केदार नाथ सिंह की कविताएँ



केदार नाथ सिंह


केदार नाथ सिंह की कविताएँ 


हाथ

उसका हाथ
अपने हाथ में लेते हुए मैंने सोचा
दुनिया को
हाथ की तरह गर्म और सुंदर होना चाहिए.


जाना

मैं जा रही हूँ उसने कहा
जाओ मैंने उत्तर दिया
यह जानते हुए कि जाना
हिंदी की सबसे खौफनाक क्रिया है.


मातृ भाषा

जैसे चींटियाँ लौटती हैं
बिलों में
कठफोड़वा लौटता है
काठ के पास
वायुयान लौटते हैं एक के बाद एक
लाल आसमान में डैने पसारे हुए
हवाई-अड्डे की ओर

ओ मेरी भाषा
मैं लौटता हूँ तुम में
जब चुप रहते-रहते
अकड़ जाती है मेरी जीभ
दुखने लगती है
मेरी आत्मा

मेरी भाषा के लोग
 
मेरी भाषा के लोग
मेरी सड़क के लोग हैं
सड़क के लोग सारी दुनिया के लोग

पिछली रात मैंने एक सपना देखा
कि दुनिया के सारे लोग
एक बस में बैठे हैं
और हिन्दी बोल रहे हैं
फिर वह पीली-सी बस
हवा में गायब हो गई
और मेरे पास बच गई सिर्फ़ मेरी हिन्दी
जो अन्तिम सिक्के की तरह
हमेशा बच जाती है मेरे पास
हर मुश्किल में

कहती वह कुछ नहीं
पर बिना कहे भी जानती है मेरी जीभ
कि उसकी खाल पर चोटों के
कितने निशान हैं
कि आती नहीं नींद उसकी कई संज्ञाओं को
दुखते हैं अक्सर कई विशेषण
पर इन सबके बीच
असंख्य होठों पर
एक छोटी-सी खुशी से थरथराती रहती है यह!

तुम झाँक आओ सारे सरकारी कार्यालय
पूछ लो मेज़ से
दीवारों से पूछ लो
छान डालो फ़ाइलों के ऊँचे-ऊँचे
मनहूस पहाड़
कहीं मिलेगा ही नहीं
इसका एक भी अक्षर
और यह नहीं जानती इसके लिए
अगर ईश्वर को नहीं
तो फिर किसे धन्यवाद दे !

मेरा अनुरोध है
भरे चौराहे पर करबद्ध अनुरोध
कि राज नहीं भाषा
भाषाभाषासिर्फ़ भाषा रहने दो
मेरी भाषा को ।

इसमें भरा है
पास-पड़ोस और दूर-दराज़ की
इतनी आवाजों का बूँद-बूँद अर्क
कि मैं जब भी इसे बोलता हूँ
तो कहीं गहरे
अरबी तुर्की बांग्ला तेलुगु
यहाँ तक कि एक पत्ती के
हिलने की आवाज़ भी
सब बोलता हूँ ज़रा-ज़रा
जब बोलता हूँ हिंदी


पर जब भी बोलता हूं
यह लगता है
पूरे व्याकरण में
एक कारक की बेचैनी हूँ
एक तद्भव का दुख
तत्सम के पड़ोस में।



जे एन यू में हिन्दी


जी, यही मेरा घर है
और शायद यही वह पत्थर जिस पर सिर रखकर सोई थी
वह पहली कुल्हाड़ी
जिसने पहले वृक्ष का शिकार किया था

इस पत्थर से आज भी
एक पसीने की गंध आती है
जो शायद उस पहले लकड़हारे के शरीर की
गंध है--
जिससे खुराक मिलती है
मेरे परिसर की सारी आधुनिकता को

इस घर से सटे हुए
बहुत-से घर हैं
जैसे एक पत्थर से सटे हुए बहुत-से पत्थर
और धूप हो की वर्षा यहाँ नियम यह
कि हर घर अपने में बंद
अपने में खुला

पर बगल के घर में अगर पकता है भात
तो उसकी ख़ुशबू घुस आती है
मेरे किचन में
मेरी चुप्पी उधर के फूलदानों तक
साफ़ सुनाई पड़ती है
और सच्चाई यह है कि हम सबकी स्मृतियाँ
अपने-अपने हिस्से की बारिश से धुलकर
इतनी स्वच्छ और ऐसी पारदर्शी
कि यहाँ किसी का नम्बर
किसी को याद नहीं !

