विमलेश त्रिपाठी के कविता संग्रह पर सुरेन्द्र प्रजापति की समीक्षा

  

विमलेश त्रिपाठी 


सत्ता  प्राप्त करने के पश्चात शासकों की एक हसरत यह होती है कि उन्हें इतिहास में दर्ज कर लिया जाए। इसके लिए वह अपने मनोनुकूल इतिहास लिखवाने की कोशिश करता है। इसी क्रम में आजकल इतिहास की बातें ज्यादा हो रही हैं। कवि का भी इतिहास के प्रति एक अलहदा नजरिया होता है। कवि विमलेश त्रिपाठी के कविता संग्रह 'दूसरे जन्म की कथा' की पहली ही कविता का शीर्षक 'इतिहास' है। इसके अपने अलग निहितार्थ हैं। कवि कहानीकार सुरेन्द्र प्रजापति ने इस संग्रह की समीक्षा करते हुए लिखा है 'कवि के इस संकलन में समाज में अपनी जड़ें जमा चुके विषमताओं, त्रासद व अमानवीय स्थितियों पर कवि की पैनी नजर और मनुष्यता के पक्ष में विवेकशील व सहानुभूतिपूर्ण दृष्टि पूरे ओज के साथ फोकस करती है। संग्रह की कविताओं में  प्रेम के रंग हैं तो दूसरी तरफ सत्ता की अमानुषिक विसंगतियों, सामाजिक भेदभाव, भारतीय समाज में बहुत गहरे जड़ जमाए बैठे जातिवाद की त्रासद स्थितियों के प्रतिकार में खड़ी होती एक ईमानदार और न्यायोचित अभिव्यक्ति भी है।' आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं विमलेश त्रिपाठी के कविता संग्रह पर सुरेन्द्र प्रजापति की समीक्षा 'रोशनी के विस्फोट में बदलता कवि और कविता का आत्म-संघर्ष'।



'रोशनी के विस्फोट में बदलता कवि और कविता का आत्म-संघर्ष'


सुरेन्द्र प्रजापति


सूचना, दूरसंचार, टेक्नोलोजी वस्तु बन कर संसद के मालबाजार में बिक रहा है या बिकने का होड़ मचा रहा है। ऐसे समय में लिखे शब्दों के सौंदर्य संसार में गहरे बैठने की फुर्सत और समझ किसके पास है। अब तो बाजार में पानी भी महंगे दाम में बिक रहा है। जहर अपना मूल्य निर्धारण कर रहा है। रोजगार और रोजगार, और रोजगार जिसने मानवीय सम्बधों को भी व्यवसायगत बनाने में शर्म नहीं खाई। हाय रे बेहया समय और बेहया समय की उपज, पूंजी संग्रह का घिनौना मोह और मोह का निर्लज्ज अंधापन, और अंधापन का विनाश की ओर बढ़ता बेसुध और बेसुरा प्रसार। और हम हैं कि कविता का उत्सव मनाने में बस झार-कांस जैसे फुले हैं, और बांस जैसे ऊंचे हुए जा रहे हैं। अंतहीन भोग-विलास की कामना, पाप पाखण्ड का बेसुरा प्रलाप, घिनौनी मानवीय प्रवृतियां, षड्यंत्र, और भय, अपना जश्न मना रहे हैं जबकि पौरुष रो रहा है, इंसानियत कांप रहा है। गौरव लज्जा से संकुचित मौन खड़ा दुनिया को ताक रहा है।


आज के समय में सूचना, प्रोधौगीकी और सोशल मीडिया ने समय की गति को इतना तीव्र और घातक बना दिया है कि जीवन की वास्तविकता को परिभाषित कर पाना काफी जोखिम भरा और चुनौतीपूर्ण हो गया है। उससे भी कठिन चुनौती है, सचाई को पूरी ईमानदारी से कह पाना। जीवन के अधिकारों को कह पाना आम नागरिक जीवन में और भी विवादास्पद और कठिन हो गया है। सत्य, न्याय एक स्लोगन बन कर रह गया है। समृद्धि की महत्वकांक्षा और दीनता की मार से उत्पन्न पीड़ा की खाई और डरावनी हो गई है। आम आदमी का दुःख लहूलुहान हो कर जार-जार हो रही है।


