राहुल राजेश की कविताएँ
स्त्री होना अपने आप में कई समस्याओं को रेखांकित कर देना है। लेकिन तमाम समस्याओं के बीच ही स्त्री ने आज अपने को साबित किया है। जीवन के हर क्षेत्र में उनका सार्थक हस्तक्षेप दिखाई पड़ा है। स्त्री होने का सम्बल उनमें सबसे ज्यादा है। राहुल राजेश हमारे समय के चर्चित कवि हैं। कविता अपने समय का प्रतिपक्ष रचती है लेकिन राहुल कविता का एक पक्ष रचते हैं। उनकी छोटी कविताएं मारक हैं। खासकर स्त्रियों के सन्दर्भ में उन्होंने जो कविताएं लिखी हैं, वे सोचने के लिए मजबूर करती हैं। ब्लॉग पर हम पूर्व में भी राहुल की कविताएं पढ़ चुके हैं। आइए एक बार फिर आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं राहुल राजेश की कुछ नई कविताएं।
राहुल राजेश की कविताएँ
मुर्दा आदमी
हाँ, मैं मुर्दा आदमी हूँ
मुझ पर कोई असर नहीं पड़ता
जैसे गिरिजा टिक्कू को
नोंच-खंसोट कर आरे से
दो फाँक चीर देने से
तुम्हें कोई फर्क नहीं पड़ा था
हाँ, मुझमें नहीं जगती
न संवेदना, न घृणा, न पीड़ा
देख कर कोई शर्मनाक घटना
जैसे तुम्हें कोई फर्क नहीं पड़ा
देख कर वह वीभत्स दृश्य जिसमें
उस कम उम्र लड़की को पहले
घुटनों पर गिराया गया और
फिर दनदनाते हुए लात जमाई गयी
उसकी नाजुक पीठ पर
वह गिर पड़ी तो उसे फिर उठाया गया
और फिर बंदूक से गोली मारी गई
उसके सिर पर
फिर उसके चेहरे को छलनी कर दिया गया
गोलियों से
जाओ, तुम पता करो
वह नगा थी, कुकी थी या मैतेई
मेरे लिए तो वह बस एक बेटी थी
एक बेबस बाप की... ...
हाँ, मैं कोई कवि नहीं कि
खंगाल डालूँ अपनी कविताएँ और
परोस दूँ कोई माकूल कविता
और कतार में खड़ा हो जाऊँ सबसे आगे
कि देखो, सबसे पहले मैंने लगाई
इस शर्मनाक घटना पर कविता
हाँ, मैं इतना जिंदा आदमी नहीं कि
बस इतने भर से सिद्ध कर दूँ
अपनी संवेदनशीलता
उससे भी अधिक अपनी पक्षधरता
मैं सच में मुर्दा आदमी हूँ
मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता
किसे नंगा घुमाया गया
किसकी योनी में ठूँस दी गई
बंदूक की मूठ
किसने नंग-धड़ंग हो कर धकेल दिया
सुरक्षा बलों को कोसों दूर
किस जाति से थी
नंगी औरतों की वह टुकड़ी
जिसने थाने में आग लगा दी
और छुड़ा लिया अपने साथियों को
हाँ, मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता
मैं मुर्दा आदमी हूँ, एकदम मरा हुआ
अगर मैं सचमुच जिंदा होता
तो इतना सन्न नहीं होता
और इतना विछिन्न नहीं होता
वह दृश्य देख कर जिसमें
एक कम उम्र लड़की को पहले
घुटनों पर गिराया गया खुली चौड़ी सड़क पर
फिर एक युवक दनदनाता हुआ आया
और जोर से उसकी पीठ पर लात जमा दी
दूसरे युवक ने मोटरसाइकिल से पार होते
एक राहगीर को निकल जाने को कहा
और वह भी बिना ताके निकल गया
फिर एक तीसरे युवक ने बंदूक तानी
और ठीक उस लड़की के माथे पर
गोली मार दी पीछे से
एक चौथा युवक इन सब का
वीडियो बना रहा था
वह लड़की लुढ़क गई तो वह आया
और फिर दनादन दाग दी गोलियाँ
उसके चेहरे पर
एक पाँचवाँ भी था जो इस दृश्य को
बाकायदा दर्ज कर रहा था
जाओ, तुम पता करो
ये लड़के नगा थे, कुकी थे या मैतेई
या ये थे कोई और
मैं तो यह दृश्य देख कर सन्न हूँ और
मुर्दे की तरह बेजान और ठंढा हो गया हूँ
उफ्फ तक कहने लायक नहीं बचा हूँ
जाओ, तुम्हीं पता करो और बताओ
वह लड़की नगा थी, कुकी थी या मैतेई
या कोई और
या बस एक बेटी थी
एक बेबस बाप की?