विद्वानों की इस बस्ती में जहाँ फूल भी एक सवाल है
और बिच्छू भी एक सवाल
मैंने एक दिन देखा एक अधेड़-सा आदमी
जिसके कंधे पर अंगौछा था
और हाथ में एक गठरी
अंगौछा’- इस शब्द से
लम्बे समय बाद मेरे मिलना हुआ
और वह भी जे. एन. यू. में !

वह परेशान-सा आदमी
शायद किसी घर का नम्बर खोज रहा था
और मुझे लगा-कई दरवाज़ों को खटखटा चुकने के बाद
वह हो गया था निराश
और लौट रहा था धीरे-धीरे

ज्ञान की इस नगरी में
उसका इस तरह जाना मुझे ऐसा लगा
जैसे मेरी पीठ पर कुछ गिर रहा हो सपासप
कुछ देर मैंने उसका सामना किया
और जब रहा न गया चिल्लाया फूट कर--
विद्वान लोगो! दरवाज़ा खोलो
वह जा रहा है
कुछ पूछना चाहता था
कुछ जानना चाहता था वह
रोको.. उस अंगौछे वाले आदमी को रोको...

और यह तो बाद में मैंने जाना
उसके चले जाने के काफ़ी देर बाद
कि जिस समय मैं चिल्ला रहा था
असल में मैं चुप था
जैसे सब चुप थे
और मेरी जगह यह मेरी हिंदी थी
जो मेरे परिसर में अकेले चिल्ला रही थी । 

झरने लगे नीम के पत्ते

झरने लगे नीम के पत्ते बढ़ने लगी उदासी मन की,

उड़ने लगी बुझे खेतों से
झुर-झुर सरसों की रंगीनी,
धूसर धूप हुई मन पर ज्यों
सुधियों की चादर अनबीनी,

दिन के इस सुनसान पहर में रुक-सी गई प्रगति जीवन की ।

साँस रोक कर खड़े हो गए
लुटे-लुटे-से शीशम उन्मन,
चिलबिल की नंगी बाँहों में
भरने लगा एक खोयापन,

बड़ी हो गई कटु कानों को 'चुर-मुर' ध्वनि बाँसों के वन की ।

थक कर ठहर गई दुपहरिया,
रुक कर सहम गई चौबाई,
आँखों के इस वीराने में
और चमकने लगी रुखाई,

प्रान, आ गए दर्दीले दिन, बीत गईं रातें ठिठुरन की।

दाने

नहीं
हम मण्डी नहीं जाएंगे
खलिहान से उठते हुए
कहते हैं दाने॔

जाएंगे तो फिर लौट कर नहीं आएंगे
जाते- जाते
कहते जाते हैं दाने

अगर लौट कर आये भी
तो तुम हमे पहचान नहीं पाओगे
अपनी अन्तिम चिट्ठी में
लिख भेजते हैं दाने

इसके बाद महीनों तक
बस्ती में
कोई चिट्ठी नहीं आती।



बनारस

इस शहर में वसंत
अचानक आता है
और जब आता है तो मैंने देखा है
लहरतारा या मडुवाडीह की तरफ़ से
उठता है धूल का एक बवंडर
और इस महान पुराने शहर की जीभ
किरकिराने लगती है

जो है वह सुगबुगाता है
जो नहीं है वह फेंकने लगता है पचखियाँ
आदमी दशाश्‍वमेध पर जाता है
और पाता है घाट का आखिरी पत्‍थर
कुछ और मुलायम हो गया है
सीढि़यों पर बैठे बंदरों की आँखों में
एक अजीब सी नमी है
और एक अजीब सी चमक से भर उठा है
भिखारियों के कटरों का निचाट खालीपन

