सुभाष पंत से आशीष सिंह की बातचीत

 

सुभाष पंत 


कल 7 अप्रैल 2025 को प्रख्यात कथाकार सुभाष पंत के न रहने की खबर मिली। हिंदी की नई कहानी आंदोलन के प्रमुख हस्ताक्षर सुभाष पंत पिछले पांच दशकों से निरंतर रचना-कर्म में सक्रिय थे। सुभाष पंत मूलतः वैज्ञानिक थे। उन्होंने सन् 1961 में भारतीय वन अनुसंधान (एफ.आर.) डॉक्युमेंट्री से अपने राजकीय सेवा की शुरुआत की थी और सन् 1991 में भारतीय वन अनुसंधान एवं शिक्षा परिषद् कम्पनियों के।वरिष्ठ वैज्ञानिक पद से वे सेवानिवृत्त हुए। उनकी पहली कहानी 'गाय का दूध' वर्ष 1973 में 'सारिका' के विशेषांक में प्रकाशित हुई थी और काफी चर्चित हुई। इस कहानी का अंग्रेजी सहित कई भाषाओं में अनुवाद हुआ एक दौर में वह रंगकर्म से भी जुड़े रहे। सुभाष जी को पहली बार की तरफ से नमन और हार्दिक श्रद्धांजलि। युवा आलोचक आशीष सिंह ने पिछले दिनों सुभाष पंत से एक लम्बी बातचीत किया था। उनकी टिप्पणी के साथ हम आज पहली बार पर इस बातचीत को प्रस्तुत कर रहे हैं।

 


कहानीकार उपन्यासकार सुभाष पन्त नहीं रहे। जब से यह खबर मिली है मन विचलित है। विजय गौड़ के  के बाद सुभाष जी के निधन ने देहरादून की ओर जाने का जो आकर्षण था कम हो गया है। अभी पिछले दिसम्बर जनवरी में ही उनके सद्य: प्रकाशित उपन्यास 'एक रात का फासला' को ले कर तमाम बातचीत हुई थी। तब भी उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं था लेकिन 'परिकथा' के शंकर जी और मेरे प्रयास को प्रोत्साहित करते हुए बीच-बीच में समय निकाल कर जवाब साझा किया। इन्हीं बातचीत के बीच मैंने उनसे कहा कोई सवाल दिक्कततलब लग रहा हो तो बताइएगा। उनका जो जवाब मिला आज सुबह से मेरे कानों में गूंज रहा है 'आशीष सवाल कभी भी ग़लत नहीं होते हैं, सवाल हमेशा जरूरी होते हैं हम उनका उत्तर कैसे देते हैं यह ज्यादा महत्वपूर्ण है।' तलछट की जिंदगी जीने वालों की जिजीविषा, जद्दोजहद को अपनी कहानी का विषय बनाने वाले सुभाष पन्त समान्तर कहानी आंदोलन के महत्वपूर्ण कहानीकार रहे हैं। उनकी पहली कहानी 'गाय का दूध' सारिका (1973) के एक विशेष अंक में प्रकाशित हुई थी। इस कहानी से शुरू हुई उनकी रचनात्मक यात्रा रंगकर्म, कथा लेखन और सम्पादन की दुनिया में सक्रिय भागीदारी की रही है। सिंगिंग बेल, एक का पहाड़ा, इक्कीसवीं सदी की एक दिलचस्प दौड़, पहाड़ की सुबह, मुन्नीबाई की प्रार्थना, जैसी चर्चित कहानियां हैं तो सुबह का भूला, पहाड़ चोर, और एक रात का फासला जैसे उपन्यास भी हैं।      

'एक रात का फासला' अभी पिछले साल अद्विक प्रकाशन से प्रकाशित हुआ था। प्रकाशन क्रम में आखिरी उपन्यास होने के बावजूद रचनाक्रम में यह उनका शुरूआती उपन्यास है। उसकी अपनी एक अलग कहानी है। हम लोगों ने अपनी बातचीत की शुरुआत इसी आखिरी और पहले उपन्यास से की थी जिसे परिकथा ने "आज के उपन्यास" स्तम्भ में प्रकाशित किया था। अभी उनकी कहानियों और दूसरे उपन्यासों व रचनात्मक यात्रा को ले कर बातचीत करनी थी। इस बार मई-जून में उनसे मिल कर बातें करनी थी, लेकिन अब हमारे पास जवाब देने के लिए उनसे हुई बातचीत, आवाज़ और रचनाएं हैं। एक रचनाकार अपनी सारी उत्सुकताएं, आकांक्षा और जवाब अपनी रचनाओं के तमाम पात्रों के जरिए दर्ज करता रहता है। एक लम्बी रचनात्मक यात्रा करते हुए हमारे बीच जब कोई साहित्यिक जा रहा होता है तो मन में सवाल तो उठते ही है , यह काश! लगातार पीछा करता है और जब भी उन रचनाओं, पात्रों के बीच से गुजर रहे होंगे बार बार याद आयेगी। कथाकार ज्ञानरंजन उनके बारे कहते हैं कि "भरपूर कहानीपन के साथ पाठक की प्यास बुझाने वाले कथाकार अब हिन्दी में विरल हैं। आधुनिक टुकड़ों में कहानी सजाने वाले बढ़ रहे हैं और उनकी दुनिया भी बढ़ रही है - इस तरह कहानी की प्राचीनता पर खतरा मंडरा रहा है। इससे विपरीत सुभाष पंत की कहानियां उजालों से भरी हैं। कई बार लगता है हम डूब जाएंगे पर उम्मीदें समुद्री लहरों की तरह लौटती हैं। मैंने महसूस किया है कि उनकी कहानियां हमें अवसाद मुक्त कर रही हैं।"        

कहानी प्राचीन शैली में आधुनिक जीवन की विडम्बनाएं दर्ज करते रहने वाले, जनपक्षधर कथाकार सुभाष पन्त की याद बार-बार आयेगी। उन्हें याद करते हुए हम आपके लिए उनसे हुई बातचीत पुनः साझा कर रहे हैं। 

आशीष सिंह



वरिष्ठ कथाकार सुभाष पन्त से आशीष सिंह की बातचीत 



आशीष सिंह : कहानी या उपन्यास चुनने का आधार को एक लेखक के तौर पर आप कैसे देखते हैं? या आप किस आधार पर अपने विषय को कथा के इन अलग-अलग प्रारूपों में प्रस्तुत करने की ओर बढ़ते हैं?

सुभाष पंत : जब लगता है कि वह जीवन अनुभव, जिसे मुझे अपने सजग पाठको के साथ साझा करना है, सीमित शब्दों में व्यक्त किया जा सकता है, वह चाहे एक क्षण का अनुभव हो, अथवा जीवन की लम्बी अवधि का अनुभव हो, तो मैं कहानी का फार्मेट चुनता हूं। एक क्षण के अनुभव पर तो हिन्दी में अनेक और महत्वपूर्ण कहानियां लिखी गईं हैं, मेरी भी बहुत सी कहानियां हैं। लेकिन दशकों के अनुभव को एक कहानी में समेटने की बात अविश्वसनीय और चौंकाने वाली लग सकती है। लेकिन मैंने ऐसी अनेक कहानियां लिखी हैं उदाहरण के तौर पर ’पहल’ के कहानी विशेषांक में प्रकाशित कहानी (अब, मेरे 'लेकिन वह फाइल बंद हो चुकी है' संकलन में शामिल) 'सीता हसीना के साथ एक सम्वाद’ को देखा जा सकता है, जिस पर ’उद्भावना’ और ’परिकथा’ ने विशद चर्चा कराई थी। वार्ताकारों के अनुसार ’कहानी ज्यादा बड़ी नहीं है लेकिन अपने छोटे कलेवर में ही पिछले लगभग सत्तर साल की भारतीय राजनीति की अंतरयात्रा.की सबसे केन्द्रीय झलक देती चलती है (उद्भावना)। ’सीता हसीना के साथ एक सम्वाद’ एक विचलित कर देने वाली कहानी है, जिसे पढ़ कर नकली राष्ट्रवाद का क्रूरतम चेहरा सामने आता है, जो विभाजन के बाद से शुरु हो कर शाहीनबाग तक अपना असर दिखाता है (परिकथा)।