दो मिनट का मौन
सभा में वे आए तो
दो मिनट का मौन हुआ
फिर सबने जम कर
की कविताई
दो मिनट के
शोक के बाद सब कुछ
अशोक ही अशोक
सभा थी ही गदराई
राजस्थान, बंगाल,
बिहार, छतीसगढ़ पर
सबने चुप्पी जमाई
और मणिपुर पर
जम कर जुबान चलाई
इस तरह सबने
औरत के हक में अपनी
सुविचारित संवेदना जताई
और लेखक होने की
प्रतिबद्धता निभाई।
दुष्कर्म
इस देश में
किसी औरत की अस्मिता की
अहमियत क्या बस इतनी ही है?
दो दिन की राजनीति?
और उसकी पहचान
बस दलित, हिंदू या मुसलमान?
मेरी नजर में
इससे जघन्य दुष्कर्म
और कोई नहीं...
ही
इक्कीसवीं मंजिल से
जो गिरी थी
वो औरत नहीं
लाश
ही
थी
जो पच्चीस वर्षों से
उस देह में
दफ्न थी...
दैनंदिनी
कवि होने से ज्यादा
स्त्री होने का संबल है उनमें
बिंबों से ज्यादा
माथे का बल है उनमें
शिल्प से ज्यादा
संबधों का संतुलन है उनमें
भाषा से ज्यादा
दुखों का मौन है उनमें
अर्थ से ज्यादा
अस्तित्व का संधान है उनमें
वे कविताएँ नहीं
दैनंदिनी लिखती हैं अपनी।
प्रतिपक्ष
ओह, कितना कठिन है
सच बोल कर तने रहना
और कवियों की कतार में बने रहना
कितना कठिन है
सच को बार-बार दुहराते रहना
और आलोचकों की मार खाते रहना
कितना कठिन है
सच को सच में ओढ़ते-बिछाते रहना
और पाठकों से ज्यादा
खुद की नजरों में गिरनेसे
खुद को बचाते रहना
ओह, सच में कितना कठिन है
कविता में सच को सच में कहते रहना
और एक झूठे प्रतिपक्ष के खिलाफ
कविता में एक सच्चा प्रतिपक्ष रचते रहना!
