मोहन लाल यादव की कविताएं
इस दुनिया की अपनी एक बेहद खूबसूरत कुदरती संरचना है। इस संरचना में तमाम तरह के जीव और वनस्पतियां हैं। इसमें से तमाम जीव और वनस्पतियां ऐसे भी हैं जो उपेक्षित दिखते हैं। लेकिन यह उनका स्वयं का चुनाव है। मदार ऐसा ही पौधा है जो अक्सर सड़कों के किनारे या झाड़ झंखाड़ की शक्ल में उगता है। लेकिन फूलों की बिरादरी से भी उपेक्षित ही रहता आया है। फिर भी उसने हार कहां मानी है। वह फूलता रहता है। फलता रहता है। हरा भरा बना रहता है। कवि मोहन लाल यादव की नजरें इस मदार को सर्वहारा और मजदूरों की हुंकार से जोड़ते हैं जिनकी बदौलत यह दुनिया आज इतनी खूबसूरत दिखाई पड़ती है। मोहन लाल यादव कवि कहानीकार हैं। प्रकाशन यानी छपने की मोह माया से काफी दूर अपनी रचनाधर्मिता में लगे हुए हैं। हमारे अनुरोध पर मोहन जी ने अपनी इधर की लिखी कुछ कविताएं भेजी हैं।तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं मोहन लाल यादव की कविताएं।
मोहन लाल यादव की कविताएं
दुरपतिया
गोधूलि बेला में
कौवों की कांव कांव
होती थी ठांव ठांव
बगुले भी पंक्तिबद्ध
उड़े चले जाते थे
चिड़ियों के झुंड बैठ
पेड़ों की डालों पर
वृंदगान गाते थे
गुमसुम और गमगीन
आज आसमान था
पसरी थी नीरवता
सूना सीवान था
कहीं-कहीं बाजरा
तो कहीं लगा धान था
खूब घने हर-भरे
अरहर के खेत सजे,
मंद मंद पुरवाई
घुनुन-घुनुन...
छुनुन-छुनुन...
सनई में गीत बजे
अल्हड़ सी दुरपतिया
खट कर के मजदूरी
लौटे घर अपने,
हिरनी सी आँखो में
तैर रहे सपने
कभी बुदबुदाती वह
कभी मुस्कुराती वह
अपने ही रौ में कोई
गीत गुनगुनाती वह
इठलाती मचलाती
बलखाती दुरपतिया
निश्छल निःशंक निडर
चली जाती दुरपतिया
अल्हड़ सी मृग शावक
जैसे कुलेल करे
नियति नटी भी उधर
चुपके से खेल करे
अरहर के खेत बीच
बैठा था छुप कर के
राक्षस बलवान सिंह
लगा करके घात,
झपट पड़ा लंपट वह
सूनसान रास्ते में
खीचे दुरपतिया का
कस करके हाथ
मगर वीर बाला वह
बनी अग्नि ज्वाला वह
गुस्से में लाल हुई
हाथ को झटक कर के
झोंक दिया लंपट को
गिरा बड़ी दूर
शेरनी वो तन करके
तान लिया हंसिया को
सहमा बलवान सिंह
दम्भ हुआ चूर
और थे कुकर्मी दो
साथी बलवान सिंह के,
चुपचाप खेतों में
बैठे थे पहले से
तीनों फिर एक साथ,
टूट पड़े शेरनी को
काबू में करने को,
खेत में घसीट लिये
नरपशु बलात
दुरपतिया एक मगर
दुःशासन तीन थे
चीरहरण करने में
तीनों प्रवीन थे,
कितना वह लड़ पाती!
प्रतिरोध कर पाती!
