शंकरानंद की कविताएं

 

शंकरानन्द 



पेड़ पौधे हमारे जैविक पुरखे हैं। इनके साथ मनुष्य का सम्बन्ध इतना घनिष्ठ है कि इनके बिना हम जीवन की परिकल्पना तक नहीं कर सकते। हमारी पृथिवी को अगर नीला ग्रह कहा जाता है तो इसमें इन पेड़ पौधों की बड़ी भूमिका है। इनका आवास जंगल रहा है। हम मनुष्यों ने इन जंगलों को साफ कर ही अपना घर बनाया है और अपनी खेती बारी सजाई है। यानी कि हमने जबरन इनके घरों पर कब्जा जमा लिया है। विकास की दौड़ में हम लगातार जंगलों और पेड़ पौधों का अंधाधुंध सफाया करते जा रहे हैं। वैज्ञानिकों ने अन्य ग्रहों के बारे में अनुमान लगाते हुए यह बताया है कि फलां ग्रह पर सोने की बारिश होती है, फलां ग्रह पर हीरे के समुद्र बहते हैं, फलां ग्रह पर लोहे का अकूत भण्डार है। लेकिन आज तक वे एक भी ऐसा ग्रह नहीं खोज पाए हैं जिस पर लकड़ी यानी पेड़ पौधे या कोई तृण होने के साक्ष्य मिले हों। आज जंगलों को जैसे लूटा जा रहा हो। बिना इस बात की परवाह किए कि इन जंगलों के उजड़ने पर बहुत से पशु पक्षियों का आशियाना उजड़ जाता है। जंगल के मूल निवासी बेघरबार हो जाते हैं। कवि शंकरानन्द लिखते हैं : 'जंगल सिर्फ पेड़ों का खजाना नहीं है कि/ उसे लूट लिया जाये/ वह किसी के जीने का सहारा भी है/ घर है उनके लिए / जिनके लिए इस पृथ्वी पर/ जगह घटती जा रही है दिन ब दिन।' शंकरानन्द ने जंगल पर पांच उम्दा कविताएं लिखी हैं जिसे आज हम पहली बार के पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं।


शंकरानंद की कविताएं



जंगल : पांच कविताएं


एक


ये जो पेड़ हैं खड़े एक साथ असंख्य 

एक दिन में नहीं बन गए इतने सघन 

एक दिन में नहीं जम गई 

इनकी जड़ें पृथ्वी की आत्मा तक गहरी


ये जो पेड़ हैं एकांत के संगीत के बीच चुपचाप 

तने हुए हैं आसमान को अपने माथे पर टिकाये 

इतने गहरे हरे जितना कोई रंग शायद ही होगा


ये पृथ्वी जो इतनी सुन्दर है 

मशीनों और सीमेंट की मीनारों के कारण नहीं 

उन पेड़ों के कारण सुन्दर है 

जिनके बारे में हमे पता भी नहीं होता


वे पेड़ चुपचाप रंग भरते हैं 

उनकी भी जिंदगी में 

जिनकी दुनिया में बारहों महीने दरारें पड़ी रहती है!