कवि जीवन के वास्तविक तथ्यों और उसकी कृतियों की समानांतर पड़ताल कर के ही निष्कर्षों तक पहुंचता है। सामाजिक विषमता के अंतर्विरोधों के उलझनों से घिरा कवि अपने कविता के माध्यम से अपने लिए दूसरा जीवन रचता है। इस अर्थ में वह कविता के दर्पण में अपने जिए गए जीवन के प्रतिविंब ही नहीं देखता बल्कि वह अपने द्वारा रचे गए एक दूसरे जीवन की छवियाँ भी देखता है। आशा-निराशा के अंधेरे में भटकते जीवन को बड़े चतुराई के साथ तलाश करता है, साथ ही इस क्रूर समय से मिले छल, फरेब, षड्यंत्र को चिन्हित करते हुए पूरी ऊर्जा के साथ सावधान करता है, आश्वस्त भी करता है और चुनौतियों को स्वीकार भी करता है।


ऐसे ही चुनौतीपूर्ण समय में, जब संकट का बादल गहरा रहा है, उस अंधियारे में एक सार्थक उम्मीद की रोशनी के साथ समकालीन कविता के एक अलहदा और आकर्षक स्वर के रूप में उभरे हैं समकालीन कविता के प्रमुख हस्ताक्षर, कवि, उपन्यासकर, अनुवादक विमलेश त्रिपाठी, जिनकी कविताएं अपनी सामयिक विश्वसनीयता के साथ चमत्कृत करते हुए एक अलग पहचान बनाती हैं। उनके मुहावरे, उनका अलहदा शब्द चयन, और संवादधर्मी पठनीयता को समेटे चमत्कृत करता है, उकसाता है और चौंकाता भी है साथ ही आमजन के पक्ष में संवाद करने के लिए खड़ा भी करता है। ऐसे समय में जब जीवन को एक उदीयमान और प्रशस्त मार्ग की जरूरत है, वैचारिक दृढ़ता को सींचने और मानवीय पक्षों को खुल कर जीने की आवश्यकता है, विमलेश त्रिपाठी का नवीनतम संकलन 'दूसरे जन्म की कथा' जनपक्षधरता का एक व्यापक दस्तावेज है. सुप्रसिद्ध कवि और आलोचक आदरणीय भरत प्रसाद इस कविता संकलन पर अपनी विस्तार से टिप्पणी (आमुख) करते हुए लिखते हैं - "दूसरे जन्म की कथा कवि के प्रेमप्लावित व्यक्तित्व का दस्तावेज है।" उन्ही के शब्दों में कहें तो -'संग्रह की एक नहीं अनेक कविताएं मूलत: प्रेम को नए आयाम में गढ़ने और प्रतिष्ठित करने का आत्मसंघर्ष हैं।


संग्रह की पहली कविता 'इतिहास' में सत्य को नैसर्गिक तरीके से प्रस्तुत किया गया है। क्रूर से क्रूर सत्ता इतिहास को हर बार अपनी सुविधानुसार, अपने सत्तालोलुप नीतियों के हिसाब से लिखवाता है, अपने हिसाब से रंग विरंगी तिलिस्म का आवरण बदलता है, परन्तु इतिहास के घनघोर अंधेरे में भी दुबका सत्य छोटे से दायरे में ही सही, थोड़ा सा साबूत बच ही जाता है और वही सत्य कविता का सत्य है। इस कविता में कवि सत्य के साथ साबूत रहने में विश्वास करता है:-


"सत्ताएं लाख कोशिश करती है कि जकड़ लें उसे

या मार डालें

लेकिन वह हर बार

थोड़ा सा साबूत छूट ही जाता

थोड़ा सा साबूत बच ही जाता"


इतिहास की नियति है कि वह संसार मे सबसे ज्यादा विवादित और त्रस्त रहा है।


संग्रह की पहली कविता 'इतिहास' से ले कर अंतिम कविता 'दूसरे जन्म की कथा' तक कवि के काव्य यात्रा के विभिन्न पड़ावों से हो कर गुजरते हैं, उसके साक्षी बनते हैं।