  

जब  विशद जीवन की सच्चाई को अभिव्यक्त करना होता है, तो मुझे कहानी की जगह उपन्यास का फार्मेट चुनना होता है। एक रपट में चूना खदान से मोचियों के छोटे से गांव के नष्ट हो जाने की थकी सी जानकारी ने मुझे उनके दुख-दर्द, आशा-आकांक्षा, संघर्ष और विनाश की कहानी लिखने के लिए बेचैन कर दिया था। जाहिर है, यह सब कुछ एक कहानी में नहीं समेटा जा सकता था। इसे समेटने के लिए मुझे ’पहाड़चोर’ जैसा बड़ा उपन्यास लिखना पड़ा।

   

वास्तविकता तो यह कि कथ्य खुद अपना फार्मेट चुनता है और लेखक उसकी कठपुतली है, जो उसके इशारे पर नाचती है।


    

आशीष सिंह : एक लेखक लिख कर अपनी सामाजिक भूमिका का निर्वहन करता है या एक लेखक अपने समय को दर्ज़ किये बगैर रह नहीं पाता? साहित्य में  अनुभव बनाम सामाजिक ज़रूरत के सवाल को आप कैसे देखते हैं। खासकर कथा जगत में।  सन् सत्तर-अस्सी के दौरान  'अनुभव की प्रामाणिकता' , 'साहित्य की परिवर्तनकारी भूमिका' जैसे तमाम सवाल साहित्यिक जगत में बहस तलब थे जबकि आज साहित्यिक जगत में ऐसी बहसों को ले कर लगभग सन्नाटा है। ऐसे सवालों को आप कैसे देखते रहे हैं?

सुभाष पंत : लेखक एक सामाजिक प्राणी है। वह समाज से ही सब कुछ प्राप्त करता है। उसका दायित्व है कि समाज से प्राप्त के एवज में वह उसका उसका मूल्य चुकाए। वह समाज के यथार्थ की आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक चेतना को अभिव्यक्त करने के साथ अपने वक्त के सवाल उठा कर उसका मूल्य चुकाता है। एक रूसी समीक्षक का कथन है- ’महत्वपूर्ण कृतियां अपने समय का सवाल होती हैं, या फिर उनका जवाब’। यथार्थ कोई ठोस अवधारणा नहीं है। उसकी विभिन्न परतें होती है। एक ही यथार्थ में रहते हुए भी हाशिए के आदमी का यथार्थ, मघ्यवर्गीय आदमी के यथार्थ से और उसी तरह मघ्यवर्गीय से उच्च वर्ग का यथार्थ भिन्न होता हैं। यहां सवाल लेखकीय दृष्टि का है, वह किसके यथार्थ के साथ है। वह जिसके यथार्थ के साथ होगा, उसके यथार्थ से ही जीवन अनुभव, संवेदनशीलता या संवेदनहीनता प्राप्त करके अपने साहित्य का सृजन करेगा।

   

यथार्थ समय सापेक्ष है। वह समय की गति के साथ बदलता रहता है। उसी के साथ मनुष्य की चेतना, जीवन शैली, मूल्य आदि भी परिवर्तित होते चले जाते हैं। यह परिवर्तन वस्तुनिष्ठ ढंग से इतिहास में और संवेदनशीलता के साथ साहित्य में दर्ज होता है। इस तरह साहित्य का सर्जक, लेखक अपने समय से बाहर नहीं हो सकता। वह अपने अनुभवों के साथ अपने समय को भी अभिव्यक्त करता है।



आशीष सिंह : 'यह क्लासिक लिखने का समय नहीं है।' आपके एक साक्षात्कार में यह वाक्य पढ़ने को मिला। आधुनिक तकनीकी युग में साहित्य की भूमिका व प्रारूपों की भूमिका क्या बदल रही है? क्या आपको लगता है कि व्यापक फलक को समेट कर चलने वाले उपन्यासों का दौर अब सिकुड़ रहा है। क्या यह कहानी का युग है। 'क्लासिक रचना' से सम्बन्धित सवाल को हम औत्सुक्य हो कर देख रहे हैं, इसके पर्याय को समझना चाहते हैं।  आपके इस कथन को किस तरह देखा जाए? इस सवाल को थोड़ा और विस्तारित कर सकें तो अच्छा रहेगा।

सुभाष पंत : इस सवाल को फिलहाल छोड़ा जा सकता है। यह अलग से बहस की मांग करता है और इस उपन्यास के साथ उस बहस का कोई औचित्य नहीं है।




आशीष सिंह : 'एक रात का फासला' आपका ताजा उपन्यास है। जबकि इसकी पृष्ठभूमि पुरानी है। कहते हैं कि कोई कथा महज़ कथानक से नहीं बल्कि अपने मर्म और आन्तरिक संगति के चलते अपने पाठकों के निकट बनी रहती है। 'एक रात का फासला' की स्त्री संघर्ष गाथा ही इसे नया बनाती है। क्या यह आपका शुरुआती उपन्यास है? इस उपन्यास के रचे जाने की पृष्ठभूमि क्या है? भूमिका में आप बता रहे हैं कि इसे किसी पत्रिका में धारावाहिक प्रकाशित किया जा रहा था बाद में किन्हीं कारणों से लिखा जाना अवरुद्ध हो गया? एक लम्बे समय तक मानस पटल पर रची जा रही रचना कागजों पर उतरते समय कितना बदल चुकी होती है या नहीं? क्या इस उपन्यास के सम्बन्ध में भी ऐसी कोई बात है? ज्यादा अच्छा रहेगा हमारी बातचीत की शुरुआत इस उपन्यास की रचना प्रक्रिया से ही हो। इससे इसकी पृष्ठभूमि समझने का मौका मिलेगा। 

सुभाष पंत :  इस उपन्यास का समय आजादी के कुछ बाद का है, जिसकी अवधि लगभग एक साल है। उसके कुछ अर्से बाद रियासतों के देश में विलय के साथ सामन्तवाद का अन्त मान लिया गया। यह एक चौंकाने वाली बात है कि मैंने वित्तीय पूंजीवाद के इस दौर में अपने उपन्यास के लिए वह समय चुना, जो कुछ ही समय बाद खत्म होने वाला था। इसका एक बहुत सीधा सा जवाब तो यह है कि कुछ अपवादों को छोड़ दें तो स्त्री के लिए सामन्तवाद आज भी जिन्दा है। खाप पंचायते हैं, सामाजिक मुल्य हैं, धार्मिक मान्यताएं हैं और उसके सिर पर पारिवारिक सामन्त है। उसे चूड़ी और पायल पहनाई जाती है, ताकि उनकी खनक और छनक से उसकी निगरानी रखी जाए।

   