तुमने कभी देखा है
खाली कटोरों में वसंत का उतरना!
यह शहर इसी तरह खुलता है
इसी तरह भरता
और खाली होता है यह शहर
इसी तरह रोज़ रोज़ एक अनंत शव
ले जाते हैं कंधे
अँधेरी गली से
चमकती हुई गंगा की तरफ़

इस शहर में धूल
धीरे-धीरे उड़ती है
धीरे-धीरे चलते हैं लोग
धीरे-धीरे बजते हैं घनटे
शाम धीरे-धीरे होती है

यह धीरे-धीरे होना
धीरे-धीरे होने की सामूहिक लय
दृढ़ता से बाँधे है समूचे शहर को
इस तरह कि कुछ भी गिरता नहीं है
कि हिलता नहीं है कुछ भी
कि जो चीज़ जहाँ थी
वहीं पर रखी है
कि गंगा वहीं है
कि वहीं पर बँधी है नाँव
कि वहीं पर रखी है तुलसीदास की खड़ाऊँ
सैकड़ों बरस से

कभी सई-साँझ
बिना किसी सूचना के
घुस जाओ इस शहर में
कभी आरती के आलोक में
इसे अचानक देखो
अद्भुत है इसकी बनावट
यह आधा जल में है
आधा मंत्र में
आधा फूल में है

आधा शव में
आधा नींद में है
आधा शंख में
अगर ध्‍यान से देखो
तो यह आधा है
और आधा नहीं भी है

जो है वह खड़ा है
बिना किसी स्‍थंभ के
जो नहीं है उसे थामें है
राख और रोशनी के ऊँचे ऊँचे स्‍थंभ
आग के स्‍थंभ
और पानी के स्‍थंभ
धुऍं के
खुशबू के
आदमी के उठे हुए हाथों के स्‍थंभ

किसी अलक्षित सूर्य को
देता हुआ अर्घ्‍य
शताब्दियों से इसी तरह
गंगा के जल में
अपनी एक टाँग पर खड़ा है यह शहर
अपनी दूसरी टाँग से
बिलकुल बेखबर!

मंच और मचान

पत्तों की तरह बोलते
तने की तरह चुप
एक ठिंगने से चीनी भिक्खु थे वे
जिन्हें उस जनपद के लोग कहते थे
चीना बाबा

कब आये थे रामाभार स्तूप पर
यह कोई नहीं जानता था
पर जानना जरूरी भी नहीं था
उनके लिये तो बस इतना ही बहुत था
कि वहाँ स्तूप पर खड़ा है
चिड़ियों से जगरमगर एक युवा बरगद
बरगद पर मचान है
और मचान पर रहते हैं वे
जाने कितने समय से

अगर भूलता नहीं तो यह पिछली सदी के
पाँचवे दशक का कोई एक दिन था
जब सड़क की ओर से भोंपू की आवाज़ आई
भाइयो और बहनो,
प्रधानमंत्री आ रहे हैं स्तूप को देखने...

प्रधानमंत्री!
खिल गए लोग
जैसे कुछ मिल गया हो सुबह-सुबह
पर कैसी विडम्बना
कि वे जो लोग थे
सिर्फ़ नेहरू को जानते थे
प्रधानमंत्री को नहीं!

सो इस शब्द के अर्थ तक पहुँचने में
उन्हें काफ़ी दिक़्क़त हुई
फिर भी सुर्ती मलते और बोलते-बतियाते
पहुँच ही गये वे वहाँ तक
कहाँ तक?
यह कहना मुश्किल है

कहते हैं प्रधानमंत्री आये
उन्होंने चारों ओर घूम कर देखा स्तूप को
फिर देखा बरगद को
जो खड़ा था स्तूप पर

पर न जाने क्यों
वे हो गये उदास
और कहते हैं नेहरू अक्सर
उदास हो जाते थे
फिर जाते-जाते एक अधिकारी को
पास बुलाया
कहा देखो उस बरगद को गौर से देखो
उसके बोझ से टूट कर
गिर सकता है स्तूप
इसलिये हुक्म है कि देशहित में
काट डालो बरगद
और बचा लो स्तूप को