कवि के इस संकलन में समाज में अपनी जड़ें जमा चुके विषमताओं, त्रासद व अमानवीय स्थितियों पर कवि की पैनी नजर और मनुष्यता के पक्ष में विवेकशील व सहानुभूतिपूर्ण दृष्टि पूरे ओज के साथ फोकस करती है। संग्रह की कविताओं में  प्रेम के रंग हैं तो दूसरी तरफ सत्ता की अमानुषिक विसंगतियों, सामाजिक भेदभाव, भारतीय समाज में बहुत गहरे जड़ जमाए बैठे जातिवाद की त्रासद स्थितियों के प्रतिकार में खड़ी होती एक ईमानदार और न्यायोचित अभिव्यक्ति भी है। इस संग्रह में कवि भारतीय समाज में पोषित पल्लवित सदियों से जाति व्यवस्था के बेड़ियों की ओर इशारा करते हुए, बार-बार उसे तोड़ने की कोशिश करते हैं।


इस संग्रह की शीर्षक कविता 'दूसरे जन्म की कथा' में कवि कहता है:- 


'पहले जन्म में मैं हिन्दू था

कट्टर ब्राह्मण

मुझे नफरत करना सिखाया गया अछूतों से

मुझे मुसलमान को मलेच्छ कहना सिखाया गया


इन बेवाक पंक्तियों में कवि की एक ईमानदार आत्म स्वीकारोक्ति है। हमारे समाज में जन्म से ही परम्परा रही है, अपने वर्ण और जाति-व्यवस्था को महिमामंडित करना और, साथ ही और जातियों के लोगों को इंसान तक नहीं मानना। यही नहीं इंसान के रूप में सर्वहारा और निम्न जाति कह कर उससे नफ़रत करना, नीची जातियों से छुआछूत का भेद सिखलाना। यह कविता दलित संदर्भ को देखने, समझने, महसूस करने का एक नया मार्ग तलाश करती है।


कवि की एक बहुत ही छोटी कविता कला और शिल्प की दृष्टि से कितनी क्लासिक बन गई है। इन चार पंक्तियों में वे अपनी समस्त बेचैनी, आदमी बने रहने की ललक, और सदियों से कविता को बचाए रखने की जद्दोजहद करता दिखता है। 'मै' शीर्षक कविता की बानगी देखिए:-


रात

एक काली चादर है

नहीं अंट पाते उसमें मेरी नींद के पाँव

मैं सदियों से जगा हुआ हूँ।


इस संकलन की कविताओं से गुजरते हुए कवि पूरी तरह सतर्क, जागरूक और आमजन की भाषा मे एक तेवर की चाशनी लिए जिसमें राजनीतिक विसंगतिया भी हैं, प्रेम में डूबी हुई बातें भी हैं, घर अंचल  की बातें हैं, और उन छूट गए मित्रों की याद भी है जिन्होंने कवि के विगत में अपनी अपनी भूमिका निभाई थी।


"एक प्रेम कथा" कविता कोमल भावों, अनुभूतियों और शब्दों से बुनी गई कविता है जो वस्तुतः एक कथा का कविता में कायकल्प है। इन सहज सरल पंक्तियों को देखिए -


कथा में वह हँसती थी तो फूल झड़ते थे

और सत्ता की नींव हिलने लगती थी।


स्त्री प्रकृति का प्रतिरूप है और स्त्रियों का प्रसन्नचित रहना धरती का वरदान। लेकिन सत्ता-शासक को वही हंसी सदा खटकती है और सारे संसार में प्रेम कथाओं का अंत त्रासद और अमानवीय तरीके से किया गया। तमाम निराशाओं के बीच, कवि उम्मीद का दामन नहीं छोड़ता। यह दामन उन औरतों का दामन है. कवि के काव्य संसार में औरतों को जीवन गहरी संवेदना है, चिंता है। कवि उनके हंसने की कामना करता है क्योंकि उनके हंसने से सभ्यता का स्याह अंधेरा पिघलता है। स्त्रियों की हँसी में प्रकृति हँसती है। कला और सार्थक हो जाती है। उसके हंसने से घर का कोना-कोना हंस पड़ता है। "हंसती हुई औरतें" की इन कोमल पंक्तियों को गौर कीजिए -