आखिर वह हार गई
अस्मत की बाजी
मानवता शर्मसार किया
दुष्ट पाजी
खूब छटपटाई थी
शोर भी मचाई थी
चक्रधारी कृष्ण से
गुहार भी लगाई थी
मगर कृष्ण बहरा था
महल में दुःशासन के
मेहमान बन करके
आदर से ठहरा था
माई दुरपतिया की
विधवा गरीब थी
बूढ़ी बीमार जीर्ण
मौत के करीब थी
लेकर दुरपतिया को
मुखिया के पास गई
अबला को न्याय मिले
ले करके आस गई
गाँव की पंचायत में
पंच का जुटान हुआ
बोला सरपंच फिर
दोनों फरीकों से
"सौगंध ईश्वर की!
सच-सच बताना
झूठ-सच का तोल होगा
कुछ न छुपाना
दोषी न छूटेगा
सत्य मेरी बानी
दूध का तो दूध होगा
पानी का पानी"
खड़ी हुई दुरपतिया
हाथ जोड़ सभा बीच
"पंचों, बलवान सिंह
अपने दो साथी संग
अरहर के खेत बीच
किया दुराचार!
अबला को न्याय मिले
पंच परमेश्वर से
करूँ मैं गुहार!"
बोला बलवान सिंह
मूंछों को ऐंठ कर
"पंचो, यह दुरपतिया
झूठी मक्कार!
कपट प्रेम जाल में
लड़कों को फांसती है
कुल्टा है नार!
मै इज्जतदार हूँ
पैसे की लालच में
झूठा इल्जाम धरे
बेशर्म, बेहया को
आती न लाज!"
पंचों के बीच खूब
बहस जोरदार हुई
र्दोषी निर्दोषी कौन?
काफी तकरार हुई
कोई कहे दुरपतिया
नहीं है बेचारी
वह तो चरित्रहीन
कुलटा है नारी
कोई कहे बलवान सिंह
है कुकर्मी
इसके संग पंचायत
करे नहीं नरमी
आखिर में पांच पंचून
चुने जाते है,
करते हैं मनसौदा
न्याय अन्याय का
खड़े हो कर सरपंच
फैसला सुनाते हैं
"पंचायत मसले पर
सोचा विचारा
ठाकुर बलवान सिंह
नेक हैं चरित्रवान
जाने जग सारा
अपराधी दुरपतिया
झूठा आरोप धरे
ठाकुर की इज्जत पर
कीचड़ उछाला
दंड की वह भागी है
फैसला पंचायत का
पांच सौ का जुर्माना
पड़ेगा चुकाना
वरना यह गाँव छोड़
होगा उसे जाना..."
पुनश्च दुरपतिया का
चीरहरण हाय!
बिके हुए पंचों ने
किया मत्स्य न्याय!
बरस पड़ी दुरपतिया
तन कर के खड़ी हुई
करती एलान
"टुकड़खोर मुखिया का
फैसला न मानूँगी
कौड़ी के बदले
जो बेंचता ईमान।
लड़ूँगी अकेले मै
रावण दुःशासन से,
सुनो न्यायखोर सभी
लगा करके ध्यान ..."
"सुनो, सुनो, दुरपतिया!
नहीं तुम अकेली हो
महिला उत्थान मंच
तेरे सदा साथ...!"
पुत्रवधू मुखिया की
गाँव की प्रधान रही
आ धमकी सभा बीच
महिला दल संग लिये
बिके हुए पंचो को
रही दुतकार
पंचायत स्तब्ध!
मुखिया भी सन्न हुए
न्याय के जो पक्षधर थे
सुन कर के क्रांति घोष
अतिशय प्रसन्न हुए,
पुरुषवादी मिथक का
शीश महल भहराया
नारी न्याय संहिता का
परचम नभ लहराया!
ठेकेदारी से नहीं बचेगा लोक!
दो भेली गुड़, आधी बाल्टी पानी
भेजती थी माई
खेत में बाबू के लिए
एक भेली का आधा मुझको, आधा खुद
उसी में थोड़ा चीटियों के लिए भी
दूसरी का आधा-आधा बैलों को
"ऊँट के मुँह में जीरा"
इससे थोड़ा ही बेशी होता था बैलों के मुँह में गुड़
पता नहीं अंतड़ियों तक पहुँँचता था
या मुँह और ग्रास नली की कंदरा में
रह जाता था चिपक कर
मगर इतने में ही
लहक उठता था आत्मबोध!