अनिता महतो
वह सांवली थी
पर चेहरे पर चमक थी
मुझे तो वो
स्मिता पाटिल की माफिक लगती थीं
हम बारहवीं में थे
और वो हमें हिन्दी पढ़ाती थीं
चूंकि हम बड़े हो चुके थे
और उनकी भी उमर ज्यादा नहीं थी
हम खुल कर बतियाते
अक्सर वो कहतीं
मैं भी शर्मा वर्मा, पाण्डे सांडे, सिंह विंघ होती
तो आज स्कूल में नहीं
किसी कॉलेज यूनिवर्सिटी में पढ़ा रही होती
एक चंद्रभूषण उर्फ सी बी सिंह थे
कहते थे, यह उनकी उन्नीसवीं नौकरी है
वह भी क्या गजब की हिन्दी पढ़ाते थे
मानो फिजिक्स पढ़ा रहे हों
दोनों में पटती नहीं थी
वो अक्सर तंज कसती
ये यहां क्यों झक मार रहा है
इसके सिंह होने पर
मुझे पूरा शक है
मंचन
ब्रह्मा, विष्णु, महेश
नरेश, सुरेश, रमेश
मधु, मदन, नंदन, चंदन
सबके सब मय बेटा-बेटी-दामाद
उसी आवारा पूँजी के करोड़पति कारिंदे
जिसके विरोध में वे करते निशिदिन
धरना, प्रदर्शन, क्रंदन
और हर चार-छह महीने में
हो आते ऑस्ट्रेलिया, कनेडा, अमरीका
पेरिस टोकियो, बीजिंग, लंदन
लौट कर आते
मुस्काते बल खाते
और सीधे चढ़ जाते मंच पर
करते जनवादी मनन-चिंतन
वही वही दीर्घा
वही वही दर्शक
वही वही नाटक
वही वही मंचन
जोरू जनता एक बार फिर
करती जोर जोर से जैकारे
मौगा मंच एक बार फिर
बजाता जोर जोर से तालियाँ
धन्य हैं हम
धन्य हैं हम
धन्य हैं हमारे
धन्य हैं हमारे
ब्रह्मा, विष्णु, महेश
नरेश, सुरेश, रमेश
मधु, मदन, नंदन, चंदन
आपका कोटि कोटि अभिनंदन
आपका कोटि कोटि अभिनंदन!!
यही सच है
उन्हें रोटी के लिए जाति चाहिए
उन्हें मकान के लिए जाति चाहिए
उन्हें शिक्षा के लिए जाति चाहिए
उन्हें नौकरी के लिए जाति चाहिए
उन्हें अपनी पहचान के लिए जाति चाहिए
उन्हें अपनी मजबूती के लिए जाति चाहिए
उन्हें अपनी संपत्ति के लिए जाति चाहिए
उन्हें अपनी संतति के लिए जाति चाहिए
सच यही है कि समानता की
बातें चाहे जो जितनी कर ले
जाति कोई नहीं छोड़ना चाहता
जाति कोई नहीं मिटाना चाहता
क्योंकि उन्हें मालूम है
जाति के बिना उनका एका टूट जाएगा
जाति के बिना उनका ठेका छूट जाएगा
जाति के बिना उनका अस्तित्व मिट जाएगा।
पक्षपात
कोयल की कूक से
कविताएँ भरी पड़ी हैं
पर कोयल की क्रूरता पर
कितनी चुप्पी है!
कौआ बदनाम है
काँव काँव के लिए
लेकिन उसके भोलेपन का
कहीं कोई जिक्र नहीं!
आत्मतोष
संतोष है कि मैंने अपनी
जड़ों को भुलाया नहीं है
संतोष है कि मैंने अपने
लहू में विष मिलाया नहीं है
संतोष है कि मुझ पर
उनकी छाया नहीं है
संतोष है कि मुझे
उन जैसा होना आया नहीं है!
असहमति
सबसे पहले जो बात कहनी चाहिए थी
उसने सबसे आखिर में कही
सबसे पहले उसने कसीदे काढ़े
चरण वंदन किया, क्षमायाचना की
असहमति जताने की यह भूमिका
इतनी लंबी थी कि उसके सामने
असहमति बहुत बौनी लगी
और इससे भी ज्यादा कि
बौद्धिक कहलाने की यह विधा
बहुत घिनौनी लगी!
तरफदारी
चूँकि
आप उस तरफ हैं
इसलिए
मैं आपको
इस तरफ नजर आता हूँ!
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
संपर्क
जे-2/406, रिज़र्व बैंक अधिकारी आवास,
गोकुल धाम
गोरेगांव (पूर्व)
मुंबई-400063
मोबाइल - 9429608159
वैचारिक दोहरेपन को उजागर करती मारक कविताएं...!
जवाब देंहटाएंवैचारिक दोहरेपन को उजागर करती मारक कविताएं...! ही कविता स्त्री संवेदना का चरम है!
जवाब देंहटाएंबहुत मारक कविताएं है।
जवाब देंहटाएंमजा आ गया।❤️