यह स्त्री केन्द्रित उपन्यास है। सबसे पहले मैं नकटी मौसी के चयन के विषय में एक अनुभव साझा करना चाहता हूं। हमारे गांवों, कस्बों और शहर में कुछ पहाड़ी औरते भीख मांगने के लिए आया करती थी। वे औरतें कोढ़ जैसे किसी रोग से ग्रसित होने की जगह स्वस्थ होती थी, लेकिन उनकी नाक नहीं होती थी और उनमें भीख मांगने की कला का भी अभाव होता था। उन दिनों भिखारियों के प्रति लोग दयालू होते थे, उन्हें हर घर से कुछ न कुछ भीख मिल जाती थी। लेकिन इन नकटी औरतों के प्रति लोग बहुत निर्मम थे, उन्हें भीख की जगह दुत्कार मिलती थी। पता चला कि वे व्यभिचारणी औरते हैं, सजा के तौर पर उनका नाक काट कर उन्हें गांव से बाहर निकाल दिया गया है। यहां मन में एक सवाल उठा कि अगर ये व्यभिचारणी हैं तो व्यभिचार किसी आदमी के साथ किया होगा। वह भी व्यभिचार का हिस्सेदार है। उसका नाक काट कर कर उसे गांव से बाहर क्यों नहीं किया गया? यह अमानवीय प्रथा कब शुरु हुई होगी। इसका दस्तावेज मुझे नहीं मिला, सिवा इस जानकारी के कि शायद सबसे पहले भगवान राम की अनुमति से लक्ष्मण ने सूर्पणखां का नाक काटा था, जिसका अपराध बस यही था कि उसने प्रणयनिवेदन किया था। ऐसी औरतों के लिए समाज में कोई जगह नहीं होती, सिवा साहित्य के जो उनकी करुणा को वाणी देता है। तब मैं नहीं जानता था, मैं कभी लिखने-विखने भी लगूंगा। लेकिन इस प्रथा के बंद हो जाने के बाद भी, ये चरित्र मेरे अवचेतन में खलबली मचाते रहे।

   

जहां तक उपन्यास की पृष्ठभूमि का सवाल है, इसके पीछे सिर्फ एक फुसफुसाहट है। यह 1959-60 की बात है। जमींदारियां टूट गई थी, लेकिन जमींदार और उनके खौफ जिन्दा थे। बी. एससी. में मेरे साथ एक लड़के ने प्रवेश लिया था। उसे देख कर कोई मेरे कान में फुसफुसाया था- जमींदार का लड़का सच्ची है। इनके मातहतो में ब्याह के बाद दुल्हन की पहली रात जमींदार की रात होती है। यह बात सुन कर मैं बेचैन हो गया था और मैंने तय कर लिया था कि परिचय के बाद सच्ची से इस मामले में बात करूंगा। लेकिन मुझे यह अवसर कभी नहीं मिला। सच्ची मुश्किल से आठ-दस दिन ही कालेज आया। उसे बाहर के किसी बड़े विश्वविद्यालय मे प्रवेश मिल गया था। वह शहर छोड़ गया। मैं उससे बात नहीं कर पाया। मैं तब एक्टिविस्ट नहीं था और न ही  लेखक । लेकिन मेरे कान में की गई वह फुसफुसाहट मेरे भीतर जिन्दा रही और मुझे आहत करती रही। मैं एक्टिविस्ट तो नहीं हो सका, जो मनुष्यों के दिलों में कहानियां लिखते हैं। कागजों पर कहानियां लिखने वाला लेखक हो गया। यह उपन्यास वही फुसफुसाहट है। 

  

मेरी रचना प्रक्रिया अजीब सी है। कोई आइडिया विद्युत तरंग की तरह मेरे मस्तिष्क में कौंधता है, अकसर ऐसा विचार या मोटे तौर पर उसे थीम कह सकते हैं, मस्तिष्क में तब कौंधता है, जब मैं गति में होता हूं। मैं उस थीम पर तुरन्त लिखना शुरु नहीं करता। वह मेरे अवचेतन में चला जाता है। बहुत समय तक वह मानस में उथल-पुथल मचा कर कागज पर उतरता है, और ठीक वैसा नहीं जैसा सोचा गया था। बड़ी रचना के लिए भी मैं कोई तैयारी नहीं करता। नोट्स वगैरह कुछ नहीं लेता। मेरे पास उसका कोई फीडबैक भी नहीं होता। मेरे सामने किसी रास्ते की जगह झाड़-झकाड़ भरा जंगल होता है। झाड़-झंकाड़ साफ कर के रचना के लिए रास्ता बनाता हूं। जितना रास्ता बन जाता है, उतनी कहानी लिख लेता हूं। इस तरह मेरी बड़ी रचनाएं अलग अलग कहानियां होती हैं, जिनमें एक सिलसिला और आंतरिक लय होती है और जो आपस में ऐसे जुड़ी रहती हैं कि उनके जोड़ का पता नही चलता। 

   

अगर किसी वजह से पत्रिका में उपन्यास धारावाहिक चलता रहता और तब इसका लिखा जाना रुकता नहीं तो निश्चय ही इसका स्वरूप बदल जाता। लेखन में समय का बहुत मतलब होता है।


  

आशीष सिंह : 'एक रात का फासला' में 'चम्पा' एक संघर्षशील स्त्री चरित्र के रूप में सामने है। इसमें स्त्रियों को, उनके संघर्षों को प्रमुखता से सामने रखा गया है। क्या विमर्श की चालू प्रविधि के समानांतर एक सायास संघर्षशील स्त्री का चरित्र सामने लाने की कोशिश है यहां? आखिर वे क्या वजहें रहीं होंगी जिसने आपके लेखकीय मानस में चालू प्रचलन से अलग स्त्री चरित्र खड़ा करने की कामना जनमीं  होगी?   

सुभाष पंत : स्त्रियों ने जो कुछ भी पाया है, वह संघर्ष कर के पाया है। उसने शिक्षा, प्रेमी, प्रेम-विजातीय और विधवा विवाह, नौकरी वगैरह हर चीज के लिए संघर्ष किए हैं और कुर्बानियां दी हैं। जब शिक्षा प्राप्त करने के बाद उनके हाथ में  लिखने की ताकत आई, तो उन्होंने इन संघर्षों को अपनी रचनाओं में अभिव्यक्त किया। नई कहानियों में महिला कथाकारों का यह मुख्य थीम था। इन रचनाओं में मध्यवर्गीय नागरी महिलाओं के संघर्ष हैं। गंवई औरतों के संघर्ष नहीं है और हाशिए की औरत तो इन कहानियों में लगभग गायब हैं, सिवा उनकी कामवालियों के संघर्षों के, जिनके पति निर्दय और शराबी होते हैं और अपनी औरतों से मारपीट कर पैसा छीन लेते हैं। ऐसी अधिकतर रचनाएं एकांगी और टाइप्ड कहानियां हैं। प्रेम चुनाव नहीं करता, वह कहीं भी हो सकता हैं, कामवालियों के दाम्पत्य में भी, जिसे ऐसी रचनाओं में अनुपस्थित मान लिया गया है।

   

स्त्री-विमर्श के दौर में सुरक्षित और आर्थिक रूप से सम्पन्न स्त्री की स्वतंत्र जीवन की महत्वाकांक्षा, यौन स्वतंत्रता, अहम की टकराहट, देह पर अधिकार, परम्परागत विवाह की ऊब, लिवइन रिलेशनशिप वगैरह की रचनाएं आईं। इन पर कोई टिप्पणी करना मेरा नहीं, पाठकों का अधिकार है। लेकिन कई बार ऐसा अनुभव होता है कि विमर्शकारों ने स्त्रियों से, ऐसी रचनाएं लिखवा लीं, जैसा वे खुद लिखना चाहते थे। इन रचनाओं में भी गांव की महिलाएं मजदूर और हाशिए की औरते कहीं नहीं है। मैंने इनके बरक्स अपने इस उपन्यास में गांव की एक संघर्षशील महिला को उसकी पूरी सम्भावनाओं के साथ प्रस्तुत किया है। ऐसी महिलाएं होती हैं, जीवन में भी और इतिहास में भी। अधिक दूर न जाएं तो प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी का ही उदाहरण ले लें, उससे अधिक शक्तिशाली अब तक कोई और प्रधान मंत्री नहीं हुआ। इतिहास अपनी नायिकाओं की गाथा लिखता है। साहित्य सामान्य जीवन की ऐसी महिलाओं की गाथा लिखने में बेरहमी दिखाता है। मैंने सिर्फ साहित्य की इस बेरहमी को तोड़ने की कोशिश की है, और साहित्य के केन्द्र में करुणा के स्थान पर संघर्ष को वरीयता दी है। करुणा हमारी  भावनाओं का विरेचन कर के हमारे मनोजगत को विश्रान्त करती है। हमें आगे नहीं ले जाती। वह द्रवित तो करती है, लेकिन पाठक के भीतर बदलाव का कोई आवेग पैदा नहीं करती। जीवन सिर्फ संघर्ष से बदलता है।



आशीष सिंह : सुभाष जी! 'एक रात का फासला' जिस दौरान लिखा जा रहा था हिन्दी कहानी या उपन्यास में स्त्री पात्रों के संघर्ष व चरित्र को अन्य लेखक/लेखिकाएं (निरुपमा सेवती, मालती जोशी आदि) किस तरह से देख रही थीं और उनसे भिन्न इस सवाल को कैसे देख रहे थे?  