हे दुनिया की तमाम औरतों

तुम हंसो, ऐसे ही तुम्हारे हंसने से

सभ्यता का अंधेरा धीमे-धीमे पिघलता है


"शहर में अमन चैन था" कविता एक राजनीतिक भावबोध की कविता है जिसमें अनायास प्रेम भी अपनी जगह चुन लेता है। हृदय के धरातल पर प्रेम के बीज अंकुरित होते हैं। एक उम्मीद अंगड़ाई लेती है कि जीवन भर पल्लवित करने के लिए। 


"दरअसल यह वही जगह थी

जहाँ तालाब के पानी से

पहली बार

धोये थे मैंने तुम्हारे थके हुए साँवले पैर

चूमे थे तुमने मेरे पपराए होंठ

जन्मी थी ऐन उसी जगह प्रेम की वह पाती

जिसे हमें उम्र भर मिल कर लिखना था"


"प्रेम पत्र" संग्रह की प्रेम कविताओं में लाजबाव है क्योंकि तमाम दुख, असुरक्षा, उपेक्षा के बाद भी कवि  बिना किसी दबाव या डर के एक प्रेम पत्र लिखना चाहता है. लेकिन इस लिखने की राह में भी कई रुकावटें हैं- इतिहास, धर्म और सभ्यता की. सत्ता ही नहीं बल्कि पूरी व्यवस्था प्रेम के विरुद्ध है। 'प्रेम-पत्र' कविता में अभिव्यक्त कवि का प्रेम-पत्र न लिख पाने का मलाल मनुष्यता के उन सारे हिस्सों का मलाल है जिसमें प्रेमाकुल मन की सदियों पुरानी बेचैनी, निस्सहायता और पीड़ा एक साथ मुखर हो उठी है. एक सुंदर बानगी देखिए:-


"लेकिन क्या करूँकि 

मै एक ऐसे अभागे देश में रहता हूँ

कि जब भी कलम गहता हूँ

मेरे हाथ जकड़ दिए जाते हैं

कभी इतिहास, कभी धर्म और कवि

सभ्यता की किताबों में"


"वह लड़की" कविता अपने शिल्प और कथ्य दोनों दृष्टि से अनूठी है जिसमें एक धंधा करने वाली लड़की को शरीर से परे देखने की कोशिश है उसके घर संसार का जायजा लेती यह कविता बताती है कि उसके घर में एक बीमार मां है जिसकी दवाइयों की उसे चिंता है। कई पुरुषों की नजरें उसे तौल रही हैं। इसी दौरान वह कवि के पास एक मुकम्मल कविता छोड़ जाती है।


"एक मोट आदमी के उतरने के बाद 

वह मेरे पास की सीट पर बैठ गई है 

वह माथकल उतर जाएगी 

बस आगे बढ़ जाएगी 

उसके साथ एक अधूरी कविता 

उसके घर तक चली जाएगी"


इस संसार में यश की कामना किसे नहीं होती। वह जो सेवा भाव की दुहाई  देते हैं, वे सर्वाधिक यश लिप्सा से ग्रस्त रहते हैं। कवि स्वीकार करता है कि वह भी इसे पृथक नहीं है और उसे यह भी उम्मीद है कि इस जन्म में नहीं तो अगले जन्म में उसे यश मिल जाएगा। इस नादान उम्मीद ने उसकी कविता को मरने नहीं दिया है। एक छोटी सी कविता "यश" को यश क्यों नहीं मिलना चाहिए


"सच मानिए इस एक नादान उम्मीद ने

मेरी कविता को मरने नहीं दिया था"


संग्रह में यात्राएं, धूप, कोहरा, काजल, न कुछ की तरह कुछ, चप्पलें, काला मधेर जैसी कविताएं हैं जो अनुभूति की सघन सांद्रता लिए हुए हैं तो रोना, तुम्हारे जन्मदिन पर, क्या करूं, गाय कथा, नया देश है, नींद और नींद के बाहर, इस बीच देश का मामूली आदमी जैसी कविताएं राजनीतिक बोध और बयान की कविताएं हैं। यह कविताएं सवाल उठाती हैं, असुविधाजनक स्थितियों से गहरे सवाल करती हैं और पाठक की संवेदना को झिझोड़ती हैं।




