महेश चंद्र पुनेठा के कविता संग्रह "अब पहुँची हो तुम" की कृति अटवाल द्वारा लिखी समीक्षा 'यही सपने दिखाए थे उन्होंने'।
महेश चंद्र पुनेठा हमारे समय के चर्चित कवि हैं। वे भाषा में कोई तूमार खड़ा नहीं करते बल्कि सामान्य भाषा में गहरी बातें कह जाते हैं। उनकी कविताएं पाठकों के संवेदनात्मक धरातल से बड़ी आसानी से जुड़ जाती हैं। हाल ही में उनका नया कविता संग्रह 'अब पहुँची हो तुम' प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह की एक बढ़िया समीक्षा लिखी है कृति अटवाल ने। कृति नानकमत्ता पब्लिक स्कूल, नैनीताल की ग्यारहवीं की छात्रा हैं। उनकी सूझ बूझ और भाषा उनके बेहतर भविष्य की तरफ इशारा कर रही है। साहित्य की दुनिया में कृति का स्वागत करते हुए पहली बार पर आज हम प्रस्तुत कर रहे हैं महेश चंद्र पुनेठा के कविता संग्रह "अब पहुँची हो तुम" की कृति अटवाल द्वारा लिखी समीक्षा 'यही सपने दिखाए थे उन्होंने'।
यही सपने दिखाए थे उन्होंने
कृति अटवाल
"अब पहुँची हो तुम" आख़िर पहुँच ही गई मेरे पास। ज़ंजीर में जकड़े ताले से इसकी ज़ीनत की गई है। इस बंद दरवाजे में हक़ीक़त के खाद-पानी से सींची तख़्लीक़ महफूज़ हैं। 55 तख़्लीक़। 124 पन्नों में समाई हुई। तमाम घटनाओं, एहसासों और अनुभवों को कविता में पिरोया है महेश चंद्र पुनेठा जी ने। इन रचनाओं का ही मजमुआ है "अब पहुंची हो तुम।" किताब का यह नाम संग्रह में शामिल "गांव में सड़क" कविता से चुना गया है। 'समय साक्ष्य' द्वारा प्रकाशित इस किताब का आर्थिक मूल्य 150 रुपए है।
एक आधुनिक ज़टिल समाज में व्यक्ति के कई विभिन्न किरदार और पहचानें होती हैं। कवि की हर एक अलग पहचान का दर्पण हैं उनकी कविताएँ। किन्हीं कविताओं में वह पहाड़ों के निवासी बन कर लिख रहे हैं। कुछ रचनाओं में एक नवाचारी शिक्षक झलक रहा है। कहीं भारत का जागरूक नागरिक होना उनकी पहचान बन आई है। तो कुछ कविताएँ एक बेटा और पति लिख रहा है। किन्हीं जगहों पर समाज का पैनी नज़र से अवलोकन कर रहा एक व्यक्ति भी नज़र आ रहा है। संक्षेप में कहूं तो, कविताओं में तसव्वुर का तड़का है और विषयवस्तु में विविधता की सुगंध भी।
हमारे समाज में महिलाएं दूसरों की खुशियों के लिए जीती हैं। उन्हें इस तरह तैयार किया जाता है कि वह अपना अस्तित्व ही भूल जाती हैं। त्याग की खाद और ज़िम्मेदारी व बोझ के पानी से उन्हें सींचा जाता है। काम के बोझ के तले उन्हें यूँ दबाया जाता है कि उनकी सीमाएं घर की चहारदीवारी तक सिमट जाती हैं। तमाम तरीक़े की असमानता और विपरीत सामाजिक नियम जो हैं सो अलग। इस बीच जब वह अपनी ज़िंदगी के कुछ हसीन पलों को लिखने बैठती है, तब कुछ याद ही नहीं कर पाती। इस स्थिति को बयाँ करते हुए कवि लिखते हैं:
"... फिर
वह दुख लिखने लगी
लिखती रही
लिखती रही
लिखती ही रह गयी।"
सुंदर और खूबसूरत पहाड़ संसाधन के मामले में तंग हैं। आधुनिक आबोहवा से कोसों दूर। विकास तो छोड़िये, न्यूनतम सुविधाओं की पहुँच भी उन तक नहीं हैं। सुंदरता और ख़ूबसूरती किसी को दो वक्त की रोटी तो मुहैया नहीं करा सकती है। इसीलिए वहाँ के बाशिंदे पलायन करने पर मज़बूर हैं। बुज़ुर्ग जो वहीं की हवा के आदि हैं, चाहतें हैं कि उनकी नई पीढ़ी बाहर जाए और नया मुकाम हासिल करे। कुछ लोग स्थायी रूप से पलायन करते हैं तो कुछ का आना-जाना लगा रहता है। साथ ही परिवार के लोग भी बिछड़ जाते हैं। कोई शहर तो कोई पहाड़ों में। कवि की कलम इस पर कहती है:
".... पहाड़ी गाँव यानि बिछोह, मिलन, फिर बिछोह।"
एक महिला के लिए उसका मायका (माँ का घर) वह होता है जो उसकी माँ का भी नहीं होता। शादी कर वह ससुराल जाती है। अब वही उसका घर-संसार है। वह अपने सपनों को मार देती है। उसके बचपन के खिलौने, कॉपी-किताबें और बचपन की हसीन स्मृतियाँ सब उसकी माँ के घर ही रह जाती हैं। वहाँ भी वह केवल कभार ही है। अपने नये संसार में भी वह दूसरों को तवज्जो देने में ही व्यस्त रह जाती है। उसके पास खुद के लिए सोचने का समय ही कहाँ है। बराबरी का हव्वा कितना ही उड़ाया जाए, उसका वजूद वहाँ भी नगण्य ही है। कवि इस पर लिखते हैं कि:
"आखिर कब आयेगा वह दिन
जब पति के बगल में
पत्नी की भी
पुरानी चिट्ठियाँ पुरानी डायरियाँ सजी होंगी?"
हमारे गैरबराबर समाज में औरत को काम के बोझ के तले पूरी तरह दबा दिया जाता है। हालांकि, लोगों की नज़रों में भले ही वह घास का तिनका हो, पर वह ना हो तो घर-परिवार के लिए एक पत्ता हिला पाना भी मुश्किल है। वह अपनी तबियत का ख़्याल किये बिना सुबह से शाम तक जानवरों की तरह काम करती है। वह अपना दर्द यह सोच कर दबाती रहती है कि मैं पड़ गई तो परिवार का क्या होगा। वह अपनी तबियत की नज़ाकत को कोने कर अल्पकालिक राहत पर अधिक ध्यान देती है। लिहाज़ा नतीजा यह होता है:
"...नहीं लौट पायी वह अबकी बार
पेन किलर ले कर
पति को उसकी लाश ले कर लौटना पड़ा।
वह आज अचानक नहीं मरी
हाँ, आज अंतिम बार मरी
उसको जानने वाले कहते हैं
मरी क्या बेचारी तर गयी।"
तसव्वुर की उड़ान का नतीज़ा है "मेरी रसोई-मेरा देश।" दुनिया बदल रही है, हमारा देश भी। समकालीन भारत के मौजूदा हालात का प्रतिबिंब खड़ा कर कवि 37 रचनाएं करते हैं। वह कहते हैं:
"उबलना और उबल जाना
काफी अंतर है दोनों में
रसोई में उबाल भी जाता ही है
लेकिन रसोइया
उसे चुपचाप जाते हुए
नहीं देखता है
इस घटना का आम होना
रसोइये की लापरवाही का प्रतीक है...."