सुभाष पंत :  यह आजादी के कुछ अर्से के बाद की कहानी है। इसके पात्रों में विभाजन के बाद की महिलाओं के संकट भी समाहित हैं। मुझे नहीं मालूम कि मालती जोशी या निरुपमा सेवती ने तब लिखना शुरु किया था या नहीं, 'नई कहानी' भी तब अस्तित्व में नहीं आई थी। लेखिकाओं ने उस और आगे के दौर में पितृसत्तात्मक व्यवस्था में नारी के संकटों के विषय में लिखना आरम्भ किया था। ये कहानियां मध्यम वर्ग की महिलाओं के गिर्द ही घूमती रहीं, निम्न वर्ग और हाशिए की औरतें इनसे लगभग अनुपस्थित रहीं। हाशिए और निम्न वर्ग की महिलाओं के संकटों के विषय में तो दलित लेखकों ने भी, दलितो में भी दलित महिलाओं की उपेक्षा की। अपनी कहानियां लिखने के लिए इस वर्ग की महिलाओं को खुद अपने हाथ में कलम लेनी पड़ी। लेखकों ने सामान्य रूप से स्त्रियों के प्रति निरंतर अनुदार रुख अपनाया है। वह उसे ऐसी नायिकाओं की पोशाक पहनाने के लिए तैयार नहीं हुआ, जिनकी आकांक्षाएं, अपने में सिमटी हुई न हों। उनमें चांद छूने की तमन्ना न हो, समाज में बदलाव लाने का जज्बा हो। साहित्य के इस महाशून्य को भरने के लिए, ऐसी रचना लिखना मुझे आवश्यक लगा, जिसमें मुख्य भूमिकाएं स्त्रियों की हो। इस उपन्यास की केन्द्रीय पात्र' चम्पा' निम्नमध्यवर्गीय है और वह अपनी लड़ाई नहीं, एक जघन्य प्रथा की समाप्ति के लिए, वैसे ही लड़ रही है, जैसे स्वतंत्रता की लड़ाई में अपनी सीमा का विस्तार करके अनेक महिलाएं देश के लिए लड़ी थी। साहित्य का दायित्व यथा स्थिति को अभिव्यक्त करना भर ही नहीं है, मनुष्य के हक के लिए उसे बदलने की भूमिका का निर्माण करने, और नए मनुष्य का सृजन करने के प्रयासों का भी है। 

     



आशीष सिंह : लगभग तीन पीढ़ियों की स्त्रियों की संघर्ष गाथा को इस उपन्यास में पिरोया गया है। नकटी बुढ़िया जो अपना पुराना नाम और पहचान है, वह खो चुकी है। राजेसुरी और चम्पा हैं। वास्तव में स्त्रियों की भूमिका मुख्य है। उपन्यास के कथानक की  बुनावट गौरतलब है। पाठकों की उत्सुकता जगाता हुआ तो वहीं  एक जद्दोजहद भरी लम्बी यात्रा भी है। अलग-अलग हिस्सों की कहानी भी। अलग-अलग उप-शीर्षकों में बंटे अध्यायों को पढ़ते हुए लग रहा था हम एक लम्बी कहानी से गुजर रहे हैं?  क्या नहीं?     

सुभाष पंत : आप ने ठीक कहा है। उपन्यास में तीन मुख्य स्त्री पात्र है। राजेसुरी और चम्पा दो पीढ़ियों का प्रतिनिधित्व करती हैं। उनके बीच सास और बहू का रिश्ता है, जिसे घर के आंगन में विवाह की डोली पहुंचते ही चम्पा तोड़ देती है। वे दोनों अपने विवाह की पहली रात एक ही भयावह हादसे का शिकार हुई हैं, जिसे राजेसुरी एक रीत की तरह निभा कर अपने घर की देहली में प्रवेश करती है- 'जो कुछ तूने सहा, मैंने भी सहा। एक फोड़ा था जो पका, धपधपाया और फूट गया। मैं तेरी तरह बौखलाई नहीं। चुप रही। कलेजे पर पत्थर रखा, खराब सपने की तरह उसे भूल गई, और रीत निभाई। यही रीत है। दुल्हन की डोली एक दिन बाद आती है।’ चम्पा इसे नहीं सहती- ’आप चुप रहीं, तभी यह मेरे साथ हुआ। मैं चुप रही तो अगली बहुओं के साथ भी वैसा ही होगा। और जिसे आप मेरा मर्द कह रहीं, उसके हाथ की ऐसी तलवार का क्या फायदा जो उस वक्त बाहर न निकले, जब उसे बाहर निकलना चाहिए। देवताओं की सौगंध है, मैं इस घर में कदम नहीं रखूंगी। ये मेरा घर नहीं है। कभी भी नहीं होगा।’ चम्पा ओझा की क्रूर यातनाएं सह कर अपने मायके वापिस कर दी जाती है। इस तरह सास-बहू, दो ध्रुव निर्मित हो जाते हैं। लेकिन परम्परागत कहानियों की तरह वे एक दूसरे के शत्रु नहीं हैं। उपन्यास सम्बंधों की एक नई इबारत लिखता है। राजेसुरी की अंतरात्मा जागती है, और वह चम्पा की सहयोगी हो कर  इस घिनौनी प्रथा के खिलाफ लड़ाई में सह नायिका की भूमिकाएं निबाहती है।  


उपन्यास की तीसरी पात्र नकटी बुढ़िया है, जो अपना नाम और पहचान खो चुकी है। वह पहाड़ की औरत है, जिसके साथ बलात्कार हुआ है। दबंग और सयाने लोग उसे ही दोषी और कुल्टा सिद्ध कर के सजा के तौर पर उसकी नाक काट लेते हैं। वह लोक-लाज में अपना पहाड़ और गांव छोड़ कर इस शहर में पहुंच जाती है। लेकिन भिखारिन होने के बावजूद वह गर्भिणी और नकटी है, उसे एक मोची अपना लेता है, जो अपनी पत्नी की असमय मृत्यु के बाद औरत के महत्व को समझता है, उसे घर मिल जाता है, जो कालान्तर में चम्पा का भी शरण-स्थल बनता है। 

   

रचना प्रक्रिया में मैं स्पष्ट कर चुका हूं कि मेरी बड़ी रचनाएं अलग-अलग कही कहानियां होती हैं, जो रेलगाड़ी के डिब्बों की तरह आपस में जुड़ी रहती हैं। हर कहानी का अपना एक अंदाज होता है, जो पाठक को अगली कहानी पढ़ने के लिए उत्सुक और कई मर्तबा बेचैन भी कर देता है। ये प्रताड़ित और उपेक्षित स्त्रियों की कहानियां है, इसलिए उपन्यास का कथानक जद्दोजहद भरी लम्बी यात्रा का अहसास कराता है। वैसे भी कहानी अभिव्यक्ति का सर्वोच्च माध्यम है। समाज में हर आदमी के पास, जिसके पास जुबान है, चाहे वह शिक्षित हो या अशिक्षित हो, अपने दुःख-सुख, जय-पराजय, न्याय-अन्याय, प्रेम-विरह वगैरह वगैरह, जितनी भी मानवीय स्थितियां हैं, सभी की लाजवाब कहानियां होती हैं। जिसका भी मन टटोलो वह अपनी बात कहानी में ही कहेगा। एक नए अंदाज और भंगिमा में। मनुष्य कविता सीखता है, कहानी वह स्वाभाविकरूप से कहता है। इसके अतिरिक्त कहानी-कविता, काव्य, महाकाव्य, उपन्यास, नाटक, सिनेमा वगैरह में सभी जगह है। इसलिए मैं सिलसिलेवार कहानियों के माध्यम से उपन्यास लिखने को तरजीह देता हूं। इस प्रविधि को अपना कर मैं अनेक फालतू विवरण देने से, बच जाता हूं, जो पाठक के लिए उबाऊ हो सकते हैं।