यह राष्ट्र के भव्यतम मंच का आदेश था
जाने-अनजाने एक मचान के विरुद्ध
इस तरह उस दिन एक अद्भुत घटना घटी
भारत के इतिहास में
कि मंच और मचान
यानी एक ही शब्द के लम्बे इतिहास के
दोनों ओर-छोर
अचानक आ गये आमने-सामने

अगले दिन
सूर्य के घंटे की पहली चोट के साथ
स्तूप पर आ गए
बढ़ई
मजूर
इंजीनियर
कारीगर
आ गए लोग दूर-दूर से

इधर अधिकारी परेशान
क्योंकि उन्हें पता था
खाली नहीं है बरगद
कि उस पर एक मचान है
और मचान भी खाली नहीं
क्योंकि उस पर रहता है एक आदमी
और खाली नहीं आदमी भी
क्योंकि वह ज़िन्दा है
और बोल सकता है

क्या किया जाए?
हुक्म दिल्ली का
और समस्या जटिल
देर तक खड़े-खड़े सोचते रहे वे
कि सहसा किसी एक ने
हाथ उठा प्रार्थना की
चीना बाबा,
ओ...ओ... चीना बाबा!
नीचे उतर आओ
बरगद काटा जायेगा
काटा जायेगा?
क्यों? लेकिन क्यों?
जैसे पनों से फूट कर जड़ों की आवाज़ आई

पर का आदेश है
नीचे से उतर गया

तो शुनो भिक्खु अपनी चीनी गमक वाली
हिन्दी में बोला
चाये काट डालो मुझी को
उतरूंगा नईं
ये मेरा घर है!

भिक्खु की आवाज़ में
बरगद के पनों के दूध का बल था

अब अधिकारियों के सामने
एक विकट सवाल था एकदम अभूतपूर्व
पेड़ है कि घर
यह एक ऐसा सवाल था
जिस पर कानून चुप था
इस पर तो कविता भी चुप हैं
एक कविता प्रेमी अधिकारी ने
धीरे से टिप्पणी की

देर तक
दूर तक जब कुछ नहीं सूझा
तो अधिकारियों ने राज्य के उच्चतम
अधिकारी से सम्पर्क किया
और गहन छानबीन के बाद पाया गया
मामला भिक्खु के चीवर-सा
बरगद की लम्बी बरोहों से उलझ गया है
हार कर पाछ कर अंततः तय हुआ
दिल्ली से पूछा जाय

और कहते हैं
दिल्ली को कुछ भी याद नहीं था
न हुक्म
न बरगद
न दिन
न तारीख़
कुछ भी कुछ भी याद ही नहीं था

पर जब परत दर परत
इधर से बतायी गयी स्थिति की गम्भीरता
और उधर लगा कि अब भिक्खु का घर
यानी वह युवा बरगद
कुल्हाड़े की धार से बस कुछ मिनट दूर है
तो ख़याल है कि दिल्ली ने जल्दी-जल्दी
दूत के जरिये बीजिंग से बात की
इस हल्की सी उम्मीद में कि शायद
कोई रास्ता निकल आए
एक कयास यह भी
कि बात शायद माओ की मेज़ तक गई

अब यह कितना सही है
कितना ग़लत
साक्ष्य नहीं कोई कि जाँच सकूँ इसे
पर मेरा मन कहता है काश यह सच हो
कि उस दिन
विश्व में पहली बार दो राष्ट्रों ने
एक पेड़ के बारे में बातचीत की

तो पाठकगण
यह रहा एक धुंधला सा प्रिण्ट आउट
उन लोगों की स्मृति का
जिन्हें मैंने खो दिया था बरसों पहले

और छपते-छपते इतना और
कि हुक्म की तामील तो होनी ही थी
सो जैसे-तैसे पुलिस के द्वारा
बरगद से नीचे उतारा गया भिक्खु को
और हाथ उठाए मानो पूरे ब्रह्मांड में
चिल्लाता रहा वह
घर है...ये...ये....मेरा घर है