और संतृप्त हो जाता था लोक!
बैलों की तुष्ट आँखों में
बबूल की डालों से
गेदुर की तरह लटकते बया के घोसले
बस जाता था पंछियों का गाँव
गुंजित हो जाता था परिवेश
चीं..ची..चूं...चूं... के मधुर संगीत से
वह खगभक्षी
चढ़ जाता था अक्सर
बबूल की डाल पर
सरकने लगता था टहनियों से झूलते घोसलों की ओर
जिसमें पल रही होती पंछियों की भावी पीढ़ियां
परिवर्तित हो जाता था कलरव, करुण क्रंदन में
तब,
दौड़ पड़ते थे काका लिए हाथ में डंडा
चढ़ जाते थे बबूल पर
बंदरों जैसी चपलता के साथ
नुकीले कांटो से बेपरवाह
फिर
संरक्षित हो जाता था लोक!
गोधूलि की बेला
चर कर लौटती गायें
रंभाने लगते थे दुधमुहें बछड़े
अपनी माँओं को देख कर
जब चू पड़ती थी
गायों के थनों से
वात्सल्यता की कुछ बूंदे धरती पर,
जब पूँछ उठाए बछड़े करते थे दुग्धपान,
जब चाटने लगती थी गायें
अपने दुधमुहों के चूतड़
और जब
फूट पड़ती थी "चुभुर चुभुर" की मनभावन संगीत
तब
निनादित हो उठता था लोक!
दो बच्चे
काकी को निचोड़ते
और दो अपनी बारी के इंतजार में बेसब्र
सभी काकी के थोड़े होते
वह गोरी सुनरी
जो दूसरे बच्चे को ठेल कर
काकी की छाती को मुँह में भर लेने को आतुर,
जमुनी चमारिन की बिटिया है वह
जमुनी तो चली जाती है काटने खेत
और इसे सुपुर्द कर देती काकी को,
यह थुलथुल सा बच्चा
जो काकी की छाती से मुँह हटाने को तैयार ही नहीं
कुल्लू धोबी का बेटा,
जिसकी अम्मा पिछले हफ्ते चली गई भगवान के घर
उसको अकेला छोड़ कर....!
और वह
मरियल सा गोरे रंग वाला बच्चा मंगला दुबे का
उसकी अम्मा की छाती से दूध ही नहीं उतरता
और वह अलमस्त बच्चा खुद काकी का,
जो खेल रहा है धूल में पड़े कंकड़ों से,
जब काकी की छाती से
बूँन बूँन निचुड़ता जीवन रस
और कलेजे से झरता
झरना ममत्त्व का
तब सुपोषित होता था लोक!
और अब
सर्वग्राही अंधेरा छद्म विकास का
सोखे जा रहा अनुभूतियों के उजास को
विस्तारित होती संवेदनशून्यता बाजारवाद की
असहिष्णुता की शुष्क हवाएं
पिघलते हिमशैल संबंधों के
वाष्पित होती लोक परंपराएं
वातानुकूलित और शब्दरोधी प्रेक्षागृहों में
प्रायोजित होते लोकोत्सव,
आयोजित होती हैं लोक गोष्ठियाँ,
लोकरक्षकों की विद्वत मंडली
करती है बौद्धिकता की सामूहिक जुगाली
गढ़े जाते हैं नए-नए लोकविधान
उठता है शोर
बचाओ...!
बचाओ....!
गूंजती है करतल ध्वनि आत्ममुग्ध लोकरक्षकों की
गोष्ठी के सफल होने का कर्णभेदी उदघोष
परिणामतः
पोषित हो जाता है- लोकोद्यम
मगर जानते हैं सब
"ठेकेदारी से नहीं बचेगा लोक!"