   

आशीष सिंह : एक स्त्री ही एक स्त्री के दर्द को समझ सकती है। उपन्यास पढ़ते हुए ज्यों-ज्यों हम उसके बीहड़ यथार्थ से गुजरते जाते हैं यह बात लगातार और स्पष्ट होती जाती है। क्या स्त्री पात्रों की सबल व संवेदनशील उपस्थिति उपन्यास में इसलिए भी है कि स्त्रियों के नजरिए से पितृसत्तात्मक, रुढ़िबद्ध समाज की शृंखलाओं को निकट से दिखाया जा सके?   

सुभाष पंत :  जिस तरह एक कैंसरग्रस्त रोगी ही, दूसरे कैंसरग्रस्त रोगी की यातना को समझ सकता है, वैसे ही स्त्री की पीड़ा को स्त्री ही समझ सकती है, क्योंकि वे एक ही तरह की स्थिति से गुजर रही होती हैं। दलित विमर्श में भी यह सवाल उठा था कि दलित ही दलित के दर्द को समझ सकता है। यह बहुत मौजू सवाल था। जिसके जवाब में बहुत व्यर्थ से तर्क प्रस्तुत किए गए-तब तो घोड़े की कहानी सिर्फ घोड़ा ही लिखेगा वगैरह। लेकिन वास्तविकता यही है, भुक्तभोगी ही भुक्तभोगी की व्यथा को समझ सकता है। मैं भी स्त्री केन्द्रित इस उपन्यास की स्त्रियों के दर्द को उतना ही समझ सका, जितना मेरे भीतर बैठी स्त्री अनुभव कर सकी। लेकिन मैंने उनकी आंतंरिक शक्ति को पहचाना है, और शायद उतना पहचाना, जिसके विषय में वे खुद भी अनभिज्ञ हैं। यह स्त्री की दुखान्तिकी की गाथा नहीं, उसकी शक्ति का आख्यान है। उपन्यास कैसा है, मैं नहीं जानता। इसे पाठक और समीक्षक तय करेंगे।  लेकिन यह संभव नहीं है कि महिलाएं इसे पढ़ते हुए अपने को बदलता हुआ अनुभव न करे।

   

पितृसत्तात्मक समाज ने स्त्रियों को दोयम दर्जे में रखा है। समाज की सारी पवित्रताओं की धारणा स्त्री के शरीर से शुरु हो कर स्त्री के शरीर पर ही समाप्त होती है। वह उसे इस्तेमाल की वस्तु या मंदिर की मूर्ति बनाए रखना चाहता है। आज की औरत के पास बहुत अधिकार है, जो उन्होंने लड़कर पाए है या कानून और विज्ञान की तकनीक ने उन्हें दिए हैं। बावजूद इसके बड़े पैमाने पर पितृसत्तात्मक अहंकार अभी भी जीवित है। अगर कानून आडे न आता तो वह अब भी अपनी विधवाओं को सतियां बनाने में कोई कसर न छोड़ता। कानून की अवहेलना करके आज भी कोई विधवा सती बना दी जाती है, तो उसका मंदिर बन जाता है और हर वर्ष वहां मेले लगते हैं। यह पुरुष मानसिकता है। जाहिर है स्त्री की जब कोई कहानी लिखी जाएगी तो उसमें पितृसत्तात्मक समाज की औरतों के लिए बनाई बेड़ियां अवश्य दिखाई देंगी। बहरहाल यह गाथा तो उस वक्त की है, जब स्त्रियां अधिकारहीन थीं। एक सकारात्मक प्रथा को कैसे स्त्री के शोषण की प्रथा में बदल दिया जाता है, यह उसकी एक जीवन्त उदाहरण है।

 

उन दिनों यातायात के साधन बहुत कम थे और वे इतने गतिशील भी नहीं थे। दूर गांव में ब्याही स्त्री को अपने आकस्मिक संकट, जिसका निदान समय खोए बिना होना चाहिए, की जानकारी अपने मायके पहुंचाने में बहुत वक्त लगता था। इस संकट को दूर करने के लिए व्यवस्था बनाई गई कि लड़की की डोली पहले दिन गांव के चौधरी, जमींदार जैसे समर्थ व्यक्ति के घर उतारी जाए, जो उसके धर्मपिता की भूमिका निबाहते हुए अगले दिन उसे अपने घर से उसके पति के घर विदा करता था। इस तरह लड़की को अपने दुख-सुख साझा करने और उसके संभावित निदान करने के लिए अपने ससुराल में ही पिता मिल जाता था। कालान्तर में स्त्री शरीर के आकर्षण में यह धर्म पिता ही अपनी धर्म बेटी की पहली रात पर डाका डालने लगा। मंदिर के पुजारी ने इसे रवायत बना दिया। शिकार की गई महिलाओं ने दाम्पत्य आरम्भ होने से पहले उसके लड़खड़ा कर गिर जाने के भय से मुंह नहीं खोला। वे इस कड़वे और जहरीले घूंट को पी कर मौन यंत्रणा को झेलती रहीं। चम्पा ने पहली बार इसके खिलाफ आवाज उठाई और अपने दाम्पत्य पर लात मार दी। 



  

आशीष सिंह :  'चम्पा' जो कि उपन्यास की मुख्य चरित्र है का गठन उसे नायकत्व प्रदान करता है। पारिवारिक, सामाजिक जद्दोजहद से अनथक जूझते ऐसे चरित्र को देखकर क्या आज आप को लगता है कि यह  चरित्र का आदर्श स्वरूप लिए हुए है। जीवन हर क़दम पर एक नयी राह की ओर क़दम बढ़ाते दिखता है। जीवन को चित्रित करने की यह लेखकीय आकांक्षा एक लेखकीय आदर्श से परिचालित है वास्तव में ऐसा कोई चरित्र आपकी नजर में रहा है?

सुभाष पंत : ऐसा कोई चरित्र मेरी निगाह में है या नहीं? इसका जवाब जानने से पहले मिलान कुंडेरा का यह कथन हमारी ज्यादा मदद कर सकता है- ’साहित्य से बाहर सब निश्चित और प्रामाणिक होता है। साहित्य में सब प्रश्नाकुल और संशयात्मक। अनिश्चय से ही साहित्य बहुध्वन्यात्मक होता है।’ पत्रकार की भूमिका किसी घटना का हूबहू चित्रण करना होता है, लेखक उस घटना को बहु आयामी बनाता है।

   

स्थितियां कितनी भी दमनकारी रहीं हों, अन्याय के खिलाफ आवाजें हर समय उठती रहीं हैं। अरब देशों के उदाहरण हमारे सामने हैं। स्त्रियों के प्रति बेहद निर्मम और क्रूर समाज में भी वहां की औरते न्याय के लिए लड़ रही हैं। वे कोड़े खा रहीं हैं, बंदूक की गोलियों से मारी जा रही हैं, जेलों की यंत्रणाएं झेल रही हैं और फांसी के फंदों में झूल रही हैं। इतिहास सत्ता के इशारों पर लिखा जाता है, वे इतिहास में दर्ज नहीं होंगी। अगर साहित्य भी उनके प्रति अनुदार रहा, तो वे गुमनामी में खो जाएंगी। संचार क्रांति के युग में दूसरे माध्यमों से उनके विषय में आज तो हमें जानकारी मिल जाती है। लेकिन ये सिर्फ खबरे होतीं है। खबरें सिर्फ सूचनाएं हैं, वे हमें संवेदनशील नहीं बनातीं। इस महादेश में भी ऐसा ही हुआ, महिलाओं ने संघर्ष किए लेकिन वे दर्ज नहीं हुए।