पर जो भी हो
अब मौके पर मौजूद टांगों कुल्हाड़ों का
रास्ता साफ था
एक हल्का सा इशारा और ठक्‌... ठक्‌
गिरने लगे वे बरगद की जड़ पर
पहली चोट के बाद ऐसा लगा
जैसे लोहे ने झुक कर
पेड़ से कहा हो-- माफ़ करना भाई,
कुछ हुक्म ही ऐसा है
और ठक्‌ ठक्‌ गिरने लगा उसी तरह
उधर फैलती जा रही थी हवा में
युवा बरगद के कटने की एक कच्ची गंध
और नहीं...नहीं...
कहीं से विरोध में आती थी एक बुढ़िया की आवाज़
और अगली ठक्‌ के नीचे दब जाती थी
जाने कितनी चहचह
कितने पर
कितनी गाथाएँ
कितने जातक
दब जाते थे हर ठक्‌ के नीचे
चलता रहा वह विकट संगीत
जाने कितनी देर तक

कि अचानक
जड़ों के भीतर एक कड़क-सी हुई
और लोगों ने देखा कि चीख़ न पुकार
बस झूमता-झामता एक शाहाना अंदाज़ में
अरअराकर गिर पड़ा समूचा बरगद
सिर्फ 'घर' वह शब्द
देर तक उसी तरह
टंगा रहा हवा में

तब से कितना समय बीता
मैंने कितने शहर नापे
कितने घर बदले
और हैरान हूँ मुझे लग गया इतना समय
इस सच तक पहुँचने में
कि उस तरह देखो
तो हुक़्म कोई नहीं
पर घर जहाँ भी है
उसी तरह टंगा है




सृष्टि पर पहरा

जड़ों की डगमग खड़ाऊं पहने
वह सामने खड़ा था
सिवान का प्रहरी
जैसे मुक्तिबोध का ब्रह्मराक्षस-
एक सूखता हुआ लंबा झरनाठ वृक्ष
जिसके शीर्ष पर हिल रहे
तीन-चार पत्ते

कितना भव्य था
एक सूखते हुए वृक्ष की फुनगी पर
महज तीन-चार पत्तों का हिलना

उस विकट सुखाड़ में
सृष्टि पर पहरा दे रहे थे
तीन-चार पत्ते

निराला को याद करते हुए

उठता हाहाकार जिधर है
उसी तरफ अपना भी घर है

खुश हूँ - आती है रह-रहकर
जीने की सुगंध बह-बहकर

उसी ओर कुछ झुका-झुका-सा
सोच रहा हूँ रुका-रुका-सा

गोली दगे न हाथापाई
अपनी है यह अजब लड़ाई

रोज उसी दर्जी के घर तक
एक प्रश्न से सौ उत्तर तक

रोज कहीं टाँके पड़ते हैं
रोज उधड़ जाती है सीवन

'
दुखता रहता है अब जीवन'




कुछ सूत्र जो एक किसान बाप ने बेटे को दिए

मेरे बेटे
कुँए में कभी मत झाँकना
जाना
पर उस ओर कभी मत जाना
जिधर उड़े जा रहे हों
काले-काले कौए

हरा पत्ता
कभी मत तोड़ना
और अगर तोड़ना तो ऐसे
कि पेड़ को ज़रा भी
न हो पीड़ा

रात को रोटी जब भी तोड़ना
तो पहले सिर झुकाकर
गेहूँ के पौधे को याद कर लेना

अगर कभी लाल चींटियाँ
दिखाई पड़ें
तो समझना
आँधी आने वाली है

अगर कई-कई रातों तक
कभी सुनाई न पड़े स्यारों की आवाज़
तो जान लेना
बुरे दिन आने वाले हैं

मेरे बेटे
बिजली की तरह कभी मत गिरना
और कभी गिर भी पड़ो
तो दूब की तरह उठ पड़ने के लिए
हमेशा तैयार रहना

कभी अँधेरे में
अगर भूल जाना रास्ता
तो ध्रुवतारे पर नहीं
सिर्फ़ दूर से आनेवाली
कुत्तों के भूँकने की आवाज़ पर
भरोसा करना