माझी
उफनती नदी
गरजती लहरें
हिचकोले खाती नाव
अब डूबी...!
तब डूबी....!!
कातर आर्तनाद!
भयातुर यात्री!
करते गुहार
प्राणरक्षा की
और
माझी,
कर रहा था
गौरवगान
नदी के इतिहास का!
औरंगजेब की औलाद!
आज
बहुत याद आये
मुख्तार अहमद उर्फ मौलवी गुरु जी!
जिन्होंने
मुझको पढ़ाया था संस्कृत
आठवीं दर्जे में
बिना कालर का कुर्ता,
एड़ी के थोड़ा ऊपर टंगा हुआ
चौड़े मुँह का पायजामा,
अधपकी दाढ़ी
आँखों पर मोटे फ्रेम का चश्मा
और याद आयी उनकी पुरानी साइकिल भी
जिस पर से उतरते ही
हम कई लड़के दौड़ पड़ते थे
खड़ी करने के लिए उनकी साइकिल
बरगद के नीचे,
और याद आयी
उनके चेहरे की भावभंगिमाएं
जब
आँखें मूंद कर करते थे संस्कृत के श्लोक का
सस्वर वाचन
"नीलांबुज श्यामल कोमलांगम्......!"
तभी तो पूरा गाँव उनको कहता था
मौलवी गुरु जी!
लेकिन
सबसे ज्यादा याद आयी
उस दिन की घटना
और
उनकी जलभरी आँखें
जिस दिन,
मुकुल प्रधान के बेटे ने
भरी क्लास में
दी थी गालियाँ
मौलवी गुरु जी को
कि
करता है अपवित्र
मेरे धर्म ग्रंथों के
पवित्र श्लोकों को
औरंगजेब की औलाद....!
मदार
मै मदार हूँ!
सर्वहारा की हुंकार हूँ
युवाओं की ललकार हूँ
मगर
गरीब-लाचार जनता के मानिंद
उपेक्षित, असेवित और अनादृत
और तो और
अपने किसान भाई भी नहीं रखते- मित्रभाव
खैर,
कोई बात नहीं,
भाइयों से क्या शिकवा,
आखिर हैं तो अपने ही वर्ग मित्र,
मगर
भाइयों की तरह, नहीं हूँ लाचार
लड़ता हूँ दुश्मनों से सीना तान
मानता नहीं कभी हार
अभिमानी सूर्य
जब उगलता है आग,
फैलाता है आतंक,
बैसाख जेठ के महीने में
जब उबल पड़ती है मस्तिष्क की शिराएं,
उसके ताप से मनमनाती हैं दिशाएं
तब अपने अंतस में सोख लेता हूँ
इसकी संपूर्ण क्रोधाग्नि
फिर
फूट पड़ते हैं मेरी शाखाओं से
गदोरी जैसे मोटे मोटे हरे पात,
सफेद दूध से भरे हुए।
बताशे जैसे गोल-गोल
सुन्दर सफेद बैगनी फूल
गलफुलने बच्चे के फूले-फूले गालों के मानिंद
गोझे जैसे फल,
जो बढ़ते ताप के साथ
होते जाते है सुंदर और सुडौल
सुन ले टेररिस्ट!
उतर आओ इस धरती पर
चाहे अपने पूरे सौरमंडल के साथ,
उड़ेल दे अपने अंदर की संपूर्ण आग
इस धरती पर
मगर
मैं मदार हूँ
सर्वहारा की हुंकार हूँ
किसानों का हमसफर
मजदूरों की हुंकार हूँ
ऐसे ही फूलता रहूँगा
ऐसे ही फलता रहूँगा
सर्वहारा के सपनों की तरह
दहकता रहूँगा!
दिल को छूती प्रभाव शाली कविताएं
जवाब देंहटाएंविनम्र आभार🙏
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जवाब देंहटाएंबधाई हो मोहन सर
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