   

चम्पा एक सामान्य स्त्री है। परिस्थितयां उसे बदलती जाती है। पहले कदम पर वह इस प्रथा के काले अध्याय को पंचायत में सार्वजनीन करना चाहती है, समाज उसकी कहानी सुनें और जाग जाएं। दबंग उसे अपनी बात नहीं कहने देते, पथराव करके उसे घायल कर देते है। फिर भी उसकी अधूरी कहानी का कुछ असर तो होता ही है। पहला तो यह कि वह राजेसुरी का दिल जीत लेती है और वह अधूरी कहानी संभावनाओं के पंख लगा कर दूरस्थ गांवों तक फैल जाती है और वे इस जमींदारी के गांवों अपनी लड़कियां देने के प्रति सचेत हो जाते हैं। फिर वह शिक्षा के जरिए अन्याय के खिलाफ लड़ने की राह खोजना चाहती है। और जब उसे मालूम होता है कि वह उस हादसे में गर्भवती हो चुकी है, तो वह जीवन के सृजन के लिए अपना घर छोड़ कर अनजान दुनिया में प्रवेश करती है, जहां किसी सुन्दर, जवान और  निराश्रित स्त्री को लूटने के लिए भेड़िए बैठे हैं। वह उनसे अपनी रक्षा करती है, अपना आर्थिक आधार बनाते हुए  मुकाम तक पहुंच जाती है।

   

यह परिस्थितियों द्वारा एक सामान्य स्त्री के नयिका बन जाने का आख्यान है। हालाकि वह अपने को कभी नायिका नही मानती। वह आयशा से कहती है-लेकिन लड़ तो तुम रही थी, आयशा। मेरे बेटे को न संभालती, तो मैं कैसे लड़ती? तुम्हें कोई नहीं जानता, तुम लड़ाई में कैसे शामिल थी। बहुत से लोग लड़ाई में शामिल रहते हैं, कुछ पहचान लिए जाते हैं, कुछ अनचिन्हें रह जाते हैं। 

   

लेखक की आकांक्षा किसी आदर्श से परिचालित नही है। परिस्थितियां उसे वह राह दिखा रही हैं, जिस राह से उसके लेखन को आगे बढ़ना है।


आशीष सिंह : भारत विभाजन के दंश को झेलते लोगों की तस्वीर और 'रिफ्यूजी' होने के पीड़ा को उपन्यास में खास तरीके से सामने रखा गया है। धर्म की वजहों से अपनी जन्मभूमि से बेदखल की गई स्त्री व सड़ी-गली परम्पराओं के खिलाफ आवाज उठाती स्त्री की बेदखली। दोनों को ही एक तरह से निर्वासन झेलना पड़ता है। समाज के इस कठोर सत्य को उपन्यास में जिस तरह से साझा किया गया है वह जीवन को देखने के नजरिए को सामने लाता है। नुचे-चुथे पंखों की उड़ान भी अपनी आन्तरिक ताकतों से ही संभव है?     

सुभाष पंत : यह तीन स्त्रियों के पलायन की गाथा है। एक पहाड़ी स्त्री है, जिसका यौन अपराध का दोषी मान कर सजा के तौर पर नाक काट ली गई। वह शर्मिंदगी के कारण पहाड़ से भागी है। इस पलायान के पीछे शर्मिंदगी के अलावा कोई उद्देश्य नहीं है। संयोग से उसकी मुलाकात एक मोची से हो जाती है। वह उसे अपने घर में पनाह देता है और वह भिखारिनों की टोली में शमिल होने की जगह एक तरह से मोची की पत्नी की भूमिका में रहती है। मोची की मौत के बाद हाशिए की जिन्दगी में है, जो रेल की पटरियों से कोइले बीन कर और आढ़त में अनाज साफ कर के अपना जीवन बिताती है। चम्पा को अपने घर में शरण देने के बाद ही उसके जीवन में सार्थक परिवर्तन होता है।

   

दूसरी महिला चम्पा है। वह स्पष्ट उद्देश्यों के साथ घर से पलायन करती है। पहला तो यह कि उसे गर्भस्थ शिशु को जन्म दे कर स्त्री धर्म निबाहना है, भले ही उस गर्भ का कारण जो भी रहा हो। पलायन में जंगल से गुजरते हुए वह उस रास्ते की ओर नहीं देखती, जो सिद्धपीठ की ओर जाता है, लेकिन अपने स्कूल की ओर देखती है। स्पष्ट संकेत है, वह समझ चुकी है, स्त्री की मुक्ति धर्म में नहीं, शिक्षा में है। उसके अलावा उसके मन में, कलंकित परम्परा को तोड़ने का संकल्प है, जिसमे दुल्हनों की पहली रात पर डाका डाला जाता है।

   

तीसरी महिला जस्सी है, जो अपना गांव नहीं छोड़ना चाहती। देश का बंटवारा होने के बाद अपना वतन छोड़ने को बाध्य होती है। युद्धों और साम्प्रदायिक दंगों में स्त्रियां सबसे बड़ा शिकार होती हैं। रिफ्यूजियों और रिफ्जूनों ने जो सर्घष किए हैं और उन्हें किस नजर से देखा गया ये वर्णनातीत है। हजारों जुबानों से भी उन्हें नहीं बताया जा सकता। इस उपन्यास में तो उनके संघर्षों की एक हल्की सी झलक के साथ रिफ्यूजन और उसके धर्म पिता चौधरी के माध्यम से तो संशय के इस माहौल में साम्प्रदायिक सद्भाव को फिर से व्याख्यायित करने का प्रयास है। फैलाए जा रहे जहर के खिलाफ लेखकीय हस्तक्षेप। ये स्त्रियां गवाह हैं कि इच्छाशक्ति और संघर्षों से रास्ते बनाए जा सकते हैं, चाहे वे कितने ही दुरूह क्यों न हों। 


    

आशीष सिंह :  'एक रात का फासला ' में सामंती उत्पीड़क और झाड़-फूंक करने वाले बाबा एक दूसरे का सहयोग करते सामने आते हैं और साथ ही पुरुष वर्चस्ववादी समाज भी लगभग उन्हीं का अनुकरण करते मिलता है। 'चम्पा' उत्पीड़ित होने के बावजूद व्यक्तिगत विद्रोह की ओर उन्मुख नहीं होती बल्कि शिक्षा की रोशनी में ऐसी शक्तियों को सामने लाना चाहती है। उपन्यास के कथानक का इस तरह से गठन किया जाना अपने समय से आगे की ओर देखता लगता है? या तत्कालीन व्यक्तिगत विद्रोह या त्वरित बदले की भावना को व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखने -समझने की लेखकीय नजरिया है?