लेकिन इसी राजनीतिक बोध के उलट हमारी संवेदना का परिष्कार  हुई "एक स्त्री का रोना" जैसी कविताएं हैं जिसमें हमें पता चलता है कि एक स्त्री अकेले कभी नहीं रोती। उसके साथ में तमाम चीज रोती हैं जो उसके जीवन में छुवन की सहभागी हैं। टीनहा संदूक, कंघी, आईना, फर्श, बिस्तर, कपड़े, घर के खिलौने और यहां तक कि घर के कोने में रखा ईश्वर भी।  


"फिर एक समय आता है

कि घर के कोने में रखें एक-एक ईश्वर भी रोने लगते हैं

उसके साथ फिर एक समय ऐसा आता है

जब वह रोती है तो धरती कांपती है

आसमान थोड़ा दरक जाता है

एक स्त्री अकेले कभी नहीं रोती

एक स्त्री कभी अकेले नहीं मरती"


ऐसी ही एक कविता है "बहुत दिन हुए" जिसमें कवि याद कर रहा है कि बचपन के गांव जैसी चमकीली सुबह अब नहीं होती। वह सुबह जो धूप के नरम चादर ओढ़े होती थी जिसमें एक चिड़िया बार-बार बोलती थी। बासी रोटी और नमक, तेल के इंतजार की सुबह, हंसते चेहरों, कथाओं किवदन्तियो  की सुबह।


"बहुत दिन हुए कोई चमकीली सुवह नहीं हुई

कि जैसे बीस साल पहले बचपन के एक गाँव में होती थी

एक चिड़िया बोलती थी बार-बार"।


मनुष्य अपने जीवन यात्रा में कई तरह की योजना बनाता हैं और निश्चित रूप से वे योजनाएं धरी की धरी रह जाती हैं इसी बात को  कवि "हर दिन थोड़ा" कविता में प्रकट करता है। कवि की छोटी-छोटी संभावित योजनाएं भी किसी लाचारी के करण धरी रह जाती हैं।


"अब देखिए न कितने दिन हुए मैने सूरज को उगते हुए नहीं देखा

नहीं, डूबते हुए सुरज को भी नहीं

जबकि यह मेरी योजना में शामिल है"


जब जीवन में लगता है कि सब कुछ नष्ट हो गया, सारे सपने टूट गए उस वक्त भी रोशनी का एक कतरा आत्मा की सबसे छुपी हुई जगह में चमक जाती है। ऐसा ही कविता के साथ भी है जो हर बार विपरीत परिस्थितियों के बाद भी बची रहती है।


कवि की निराशा है कि वह एक साधारण और खुश आदमी के बारे में लिखना चाहता है और हर बार खुद को दुख की एक अंधेरी नदी में डूबते हुए पाता है। लेकिन सोचा जाए तो क्या यह हम सब की सामूहिक निराशा नहीं है? "मै पता नहीं कितने समय से" कविता की इन पंक्तियों को देखिए:-


"मै पता नहीं कितने समय से

लिखना चाहता हूँ एक साधारण और खुश आदमी

और हर बार पाता हूँ खुद को

दुःख की एक अंधेरी नदी में डूबते...!"


समाज की दरकती चरमराती संवेदना की कविता है- "वह बच्चा" अपनी बीमार मां से अपने सारे दुख कहने वाला बच्चा कहीं खो गया है जिसे कवि अपनी कविता में ढूंढ रहा है। 


"कहाँ गया वह बच्चा जो 

छोटी से छोटी चोट पर मचलता

अपनी बीमार माँ से कह देता था

अपने सारे दुःख

मुक्त हो जाता था हर बार"


सबसे बड़ी बात कि कवि की सूक्ष्म और बेवाक अंतर्दृष्टि से मानवीय संवेदना का कोई भी पहलू अछूता नहीं है। उनकी गहन अंतर्दृष्टि उस अति संवेदनशील समतल पर भी फिसलती है जहाँ आम जन देख नहीं पाते। पिता, जीवन, आत्म स्वीकार, चूल्हा, एक दिन वह, नमक जैसी कविताएं गहन और सूक्ष्म संवेदना की कविताएं हैं।


