूँ"।
संग्रह के इस हिस्से में मौजूद प्रेम और मानवीय संबंधों से जुड़ी कविताएँ पढ़ते हुए आप जैसे खुद को प्रेम की नदी में बहते हुए पाएंगे। कविता में मौजूद संवेदना की तरंगें आपके मन को भी तरंगित करती रहती हैं। प्रेम और संबंध इनकी कविता का एक मजबूत पक्ष भी है इस कारण पत्नी, बेटियां, माँ और पिता को केंद्र में रख कर लिखी इन कविताओं में मनुष्यता के सबसे सुंदर रूपों के हम दर्शन कर पाते हैं। इस संग्रह से 'जब तुम दो टुकुर देखती हो', 'बनना चाहता हूँ', 'सबसे प्यारी हंसी', 'तुम्हारे पास आऊंगा', 'हम-तुम', 'दुख-सुख', 'सर्पीली लटें', 'शेल्फ में शब्द', 'मेरी बच्ची!' शीर्षक कविताएँ उल्लेखनीय है जिनमें प्रेम अपने नैसर्गिक रूप में विद्यमान है. कवि के जीवन में स्त्रियों के प्रति गहरा सम्मान और आदर का भाव है तथा वे अपने जीवन से जुड़ी हर स्त्री में ईश्वर को महसूस कर पाते हैं।-
"जीवन में समस्त ऊर्जा स्रोत
जिन-जिन स्त्रियों से मिलता रहा
उनकी जागती-सोती आंखों से
मैंने प्रार्थनाओं से भरा स्वर्ग देखा है
ईश्वर मिथक नहीं सच है
और आपके इर्द-गिर्द हाथ थामे
यकीन दिलाता है कि
ईश्वर कोई पुरुष नहीं होता"।
इस संग्रह में एक और बहुत ही प्यारी कविता है - 'सबसे प्यारी हंसी', जिसमें एक पिता का अपनी बेटी के प्रति स्नेहिल उद्गार है. जिसे बार-बार पढ़ने के बाद भी दुबारा पढ़ने की इच्छा बची रह जाती है. इस कविता की ये पंक्तियाँ देखिए -
"जब तुम हंसती हो
फुनगियां भी हवा के संग
डोलना भूल जाती हैं
पृथ्वी अपनी धुरी पर
घूमना भूल जाती है
चांद चहलकदमी नहीं करता
टकटकी लगा कर ताकता है
जब तुम हंसती हो तो
हजारों कंचे एक साथ
धरती का माथा चूमते हैं
और जब तुम हंसती हो तो
पिता का सीना समंदर हो जाता है
बनती हुई तस्वीर
मुकम्मल हो जाती है"।
यतीश कुमार की प्रेम कविताओं में सिर्फ भावुकता और निजी अनुभूतियाँ ही नहीं, आप उसमें सामाजिकता की भी तलाश कर सकते हैं. इस संग्रह पर सुप्रसिद्ध आलोचक डॉ. शंभु नाथ के शब्दों में - "खुरचन का स्वाद इस पर निर्भर करता कि आपका अन्तस कितना बड़ा है। यहाँ कविता का काम मनुष्य की अन्तस को बड़ा बनाना है।" इस संग्रह का सार माना जा सकता है। यतीश कुमार की कविताओं की एक उल्लेखनीय विशेषता है उनकी कविताओं का बिंब विधान। इसी कारण वे एक ही कविता में कई-कई दृश्य रच देते हैं एवं पाठक को आश्चर्य में डाल देते हैं। इन बिंबों में ताज़गी एवं सम्प्रेषणीयता है जो सहज ही आकर्षित करता है। इनकी काव्य भाषा में सहज प्रवाह, लय एवं संगीतात्मकता की अनुभूति भी हम जगह-जगह कर पाते हैं, विशेषकर इनकी प्रेम कविताओं में। भाषा की सपाटबयानी इस संग्रह की कविताओं की विशिष्टता बन जाती है एवं पाठकों की संवेदना को आसानी से छू लेती हैं। इस संग्रह से गुजरने के बाद पूरा विश्वास है कि आने वाले समय में इनकी और भी अच्छी कविताएँ हमें पढ़ने को मिलेंगी। यह इस काव्य यात्रा का पहला पड़ाव है और यह यात्रा लंबी होने वाली है। कविता प्रेमियों के लिए यह एक पठनीय एवं संग्रहणीय कविता संग्रह है। पाठकों का प्यार लगातार इस संग्रह को मिल भी रहा है।
आनंद गुप्ता |
सम्पर्क
मोबाइल : 07003046699
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