सुभाष पंत : तंत्र सदा सत्ता के साथ होता है। प्रजातंत्र के सात दशकों के बाद, आज का ही उदाहरण हमारे सामने है, सारी संस्थाएं सत्ता के साथ हैं, और मीडिया-जिसका काम ही वक्त के सवाल उठाना होता है, चारण की भूमिका निबाह रहा है। वह तो सामन्ती समय था। सामन्ती दबंगों के सामने उसके तंत्र और मातहतों में सिर उठाने की हिम्मत ही नहीं थी।  देश भले ही आजाद हो गया था। गांवों में अभी आजादी नहीं आई थी।

   

चम्पा फिल्मी नायिका नहीं है, जो अन्याय के खिलाफ हाथ में बदूंक ले कर अत्याचारी को गोली से उड़ा कर अपना बदला ले लेती है, या ऐसा ही कोई ढिसूंग ढिसूंग का हिरोइक तरीका अपना कर दुष्टों का सफाया कर देती है। यहां सिनेमा नहीं, यथार्थ है। वह समझ चुकी है कि अकेले वह इस लड़ाई को नहीं जीत सकती। शिक्षा ऐसा माध्यम है जो सिखाता है कि अन्याय के खिलाफ कैसे लड़़ा जाता है। वह शिक्षित होना चाहती है, लेकिन परिस्थितियां ऐसी बन जाती हैं कि उसे अपनी पढ़ाई स्थगित करनी पड़ती है। वह इस घिनौनी प्रथा के खिलाफ लड़ने के लिए प्रत्यक्ष और परोक्ष अनेक विकल्प टटोलती है। सारे विपक्ष तलाश लेने के बाद वह महात्मा गांधी का आमरण अनशन का हथियार इस्तेमाल करती है, जिसके सामने सारे हथियार बौने हैं। सामन्ती तंत्र हार जाता है। उसे हथियारों की लड़ाइयां लड़ना तो आता है, लेकिन बिना हथियार कैसे लड़ा जाता है, वह नहीं जानती। चम्पा को मालूम है, अकेले आमरण अनशन से भी तब तक कुछ नहीं हो सकता जब तक उसके पीछे समर्थन न हो। वह राजनैतिक पार्टी का भी सहयोग प्राप्त कर लेती है,  राजेसुरी का भी और समाचार पत्रों में अनशन तथा उसके कारणों की बात प्रकाशित होने के साथ उसे जनसमर्थन भी मिल जाता है।

 

लड़ाइयां कभी अकेले नहीं लड़ी जाती। चम्पा का यह कथन दृष्टव्य है- 

'आपका साथ न मिलता तो मेरा यहां तक पहुंचना सम्भव नहीं था। किसी तरह पहुंच जाती तो मेरी हत्या कर दी जाती। आपका साथ मिला तो वे हथियार के होते निहत्थे हो गए।’        





आशीष सिंह : 'मीठामंडी' मानों पूरे भारत का रूपक है। जहां तमाम भाषा भाषी व कामकाजी आबादी है। मोची के साथ ठाकुर नकटी बुढ़िया एक ही झुग्गी में गुजर बसर कर रही है। पंजाबी हरजीत और गढ़वाली लक्ष्मी रावत एक दूसरे की बोली बानी न समझ कर  भी एक दूसरे को समझ लेती हैं। विभाजन की शिकार सहुआइन जस्सो हों या रुक्का पहलवान की पत्नी सबकी भूमिकाएं एक दूसरे के सहयोगी भाव लिए हुए हैं ‌खान-पान सम्बन्धी कोई भेदभाव दिखाई देता है तो वह सिर्फ मुसलमान-हिन्दू के बीच, बाकी कहीं भी जातिगत स्तर पर यह सवाल धूमिल है। क्या तलछट की जिंदगी जी रही आबादी के बीच यह समस्या कोई मायने नहीं रखती?    

सुभाष पंत : ऐसी बस्तियां अमूमन कोलाज का रूप ले लेती हैं, जहां अति निम्नवर्गीय और हाशिए के लोग रहते हैं। मुम्बई का धारावी स्लम्स तो एशिया की सबसे बड़ी झुग्गी कालोनी है। उनकी एक अलग संस्कृति है, जिस पर अनेक और बहुत महत्वपूर्ण रचनाएं लिखी गई हैं। दरअसल हर शहर को अपने स्लम की जरूरत होती है, जहां से श्रमबल मिलता रहे। यह शहर अभी छोटा है इस वजह से इसकी मलिन बस्ती मीठामंडी भी अभी छोटी है। यहां सिवा मुसलमानों के, जिन्हें विभाजन ने मुस्लिम बहुल इलाकों में रहने के लिए विवश कर दिया है, कई जाति के वे लोग रहते हैं, जिनके बिना शहर का जीवन गतिमान नहीं रह सकता, लेकिन उन्हें अपने में मिला लेने का सौजन्य उसमें नहीं है। मीठामंडी के एक खाली पड़े हिस्से में पाकिस्तान से आए कुछ शरणार्थी भी बस गए हैं, जिन्हें मीठामंडी के वाशिंदे संदेह की दृष्टि से देखते हैं। उन्हीं के साथ जस्सी को भी यहां शरण मिलती है। नकटी को इस बस्ती में रहने वाला मोची अपना लेता है और चम्पा को नकटी अपने घर में शरण देती है, जो जाति और एक कलंकित रवायत को समाप्त करने का प्रतीक बन जाता है।

 

मीठामंडी में दोस्तियां भी हैं, लड़ाइयां भी हैं,  अन्य समस्याएं भी हैं और सभी के आपसी सम्बंध सहयोग के भी नहीं है। लेकिन मेरा अभिप्रेत सिर्फ चम्पा है। अगर मैं मीठामंडी की संस्कृति की अभिव्यक्ति में चला जाता तो उपन्यास उलझ जाता, और अपनी पठनीयता भी खो देता। उपन्यास में मीठामंडी के सिर्फ उन्हीं लोगों का उल्लेख है, जिनका चम्पा से दोस्ती या दुश्मनी का सम्बंध है। 


    

आशीष सिंह : चम्पा या राजेश्वरी जैसे महिला चरित्र जो इस उपन्यास की केन्द्रीय भूमिका में हैं सामाजिक परिस्थितियों से लड़ते हुए जो अनुभव हासिल करती हैं वह पूरे समाज की तन्द्रा को झकझोरने का काम करती हैं। परिवर्तनकारी राजनीतिक शक्तियां भी अंधेरे में जगमगाती कंदील को बचाने की कोशिश में आ खड़ी होती हैं वह चाहे गांधीवादी नेता सुन्दर लाल हों या अन्य। कहानी गांव से ले कर शहर तक आवाजाही करती है। इन तमाम बातों के बावजूद पूरे उपन्यास में सरकारी प्रशासन की उपस्थिति गर कहीं सुन पड़ती है तो पुलिस प्रशासन की वह भी बेहद मामूली स्तर पर। आजाद भारत के बाद की इस कहानी में सामंती शक्तियों का ही शासन-प्रशासन दिखाई देता है और महिलाओं के उत्पीड़न दमन की सुनवाई भी पंचायतों की परम्परागत मशीनरी के सामने ही होती है। नये भारत की राजनीतिक मशीनरी क्या उस क्षेत्र से अभी बहुत दूर थी? क्या समाज की संगठित हो रही आवाजों और दमनकारी शक्तियों के लिए सरकार की उपस्थिति या अनुपस्थिति कोई मायने नहीं रखती?     