मेरे बेटे
बुध को उत्तर कभी मत जाना
न इतवार को पच्छिम

और सबसे बड़ी बात मेरे बेटे
कि लिख चुकने के बाद
इन शब्दों को पोंछकर साफ़ कर देना

ताकि कल जब सूर्योदय हो
तो तुम्हारी पटिया
रोज़ की तरह
धुली हुई
स्वच्छ
चमकती रहे

काली मिट्टी

काली मिट्टी काले घर
दिन भर बैठे-ठाले घर

काली नदिया काला धन
सूख रहे हैं सारे बन

काला सूरज काले हाथ
झुके हुए हैं सारे माथ

काली बहसें काला न्याय
ख़ाली मेज़ पी रही चाय

काले अक्षर काली रात
कौन करे अब किससे बात

काली जनता काला क्रोध
काला-काला है युगबोध

फलों में स्वाद की तरह

जैसे आकाश में तारे
जल में जलकुम्भी
हवा में आक्सीजन

पृथ्वी पर उसी तरह
मैं
तुम
हवा
मृत्यु
सरसों के फूल

जैसे दियासलाई में काठी
घर में दरवाज़े
पीठ में फोड़ा
फलों में स्वाद

उसी तरह...
उसी तरह...


सुई और तागे के बीच में

माँ मेरे अकेलेपन के बारे में सोच रही है
पानी गिर नहीं रहा
पर गिर सकता है किसी भी समय
मुझे बाहर जाना है
और माँ चुप है कि मुझे बाहर जाना है

यह तय है
कि मैं बाहर जाउंगा तो माँ को भूल जाउंगा
जैसे मैं भूल जाऊँगा उसकी कटोरी
उसका गिलास
वह सफ़ेद साड़ी जिसमें काली किनारी है
मैं एकदम भूल जाऊँगा
जिसे इस समूची दुनिया में माँ
और सिर्फ मेरी माँ पहनती है

उसके बाद सर्दियाँ आ जायेंगी
और मैंने देखा है कि सर्दियाँ जब भी आती हैं
तो माँ थोड़ा और झुक जाती है
अपनी परछाई की तरफ
उन के बारे में उसके विचार
बहुत सख़्त है
मृत्यु के बारे में बेहद कोमल
पक्षियों के बारे में
वह कभी कुछ नहीं कहती
हालाँकि नींद में
वह खुद एक पक्षी की तरह लगती है

जब वह बहुत ज्यादा थक जाती है
तो उठा लेती है सुई और तागा
मैंने देखा है कि जब सब सो जाते हैं
तो सुई चलाने वाले उसके हाथ
देर रात तक
समय को धीरे-धीरे सिलते हैं
जैसे वह मेरा फ़टा हुआ कुर्ता हो

पिछले साठ बरसों से
एक सुई और तागे के बीच
दबी हुई है माँ
हालाँकि वह खुद एक करघा है
जिस पर साठ बरस बुने गये हैं
धीरे-धीरे तह पर तह
खूब मोटे और गझिन और खुरदुरे
साठ बरस

फागुन के गीत

गीतों से भरे दिन फागुन के ये गाए जाने को जी करता!
ये बाँधे नहीं बँधते, बाँहें-
रह जातीं खुली की खुली,
ये तोले नहीं तुलते, इस पर
ये आँखें तुली की तुली,
ये कोयल के बोल उड़ा करते, इन्हें थामे हिया रहता!
अनगाए भी ये इतने मीठे
इन्हें गाएँ तो क्या गाएँ,
ये आते, ठहरते, चले जाते
इन्हें पाएँ तो क्या पाएँ
ये टेसू में आग लगा जाते, इन्हें छूने में डर लगता!
ये तन से परे ही परे रहते,
ये मन में नहीं अँटते,
मन इनसे अलग जब हो जाता,
ये काटे नहीं कटते,
ये आँखों के पाहुन बड़े छलिया, इन्हें देखे न मन भरता!


टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'।

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

शैलेश मटियानी पर देवेन्द्र मेवाड़ी का संस्मरण 'पुण्य स्मरण : शैलेश मटियानी'