लोग अपनी पहचान के प्रति बड़े ही संकीर्ण रहते हैं। अपनी सोच के अर्ज़-ओ-तूल को बढ़ाने की बजाए छोटे-छोटे दायरे बनाये रहते हैं। पर मनुष्य की तलाश तो कभी खत्म ही नहीं होती। वह तो हर नई चीज़ को जानने की जिज्ञासा रखता है तभी तो वह इंसान है। "कुएँ के भीतर कुएँ" कविता लोगों में मर चुकी जिज्ञासा पर है। कुछ पंक्तियाँ यूँ हैं:
"....मुझे शक है कि
तुम खुद को भी देख पाते हो या नहीं
लोग कहते हैं तुम जिन्दा हो
पर मुझे विश्वास नहीं होता है
एक जिन्दा आदमी
इतने संकीर्ण कुएँ में
कैसे रह सकता है भला!"
समाज ही कवि की कलम को हर रंग की स्याही से भर रहा है। "माँ की बीमारी में" शीर्षक से 7 कविताएँ लिखी गई हैं। औरतें बीमार मां से भेंट करने आ रहीं हैं। इस बीच वे तमाम बातें करती हैं। कुछ उनकी हिम्मत बढ़ा रहीं हैं तो कुछ हिम्मत पस्त कर रहीं हैं। पर उनकी बातों के विषय पितृसत्ता के पहरेदार पिताजी को ख़ुश कर रहे हैं। वह लिखते हैं:
"बूढ़े पिता मंद-मंद मुस्कुराते हैं
मैं कुढ़ता हूँ मन ही मन
दासता से खतरनाक है
दासता की वकालत।"
ज़िंदगी में सहूलियत और संतुष्टि के लिए हम जीवन भर कई चीज़ें करते हैं। कई दुनिया के दिखावे के लिए, तो कई आत्मसंतुष्टि के लिए। पर ज़िंदगी जीना और काट लेना एक ही सड़क के दो छोरों की तरह हैं। और चुनना हमें है की हम जीना चाहते हैं या काटना। छुपाना चाहते हैं या उघाड़ना। कवि के शब्दों में:
"....वे भाषा में
रचनात्मकता चाहते हैं
मैं जीवन में।"
समाज में कई आधार पर धड़े बंटे हुए हैं। एक वो जिनकी थाली में छप्पन भोग हैं और दूसरे वो जिन्हें सूखी रोटी भी मुश्किल से मिलती है। समाज में इज़्ज़त, ओहदा और अवसर पाने के लिए आर्थिक स्थिति भी एक बड़ी भूमिका अदा करती हैं। बमुश्किल ही लोग तमाम जद्दोजहद के बावजूद भी अपनी परिस्थितियों में बदलाव ला पाते हैं। मुख्यतः जो लोग जाति पदानुक्रम में निचले होते हैं उन्हें इन परिस्थियों का सामना अधिक करना पड़ता है। वे लोग और उनकी कई पीढ़ियां इसी अंधेरे की काली चादर में लिपटी रह जाती हैं। पीढ़ी दर पीढ़ी वह इसके आदि हो जाते हैं। कवि इस दर्द को बयाँ कर लिखते हैं:
"कितना खतरनाक है इस तरह
चोट-चुभन-आवाज का
पीढ़ी दर पीढ़ी आदत में ढल जाना।"
अंधेरे को चीरते हैं दिवाली के दिये। पर दीपक तले अंधेरा ही रह जाता है। त्यौहार में खुशियाँ भी बंटी हुई हैं। समाज में अलग-अलग आर्थिक वर्ग के लोग हैं। मोमबत्तियाँ, लड़ियाँ और दिया जलाना त्यौहार बनाना है। पर कई लोग केवल इस उजाले को आँखों में ही भर पाते हैं। वह जब अपनी देहरी में उजाला करने ही वाले होते हैं तब ही उनकी खुशी के दिये पर कोई फूंक मार जाता है। 3 कविताएँ हैं "दीपावली" नाम से। जिनकी चंद पंक्तियाँ हैं:
"गलती मोमबत्तियाँ मुझे
रोते हुए बच्चों के
आँसुओं की तरह दिखती हैं।"
चमकती आँखों को सपनें से भर देते हैं राजनेता। और जनता सपनों के उन हवामहलों से ही खुश हो जाती है। क्षितिज की ओर देख बस वह उन सपनों के पूरे होने का इंतज़ार करते रह जाते हैं। और राजनेता हर दिन उनके भरोसे की सेज पर आग तापते हैं। यही हुआ भाखड़ा, रिहन्द, टिहरी और नर्मदा में। कवि को डर है कि यही पंचेश्वर में ना दोहराया जाए। डैम बनाना वहां से विस्थापित लोगों की ही नहीं बल्कि कुदरत की भी इसमें बलि चढ़ाना है। विकास का वर्तमान मॉडल तो है ही कुदरत के खिलाफ। पंचेश्वर गाटी पर रचित कविता में कवि लिखते हैं :
"...ध्यान रखना
यही सपने दिखाए थे उन्होंने
भाखड़ा में
रिहन्द में
टिहरी में
नर्मदा में"
शासन की सर्वोत्तम व्यवस्था है लोकतंत्र। लोकतंत्र के मायने केवल मत देने तक सीमित नहीं हैं। वोट देना केवल एक हिस्सा है। देश का नागरिक होने के नाते देश में हो रही हर घटना को पैनी नज़र से देखना वोटर की ज़िम्मेदारी है। यही नहीं अगर नागरिक को लगे की यह उनके हित के ख़िलाफ़ है तो बाकायदा वह विरोध करने का अधिकार भी रखता है। लोकतंत्र लोगों का शासन है। सत्ता में बैठे लोग जनता के फ़रिश्तें बन उनकी मर्ज़ी के खिलाफ चाहे उनकी भलाई के फ़ैसले लें या उन्हें बर्बाद करने के, यह लोकतंत्र की रूह के ख़िलाफ़ है। इस पर कवि कहते हैं:
"...लोकतंत्र के लोहे पर
आन्दोलन, देते धार हैं..."
लॉकडाउन के दौरान हताश मजदूरों के दर्द को भी कवि की कलम ने उकेरा है। हर परिस्थिति इस वर्ग विशेष के खिलाफ होती है। ये हमारे समाज के ऐसे संगतकार हैं जिनकी आवाज़ हमारे कानों तक पहुँचती ही नहीं है। यही हमारे समाज को मुक्कमल करते हैं और समाज इन्हें पैरों तले कुचलने में दो पल भी नहीं लगाता। लॉकडाउन की विपरीत स्थितियां तो इनके लिए दुःख और तकलीफ़ का पहाड़ ही ले आईं।
पर्यावरण, लोकतंत्र, नफ़रत, प्रेम, गैरबरबारी से ले कर समसामयिक मुद्दों पर केंद्रित कविताएँ हैं इस काव्य संग्रह में। हर एक कविता रफ़ाक़त है हर दूसरी कविता की। हाँ, क्योंकि समाज के हर मुद्दे जुड़े हुए हैं। प्रत्येक व्यक्ति की समस्याएं समाज की देन है। महेश जी की कविताएँ नवाचारी हैं। यह संग्रह केवल एक साहित्यिक कृति नहीं है बल्कि समाजशास्त्रीय दस्तावेज़ भी है। जिसका ईंधन समाज से ही मिलता है।
अब पहुंची हो तुम (कविता संग्रह)
महेश चन्द्र पुनेठा
समय साक्ष्य प्रकाशन
15, फालतू लाइंस
देहरादून (उत्तराखंड)
मूल्य : रु 150/
सम्पर्क
कृति अटवाल (11वीं)
नानकमत्ता पब्लिक स्कूल
नैनीताल (उत्तराखंड)
आपका और कृति दोनों का आभार
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