सुभाष पंत : इस उपन्यास का समय आजादी मिलने के कुछ बाद और जमींदारी उन्मूलन के मध्य का है। आजादी को गांवों में पहुंचने में बहुत वक्त लगा। उसने तो संविधान लागू होने के बाद पहले आमचुनाव में गावों में तब प्रवेश किया जब उस समय के नेताओं ने उन्हें बताया कि यह देश आपका है और आप के हाथों में देश के कर्णधारों को चुनने का अधिकार है, हालांकि तब और बाद में भी काफी समय तक ताकत सामन्ती हाथों में ही रहीं।

   

उपन्यास की समयावधि में देश आजाद हो गया था लेकिन हमारी व्यवस्था अंग्रेजों की दी हुई थी। गरीबी अपने चरम पर थी। शिक्षा का भी अभाव था। अदालतें थीं, लेकिन उन तक सामान्य आदमी की पहुंच नहीं थी। वे इतनी खर्चीली थी कि अपनी शरण में आए लोगों के बर्तन तक बिकवा देती थी। अदालतों की स्थिति तो आज भी वैसी ही है, लेकिन अब आदमी शिक्षित हो चुका है, वह जानता है कि न्याय पाने के लिए उसे कितने पापड़ बेलने हैं और कितनी प्रतीक्षा करनी है और इसके बाद और भी अदालते हैं। दूरस्थ गांवों में पटवारी व्यवस्था थी और कहीं पुलिस चौकियां भी रही होंगी तो वे भी पटवारियों की तरह सामन्ती जेबों में  थीं। पुलिस भय का नाम था। धन और शिक्षा के अभाव में  न्याय के लिए चाहे वह स्त्री हो अथवा पुरुष वह पंचायतों की ही शरण में जाता था। वहां न्याय मिल भी जाता था और नहीं भी। यह भी छूट थी कि अगर किसी को पंचायत के फैसले पर आपत्ति हो तो वह कोर्ट जा सकता है। लेकिन अगर अभियोग उसके ही खिलाफ हो जिसकी पंचायत है, तो उसका परिणाम वही होता है, जो चम्पा के साथ हुआ। धन और शिक्षा के अभाव में, उसके कोर्ट कचहरी के रास्ते बंद थे। स्त्रियों के कानूनी अधिकार भी तब बहुत सीमित थे।

   

उसे अगर न्याय पाना है, तो दूसरे रास्ते तलाशने होंगे। वह अपने लिए न्याय नहीं मांग रही। वह तो उस रवायत के खिलाफ लड़ने के लिए प्रतिबद्ध है, जिसमें दुल्हनों की पहली रात लूटी जाती है। यह पूरा उपन्यास चम्पा के उसी रास्ते की तलाश और अन्ततः उसे पा कर सड़ी-गली प्रथा को उखाड़-फेंकने का उपन्यास है, जिसका आरम्भ वह राजेसुरी के भीतर की औरत को जगाने से करती है और अन्ततः राजनैतिक ताकत को अपने पक्ष में खड़ा कर लेने से आमरण अनशन तक की यात्रा है। इसके अलावा उसे अनजान जगह एक स्त्री को अपने अस्तित्व और आर्थिकी के लिए कितनी लड़ाइयां लड़नी पड़ती हैं, वह उन्हें भी लड़ती है। 

 


    

आशीष सिंह : सामाजिक कुरीतियों के बन्धन में जकड़ी अवाम अपने मुक्ति की लड़ाई तभी साकार कर सकती है जब उसे व्यापक सरोकार से जोड़ दे। अन्धविश्वास, कुरीति जैसे पश्चगामी सामाजिक मूल्यों से लड़ने के चम्पा एक तरफ़ लगातार शिक्षा पर ज़ोर दे रही है, तो दूसरी तरफ आर्थिक स्वनिर्भर होने के लिए अग्रसर है। इस तरह देशज आधुनिक स्त्री के चरित्र को आपकी रचना सामने लाती है। इसे फैशनेबल स्त्री स्वतंत्रता की पक्षधर लेखन के क्रिटिक के रूप में देख सकते हैं?      

सुभाष पंत : चम्पा सबसे पहले अपने लिए एक आर्थिक आधार तैयार करती है। वह जानती है, इसके बिना वह जिन्दा नहीं रह सकती। इसके अलावा शिक्षा और सामूहिक प्रयासों से ही किसी गलत परम्परा को बदला जा सकता है। यह एक सामान्य सत्य है कि अंधविश्वास और कुरीतियों के खिलाफ शिक्षा सबसे बड़ा हथियार है। 

   

सोवियत संघ के विघटन के बाद वामपंथी लेखन मुख्यधारा का लेखन नहीं रहा, और उसी के साथ निम्न और हाशिए की महिलाओं की आवाज भी साहित्य से गुम हो गई। राजनीति ने उन्हें पांच किलो अनाज दे कर मान लिया कि उनकी सम्पूर्ण समस्याओं का निदान हो गया है। बाजार के नए अवतार ने विचारहीन खाओ-पियो और मौज करो के मूल्यों वाली उपभोक्ता पीढ़ी तैयार कर दिया। महिलाएं भी हर क्षेत्र में पुरुषों की बराबरी करने लगी। अब सवाल उठा कि वे पुरुष अधीनता क्यों स्वीकार करें? नई कहानी के दौर में संयुक्त परिवार टूटे थे। अब एकल परिवार टूटने लगे। गर्भ निरोधक उपायों ने उन्हें और ताकत दे दी। विदेशों से लिव इन रिलेशनशिप की अवधारणा आयात कर ली गई। हमारी विवाह पद्धति पर संकट मंडराने लगा। अब वे सवाल उठाने लगी हैं कि हम आपके लिए प्रसव वेदना सह कर बच्चे पैदा क्यों करें। जब वे सवाल उठा रहीं हैं, भले ही वह बहुत छोटे सम्पन्न वर्ग के सवाल हों, उनके जवाब तो होने ही चाहिए।     

यह उपन्यास उनका जवाब न हो कर एक दूसरे और बड़े महिला वर्ग की आवाज है।


आशीष सिंह : सुभाष जी! आपका उपन्यास 'एक रात का फासला' की  कहानी अभी अधूरी है? चम्पा और उसके समानधर्मी ताकतों ने जिस तरह से सामाजिक उत्पीड़न के विरुद्ध एक सामूहिक संघर्ष छेड़ा है। लगभग अहिंसक तरीके से लड़ाई लड़ते हुए उत्पीड़िकों को घुटना टेकने को विवश कर दिया। लेकिन जिस जगह पर उपन्यास समाप्त होता है लगता है 'चम्पा' जैसी स्त्रियों के लिए संकट अभी बढ़ने वाला है,  दमनकारी शक्तियों ने महज़ समझौता किया है हार नहीं मानी है। क्या बदले हुए समय में 'चम्पा' या उसके बच्चों की कहानी अभी बाकी है?

सुभाष पंत : चम्पा और चम्पा के बच्चे के लिए अभी खतरे बाकी हैं। काली परम्परा को तोड़ने के बाद वह अगली योजना को पूरा करने के लिए उत्साह से भरी हुई है और दूसरी ओर उसकी हत्या करने की गम्भीर योजनाएं बनाई जा रही हैं।

उपन्यास को ऐसे स्थल पर छोड़ दिया गया, जिससे उसकी यात्रा रुके नहीं और वह पाठक की चेतना में भी जारी रहे।

 

  

आशीष सिंह : 'एक रात का फासला' पढ़ते हुए मन में जो सवाल उठ रहे थे आपने उनके बारे में विस्तार से बताया। काफी नयी बातें जानने को मिलीं। बहुत आभार आपका। 


पुस्तक का नाम - 'एक रात का फासला '

अद्विक प्रकाशन प्रा.लि.


लेखक परिचय -

सुभाष पंत 

सन् 1973 में पहली कहानी 'सारिका' के विशेषांक में प्रकाशित होने के साथ लेखन में प्रवेश किया। लेखन के साथ रंगकर्म में निर्देशन, नाट्य लेखन, सम्पादन में भी भागीदारी।

प्रकाशित कृतियां - तपती हुई जमीन, चीफ़ के बाप की मौत, जिन्न और अन्य कहानियां, मुन्नीबाई की प्रार्थना, एक का पहाड़ा, छोटा होता हुआ आदमी, पहाड़ की सुबह तथा अन्य कहानियां, सिंगिंग बेल, लेकिन वह फाइल बंद है, इक्कीसवीं सदी की एक दिलचस्प दौड़ (कहानी संकलन)

चमकता सितारा - चुभन भरा कांटा, सुबह का भूला, पहाड़ चोर (उपन्यास)

चिड़िया की आंख (नाटक)

त्रैमासिक पत्रिका 'शब्दयोग' के तीस अंकों का सम्पादन।



सम्पर्क -


आशीष सिंह 

मोबाइल : 8739015727

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