दो


एक एक पेड़ को मिला कर 

तैयार होता है एक जंगल 

इस तरह एक घर तैयार होता है उनके लिए 

जो सिमटते जा रहे हैं इस पृथ्वी पर 

जो विलुप्त होते जा रहे हैं धीरे धीरे


न जाने कितने जीव 

न जाने कितने पशु 

न जाने कितने पक्षी 

कीड़े मकौरे चींटियाँ 

सब रहते हैं उसी जंगल में 

जो आसमान से देखने पर हरी चादर जैसा दिखता है 

उस एक हरी चादर को देखने पर 

कोई अंदाजा नहीं लगा सकता कि 

कितने जीव जी रह रहे हैं इस जंगल में


जंगल सिर्फ पेड़ों का खजाना नहीं है कि 

उसे लूट लिया जाये 

वह किसी के जीने का सहारा भी है 

घर है उनके लिए 

जिनके लिए इस पृथ्वी पर 

जगह घटती जा रही है दिन ब दिन।





तीन


ये जो बुलडोजर की कतारें दिख रही हैं 

इतनी शांत और चुप

ये उतनी ही हिंसक और क्रूर हैं 

जितना वह दिमाग जो जंगल तक पहुँच गया है 

अपनी लालसा और जिद के लिए


उसके लिए न पेड़ पेड़ है 

न जंगल जंगल 

ये एक ज़मीन भर है 

जिस पर उसकी आंखें टिक गई हैं


उसे ये ज़मीन चाहिए 

तो उसी लालसा की पूर्ति के लिए 

ये बुलडोजर लाये गए हैं दर्जनों की संख्या में 

ये मिनटों में उजाड़ देते हैं जंगल 

बना देते हैं पाट कर उसे समतल जमीन


जिसने एक पौधा नहीं रोंपा जीवन में 

वह पेड़ों को कटते देख रहा है 

गिरते देख रहा धूल में 

और खिल रहा है उसका चेहरा 

इस तरह नष्ट हो रही है एक दुनिया 

और दुनिया उसे नष्ट होते देख रही है।



चार


बुलडोजर चल रहे हैं 

कट रहे हैं पेड़ 

भाग रहे हैं हिरण 

सहमे हुए हैं मोर 

चिंघार रहे हैं हाथी

सारे जीव भाग रहे हैं 

उनका घर उजड़ रहा है 

वे रो रहे तो उनका रोना नहीं दिख रहा 

वे जिस जंगल में करते थे अठखेलियाँ 

आज वहां सिर्फ शोक है 

ये शोक घर उजड़ने का है


एक एक पेड़ न जाने कितनी जिंदगी कुचल रहा है 

न जाने कितने जीव मर रहे हैं 

मिल रहे है उस मिट्टी में 

जिसमे अभी उन्हें और जीना था 

और सजाना था इस घर को 

और सजाना था इस पृथ्वी की साँस


लेकिन वे भाग रहे हैं बदहवास 

वे सोच रहे हैं कि बच जाएंगे 

वे भूल रहे हैं कि ये नया मनुष्य है 

जो मृत्यु पर उत्सव मनाता है 

उजारने पर देता है शाबाशी


ये लोहे की आत्मा के साथ पैदा हुआ है 

जो कुछ भी कुचल देने को आतुर है 

उसकी ममता पत्थर हो गई है!





पांच


ये पहाड़ किसी एक के नहीं हैं 

ये नदी किसी एक की नहीं है 

ये जंगल किसी एक के लिए नहीं है

फिर भी हर जगह उसी का कब्ज़ा है


हर जगह एक मौका है 

हर अवसर एक साजिश 

जिसके पीछे की मंशा 

सब कुछ पर सिर्फ अपना कब्ज़ा करना चाहती है


चार लोग एक जगह बैठते हैं 

आपस में विचार करते हैं 

मसौदा तैयार होता है 

फिर सब मिल कर 

हस्ताक्षर करते हैं उस पर 

और इस तरह एक आदेश निकल जाता है


फिर उसको पूरा करने में सारी ताकत लग जाती है 

लोग मारे जाते हैं 

जंगल काटे जाते हैं 

नदियाँ सूखती जाती हैं 

जीव मारे जाते हैं


लेकिन यह सब अपराध की श्रेणी में नहीं आता 

विकास की श्रेणी में आता है


एक ऐसा विकास जो जंगल की कब्र पर टिका है 

और जिसकी नमी में असंख्य जीवों के रक्त पानी की तरह घुल गए हैं


जंगल उतनी ही आसानी से मिट रहे हैं इस पृथ्वी पर 

जितनी आसानी से पानी पर लिखा कोई नाम

श्यामपट्ट पर खड़िये से लिखा एक शब्द 

जैसे जंगल 

काग़ज के एक पन्ने से 

बड़े से बड़ा जंगल लिखा हुआ मिट जाता है!



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)



सम्पर्क 


मोबाइल : 8986933049

टिप्पणियाँ

  1. प्रिय शंकरानंद जी पृथ्वी दिवस पर तेजी से नष्ट होती वन संपदा पर आपकी कविताएँ पढ़ीं।उम्दा और सार्थक।एक कवि से ऐसी ही अपेक्षा की जाती है।वह अपने समय के अभाव और दुःखों को कविता में मुखरित करे # सवाई सिंह शेखावत

    जवाब देंहटाएं
  2. शंकरानंद की इन कविताओं ने भी मन को गहरे स्पर्श किया। सघन मानवीय, संवेदनशील कवि दृष्टि । इस प्रिय कवि की कविताएँ ढूंढ कर पढ़ता हूँ ।

    जवाब देंहटाएं
  3. देवेन्द्र कुमार चौधरी22 अप्रैल 2025 को 7:11 pm बजे

    बेहद संवेदनशील कविताएं, वाजिब चिंता पृथ्वी को बचाने की। हार्दिक शुभकामनाएं!

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  4. ये हवा पानी की तरह ज़रुरी कविताएं हैं ।

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  5. पेड़ों के प्रति आपकी चिंता वाजिब है । प्रकृति सुरक्षित है तो मानव जाति भी सुरक्षित है। सभी कविताएं एक से एक हैं बधाई स्वीकारें।
    आरसी चौहान

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  6. बेहतरीन कविताएँ ।

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  7. बेहद सुन्दर सम्वेदनशील रचनाएं...

    जवाब देंहटाएं

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