संग्रह की एक बहुत ही सुंदर कविता है- "माई की भाषा"। इस कविता में कवि बहुभाषिए हो जाते हैं। अपने दफ्तर में कनिष्ठों और सहकर्मियों के साथ बांग्ला बोलता है, पत्नी और बच्चों से हिंदी, विदेश में रह रहे मित्र से टूटी-फूटी अंग्रेजी। वह कवि रात में सारी भाषाओं के कवच उतार कर एक भाषा में रोता है, हंसता है, सपने देखता है, वह है माई की भाषा भोजपुरी। 


"और देखिए न

हर रात सारी भाषाओं के कवच उतार

हो जाता हूँ सिर्फ एक ही भाषा

और सपने में फुटती है रुलाई

गूंजती है हँसी

सिर्फ माई की भाषा भोजपुरी में"


विमलेश त्रिपाठी इस काव्य संग्रह की कविताओं में प्रेम को कई कोणों से देखने और परिभाषित करने का प्रयास करते हैं, चाहे वह अपनी प्रेमिका के बारे में हो या फिर अपनी मां के बारे में। "बिछुआ" कविता की कुछ पंक्तियां देखी जाए: -


"मेरे मन में दुनिया की वह सबसे सुंदर लड़की फिर लजा गई

एक बार मन हुआ कि आज ही ट्रेन पकड़ो

मां के पैर छूते समय कहूं 

मां तुम्हारे पैर में बिछुआ बहुत सुंदर लगता है !"


यह कविता प्रेमिका के मनोभावों का सुंदर व्याख्या प्रस्तुत करती माँ तक का आकर्षक सफर प्रेम की सुंदर बानगी है। इसी कविता में कवि ने हाथशंकर, गोड़शंकर, कमरधनी, हँसुली, मांगटीका और मंगलसूत्र जैसे शब्दों का प्रयोग किया है , जो एक स्त्री के जीवन में प्रेम से जुड़े हुए प्रतीक हैं और जिन्हें समाज में स्त्री के सौभाग्य से जोड़ कर देखा जाता है.


इस सँग्रह में प्रेम की कविताएं हैं। जीवन की कविताएं हैं, जिसमें, सौंदर्य है, जीवन के मर्म हैं और आशान्वित करने की कोशिश है। एक छोटी सी कविता है -"जिजीविषा"


"दिन के साथ डूब जाता है

गहरी रात होता

फिर फिर दूधिया

सुबह होने के लिए।"


हर सुबह की किरणें एक गहरी उम्मीद से भरी होती है और कवि दुनिया को उम्मीद के चकमक उजाले में ले जाता है।


कवि विमलेश का एक अद्भुत कविता है -"सीढ़ी"। इस कविता में वे एक विस्फोट करते हैं। लेकिन ये विस्फोट ऐसा नहीं है कि धरती के किसी टुकड़े को बर्बाद कर दे। दरअसल ये विस्फोट रोशनी का है, जहाँ सदियों से अंधेरा जम कर बैठा है, जहाँ पहुंच कर कर मानवता का पहिया अवरुद्ध हो जाता है, वहीं पर कवि स्वयं एक विस्फोट में बदल कर रोशनी देना चाहता है। यहाँ हृदय की सच्ची संवेदना और प्रखर हो जाती है।


"मैं उतरना चाहता हूँ किसी खोह

पाताल बीच एक जगह

जहाँ समय का अंधेरा जम कर बैठा है

मै उस जगह जा।कर रोशनी के एक विस्फोट में 

बदल जाना चाहता हूँ।"


अपूर्णता प्राकृतिक रूप से किसी भी रचना का सौंदर्य होती है। इस धरती पर पूर्ण कुछ भी नहीं है, अपूर्णता में ही किसी महावृक्ष की जड़ें फैलती है और वह संतुलित आकार पाती हैं। अपूर्णता मे ही जीवन है, सृजन है, विद्रोह के मुकम्मल दस्तावेज हैं, और मुक्ति की गाथाएँ हैं। एक मुकम्मल कवि होने से पहले विमलेश त्रिपाठी अपूर्णता और अधूरापन के एहसास के कवि हैं। इस अपूर्णता और अधूरापन का अलग सौंदर्य है। इसी से बेचैनी, असंतोष, पीड़ा, आक्रोश और संघर्ष के द्वार खुलते हैं जिनकी चौखट पर समकालीन मनुष्य की संवेदना बार-बार आ खड़ी होती है। आज के मनुष्य की उलझन-भरी और त्रासदीपूर्ण स्थिति विमलेश त्रिपाठी को अंदर से झकझोरती है। श्रमिक समाज के आक्रोश के बीच एक अजीब किस्म की छटपटाहट में कैद है और ऐसा लगता है उससे मुक्ति पाने के लिए कवि आत्मसंघर्ष का साहस जुटा रहा है।


