शंकरानंद की कविताएं
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शंकरानन्द |
शंकरानंद की कविताएं
जंगल : पांच कविताएं
एक
ये जो पेड़ हैं खड़े एक साथ असंख्य
एक दिन में नहीं बन गए इतने सघन
एक दिन में नहीं जम गई
इनकी जड़ें पृथ्वी की आत्मा तक गहरी
ये जो पेड़ हैं एकांत के संगीत के बीच चुपचाप
तने हुए हैं आसमान को अपने माथे पर टिकाये
इतने गहरे हरे जितना कोई रंग शायद ही होगा
ये पृथ्वी जो इतनी सुन्दर है
मशीनों और सीमेंट की मीनारों के कारण नहीं
उन पेड़ों के कारण सुन्दर है
जिनके बारे में हमे पता भी नहीं होता
वे पेड़ चुपचाप रंग भरते हैं
उनकी भी जिंदगी में
जिनकी दुनिया में बारहों महीने दरारें पड़ी रहती है!
दो
एक एक पेड़ को मिला कर
तैयार होता है एक जंगल
इस तरह एक घर तैयार होता है उनके लिए
जो सिमटते जा रहे हैं इस पृथ्वी पर
जो विलुप्त होते जा रहे हैं धीरे धीरे
न जाने कितने जीव
न जाने कितने पशु
न जाने कितने पक्षी
कीड़े मकौरे चींटियाँ
सब रहते हैं उसी जंगल में
जो आसमान से देखने पर हरी चादर जैसा दिखता है
उस एक हरी चादर को देखने पर
कोई अंदाजा नहीं लगा सकता कि
कितने जीव जी रह रहे हैं इस जंगल में
जंगल सिर्फ पेड़ों का खजाना नहीं है कि
उसे लूट लिया जाये
वह किसी के जीने का सहारा भी है
घर है उनके लिए
जिनके लिए इस पृथ्वी पर
जगह घटती जा रही है दिन ब दिन।
तीन
ये जो बुलडोजर की कतारें दिख रही हैं
इतनी शांत और चुप
ये उतनी ही हिंसक और क्रूर हैं
जितना वह दिमाग जो जंगल तक पहुँच गया है
अपनी लालसा और जिद के लिए
उसके लिए न पेड़ पेड़ है
न जंगल जंगल
ये एक ज़मीन भर है
जिस पर उसकी आंखें टिक गई हैं
उसे ये ज़मीन चाहिए
तो उसी लालसा की पूर्ति के लिए
ये बुलडोजर लाये गए हैं दर्जनों की संख्या में
ये मिनटों में उजाड़ देते हैं जंगल
बना देते हैं पाट कर उसे समतल जमीन
जिसने एक पौधा नहीं रोंपा जीवन में
वह पेड़ों को कटते देख रहा है
गिरते देख रहा धूल में
और खिल रहा है उसका चेहरा
इस तरह नष्ट हो रही है एक दुनिया
और दुनिया उसे नष्ट होते देख रही है।
चार
बुलडोजर चल रहे हैं
कट रहे हैं पेड़
भाग रहे हैं हिरण
सहमे हुए हैं मोर
चिंघार रहे हैं हाथी
सारे जीव भाग रहे हैं
उनका घर उजड़ रहा है
वे रो रहे तो उनका रोना नहीं दिख रहा
वे जिस जंगल में करते थे अठखेलियाँ
आज वहां सिर्फ शोक है
ये शोक घर उजड़ने का है
एक एक पेड़ न जाने कितनी जिंदगी कुचल रहा है
न जाने कितने जीव मर रहे हैं
मिल रहे है उस मिट्टी में
जिसमे अभी उन्हें और जीना था
और सजाना था इस घर को
और सजाना था इस पृथ्वी की साँस
लेकिन वे भाग रहे हैं बदहवास
वे सोच रहे हैं कि बच जाएंगे
वे भूल रहे हैं कि ये नया मनुष्य है
जो मृत्यु पर उत्सव मनाता है
उजारने पर देता है शाबाशी
ये लोहे की आत्मा के साथ पैदा हुआ है
जो कुछ भी कुचल देने को आतुर है
उसकी ममता पत्थर हो गई है!
पांच
ये पहाड़ किसी एक के नहीं हैं
ये नदी किसी एक की नहीं है
ये जंगल किसी एक के लिए नहीं है
फिर भी हर जगह उसी का कब्ज़ा है
हर जगह एक मौका है
हर अवसर एक साजिश
जिसके पीछे की मंशा
सब कुछ पर सिर्फ अपना कब्ज़ा करना चाहती है
चार लोग एक जगह बैठते हैं
आपस में विचार करते हैं
मसौदा तैयार होता है
फिर सब मिल कर
हस्ताक्षर करते हैं उस पर
और इस तरह एक आदेश निकल जाता है
फिर उसको पूरा करने में सारी ताकत लग जाती है
लोग मारे जाते हैं
जंगल काटे जाते हैं
नदियाँ सूखती जाती हैं
जीव मारे जाते हैं
लेकिन यह सब अपराध की श्रेणी में नहीं आता
विकास की श्रेणी में आता है
एक ऐसा विकास जो जंगल की कब्र पर टिका है
और जिसकी नमी में असंख्य जीवों के रक्त पानी की तरह घुल गए हैं
जंगल उतनी ही आसानी से मिट रहे हैं इस पृथ्वी पर
जितनी आसानी से पानी पर लिखा कोई नाम
श्यामपट्ट पर खड़िये से लिखा एक शब्द
जैसे जंगल
काग़ज के एक पन्ने से
बड़े से बड़ा जंगल लिखा हुआ मिट जाता है!
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
सम्पर्क
मोबाइल : 8986933049
प्रिय शंकरानंद जी पृथ्वी दिवस पर तेजी से नष्ट होती वन संपदा पर आपकी कविताएँ पढ़ीं।उम्दा और सार्थक।एक कवि से ऐसी ही अपेक्षा की जाती है।वह अपने समय के अभाव और दुःखों को कविता में मुखरित करे # सवाई सिंह शेखावत
जवाब देंहटाएंशंकरानंद की इन कविताओं ने भी मन को गहरे स्पर्श किया। सघन मानवीय, संवेदनशील कवि दृष्टि । इस प्रिय कवि की कविताएँ ढूंढ कर पढ़ता हूँ ।
जवाब देंहटाएंबेहद संवेदनशील कविताएं, वाजिब चिंता पृथ्वी को बचाने की। हार्दिक शुभकामनाएं!
जवाब देंहटाएंये हवा पानी की तरह ज़रुरी कविताएं हैं ।
जवाब देंहटाएंपेड़ों के प्रति आपकी चिंता वाजिब है । प्रकृति सुरक्षित है तो मानव जाति भी सुरक्षित है। सभी कविताएं एक से एक हैं बधाई स्वीकारें।
जवाब देंहटाएंआरसी चौहान
बेहतरीन कविताएँ ।
जवाब देंहटाएंबेहद सुन्दर सम्वेदनशील रचनाएं...
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