आज मनुष्य की विश्वसनीयता भी दाँव पर है, कविता आदमी से भी अधिक विश्वसनीय और अस्मरणीय हो जाती है जब कवि "शासक के प्रति" कविता मे चेताता हुआ यह  कहता है -


कविता को शराब पिला कर

तुम नहीं उगलवा सकते झूठ

न बदल सकते उसका बयान


कविता ही इतिहास के सत्य को भी साबूत रख सकती है, क्योंकि सत्ता के बदलने से कविता नहीं बदल जाती, जो बदल जाए वह कविता नहीं हो सकती। एक छोटी कविता "समय" में इसकी बड़ी बानगी देखिए:


"इतिहास बताता है

कोयल की बोली नहीं बदलती कभी

हमारा सुनना बदल जाता है

का बार..."


"समय बदल गया है" शीर्षक कविता में मानव के टूटते बिखरते संबंधों को बड़ी बारीकी से और बड़े ही मार्मिक अंदाज में पिरोया गया है।  


"समय बदल गया है

और उन दोनों के दुःख की पृथ्वी

अब और बड़ी हो गई है"


"क्या करूँ कविता में कवि आज के इंसान और उसके घर परिवार के बिखराव व भटकाव की बातें करते हैं। बीती यादों को पुनः याद कर कवि छटपटाता है और भटक जाता है। 


" उस भाई का क्या करूँ

जो आधी रात भटकता था इस सामियाना से उस

सुंदर नचनिया और पूर्बी की तान खोजता"


"भीड़" जनपक्ष और आदमियत की कविता है। इस कविता में कवि सत्ता और सतलोलुप धर्म, जो आज भीड़ का पर्याय बन चुका है। उस पर बड़ी दिलेरी से सवाल उठाते हैं, तंज भी कसते हैं और चेतावनी भी देते हैं कि तुम भले ही बहिष्कृत कर दो मुझे देश से, मै भीड़ का हिस्सा नहीं न ही कोई धर्म है। मेरे पास इंसानियत है। 


"अगर तुम इस भीड़ का समर्थन करना चाहते हो

तो मुझे मेरे धर्म से बेदखल कर दो

कर दो देश से भी बहिष्कृत

मै घोषणा करता हूँ कि अब मेरा कोई देश नहीं

अब मेरा कोई धर्म नहीं

आदमियत और कविता के सिवा"


विमलेश त्रिपाठी के कविताओं का फलक काफी विस्तृत और विशाल है। वे सघनता मे भी रोशनी का विस्फोट करते हैं जो पाठक को चौंकाता ही नहीं अपितु उन्हे एक मुकम्मल मुकाम तक पहुंचने के लिए जरूरी उर्वरक भी देता है। उनकी कविताओं मे मनुष्य है, प्रकृति है, और संघर्षरत ईमानदारी का सहचर्य भी। उनके पास शब्दों को तराशने की कला है तो संवेदना के सपाट पर उसे पल्लवित पोषित करने की संजीवनी भी। आशा की जानी चाहिए की "दूसरे जन्म की कथा" प्रबुद्ध पाठको को एक नए आलोक की एक यादगार और ईमानदार सैर कराएगा।  


सुरेन्द्र प्रजापति 



सम्पर्क 


मोबाइल : 9006248245


टिप्पणियाँ

  1. बहुत सुंदर समीक्षा लिखी है सुरेंद्र प्रजापति जी ने कवि विमलेश त्रिपाठी जी के कविता- संग्रह पर। आप दोनों को हार्दिक बधाई!

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  2. सैनी पूनम "कशिश"✍️11 अप्रैल 2025 को 11:28 am बजे

    बहुत सुंदर आदरणीय आपके शब्द अंतर्मन को छु जाते है बहुत ही सुंदर और सार्थक टिप्पणी 👌🏻👌🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻

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